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मृगतृष्णा--भाग(२)

विभूति नाथ स्वयं ही अपने हृदय की ब्याकुलता को नहीं समझ पा रहा था,सब कुछ होते हुए भी उसके पास कुछ भी नहीं था, उसे अपना जीवन ब्यर्थ सा प्रतीत हो रहा था, उसके मस्तिष्क में विचारों का आवागमन बहुत ही तीव्र गति से हो रहा था,उसकी इन्द्रियां स्वयं उसके प्रश्नों का उत्तर चाहती थीं, परंतु उसका उत्तर पाने वो ,किसके समक्ष जाए,उसका मस्तिष्क और हृदय उस समय दिशाविहीन था।
प्रात:काल का समय था,सूर्य की हल्की हल्की लालिमा धीरे धीरे चहुं ओर पसरने लगी थी, पंक्षियो ने भी अपने कोटर छोड़ दिए थे,मयूर नृत्य कर रहे थे,जगह जगह से वन्य जीव-जन्तुओ की ध्वनियां सुनाई दे रही थी,एकाएक सामने से शाकंभरी अपना कलश लेकर झरने की ओर निकली, उसके सुंदर केश खुले हुए थे, अपने कंधे पर उसने कुछ वस्त्र रखें हुए थे कदाचित वो स्नान करने जा रही थी।।
विभूति नाथ विचारमग्न सा आश्रम के आगे चिंतित अवस्था में विचरण कर रहा था, उसने शाकंभरी को देखा और अपनी सुध-बुध खोकर, उसे देखता ही रह गया, उसके खुले केश,पतली कमर,सुडोल बांहे,उसका गोरा रंग और चंचल-चितवन ने उसके हृदय में उठ रही लपटों को हवा दे दी,वो शाकंभरी से प्रेम तो करता था परन्तु कभी कह नहीं पाया और उसका हृदय अब ये सब शाकंभरी के समीप जाकर कहना चाहता था कि__
"प्रिऐ, मेरे प्रेम को स्वीकार करों, मेरे हृदय की अग्नि को तुम्हारे प्रेम की शीतलता ही शांत कर सकती हैं,मैं इतने दिनों से मन की शांति खोज रहा था परंतु तुम मेरे इतने समक्ष थी और मेरी दृष्टि के आगे थी किन्तु मैं देख नहीं पाया, मैं इतने दिनों से ये सब प्राप्त करने में लगा था लेकिन इसका अभिप्राय अभी समझ में आया कि ये तो मृगतृष्णा है जैसे कि मृग अपनी नाभि में रखी हुई कस्तूरी को इधर-उधर ढूंढता रहता है परन्तु उसे ये ज्ञात नहीं होता कि जिस सुंगध को वो ढूंढ रहा है वो तो उसके बहुत ही समीप है,उसी प्रकार मैं तुम्हारी उपस्थिति को अपने समीप होकर भी नहीं ज्ञात कर पाया"
विभूति ये विचार करता रहा और शाकंभरी आगे निकल गई, विभूति के मस्तिष्क ने अब कार्य करना बंद कर दिया था उसकी आंखों में तो बस शाकंभरी की ही छवि बसी थी,वो उसे प्राप्त कर लेना चाहता था और वो चल पड़ा शाकंभरी के पीछे-पीछे।।
शाकंभरी झरने के समीप पहुंची, उसने अपने कंधे से वस्त्र हटाए और टीले पर रख दिए, झरने के आस-पास का दृश्य बहुत ही मनमोहक था,झर-झर की ध्वनि करता हुआ झरने का जल, सूर्य के प्रकाश से और भी श्वेत प्रतीत होता था, सुंदर और रंग-बिरंगी तितलियां मंडरा रही थी, लताओं और बेलों पर सुंदर पुष्प शोभायमान थे, शाकंभरी झरने में स्नान करने लगी,उसका गीली काया,जल पड़ने से कौशेय दिख रही थी, उसके अंग-अंग से मधु टपक रहा था और ये सब विभूति झाड़ियों के पीछे से छुपकर देख रहा था, उसके विचलित हृदय में प्रेम की तरंगें उठने लगी, धमनियों में रक्त का प्रवाह तीव्र हो गया और अब उसकी श्वास ऊष्मा से परिपूर्ण हो गई थी और अब उसके लिए रूकना असहनीय हो रहा था।
