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मृगतृष्णा--भाग(५) - अंतिम भाग

शाकंभरी, राजलक्ष्मी के विचार सुनकर घोर चिंता में डूब गई, राजलक्ष्मी की इन गूढ़ बातों का शाकंभरी के पास कोई उत्तर ना था और ये सारी बातें महाराज अमर्त्यसेन भी सुन रहे थे।।
आते-जाते अपार की दृष्टि शाकंभरी पर पड़ ही जाती,वो उसकी सुंदरता पर मोहित नहीं था,उसकी सरलता और सौम्यता उसे भा गई थीं, उसका व्यवहार साधारण था कोई राजसी झलक नहीं थी उसके व्यवहार में,हर बात का सहजता से उत्तर देना, सदैव दृष्टि नीचे रखकर बात करना,मुख पर सदैव एक लज्जा का भाव रहना,बस ये सब बातें ही अपार को भा गई और ये सब गुण उसे राजलक्ष्मी में दिखाई नहीं देते थे।।
राजा अमर्त्यसेन ने भी अपार के भावों को भली-भांति अनुभव किया, उनकी दृष्टि से अपार का शाकंभरी के प्रति आकर्षण छिप नहीं पाया और उन्होंने अपार से पूछ ही लिया।।
अमर्त्य सेन ने अपारशक्ति को अपने निकट बुलाया और पूछा, अच्छा पुत्र ये बताइए कि आप अपने हृदय की बात अधिक मानते हैं या मस्तिष्क की?
अपार बोला,ये कैसा प्रश्न हुआ?
अमर्त्य सेन बोले,आप उत्तर दे,प्रश्न पर ना जाए।।
अपार बोला, हृदय की !! क्योंकि हृदय सदैव सत्य ही बोलता है,हम कभी कभी मस्तिष्क से निर्णय लेते हैं परन्तु ऐसा आवश्यक नहीं है कि मस्तिष्क से लिए हुए निर्णय सदैव हमें सही मार्ग पर ले जाए परंतु हृदय से लिए हुए निर्णय सदैव उचित ही निकलते हैं।
बस मैं यही सुनना चाहता था, अमर्त्यसेन बोले।।
परन्तु आपके इस प्रकार प्रश्न करने का आशय क्या है, अपारशक्ति ने पूछा।।
कुछ नहीं पुत्र,आपके हृदय में क्या है?वो ही समझने का प्रयत्न कर रहा था, अमर्त्यसेन बोले।।
तो आपने क्या अनुभव किया? अपारशक्ति ने अमर्त्यसेन से पूछा।।
यही कि आपको प्रेम हो गया है, राजलक्ष्मी से नहीं किसी और से, अमर्त्यसेन बोले।
तब आप क्रोधित तो नहीं है, महाराज!! अपारशक्ति ने पूछा।।
नहीं पुत्र, इसमें क्रोध कैसा?ये तो आपकी रूचि है और मैं आपका विवाह राजलक्ष्मी से कर भी दूं !!तो क्या आप जीवनपर्यंत प्रसन्न रह पाएंगे,रही राजलक्ष्मी तो वो भी आपसे प्रेम नहीं करती,कल मैंने शाकंभरी और राजलक्ष्मी के मध्य हो रहे वार्तालाप को सुनकर ही ये बात कही है,मैं आपको और राजलक्ष्मी को इस बंधन से मुक्त करता हूं,अब आप अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं।।
अमर्त्यसेन की बात सुनकर अपार अत्यधिक प्रसन्न होकर बोला,क्या ये सत्य है महाराज।।
अमर्त्य सेन बोले!! हां पुत्र!!
