Anjane lakshy ki yatra pe - 22 books and stories free download online pdf in Hindi

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग -22

पिछले भाग में आपने पढ़ा-

अपने मित्र गेरिक, अभियान सहायक और सेनापति के राजनीतिक षड्यंत्रो से व्यापारी क्षुब्ध है।

क्या उसकी शंकाओं का निवारण होता है? आगे कहानी क्या मोड़ लेती है?

पढ़िये अगला भाग

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे भाग-22

एक कथा और उसमें कई कथायें


जैसा कि आप सब जानते हैं; मैंने अपनी बाल्यावस्था में ही यह द्वीप छोड़ दिया था...

“आपने? क्यों?” मैंने उत्सुकता वश बात काटकर पूछा। मुझे पता नहीं था। मुझे तो लगता था। ये लोग यहीं पैदा होते और यहीं मर जाते हैं।

“बचपना...” वे बोले, “बचपना, उत्सुकता और नई खोजों की अभिलाषा... इन्ही के कारण मैं एक बार तैरते तैरते दूर बहुत दूर निकल गया। हम अपने आप को मत्स्यमानव कहते हैं क्योंकि जल से घिरे इस द्वीप पर रहने लायक योज्ञता विकसित करते हुये हमने पीढियों के प्रयास से, अपने आप को मछलियों सा बनाने का प्रयास किया। स्पष्ट्तः व्हेल और डॉल्फिन जैसा। इस कारण हम महिनों सागर में तैरते रह सकते हैं और मीलों का सफर कर सकते हैं। अतः कभी हमें अपने शत्रु पर धावा बोलना होता है तो हम पोत की बजाये सागर के अंदर तैरते हुये ही शत्रु के सामने जा प्रकट होते हैं।

तो हुआ यूं कि एक दिन सागर में तैरते हुये मैं इतनी दूर निकल गया कि मेरा मन दुनिया का अंतिम छोर देखने हेतु मचल उठा। वास्तव में मुझे लगा कि मैं शायद दुनिया के अंतिम छोर के आसपास पहुंच चुका हूँ। मैं बहुत सावधानी से तैरने लगा। आती जाती मछलियों, कछुओं, ऑक्टोपस और दूसरे जीवों से पूछने की कोशिश करता कि दुनिया का अंतिम छोर कितनी दूर बचा है? वे मेरी भाषा नहीं समझते और मुझे आधा मानव और आधा मछलियों जैसा एक अजीब जीव देखकर दूरी बना लेते।

अब मुझे समझ में आने लगा था कि अपने से अलग या अनोखे लोगों के प्रति किसी भी जीव का व्यवहार सकारात्मक नहीं होता। और यह सब होता है, हमारी आत्मरक्षा की चेतना के कारण। नई चीज़ खतरनाक भी हो सकती है बस इसी कारण हम हर नई चीज़ हर नये विचार से दूरी बनाकर निकलना चाहते हैं, कोई यह जानने की कोशिश भी नहीं करता कि वह नई चीज़ या नई सोंच लाभदायक भी हो सकती है।

दुनिया में कुछ ही लोग जो शायद सामान्य नहीं होते हैं, जिनमें आत्मरक्षा अथवा सुरक्षा की चेतना, उत्सुकता और अध्यनशीलता से कम होती है। वे ही महान खोजी, वैज्ञानिक और अध्ययंकर्ता निकलते हैं। और इन्ही लोगों से विश्व का कल्याण होता है...

संक्षेप में कहें तो विद्रोही मस्तिष्क ही नये विचार और नये नियमों की खोज करता है। यही विचार और नियम तो विज्ञान कहलाते हैं। इसके विपरीत संस्कारशील मस्तिष्क परम्पराओं को तोड़ नहीं पाता और अपनी सुरक्षा के घेरे से कभी बाहर नहीं आता।

तो मैं दुनिया का अंतिम छोर ढूंढता हुआ धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। मुझे लगता था कि किसी स्थान पर अचानक सागर समाप्त हो जायेगा और आकाश एक दीवार की तरह उसमें धंसा हुआ होगा। लेकिन बहुत समय पश्चात मुझे आश्चर्यजनक रूप से धरती दिखाई दी और दिखाई दिये अपने जैसे दो पैरों पर चलने भागने वाले जीव यानि मानव। मैंने अपने पूर्वजों से सुन रखा था कि हम लोग भी कहीं दूर, किसी दूसरी भूमि पर रहने वाले मानवों के वंशज हैं। अतः उनके प्रति मेरा अनुराग और जिज्ञासा स्वाभाविक थी...