शाकंभरी का स्नान पूर्ण हो गया तो उसने कलश में स्वच्छ जल भरा और झरनें से बाहर आ गई, भरे हुए कलश को भूमि पर रखकर जैसे ही उसने अपने सूखे वस्त्र उठाए,उसी समय विभूति ने शाकंभरी की कलाई पकड़ी और कमर में अपना हाथ डालकर अपने समीप खींचकर, शाकंभरी के होंठों का चुम्बन ले लिया, शाकंभरी ने अपने आप को छुड़ाया और जोर का थप्पड़ विभूति के गाल पर दिया ,अपना कलश और सूखे वस्त्र उठाए और रोते हुए आश्रम आ गई।।
उधर विभूति भी एक क्षण को पाषाण हो गया कि अचानक ये क्या हो गया,वो भावों में कैसे बह गया,इतने आवेश में कैसे आ गया,क्या हो गया था उसे उस क्षण शाकंभरी को देखकर,ये प्रेम है तो प्रकट करने की ये विधि अच्छी नहीं है, कोई भी क्रोधित हो जाएगा, उसे अब अनुभव हो रहा था कि कुछ तो चूक हो गई है उससे भावावेश में,अब उसे बहुत ही पछतावा हो रहा था।
अब शाकंभरी ने आश्रम से बाहर ही निकलना बंद कर दिया,उस दिन की घटना को तो वो किसी से ना कह पाई परन्तु अब उसे किसी पर भी विश्वास नहीं रह गया था, उसे लगने लगा था कि पुरुष होते ही ऐसे हैं, उनके हृदय में प्रेम नहीं,काम और वासना ही वास करते हैं,उनकी प्रवृत्ति ही ऐसी होती हैं।
विभूति भी शाकंभरी से उस दिन वाले व्यवहार के लिए क्षमा चाहता था लेकिन उसे शाकंभरी कहीं दिखाई ना देती थीं कदापि कभी दिख भी जाती तो विभूति को देखकर मुख मोड़ दूसरी दिशा में चली जाती, शाकंभरी के ऐसे व्यवहार से विभूति की आत्मा को अत्यधिक कष्ट होता।
एक दिन संध्या समय, शाकंभरी गायों के पास चारा डाल रही थी, विभूति ने जाकर उसके चरणों पर अपना शीश नवा दिया और बोला, शाकंभरी क्षमा कर दो, मुझ निर्बुद्धि ने बहुत बड़ा अपराध किया,चाहे तो जो भी दंड दो परंतु क्षमा करो,उस दिन के बाद से मैं हर क्षण मर-मर कर जीता आया हूं,तुम जो कहोगी मैं वैसा ही प्रायश्चित करने के लिए तत्पर हूं।।
शाकंभरी बोली,क्या कर रहे हो, कोई देख लेगा!!
पहले कहो कि क्षमा किया, विभूति ने पूछा!!
मुझे सब ज्ञात है,सारे पुरुष ऐसे ही होते हैं और मेरे समक्ष सदाचारी बनने का अभिनय ना ही करो तो अच्छा है!! शाकंभरी क्रोधित होकर बोली।।
तुम जो कहना चाहती हो कह सकती हो,मैं तुम्हारा अपराधी हूं, विभूति ने उत्तर दिया।।
तुम्हारा अपराध अक्षम्य है, मेरी दृष्टि में तुम एक चरित्रहीन पुरुष हो,जिसे एक स्त्री का सम्मान करना नहीं आता,जो पुरुष वासना में लिप्त हो, उसे मैं कैसे क्षमा प्रदान कर सकती हूं, तुम्हारे मस्तिष्क और हृदय में कामाग्नि प्रज्जवलित है, उसे मेरी क्षमा कैसे शांत कर सकती हैं, तुम तो यहां ज्ञान प्राप्त करने आए थे तो एक ज्ञानी महात्मा हो सकता है, महापुरुष हों सकता परन्तु तुम कामी और वासनालिप्त हो, कोई भी ज्ञान तुम्हारे मस्तिष्क के कपाट नहीं खोल सकता, इतने दिनों पश्चात् तुमने क्या यही ज्ञान ले पाया है, जाओ..जाओ...अपने मधुलिप्त वार्तालाप से किसी और को मूर्ख बनाओ, मुझे नहीं बना सकते, इतना कहकर शाकंभरी वहां से चली गई।।