ऐसे ही वार्तालाप हो रही थी, अमर्त्य और अपार के मध्य।।
शाकंभरी झरने के पास बैठी थी, उसे वहां बैठना अच्छा लग रहा था तभी यकायक उसकी दृष्टि वृक्ष पर बैठे हुए तेंदुए पर पड़ी और उसने चीखकर वहां से भागने का प्रयास किया, शाकंभरी की चीख सुनकर अपार झरने के ओर भागा, उसने सारा दृश्य देखा,तेंदुआ वृक्ष से बस शाकंभरी पर छलांग लगाने ही वाला था कि अपार ने शाकंभरी को वेगपूर्वक धकेला, शाकंभरी दूर जा गिरी और तेंदुआ अपार पर आकर गिरा,अपार और तेंदुए के मध्य संघर्ष प्रारंभ हो गया, तभी अपार ने तेंदुए को दूर उछाला,उसी समय अमर्त्य सेन ने आकर तलवार अपार की ओर उछाली जैसे ही तेंदुआ अपार पर पुनः आक्रमण करने के लिए उछला,अपार ने तलवार तेंदुए पर घोंप दी,तब तक राजलक्ष्मी ने भी पहुंच कर शाकंभरी को उठाया और इधर अमर्त्य सेन ने अपार को सहारा देकर उठाया,अपार के शरीर पर अत्यधिक घाव थे।।
अमर्त्य सेन बोले,मैं अभी आपके उपचार का प्रबंध करता हूं तब तक आप विश्राम करें,जब अपार के उपचार का सारा प्रबंध हो गया तो अमर्त्य सेन ने शाकंभरी के निकट जाकर पूछा।।
पुत्री तुम ठीक हो ना!!
शाकंभरी बोली, हां मैं ठीक हूं!!
तब अमर्त्य सेन बोले,देखा पुत्री कितना बहादुर हैं, अपारशक्ति!! हृदय का भी बहुत ही अच्छा है सदैव दूसरों की सेवा में लगा रहता है, इसके राज्य सिंघल में कोई भी दुखी नहीं है,प्रजा तो इसके गुणगान करते नहीं थकती,सिंघल राज्य में किसी भी वस्तु की कोई भी कमी है,सब कुछ है!! परंतु इसके निकट कोई भी इसे अपना कहने वाला नहीं है!!अनाथ है ना बेचारा,तभी इसके पिता इसका विवाह राजलक्ष्मी से कराना चाहते थे कि इसे एक कुटुंब मिल जाए, कोई भी नहीं है इसका बस एक ममेरा भाई है वो भी दूर का,ये जब से जयंतीपुर मे रह रहा है तब से सिंघल राज्य को वहीं देख रहा है,उस पर भी ये आंख मूंदकर विश्वास करता है, मैं तो कभी भी मिला नहीं उससे, और पुत्री ये तुम्हारे पिता का हत्यारा नहीं है,सच में इसके सेनापति ने तुम्हारे पिता की हत्या की थी,वो तुम में रूचि रखता है पुत्री, कृपया उसकी दृष्टि से जो प्रेम तुम्हारे लिए छलक रहा है, उसे अपनी अंजलि में भर लो, जीवनपर्यंत प्रसन्न रहोगी, मुझे आशा है कि तुम मेरी बात समझ रही होगी, मैंने कल तुम्हारे और राजलक्ष्मी के मध्य हो रहे वार्तालाप को सुन लिया था, इतना कहकर अमर्त्य सेन चले गए।
और शाकंभरी असमंजस में पड़ी ऐसे ही अमर्त्य सेन को जाते हुए देखती रही, शाकंभरी के मन की ब्याकुलता कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी,क्या अपार सच में बहुत अच्छा व्यक्ति हैं क्या महाराज सच कहकर गये,ये कैसी दुविधा है?जीवन में कभी कभी ऐसा समय क्यो आता है कि व्यक्ति कोई भी निर्णय लेने में असफल रहता है।।
अब शाकंभरी अपारशक्ति की देखभाल स्वयं करने लगी थी, उसके भोजन और औषधियों का प्रबन्ध भी स्वयं करती___
