Zindagi ki Dhoop-chhanv - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 6

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

भलमनसाहत

रात के सवा दस बजे थे, अम्बाला जाने के लिए करनाल के बस अड्डे पर खड़ा मैं बस का इन्तज़ार कर रहा था. दस चालीस पर रवाना होने वाली बस आने ही वाली थी. अगले दिन चूंकि दीवाली थी, इसलिए अड्डे से छूटनेवाली हर बस के लिए भीड़ काफ़ी ज़्यादा थी. दस चालीस वाली बस को पकड़ लेना बहुत ज़रूरी था, क्योंकि इसके बाद डेढ़ बजे बस मिलनी थी, जब तक कि अब वाली पकड़कर अपने घर भी पहुँच चुका होना था.

थोड़ी देर बाद अम्बाला जानेवाली बस प्लेटफॉर्म की तरफ आती दिखायी दी. इसके साथ ही भीड़ का एक रेला रेंगती हुई बस की ओर भागने लगा. मेरे पास एक भारी-सी अटैची थी, सो मैं पीछे रह गया, मुझे नहीं लग रहा था कि मैं बस में सीट पा सकूंगा. तभी मुझे एक विचार सूझा और मैंने बस में चढ़ने के लिए धक्कामुक्की कर रहे एक देहाती-से आदमी को जरा मिन्नत करते हुए कह दिया, ‘‘ए भइया, मेरे लिए भी एक सीट रोक लेना. मुझसे चढ़ा नहीं जा रहा. मेरे पास भारी सामान है.’’ कहने को तो मैंने कह दिया था, पर यक़ीन मुझे कम ही था कि वह आदमी मेरे लिए सीट रोक लेने की भलमनसाहत दिखाएगा.

बस में चढ़ने की मेरी कोशिशें जब तक कामयाब हुईं, बस खचाखच भर चुकी थी. खड़े तब होने की जगह नहीं मिल पा रही थी. बड़ी परेशानी-सी महसूस करने लगा था मैं. तभी मुझे सुनाई पड़ा, ‘‘ऐ बाबू साहेब! ऐ नीचे स्वेटरवाले बाबू साहेब!’’ मैंने एकदम से आवाज़वाली दिशा की ओर देखा. वही देहाती मुझे पुकार रहा था. खिड़की की तरफ़वाली उसके साथ की एक सीट ख़ाली थी.

किसी तरह अटैची संभाले भीड़ में से बड़ी मुश्किल से रास्ता बनाता हुआ मैं उसके पास पहुँचा, बजाय ख़ुद खिड़की की तरफ़ खिसकने के उस देहाती ने मुझे ही खिड़की की तरफ बैठने दिया. उसकी भलमनसाहब देखकर मैं गद्गद् हो उठा. सच्चे दिल से मैंने उसका शुक्रिया अदा किया.

तभी वह मुझसे कहने लगा, ‘‘बाबूजी, बस चलने में थोड़ी ही देर है. ज़रा मेरी सीट रोकना, पेशाब करके मैं अभी आया.’’ उसके चले जाने पर मैंने घड़ी देखी. बस चलने में दो-तीन मिनट ही बाकी थे. तभी मेरी नज़र बस में खड़ी हुई सवारियों में अलग-सी दिख रही एक ख़ूबसूरत-सी आधुनिका पर पड़ी, जो मुझसे ज़्यादा दूर नहीं खड़ी थी.

‘‘अगर यह लड़की मेरे साथ बैठी होती, तो कितना मज़ा आता.’’ उसे देखते ही यह ख़याल मेरे दिल में चक्कर काटने लगा था. इस ख़याल की तेजी धीरे-धीरे बढ़ती ही जा रही थी. फिर मुझे न जाने क्या सूझा कि मैंने उस लड़की को अपनेवाली सीट पर बैठने का निमन्त्रण दे दिया और खुद उस देहाती की सीट पर खिसक गया. लड़की रास्ता बनाकर ‘‘थैंक यू’’ कहती हुई मेरे साथवाली सीट पर बैठ गई. कंडक्टर की सीटी सुनायी दी और बस रेंगने लगी. मैंने खिड़की में से देखा वह देहाती हाथ हिलाकर ज़ोर-ज़ोर से कुछ चिल्लाता हुआ शौचालय की तरफ़ से बस की ओर दौड़ रहा था. मगर बस तब तक रफ़्तार पकड़ चुकी थी. मैं चाहता तो कंडक्टर से कहकर बस रूकवा सकता था, पर लड़की के गुदगुदे स्पर्श के ताले ने मेरी जुबान खुलने नहीं दी.