इस प्रकार मेरा सम्बंध मुख्य दुनिया से हुआ। मैं लोगों और संस्कृतियों को जानने और समझने की अदम्य जिज्ञासा के वशीभूत सारे संसार में घूमता रहा भटकता रहा। कई भाषायें सीखी और कई देशों से सांस्कृतिक सम्बंध स्थापित किये। जिससे मैं आज एक कुशल कूटनीतिक बन सका हूँ। मैंने अपनी इस प्रतिभा का उपयोग अपने लोगों के हित में किया। एक कूटनीतिज्ञ का मुख्य काम होता है दूसरों के साथ सम्बंध स्थापित करना और दूसरों के साथ सम्बंधों को बनाये रखना। दूसरों के आचार विचारों को समझना और अपने विचारों और संस्कृति से उन्हें परिचित कराना। यह मेरा प्रिय कार्य था और इसी शौक के चलते आज हमारे कई दूसरे लोगों से सम्बंध विकसित होने लगे हैं; व्यवसाय फलने फूलने लगे हैं।

लेकिन जब मैं दुनिया भर के देशों में भिन्न भिन्न लोगों से मिलते, उन्हें जानते समझते भटक रहा था, मैं कई जगहों पर विभिन्न नामो के साथ रहा। कई प्रकार के काम किये।

गजराज अथवा विषधर

एक बार मैं एक देश में एक राजा का विश्वसनीय और प्रिय बन गया था। जीवन बहुत ही अच्छा चल रहा था। राजा मुझपर बहुत ही मेंहरबान था और मुझे अपने सहयक के रूप में हमेंशा अपने साथ रखता। इस बात से मुझे भय भी रहता क्योंकि कहा गया है कि, हाथी का, विषधर का और राजा का कभी भरोसा नहीं करना चाहिये। इनके साथ तभी रहें जब आपमें पर्याप्त चपलता और सतर्कता हो। और तिसपर वह राजा गजराज और विषधर जैसे नामो से आसपास के देशों में जाना जाता था। कारण कि वह बहुत ही युद्धप्रिय राजा था। उसकी दूसरी विषेशता यह थी कि उसकी सेना में हज़ारों हाथी थे, जिन्हे वह स्वयं ही जंगलों से चुनकर पकड़कर लाता और स्वयं की देख-रेख में ही उनको प्रशिक्षित करता।

ऐसे ही एक अभियान में जब सबसे पहली बार मैं उस राजा के सहायक के रूप में उसके साथ था। मैं देख रहा था कि जंगल में राजा के सैनिक बड़े बड़े गड्ढे खोदते हैं; और उन्हें घास-फूस से ढक देते हैं। फिर राजा के प्रशिक्षित हाथी जंगल में जाकर जंगल के स्वतंत्र, स्वच्छन्द हाथियों को किसी प्रकार भटकाकर यहाँ ले आते हैं और वे स्वयं तो खोदे गये गड्ढों से बचकर चलते हैं किंतु सही जानकारी के अभाव में, जंगली हाथी उन ढके हुये गड्ढों में जा फंसते।

यह देख मैं विचलित हो गया। मुझे उन शाही हाथियों से घृणा हो गई।

“यह तो धोखा है। ये हाथी अपनी ही प्रजाति के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं?...” मैं बुदबुदाया लेकिन राजा ने सुन लिया।

“क्योंकि वे राजभक्त हैं।” राजा ने कहा। मैं चौक उठा। लेकिन राजा के मुखमंडल पर किसी प्रकार का क्रोध या तनाव नहीं था। यह देखकर मैं आश्वस्त हुआ।

“वे सत्ता से निकटता की कीमत चुका रहे हैं। सत्ता से निकटता की कीमत हमेंशा चुकानी होती है। यहाँ कोई अपना, कोई पराया नहीं होता। मैंने स्वयं अपने हाथों से अपने इकलौते पुत्र और देश के युवराज को मौत के घाट उतारा है; क्योंकि वह राजद्रोही हो गया था। वह राजसत्ता अपने हाथ में लेने का षड्यंत्र रच रहा था।”

मैं बहुत कम आयु का अनुभवहीन लड़का था। भावुक हो गया। यह देख राजा मुस्कुराने लगा। शायद उसे भी अपनी युवावस्था याद आने लगी थी।

“आपको बुरा नहीं लगता अपने पुत्र के लिये?” मैंने दुस्साहसपूर्ण प्रश्न कर डाला था।

“नहीं, एक राजा के रूप में कभी नहीं...” राजा थोड़ी देर विचारों में खो गया, लेकिन जल्द ही सम्हलकर बोला, “किंतु, एक पिता के रूप में...”