अपारशक्ति ने कहा भी राजकुमारी आप रहने दे और भी तो सेवक-सेविकाए है उनसे कह दीजिए,आप कष्ट मत उठाइए।
शाकंभरी बोली,कष्ट कैसा? आपने तो मेरे लिए अपने प्राणों को संकट में डाला, कृपया मुझे मेरा कार्य करने दे आप हस्तक्षेप ना ही करें तो अच्छा होगा।।
अपारशक्ति थोड़ा मुस्कुराया और बोला,इसे आदेश समझूं या विनती।।
जो भी आपका हृदय चाहें, शाकंभरी बोली।।
हृदय तो कुछ और ही चाहता है,अपार ने हल्के स्वर में कहा परंतु शाकंभरी ने सुन कर अनदेखा कर दिया।।
शाकंभरी के मन पर अमर्त्य सेन की बातों का बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा, इतना भी बुरा व्यक्ति नहीं है, अपारशक्ति !! परंतु प्रेम करने की दृष्टि से योग्य होगा कि नहीं,स्त्रियों को तो बहुत मान-सम्मान देता है,वो चाहे दासी ही क्यो ना हो,ये क्या हो रहा है? मेरे मस्तिष्क में कैसे कैसे विचार आ रहे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है अपार का मेरे जीवन में प्रवेश, कैसे सुलझाऊ इस उलझन को ।।
शाकंभरी,अपार के निकट रहती तो अपार भी प्रसन्न रहता कि चलो कुछ दया तो है मेरे प्रति शाकंभरी के मन मे,वो मुझे प्रेम करें या ना करें क्या अंतर पड़ता है, मैं उसे विवश नहीं कर सकता स्वयं से प्रेम करने के लिए।।
वो कितनी सरल और सौम्य है,वाणी में इतनी मधुरता, कार्य में निपुणता, पवित्र हृदय,लज्जा से भरी दृष्टि,ये तो देवी है और मैं इसकी वंदना करता हूं,मेरा प्रेम तो निश्छल है शाकंभरी स्वीकारेगी तो भी ठीक है कदाचित नहीं भी स्वीकाराने के उपरांत मन-मंदिर में बैठाकर पूजा करूंगा क्योंकि मेरा प्रेम तो वासना रहित है, ऐसा संभव भी नहीं है कि शाकंभरी मेरा प्रेम स्वीकारेगी।।
वन में कुछ रोज बिताकर सब जयंतीपुर के राज्यमहल लौट आए।।
एक रोज अपार ने सूचना दी उसका ममेरा भाई सिंघल राज्य से आ रहा है उससे मिलने, संभवतः कल तक पहुंच जाएगा और दूसरे रोज वो आ पहुंचा,अपार बहुत ही , प्रसन्न हुआ और सबसे परिचय कराने हेतु सबको एक साथ बुलाया।
परंतु उसे देखकर शाकंभरी ठिठक गई, मस्तिष्क पर चिंताएं की रेखाएं खिंच गई, मेरे अतीत ने मेरे वर्तमान में पुनः प्रवेश पा लिया, ये सब मेरी समझ से परे है।।
परंतु, राजलक्ष्मी उस समय बहुत प्रसन्न दिखाई दी, उसने मन में सोचा ये तो वहीं है जिसे अरण्य वन में देखकर मेरा हृदय ललायित हो गया था,यही तो है वो मेरे स्वप्नो का राजकुमार।।
तभी अपार बोला,ये है मेरा अनुज विभूति नाथ, पहले ये अपने राज्य के गुरु से शिक्षा ले रहा था, वहां से ज्ञान ,प्राप्त करने के पश्चात इसने अरण्य वन में भी कुछ दिन रहकर शिक्षा ली है,अपार ने शाकंभरी को देखकर कहा कि राजकुमारी आप किस सोच में डूब गई तभी यकायक शाकंभरी की तंद्रा टूटी और बोली आपका स्वागत है!!