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फ़रेब

‘‘बीबी जी, सर्दियां आ रही हैं. मेरे लिए कोई पुराना गर्म कपड़ा तो ढूंढ रखना’’ सावित्री, हमारे बर्तन माँजने वाली, मम्मी से कह रही थी.

‘‘अच्छा ढूंढूंगी. अगर कोई मिला तो ले लेना.’’

दूसरे दिन मम्मी ने मेरा एक पुराना स्वेटर यह कहते हुए उसे दे दिया कि उसे अरूण (उसका लड़का) पहन लेगा.

सावित्री अक्सर इसी तरह हमसे कई चीज़ ले जाया करती थी. इनमें बहुत सी चीज़ें भी होतीं जैसे कि मेरे कपड़े, मेरे जूते, मेरी किताबें वग़ैरह-वग़ैरह. मेरी चीजों को सावित्री यह कहकर ले जाती थी कि ये अरूण के काम आ जाएंगी. वह कहती थी कि उसका एक ही लड़का है और लड़कियाँ चार हैं. उसके लड़के को हमने कभी देखा नहीं था, मगर सावित्री के मुँह से हमेशा उसकी तारीफ़ ज़रूर सुनी थी. वह हरदम कहा करती कि उसका अरूण बहुत अच्छा है. घरवालों का बहुत ख़याल रखता है, पढ़ाई में भी बहुत होशियार है, वगैरह-वगैरह.

एक दिन सावित्री बर्तन माँजने नहीं आईं. हमने सोचा शायद कोई ख़ास काम पड़ गया होगा या फिर बीमार हो गयी होगी. इससे पहले अगर कभी किसी वजह से वह न आ पायी थी तो अपनी किसी लड़की को बर्तन माँजने भेज दिया करती थी, पर इस बार उसकी कोई लड़की भी नहीं आई. दिन बीतते गए, मगर उन लोगों में से कोई दिखाई नहीं दिया.

आखिर करीब तीन हफ़्ते बाद सावित्री आई - मुंह पर उदासी के गहरे बादल लिए हुए. आते ही फफक-फफककर रोने लगी. मम्मी के पूछने पर हिचकियाँ लेते हुए बोली, ‘‘क्या बताऊं बीबी जी! मेरा तो घरवाला नहीं रहा! ’’

सुनते ही हम सब को धक्का-सा लगा. हमने उसे सांत्वना दी कि जो होना था, सो हो गया. हौंसला रखो. तुम्हारा इकलौता बेटा है ही सहारे के लिए. लेकिन सावित्री का रोना जारी रहा. हमने सोचा कि शायद ज़्यादा दुःख की वजह से चुप नहीं हो पा रही है. तभी रोते-रोते वह अचानक ही बोल पड़ी, ‘‘इसी बात का तो दुःख है बीबी जी! मेरा अरूण तो सात साल पहले ही गुजर गया था! ’’

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क़ीमत

मोहन हमारे दफ़्तर की कैंटीन का बेरा हर बार मिलने पर मुझे सलाम मारा करता था. चाहें दिन में कितनी बार भी क्यों न मिले. वजह शायद यही थी कि मैं उससे दोपहर का खाना अपने कमरे में मंगवाया करता था और पैसे देते वक़्त उसे अच्छी-खासी टिप दे दिया करता था. अकेला रहता था मैं उन दिनों शादी अभी हुई नहीं थी. अक्सर अपने सौ-सौ और पाँच-पाँच सौ के नोट भी मैं मोहन से ही तुड़वाया करता. अगर खुद उसके पास खुले न होते तो वह कहीं से भी इंतज़ाम करके ला देता था. एक बार तो उसे कैंटीन के मैनेजर से बहुत झाड़ भी खानी पड़ी थी, क्योंकि मेरा पाँच सौ का नोट तुड़वाने के चक्कर में वह लगभग बीस मिनट कैंटीन से गायब रहा था.