इसके आगे राजा मौन हो गया। लेकिन उसका वाक्य उसके मौन ने पूरा कर दिया था। फिर राजा ने ही वातावरण को सहज करने के प्रयास में बात का रुख मोड़ने की कोशिश की, “देख रहा हूँ, तुम अभी अनुभवहीन हो। तुम्हें अभी जीवन में बहुत कुछ सीखने की आवश्यक्ता है... शायद तुम नहीं जानते कि सिर्फ हाथी ही नहीं मानव भी यही काम करते हैं और ऐसे लोगों की हर शासक को तलाश रहती है जो सत्ता से सहानुभूति पाने के लिये अपने ही लोगों को धोखा दे सकें। वास्तव में विजय इन्ही जैसे लोगों के दम पर प्राप्त होती है; अन्यथा युद्ध तो अनादिकाल तक चलते रहें, उनसे कोई जीत या हार नहीं मिलती।”

“तो फिर आप युद्ध क्यों करते हैं?” मैंने पूछा।

राजा मुस्कुराया।

“क्योंकि सत्ता एक राक्षस है; जिसे जिवित रहने के लिये सदा युद्ध की आवश्यक्ता होती है।”

“वह कैसे महाराज?”

“सुनो तुम्हे एक कथा सुनाता हूँ...” राजा ने कहा-

युद्ध और साम्राज्य

एक बार मैं एक महात्मा का प्रवचन सुन रहा था। महात्मा एक कथा सुना रहे थे-

एक राजा के राज्य में जब प्रजा का असंतोष चरम पर पहुंच गया और साम्राज्य की रक्षा करना असंभव लगने लगा तो वह जंगल में महात्मा की शरण में जा पहुंचा।

"महात्मा ! विकट परिस्थिति है। उपाय बताएं।" राजा ने हाथ जोङकर महात्मा से विनती की।

"उपाय तो आसान है राजन।" महात्मा ने कहा "तेरे राज्य की कौनसी सीमा सबसे ज्यादा अशांत है?"

"कोई नहीं ! मेरे तो सभी पङोसी राजाओं से मधुर संबंध है। इससे बाहरी आक्रमण से देश सुरक्षित रहता है।" राजा ने उत्तर दिया।

"तू मूर्ख है राजन ! पङोसी देशों से संबंध मधुर हों तो देश सुरक्षित रहता है। देश की जनता सुरक्षित रहती है। लेकिन जब देश की जनता सुरक्षित रहती है, तो राजा सुरक्षित नहीं रहता। खूब अच्छी तरह समझ ले राजन यदि देश के सामने कोई समस्या नहीं होगी तो देश तेरे शासन को क्यों बर्दाश्त करेगा। इसलिए हर महान शासक लगातार युद्ध करता रहता है। इससे देश की जनता पर बोझ ज़रूर बढ़ता है लेकिन राजा का साम्राज्य सुरक्षित रहता है।"

"मैं समझ गया महाराज।" राजा ने कहा।

दूसरे दिन देश की एक सीमा पर स्थित खेतों में पङोसी देश की सेना ने आग लगा दी और कई सैनिक छावनियो को भी जला दिया। देश की जनता क्रुद्ध हो उठी और सबसे ज्यादा क्रुद्ध राजा हुआ। युद्ध छिङ गया। प्रजा में अद्भुत उत्साह, अद्भुत देशप्रेम देखने मिला। सेना ने बढ़ चढ़कर युद्ध में भाग लिया। प्रजा ने अपनी सम्पत्ति, अपनी श्रेष्ठ संताने समर्पित कर दी। सेना ने अपने श्रेष्ठ वीर सैनिक गंवाए। किसानो की कीमती उपजाऊ जमीन बंजर हो गई। लेकिन राजा को प्रजा का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ। देश की हानि अवश्य हुई किंतु राजा का साम्राज्य सुरक्षित हो गया।

"…तो भक्तों ! जिस शासक को अपना शासन सुरक्षित रखना हो, उसे चाहिये देश को युद्ध में झोंकता रहे..." इतना कहके महात्मा ने अपना प्रवचन पूरा किया।

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सत्ता, षड्यंत्र की परीणति?

राजा ने बताया कि उसने महात्मा के सेवा में उपस्थित होकर पूछा, “प्रभु, यह तो षड्यंत्र है, प्रजा के प्रति धोखा है?”