राजलक्ष्मी भी प्रसन्न होकर बोली,आपका स्वागत है!! आपसे मिलकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई।।
अब तो अपार की भी प्रसन्नता का ठिकाना ना था, शाकंभरी से मिलकर, उसकी इच्छा जो पूर्ण हो गई थी, उसने कभी नहीं सोचा था कि शाकंभरी उसे अचानक इस तरह से मिल जाएगी।।
अब वो सदैव शाकंभरी पर दृष्टि रखता कि वो कब,क्या कर रही है परंतु शाकंभरी उसकी हर बात को अनदेखा कर देती,उस पर तनिक भी ध्यान ना देती उसका स्वाभाव ही उसे धूर्त्तपूर्ण लगता,जब वो अपार की ओर देखकर बात करता था तो उसकी दृष्टि में कपट ही दिखाई देता प्रतीत होता, शाकंभरी को लग रहा था कि जो प्रेम वो अपार को दिखा रहा था वो सब झूठा था, कोई भी सत्यता नहीं है उसके मस्तिष्क में कुछ और ही योजनाएं बन रही है।।
विभूति के कई बार प्रयास करने के बाद भी शाकंभरी ना तो उसके समीप जाती और ना ही उससे बात करती,ये सब देखकर विभूति ने सोचा कुछ और ही उपाय करना होगा, शाकंभरी के निकट जाने का, शाकंभरी मेरी होगी,मैं उससे प्रेम करता हूं।।
अब विभूति ने देखा कि राजलक्ष्मी उसकी ओर तो पहले से ही आकर्षित है, अधिक समय नहीं लगेगा इसे अपने प्रेमजाल में बांधने के लिए,अगर मैं राजलक्ष्मी से प्रेम का अभिनय करूं तो हो सकता है शाकंभरी इर्ष्यावश मेरे प्रेम में पड़कर मेरा प्रेम स्वीकार कर लें।।
और वहीं हुआ जैसा विभूति चाहता था, उसने एक दिन अपार से जाकर कहा कि वो राजलक्ष्मी से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है,ये सुनकर शाकंभरी को अच्छा नहीं लगा और वो ये सब समझ रही थी कि विभूति ऐसा इसलिए कर रहा है कि मैं उसका प्रेम स्वीकार कर लूं वो, और भी दुविधा में पड़ गई,अपार या विभूति,!!
परंतु उसने सोचा, विभूति ने तो उसकी अनुमति के बिना उसे स्पर्श किया था,अपार ने तो उसके हृदय को स्पर्श किया है, उसकी आंखों में जो मेरे प्रति निश्छलता है उसके प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण है।। ये तो मृगतृष्णा हुई कि सच्चे प्रेम के रूप में अपार मेरी दृष्टि के सामने है और मैं उस प्रेम को विभूति में ढूंढ रही थी,कितने अयोग्य विचार थे मेरे, मैं कितनी भ्रमित थी परंतु अब मेरे मन में कोई भी शंका नहीं है अब मुझे ज्ञात है कि मेरा हृदय क्या चाहता है?