कुछ अरसे बाद मेरी शादी हो गई. अब दोपहर का खाना मैं घर से ले जाने लगा और कैंटीन से खाना मंगवाने की ज़रूरत मुझे नहीं रह गई. अब मोहन का मुझे सलाम करना भी धीरे-धीरे कम होने लगा. होते-होते यह बिल्कुल ही बंद हो गया.

कुछ अरसे बाद एक दिन दफ़्तर में मुझे पाँच सौ का नोट तुड़वाने की सख्त ज़रूरत आ पड़ी. भारत बंद होने की वजह से दफ़्तर के बाहर की किसी दुकान से तो नोट टूट पाने की उम्मीद थी नहीं. दफ़्तर में भी जहाँ-जहाँ से नोट टूट सकता था, सब जगह निराशा हाथ लगी. काम बनने का कोई आभास नजर नहीं आ रहा था कि अचानक मुझे मोहन की याद आई. मैं उसे ढूंढने निकल पड़ा. आख़िर वह मुझे एक कमरे के बाहर नोटों का बंडल गिनता मिल गया.

मैंने छूटते ही उससे कहा, ‘‘भई मोहन, ज़रा यह पाँच सौ का नोट तो तोड़ दो. बड़ी ख़ास ज़रूरत आन पड़ी है.’’

‘‘टूटे नहीं हैं साब मेरे पास’’, उसी तरह नोट गिनते हुए कुछ-कुछ उपेक्षा और रूख़ाई से अपना जवाब उसने मेरी ओर उछाल दिया.

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यथार्थ बोध

आज सुबह का अख़बार के पिछले पृष्ठ पर खबर थी ‘तमिलनाडु में पानी की कमी से तीन मौतें और’. जोशी साहब के घर में इस खबर को बड़े चटखारे ले-लेकर पढ़ा गया. श्रीमती जोशी खिल-खिल हंसते हुए सारी खबर पढ़ गईं. फिर उन्होंने टिप्पणी की कि लोगों को एक घड़े पानी के लिए भी कई-कई मील पैदल चलना पड़ता होगा. बेचारे सारा दिन पानी के चक्कर में ही घूमते रहते होंगे. किसी को प्यास लगने पर जब घर में पानी न होता होगा तो दूसरा कोई जना पानी लेने के लिए बर्तन लेकर कई मील के सफ़र पर निकल पड़ता होगा और जब तक वह पानी लेकर लौटता होगा, प्यासा आदमी प्यास के मारे उछलता रहता होगा. वाह-वाह क्या कॉमेडीवाला सीन बनता होगा.

उसी शाम को ऐसा संयोग हुआ कि जोशी साहब की कॉलोनी में नगर निगम का पानी आया ही नहीं. टंकीवाला पानी भी धीरे-धीरे ख़त्म होता चला गया. खाना-वाना बनाने के चक्कर में फ्रिज में रखा पानी भी ख़त्म हो गया. जून का महीना चल रहा था, इसलिए गर्मी भी ज़ोरों पर थी.

रात को श्रीमती जोशी को बहुत जोर से प्यास लगी, मगर सारे घर में पानी की एक बूंद भी नहीं थी. साथ वाले मुहल्ले में एक हैंडपंप जरूर था, पर रात के दो बजे उन लोगों का दरवाज़ा खटखटाना भी बहुत अजीब-सा लगता था.

प्यास के मारे श्रीमती जोशी की हालत खराब होती जा रही थी, पर अब किया ही क्या जा सकता था. प्यास की वजह से उन्हें नींद भी नहीं आ रही थी. अपना ध्यान दूसरी ओर लगाने के लिए वे सुबह का अख़बार लेकर पढ़ने बैठ गईं. तभी उनकी नजर उसी शीर्षक पर पड़ी ‘तमिलनाडु में पानी की कमी से तीन मौतें और’. पढ़ते ही उनकी आंखों से आँसू बह निकले.

