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सलाखों के पीछे



आज बोहोत दिनों बाद, सुकून से सोऊंगा,
आज बड़े दिनों बाद, अच्छी नींद आएगी।
जेल में वो सुकून कहां?
सलाखों के पीछे वो आराम कहां?

एक ऐसी बात के लिए अंदर हुआ था,
जिसमे कुसूर मेरा था भी, और नहीं भी।
वक़्त पर मूं न खोलने की, और चुप रहने की
आज बोहोत बड़ी क़ीमत चुका रहा था।

अस्पताल कोई और पोहोंच गया था,
हत्या किसी और ने की थी।
मैने तो सिर्फ उसे मारते हुए देखा था,
समय पर सच छुपाने की मुझे सझा मिली थी।

जब तहकीकात हुई,
और बात जांच पड़ताल तक पोहंची,
तब जाके समझ में आया
यह मैने क्या कर दिया?

हमें किसी से क्या लेना देना?
क्यों किसी के लफड़े में पड़ना?
अपने काम से काम रक्खो,
खाओ, पिओ, एश करो।

मेरी यह सोच कुछ अलग तो नहीं,
मैने भी वही किया जो सबको लगता है सही।
समाज मेरे जैसे लोगों से भरा पड़ा है,
फिर मुझ अकेले को सजा क्यों मिली?

चंद महीनों के लिए ही सही
पर कैदखाने की ज़िंदगी...
पीछे मुड़कर देखता हूं तो
रोंगटे खड़े होते ही, सांस फूल जाती हैं।

आज भी, जब कभी आंखे बंद करता हूं,
पलक जपक्ते ही वहां पोहुँच जाता हूं।
वो बड़ा बदबूदार कमरा, कभी न साफ किया हुआ।
सिर्फ दीवारें, न सूरज की किरणे और न कोई हवा।

चारों ओर खोफ और डरावनी घूरती आंखे,
हर पल आपको दोषी होने का एहसास दिलाते।
सब की रुचि सिर्फ आपके अतीत में
"क्यूं भाई, यहां तक केसे पोहुँचे?"

आपके इर्द गिर्द केवल मुजरिम होते हैं,
परन्तु आपका चरित्र हनन करना
अपना अधिकार समजकर,
आप पर लपकने को उत्सुक रहते हैं।

जेल में समय बिताने के बाद अब सोचता हूं
कॉलेज की रैगिंग तो कितनी मीठी होती थी
सलाखों के पीछे रैगिंग नहीं,
सिर्फ गुंडा राज चलता हैं।
कैदी हो या सिपाही, दोनों ही डॉन लगते हैं।

जेल में खुली आखों से सोना सिख लाया मैने,
पता नहीं कब क्या हो जाए।
आपके साथ या आपके सामान के साथ,
यह तो है जान और माल की बात।

सलाखों के पीछे, सब अपने हैं भी और नहीं भी,
सबसे दोस्ती बनाए रखनी पड़ती थी।
किसी की दुश्मनी अच्छी नहीं
हर सुबह एक नया झटका मिलता था,
और हर रात एक नया डर लाती थी।

हफ्तों, महीनों या फिर कहो सालों,
कारावास में रहना,
हर कोई सेह न पाए
अच्छे खासे इंसान का
मानसिक संतुलन बिगड़ जाए।

मेरा इसलिए बना रहा,
बस कुछ महीनों की बात थी,
मेरा परिवार मेरा इंतज़ार कर रहा था,
आशा की एक किरण अब भी बाकी थी।

आज जब घर वापस आया हूं
तो हर छोटी चीज़ की कदर होती हैं।
पहले जिसे नकारा करता था,
आज वही सारी चीज़े प्यारी लगती हैं।

हर एक वस्तु में भगवान दिखता हैं,
इन सब के लायक हूं भी के नहीं,
ये सवाल बार बार मन में उठता है।
बस अब तो नमन में सर जुकाए रखना है।

आत्मसम्मान पर जो दाग लगा है,
उसे धोने में पता नहीं कितना समय लगेगा।
घर में एक बार नज़र सबसे मिला भी लूं,
बाहर वालों को केसे समझाऊंगा?

अब यही सोच कर दिल को तस्सल्ली देता हूं,
जान है तो जहान है।
वक़्त के साथ सारे दाग हल्के हो जाएंगे।
अगर आइने में खड़े आदमी के साथ नज़र मिलापाउं,
तो आेरो को भी अपनी अच्छाई दिखा पाऊंगा।


शमीम मर्चन्ट


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