और विभूति की बात सुनकर अपार बहुत प्रसन्न हुआ कि राजलक्ष्मी और विभूति दोनों ही एक-दूसरे से प्रेम करते हैं,ये बात महाराज अमर्त्यसेन तक भी पहुंच गई।।
अपार ने अमर्त्य सेन से निवेदन किया कि इस विवाह के लिए स्वीकृति देने की कृपा करें।
अमर्त्य सेन,अपार का निवेदन कैसे टाल सकते थे और उन्होंने स्वीकृति दे दी।।
बहुत ही धूमधाम से यह सम्बंध तय हो गया, विवाह की तिथि भी एक माह के बाद की तय हुई।।
एक रोज एक व्यक्ति जयंतीपुर के महल आया विभूति से मिलने उस समय राजलक्ष्मी वहां पर उपस्थित थीं, तभी विभूति ने कहा राजलक्ष्मी आप जाए कुछ आवश्यक कार्य है सिंघल राज्य के विषय में!ये महाशय वहीं से पधारे हैं, इनसे मिलकर मैं भी भीतर आता हूं तब तक आप मेरी महल के भीतर ही प्रतीक्षा करें।।
राजलक्ष्मी थोड़ी शंकित हुई,उसे लगा राज्य का ऐसा कौन सा कार्य है जो अपार को बिना ज्ञात हुए हो रहा है, उसने उस समय तो वहां से जाने का अभिनय किया परंतु छुपकर विभूति और उस व्यक्ति के मध्य क्या बातें हो रही है सुनने लगी।
और उसने जो सुना वो सुनकर उसका चित्त भय और ब्याकुलता से अशांत हो गया,उधर विभूति को भी ज्ञात हो चुका था कि राजलक्ष्मी ने सब सुन लिया है, इतना सुनते ही राजलक्ष्मी शीघ्र ही अपने कक्ष में गई और उसने बहुत ही शीघ्रता से एक पत्र लिख डाला,तब तक उसे किसी के आने की आहट सुनाई दी और उसने वो पत्र शय्या में छुपा दिया और अपने आप को स्थिर अवस्था में कर मुस्कुराने का अभिनय करने लगी, देखा तो विभूति ने उसके कक्ष में प्रवेश किया था।
विभूति ने पूछा,क्या कर रही हो प्रिये!!
श्रृंगार कर रही थी, तुम्हारे लिए और क्या करूंगी? राजलक्ष्मी बोली!!
बहुत सुन्दर दिख रही हो श्रृंगार करके, विभूति बोला।।
धन्यवाद!! परंतु अब मैं शाकंभरी के समक्ष जा रही हूं, राजलक्ष्मी बोली।।
परंतु क्यो, मुझे तुमसे मधुर-मधुर बातें करनी हैं और तुम मुझे इस ब्याकुल अवस्था में छोड़कर जाने की बात कर रही हो, संन्ध्या समय है चलो ना !!सरोवर तट पर विचरण करने चलते हैं, विभूति ने कहा।।
परंतु मेरा मन नहीं चाहता राजलक्ष्मी बोली।।
परंतु मेरा मन तो चाहता है ,विभूति बोला।।
अच्छा ठहरों,मैं दासी से कह दूं कि मैं तुम्हारे साथ जा रही हूं ताकि शाकंभरी मुझे ढूंढे ना, राजलक्ष्मी बोली।।
राजलक्ष्मी कक्ष से बाहर आई ,दासी को बुलाया, जैसे ही राजलक्ष्मी ने दासी से दबे स्वर में कहा कि शाकंभरी से कहना शय्या के नीचे बाद में जोर से बोली मैं और विभूति सरोवर तक जा रहे हैं शाकंभरी से कहना प्रतीक्षा ना करें।।
दासी को थोड़ा अटपटा सा लगा कि पहले राजकुमारी ने दबे स्वर में शय्या के नीचे क्यो कहा। उसके पश्चात् वो हां में अपना सर हिलाकर चली गई।।
राजलक्ष्मी को ये आभास हो चुका था कि विभूति अब उसे हानि पहुंचा सकता है।।
उधर दासी ने भी संदेश दे दिया शाकंभरी को ।।