“और राजनीति क्या है? सत्ता क्या है? राजन् यह मत भूल कि जिस सत्ता पर तू सवार है, वह तो षड्यंत्र की ही परिणति है। यह षड्यंत्र से पैदा हुई है और षड्यंत्र से ही चलेगी। तू क्या समझता है मानव शासित होने के लिये पैदा हुआ है? नहीं !! मानव को विवेक प्रदान किया गया है ताकि वह, विवेक से काम लेकर जीवन जिये, उसे किसी से शासित होने की आवश्यक्ता न पड़े; किंतु तुझ जैसे कुछ अवसरवादियों ने मानव समाज के आपसी संघर्षों का फायदा उठाकर समाज की सुरक्षा और न्याय के नाम पर अपनी सत्ता स्थापित कर डाली।

“सुन ले राजन !! युद्ध प्रजा का दुर्भाग्य है। जब मानव ऊंच नीच, अपना पराया की भावना से मुक्त होकर परस्पर सम्बंधों में विवेक से काम लेने लगेगा, अर्थात् जब युद्धों की आवश्यक्ता नहीं रह जायेगी तो सत्ता और राजनीति की भी आवश्यक्ता नहीं रह जायेगी। न राजा की आवश्यक्ता होगी, न सेना की और न बंदिगृहों की क्योंकि यह सब मानव की स्वतंत्रता पर कलंक के समान हैं।

“और कभी न कभी यह होकर रहेगा, क्योंकि स्वाधीनता मानव का मूल स्वभाव है...”

“यह कब होगा महाराज?”

“यह कहा नहीं जा सकता। कल भी हो सकता है या हज़ारों वर्ष भी लग सकते हैं... किंतु होगा अवश्य !”

“महात्मा की इस बात से मैं डर गया।” राजा ने बताया, “किंतु, यह तो भविष्य की बात है। अभी तो सब कुछ हमारे हाथ में है, तो फिर क्यों भविष्य की चिंता में अपनी जान सुखाऊँ? और इसी प्रकार मैं अपने सत्ता का उपभोग करता हूँ। सत्ताधारी का अगला क्षण भी अनिश्चित होता है; क्योंकि सत्ता ही विश्व की सबसे बड़ी शक्ति है और इसीलिये इसे हथियाने के लिये सतत षड़्यंत्र चलते ही रहते हैं... सीधी-सादी बात है, सत्ता षड़्यंत्र की परिणीति है और सदा षड़्यंत्र से ही छिन जाती है।”

“जब सत्ता इतनी खतरनाक चीज़ है तब आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते?” मैंने राजा से पूछा, “कम से कम जीवन में इत्मीनान तो रहेगा।”

“नहीं छोड़ सकता। सत्ता की सवारी शेर की सवारी की तरह है; आप इससे उतरे नहीं कि आपकी यह सवारी ही आपका भक्षण कर लेगी।” राजा ने कहा, “एक सत्ताधारी भी स्वतंत्र नहीं होता। वह सत्ता का गुलाम होता है। उसे सत्ता के लिये अपनी और अपनो की भी बलि चढ़ानी होती है। यह कोई सुखदाई नहीं होती। यह विश्व की सबसे निकृष्ट्तम चीज़ है। वस्तुतः विश्व की समस्य समस्याओं की जड़ यह सत्ता ही होती है।”

उस एक क्षण वह राजा मुझे दुनिया का सबसे दयनीय व्यक्ति लगा था।

“मुझे इस खतरनाक चीज़ के बारे में और बतायें महाराज।” मैंने विनती की, “तो फिर राजा और प्रजा मिलकर इस सत्ता रूपि राक्षस को समाप्त क्यों नहीं कर देते?” मैंने पूछा।

राजा फिर मुस्क्राया। मैं राजा की इस मुस्कान का अर्थ जानता था। मेरी नमझी!!

“लगता है तुम राजा और प्रजा के उलझे हुये गूढ़ सम्बंधों के बारे में अभी कुछ नहीं जानते...”

“इन सम्बंधों में ऐसा गूढ़ क्या है...?”

अबकी राजा और अधिक मुस्कुराया यहाँ तक कि उसकी मुस्कान एक हल्की हँसी में परिवर्तित हो गई।

“सुनो, तुम्हें आगे का किस्सा सुनाता हूँ...

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राजा और प्रजा

राजा ने आगे किस्सा इस प्रकार सुनाया-

तब मैंने हाथ जोङ कर महात्मा से कहा "हे महात्मा ! मुझे बतायें कि आदर्श प्रजा कैसी होती है?"