विभूति अपने प्रयास में असफल रहा, उसने भी कठोर विचार बना लिया था कि वो शाकंभरी से क्षमा लेकर रहेगा।।
एक रोज बल्लभगढ़ के राजा अमर्त्यसेन का आगमन अरण्य वन में हुआ,वे अपनी पुत्री राजलक्ष्मी को कुछ विद्याएं सिखाना चाहते थे, उन्होंने गुरु मां से प्रार्थना की कि वे राजलक्ष्मी को कुछ कलाओं में निपुण बनाएं, राजलक्ष्मी का मनपसंद विषय पाक-कला था और वो इसके सारे नियमों को जानना चाहती थी, साथ-साथ वो और भी विद्याओं में निपुण होना चाहती थी, अमर्त्य सेन राजलक्ष्मी को अरण्य वन छोड़कर प्रस्थान कर गये।।
गुरु मां ने राजलक्ष्मी को अरण्य वन में रहने की अनुमति दे दी।।
गुरु मां ने शाकंभरी को पुकारा और बोली, पुत्री ये हमारे आश्रम की नई छात्रा है,ये अब से हमारे साथ ही रहेगी ये है राजकुमारी राजलक्ष्मी!!
शाकंभरी बोली,आओ सखी!! तुम्हारा स्वागत है
शाकंभरी और राजलक्ष्मी में गहरी मित्रता हो गई,एक दिन राजलक्ष्मी ने शाकंभरी से पूछा,सखी, तुम्हारा नाम अद्भुत है, मैंने पहले कभी ये नाम नहीं सुना, कृपया इसका अर्थ बताओगी।।
शाकंभरी पहले तो मुस्कुराई इसके पश्चात् बोली,सखी पता है शाकंभरी का अर्थ होता है,शाक और पत्तो पर जीने वाली।।
राजलक्ष्मी बोली, तभी तुम लताओं और पुष्पों जैसी सुंदर हो।।
इतना सुनकर दोनों सखियां हंस पड़ी।।
तभी विभूति किसी कार्यवश उस ओर आया, राजलक्ष्मी ने विभूति को देखा और देखते ही रह गई, घुंघराले केश, बड़े बड़े और गम्भीर नयन, चौड़ी छाती, हृष्ट-पुष्ट शरीर, और सांवला सा रंग, राजलक्ष्मी की दृष्टि विभूति पर टिक गई।।
विभूति के चले जाने पर राजलक्ष्मी ने शाकंभरी से पूछा,ये सुंदर पुरुष कौन है?
शाकंभरी बोली, होगा कोई छात्र, यहां तो कोई ना कोई ज्ञान प्राप्त करने आता ही रहता है, मुझे सबकी सूचना नहीं रहती।।
राजलक्ष्मी बोली,जो भी हो,पर है बड़ा सुन्दर।।
इसी बीच विभूति का आश्रम छोड़ने का समय हो गया, उसे अपने राज्य लौटना था,उस रात विभूति ने विचार किया कि अंतिम समय शाकंभरी से अवश्य मिलेगा,उसका उत्तर जो भी हो वो अब अपने हृदय की बात शाकंभरी को बताकर रहेगा,वो चाहे तो उसका प्रेम स्वीकारें,चाहे तो ना स्वीकारें।।
विभूति ने निश्चय कर लिया और पहुंचा शाकंभरी के समक्ष!!
शाकंभरी बोली,क्यो आए हो?
विभूति बोला,कल मैं यहां से प्रस्थान करूंगा।।
मैं क्या करूं, शाकंभरी बोली।।
मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि मैं तुमसे अत्यधिक प्रेम करता हूं और करता रहूंगा, तुम मेरा प्रेम स्वीकार करो या ना करो परंतु मेरे हृदय में जो तुम्हारा स्थान है उसे और कोई कभी नहीं ले पाएगा, मैं सदैव ही तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा!! इतना कहकर विभूति चला गया।
शाकंभरी उसी प्रकार मौन अवस्था में विभूति को जाते हुए देखती रही।

क्रमशः____
सरोज वर्मा___