इधर सरोवर पर बातों ही बातों में विभूति ने राजलक्ष्मी को अचेत करने वाली बूटी सुंघा कर सरोवर में फेंक दिया कुछ समय पश्चात् जब विभूति को लगा कि राजलक्ष्मी के प्राण निकल चुके हैं तो उसने महल जाकर सूचना दी कि राजलक्ष्मी मेरे साथ सरोवर गई थी वो सरोवर में स्नान कर रही थी उसका पैर फिसला और वो गिर गई, मैंने उसे पकड़ने का बहुत प्रयास किया परन्तु पकड़ नहीं पाया, मुझे तैरना भी नहीं आता जितनी गहराई तक में खड़े रहकर उसे खोज सकता था,खोजता रहा परंतु वो मुझे नहीं मिली और जोर जोर से रोने लगा, इतना सुनकर स्वयं अपार सैनिकों के साथ खोजने गया,वो सरोवर में कूद पड़ा,कुछ समय पश्चात् उसे राजलक्ष्मी का मृत शरीर मिला, अमर्त्य सेन उस समय वहीं थे, शाकंभरी ये देखकर फूट-फूटकर रो पड़ी, उसे असहनीय पीड़ा हुई,
राजलक्ष्मी का अंतिम संस्कार होने के बाद अमर्त्य सेन जाने लगे तब शाकंभरी ने उन्हें कहा कि राजलक्ष्मी की तरह मैं भी आपकी पुत्री हूं आपका जब भी मन करे आप आ सकते हैं नहीं तो यही रह जाइए।।
अमर्त्य सेन बोले,अभी तो जाना होगा परंतु शीघ्र ही लौटूंगा और वे चले गए।।
इधर शाकंभरी शंकित थी राजलक्ष्मी की मृत्यु पर, उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ हो सकता है।।
तभी दासी आई और शाकंभरी को उदास देखकर बोली,उस दिन राजकुमारी जी कुछ कहना चाहती थी और उन्होंने दबे स्वर में कहा था कि आपसे कहना कि शय्या के नीचे।।
इतना सुनकर शीघ्र ही शाकंभरी उठी और राजलक्ष्मी के कक्ष की ओर भागी, उसने शय्या को टटोलना प्रारम्भ किया, उसे एक पत्र मिला, पत्र पढ़कर उसकी शंका विश्वास में बदल गई।।
इतना बड़ा षणयंत्र रचा विभूति ने, राजलक्ष्मी बताना चाह रही थी परंतु उससे पहले ही उसकी हत्या कर दी गई।।
अब मैं विभूति की सच्चाई सबके सामने लाऊंगी, शाकंभरी ने प्रण लिया।।
योजना बनाकर शाकंभरी धीरे धीरे विभूति के निकट आने का प्रयास करने लगी,मंद मंद मुस्कुरा कर उसका मन मोहने लगी,अब विभूति को लगने लगा कि शाकंभरी मुझसे प्रेम करने लगी है,ये सब देखकर अपार के हृदय को बहुत आघात पहुंचा, परंतु उसने उस पर कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया उसे लगा ये तो अपनी अपनी रूचि की बात है ऐसा आवश्यक तो नहीं कि मैं जिससे प्रेम करूं वो भी मुझसे ही प्रेम करें।।
परंतु कष्ट तो था ही हृदय में,तब भी उसने सोचा चलो दोनों का विवाह कराकर अपने कर्त्तव्य से मुक्त हो जाऊंगा।।
इस पर अपार शाकंभरी से उसके मन की बात जाननी चाही की तुम्हे विभूति पसंद है तो तुम्हारा विवाह कराकर मैं अपने वचन और कर्त्तव्य से मुक्त होना चाहता हूं।।
अब शाकंभरी क्या उत्तर दें उसे तो अभी विभूति के षणयंत्र को ज्ञात करना था वो अभी सच बता देती है तो विभूति की मंशा उसे कभी भी ज्ञात नहीं होगी।।
अब उसने बात को पलटने का प्रयास किया,वो बोली आपको मेरे निजी जीवन में बहुत रुचि है,आपकी इच्छा क्या है?मैं सब समझती हूं मेरा विभूति के निकट जाना आपको सहन नहीं हो रहा है आपको लगता है कि मेरा विवाह विभूति से हो गया तो जयंतीपुर आपके हाथों से निकल जाएगा,कितने तुच्छ विचार हैं आपके, मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी और इतना कहकर शाकंभरी चली गई।
ये सब बातें छुपकर सुन रहे विभूति को सुनाने के लिए शाकंभरी ने कहीं थी ताकि विभूति का विश्वास जीत सकें।।
परंतु शाकंभरी की बातों से अपार को असहनीय कष्ट हुआ, अकेले में उसकी आंखों से आंसुओं की धार बह निकली उसने शाकंभरी से ऐसी बातों की आशा नहीं की थी।।
उधर शाकंभरी भी अपने कक्ष में जाकर बहुत रोई और भगवान से क्षमा मांगते हुए कहा___
हे भगवान!! मुझे क्षमा करना, मैंने अपार के हृदय को तीक्ष्ण वेदना दी है उस पर कैसे कैसे आरोप लगाए।।
अब विभूति को पूर्णतः विश्वास हो गया था कि शाकंभरी उसे प्रेम करने लगी है तभी ऐसी बातें उसने अपार से कहीं।।
अब शाकंभरी ने विभूति के प्रति अपना प्रेम भरा अभिनय प्रारम्भ कर दिया,वो प्रेम भरी दृष्टि से विभूति की ओर देखती, उससे मधुर मधुर बातें करती,अब पूर्णतः विभूति शाकंभरी के प्रेमजाल में बंध गया था।
एक रोज शाकंभरी ने विभूति का हृदय टटोला, उसने कहा कि मैं अपार को कभी भी क्षमा नहीं कर सकती उसने मेरे पिताश्री की हत्या की है,ये देखकर मेरा मन क्रोधित हो जाता है, बहुत ही घृणा है मुझे उससे,मेरा मन करता है कि मैं इसकी हत्या कर दूं।।
शाकंभरी की बात सुनकर विभूति ने कहा,पता है शाकंभरी मैं भी यही चाहता हूं,अपार के उपरांत सिंघल राज्य मेरा हो जाएगा,अपार के सेनापति को अपार ने निलंबित कर दिया था तो उसनेे क्रोधित होकर मुझसे मित्रता का हाथ बढ़ाया, मैंने भी स्वीकार कर लिया, उसमें मेरा ही लाभ था, मुझे राजलक्ष्मी से प्रेम नहीं था उसने मेरी और आए हुए गुप्तचर की बातें सुन ली थी तभी मुझे उसे सरोवर में डुबोना पड़ा।।
इतना सुनते ही शाकंभरी ने छुपाई हुई कटार निकाली और विभूति के हृदय में घोंप दी, विभूति चीखा........
शाकंभरी कटार विभूति के हृदय में तब तक घोपती रही जब तक उसके प्राण ना चले गए।।
तब तक अपार भी आ पहुंचा विभूति की चीख सुनकर।।
अपार ने विभूति को इस अवस्था में देखकर शाकंभरी से पूछा....
ये किसने किया?
शाकंभरी बोली, मैंने किया!!
परंतु क्यो?
ये रहा प्रमाण और शाकंभरी ने राजलक्ष्मी का लिखा हुआ पत्र अपार को दे दिया,अपार ने पत्र पढ़कर कहा इसलिए विभूति ने राजलक्ष्मी की हत्या कर दी, इतना बड़ा षणयंत्र।।
शाकंभरी बोली, हां ,मैं इतने दिनों से यही ज्ञात करने का प्रयास कर रही थी, इसलिए विभूति से मुझे प्रेम का अभिनय करना पड़ा, आपसे मिलने से पहले मैं विभूति को जानती थी, मैं जिसके पीछे भाग रही थी वो ब्यर्थ था, मेरे मन का भ्रम था, मृगतृष्णा थी, जिस प्रकार मृग कस्तूरी की सुगंध मात्र से उसे खोजते खोजते थक जाता है परन्तु उसे वह नहीं मिलती, क्योंकि वो तो स्वयं ही उसके निकट रहती है इसी प्रकार आप मेरे निकट थे और मैं आपको पाकर भी नहीं पा सकी,मुझे अब ज्ञात हो चुका है कि आप ही वो मेरी कस्तूरी है जिसे मैं खोज रही थी।।
ये सब मैंने आपके लिए किया,आपको तीक्ष्ण और कटु शब्द बोले, मुझे क्षमा करें, मैं आपसे प्रेम करने लगी हूं।।
इतना सुनकर अपार ने शाकंभरी को अपने हृदय से लगा लिया।।

समाप्त_____
सरोज वर्मा___