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मुर्गी

बच्चों समेत बीवी कुछ दिनों के लिए मायके गई थी. घर बैठा बोर हो रहा था, इसलिए घर के पास ही स्थित चिड़ियाघर देखने चला आया था. जंगली मुर्गी के पिंजरे के आगे मैं ज़रूरत से ज़्यादा देर तक खड़ा रहा - बोर्ड पर लिखा विवरण बड़े ध्यान से पढ़ने का नाटक करते हुए. मगर मेरे देर तक वहाँ रूकने का कारण जंगली मुर्गी नहीं बल्कि वह सुंदर नवयौवना कर्मचारी थी जो पिंजरे को अंदर से साफ़ कर रही थी.

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अपने-पराए

दफ़्तर से छुट्टी होने के बाद बस की लाइन में लगे हुए अचानक किसी के हाथ का स्पर्श अपने कंधे पर पाकर चैंक पड़ा. घूमकर देखा तो पुराने दफ़्तर का एक साथी जल्दी में हाथ बढ़ाए कह रहा था, ‘‘और भाई साहब, क्या हाल-चाल हैं?’’ मैंने कल भी आपको लाइन में खड़े देखा था, पर जल्दी में था, सो बुलाया नहीं. मैंने हाथ उससे हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘आप सुनाइए साहब, सब ठीक-ठाक है न? अरसे से दर्शन ही नहीं हुए.’’ ‘‘बस ऐसा ही है’’, वह कहने लगा, ‘‘अच्छा भाई साहब, चलता हूँ. सामने मेरे वाली बस खड़ी है, जो बस चलने ही वाली है.’’ कहकर वे ‘‘भाई साहब’’ तो खो गए भीड़-भाड़ में, पर मैं सोचने लगा कि क्या उसके दिल में मेरे लिए इतना अपनापन भी न था कि वह थोड़ी देर मेरे पास रूकता? इतने दिनों बाद तो मिला था. और फिर कल भी उसने मुझे देखा था, पर अनदेखा कर गया. मतलब आज उसका मुझसे मिलना महज़ औपचारिकता नहीं तो और क्या था? मगर तभी यह ख़याल भी मन में आया कि चलो, ये ‘‘भाई साहब’’ आखिर रूककर मुझसे मिले तो - चाहे एक दिन बाद ही सही, लेकिन इनके अलावा क्या किसी और ने इस महानगर की भीड़ में रूककर मेरे कंधे पर हाथ रखा? और यह सोचते ही मुझे लगा कि इस महानगर में मैं अकेला नहीं हूँ, मेरा अपना भी कोई है.

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जानवर बनाम आदमी

दफ़्तर जाने के लिए जब मैं बस स्टॉप पर पहुँचा तो वहाँ एक नौजवान जमीन पर फटकर गिरे लिफाफे पर से लड्डू और मट्ठियाँ चुन रहा था. कुछ लड्डू और मट्ठियाँ सड़क और ज़मीन की मिट्टी पर बिखर गए थे. पता चला कि बस से उतरते वक़्त उस नौजवान का लिफाफा फट गया था.

यह सड़क और मिट्टी पर गिरी खाद्य सामग्री को छोड़कर फटे लिफाफे पर पड़ी हुई चीजों को किसी और लिफाफे में डाल रहा था. तभी वहाँ खड़ा एक आदमी उसे कहने लगा, ‘‘उठा लीजिए, भाई साहब, सारी-की-सारी उठा लीजिए.’’

लेकिन उसी समय पास खड़ी एक ग़रीब-सी औरत की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘ना रे बाबू जी, यूं सड़क पर गिरी चीज ना खाएं हैं, इसे ठाकर (उठाकर) एक किनारे रख दियो. कोई जानवर-जूनवर खा लेगा.’’

नौजवान वैसा ही, जैसा कि उस औरत ने कहा था, करके अपने रास्ते हो लिया. मैं भी आने वाली बसों के नंबर पढ़ने में मशगूल हो गया. थोड़ी देर बाद अचानक ही मेरी नज़र पीछे की ओर घूमी तो मैंने देखा कि वही गरीब औरत दो-तीन बच्चों से घिरी बैठी सड़क के किनारे रखे गए लड्डुओं और मट्ठियों का भोग लगा रही थी.

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