महात्मा ने कहा- "हे राजन! यदि सच कहूंगा तो तू विश्वास नहीं करेगा और यदि झूठ कहूंगा तो मैं अपने तप से हासिल ज्ञान से हाथ धो बैठूंगा; अतः मैं तुझे एक कथा सुनाता हूँ, जिससे तू स्वयं ही निर्णय ले सके।"

राजा के गुरू उस संत महात्मा ने कथा यूं सुनाई।

एक राजा था जिसने राजा बनते ही देश की सेना का पुनर्गठन किया, और अपने शत्रुओं से खूब लोहा लिया और खूब विजय हासिल की। परिणामस्वरूप खूब लोकप्रियता पाई। जब राजा की लोकप्रियता अत्यधिक बढ़ गई और प्रजा यह विश्वास करने लगी कि उनकी सभी समस्याएं अब उस राजा के हाथों दूर होने वाली हैं। जब प्रजा ने उसे प्रभु की तरह पूजना शुरु कर दिया, तब राजा ने सोने और चांदी से अपनी एक मूर्ति बनाकर राजधानी के चौक में लगा दी और यह आदेश दिया कि, जो कोई इस प्रतिमा पर आक्षेप करेगा, वह दंड का भागी होगा।

कौन है जो राजाज्ञा की अवहेलना करे। फिर वह प्रजा जो राजा को पूजती थी, वह राजाज्ञा की अवहेलना क्योंकर करे?

किंतु एक दिन एक अबोध बालक ने उस प्रतिमा की ओर उंगली उठाई, "देखो-देखो, कौवे ने राजा के सर पर बीट कर दी।”

प्रजा क्रोधित हो गई।

राजाज्ञानुसार उस बालक की वह उंगली काट दी गई जो देश की शान उस प्रतिमा की ओर उठी।

प्रजा ने कहा, "बिलकुल ठीक, हर वह उंगली काट देना चाहिए जो देश के सम्मान पर उठे।"

कुछ दिन बाद उस बालक ने दूसरे हाथ की उंगली से इशारा किया, और वह उंगली भी गंवा बैठा। प्रजा ने प्रदर्शन किया और नारे लगाये कि इस देशद्रोही को मृत्युदंड दिया जाये, किंतु राजा ने कानून के अनुसार ही दंड दिया।

अब की बार बालक ने हाथ से ईशारा किया और वह हाथ गंवा बैठा, फिर दूसरे हाथ से इशारा किया और दूसरा हाथ भी गंवा बैठा। फिर ज़बान से यही बात कही और ज़बान गंवा बैठा।

अब वह बालक मौन हो गया था।

कई वर्षों बाद जब राजा उस स्थल से गुज़रा तो अपनी प्रतिमा देख क्षुब्ध हो गया। उसका अपनी प्रजा से मोहभंग हो गया। उसने अपनी समग्र प्रजा के लिये मृत्युदंड घोषित कर दिया, फिर यह सोचकर कि आखिर बिना प्रजा के राजा किस काम का; उसने अपनी आज्ञा वापस ली और सन्यास लेकर वन को प्रस्थान किया।

"हे राजन, आशा करता हूँ, तू मेरा आशय समझ गया होगा।" महात्मा ने कहा।

"महात्मन, मैं समझ नहीं पाया कि राजा का अपनी प्रजा से मोह भंग क्यों हो गया?"

"मूर्ख ! क्योंकि वह प्रतिमा तो पक्षियों की विष्ठा का ढेर बन चुकी थी।"

"लेकिन यह आपको कैसे ज्ञात हुआ?" मैंने महात्मा से प्रश्न किया।

"क्योंकि, वह राजा मैं ही था।" महात्मा ने कहा।

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“इस प्रकार उस राजा के सानिध्य में मैंने राजनीति और सत्ता के कई गूढ़ रहस्यों को समझा और कई दांव-पेंच सीखे।”

…“सहायक महोदय ने अपनी कथा समाप्त करने के बाद कहा, “आशा करता हूँ आपको अब राजनीति और सत्ता के गूढ़ रहस्यों की बातें समझ आने लगी होंगी।” व्यापारी ने ठहरकर एक गहरी सांस ली।

लेकिन...

जंगल में भयंकर रूप से गूंजती खर्रर्र की आवाज़ों ने व्यापारी का ध्यान भंग कर दिया। वे डाकू कब का सो चुके थे और वह मूर्खों की तरह कथा सुनाये जा रहा था। सिर्फ शेरू ही उसकी आवाज़ से सम्मोहित होकर उसकि तरफ ध्यान लगाये था। स्पष्ट था उसके भी पल्ले कुछ नहीं पड़ा था। व्यापारी ने शेरू को प्यार से थपका और खर्राटे मार कर जंगल की नींद खराब कर रहे दोनो डाकुओं की ओर देखकर बुदबुदाया, “भैंस के आगे बीन बजाये, भैंस खडी पगुराये...”

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जारी...

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे

भाग-23 यात्रा अतीत की ओर

(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति)