Zindagi ki Dhoop-chhanv - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 11

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

हिसाब

दफ़्तर में उसकी बगलवाली सीट पर बैठनेवाली सहकर्मी रोज़ाना के वक़्त से आधा घंटा देर से आई. उसने गौर से उसे देखा. सहकर्मी का चेहरा मुर्झाया हुआ था. आँखें तो ऐसी लग रही थीं मानों अभी रो पड़ेगीं. वह समझ गया कि आज भी मियाँ-बीवी में झगड़ा हुआ है. इस मौके का फायदा उठाने के लिए वह अपनी सहकर्मी को कैंटीन में ले गया. कॉफी पिलाई और सैंडविच भी खिलाए. कुरेदने पर पता चला कि सहकर्मी के अपने पति के साथ सम्बन्ध बहुत ज़्यादा तनावपूर्ण हो गए हैं. उसने अपने सहकर्मी से यथासंभव सहानुभूति जताई.

कमरे में वापिस पहुँचन के लिए जब वे लिफ्ट में सवार हुए तो उसमें उन दोनों के अलावा और कोई नहीं था. उसे लगा कि यह तो एक और सुनहरा मौका हाथ लग गया है. चलती लिफ्ट में उसने सहकर्मी की दोनों बाहें पकड़कर ज़रा ज़ोर से दबाते हुए कहा, ‘‘सरिता जी, आप घबराना नहीं, मैं हूँ न आपके साथ.’’

उसे उम्मीद थी कि अगर सकारात्मक प्रतिक्रिया न भी मिली, तो सरिता प्रतिक्रियाविहीन तो रहेगी ही. कहते हैं न कि स्त्री की ‘ना’ में भी ‘हाँ’ छुपी होती है.

पर हुआ उससे उल्टा. सरिता ने एकदम अपने को उससे दूर हटा लिया. बोली कुछ नहीं, पर आँखों ने बहुत कुछ कह दिया.

वह सिर झुकाए कॉफी और सैंडविच पर हुए अपने खर्च का हिसाब लगाने लगा.

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उम्मीदें

लॉटरी की राशि के नोट हाथ में आते ही उसका मन बल्लियों उछलने लगा था. पूरे एक हज़ार रुपए का पुरस्कार मिला था उसे. पिछले कई वर्षों से वह हर महीने लॉटरी का एक टिकट खरीदता आ रहा था, मगर एक बार भी उसका पुरस्कार नहीं निकला था, मगर इस बार न जाने क्या चमत्कार हो गया था.

पाँच-पाँच सौ रुपए के दो नोटों को पर्स में रखते-न-रखते ही उसका दिमाग़ उन नोटों को खर्च करने की योजनाएँ बनाने लगा था.

एक बारगी तो उसके दिमाग़ में आया कि ये नोट घर खर्च के लिए अपनी पत्नी को दे दे. हर महीने कितने ही तो ज़रूरी ख़र्चों में भी कतरब्योंत करनी पड़ती है उस बेचारी को. फिर उसके मन में आया कि घर का ख़र्च तो हर महीने की तरह किसी-न-किसी तरह घिसट-घिसटकर चल ही जाएगा. अचानक मिले इन रुपयों से तो कोई ख़ास ख़र्च ही करना चाहिए.

काफ़ी देर की मगज़पच्ची के बाद उसके दिमाग़ में यही आया कि अपने छह वर्षीय बेटे की फ़रमाइशें क्यों न पूरी कर दी जाएँ. वह कभी चॉकलेट के डिब्बे के लिए कहता है, तो कभी जूतों की फ़रमाइश करता है, मगर उसकी ज़्यादातर फ़रमाइशों को कोई-न-कोई बहाना बनाकर टाल दिया जाता है.

उसने तय किया कि इन रुपयों को घर नहीं ले जाना. एक बार घर ले गया तो न चाहते हुए भी ये घरखर्च में ही लग जाएँगे.

उसने अपने घर में फोन किया और बहाने से अपने बच्चे से उसकी फ़रमाइशों के बारे में पूछा.

बच्चा एक-एक करके कई चीज़ें गिनवाने लगा - चॉकलेट का डिब्बा, टॉफी का पैकेट, नए जूते, नया बैट-बाल, साइकिल और न जाने क्या-क्या.

सुनते-सुनते उसने फोन काट दिया. उसकी हिम्मत जवाब देने लगी थी. उसे लगा कि बच्चे की उम्मीदों को न जगाना ही ठीक है.

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परेशानी-दर-परेशानी

शायद हमेशा परेशान रहना ही उस कर्मचारी की नियति थी.

उसका पिछला अफ़सर छुट्टी देने के मामले में बड़ा खड़ूस था. एक क्या आधे दिन की छुट्टी भी रुला-रुलाकर देता था. इसी वजह से वह कर्मचारी आमतौर पर परेशान रहता.

उस अफ़सर के तबादले के बाद जब नया अफ़सर आया, तो उस कर्मचारी ने चालाकी बरतते हुए घर की मरम्मत करवाने का बहाना बनाकर एक महीने की छुट्टी की दरख़्वास्त दे दी. उसे उम्मीद थी कि अफ़सर उसे अपने कमरे में बुलाकर छुट्टी कम करने के लिए कहेगा. तब वह दो हफ़्ते की छुट्टी में काम चलाने की बात कह देगा. इससे एक तो उसे दो हफ़्ते के लिए आराम मिल जाएगा और साथ ही नए अफ़सर पर अहसान भी हो जाएगा कि उसके कहने पर उसने (कर्मचारी ने) अपनी छुट्टी की अवधि आधी कर दी.

मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं. नए अफ़सर ने उसे बुलाए बग़ैर उसकी एक महीने की छुट्टी मंज़ूर कर दी.

इतनी सारी छुट्टियाँ मिल जाने के बावजूद वह कर्मचारी परेशान था, क्योंकि अब समस्या यह थी कि एक महीने की छुट्टी आख़िर वह काटे कैसे.

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मूल्यांकन

उस लेखक का साहित्य-जगत में बड़ा नाम था. उसकी रचनाएँ धड़ल्ले-से छपा करतीं और अनेक पाठकों की प्रशंसा व सराहना पातीं.

एक बार वह लेखक किसी मुसीबत में पड़ गया. हुआ यह कि किराए के जिस घर में वह पिछले कई सालों से रह रहा था, उसे ख़ाली कर देने के लिए मकानमालिक ने कह दिया था. अब जितने किराए में लेखक वहाँ रह रहा था, उसमें तो कहीं रसोई भी किराए पर न मिलती. और फिर अपनी ज़रूरत व जेब के हिसाब से सही घर ढूँढना एक टेढ़ी खीर थी.

संयोगवश लेखक को पता चला कि उसके मकानमालिक और उस पत्रिका के मालिक में गहरी दोस्ती है, जिसमें उसकी बीसियों रचनाएँ ससम्मान छप चुकी थीं और जिन्होंने बेशुमार प्रशंसाएँ बटोरी थीं.

लेखक एक-दो दिन तक असमंजस के झूले में झूलता रहा और आख़िरकार उस पत्रिका के मालिक के कार्यालय में पहुँच ही गया. उसे उम्मीद थी कि पत्रिका के मालिक उसके नाम से अच्छी तरह परिचित होंगे और उसके मकानमालिक से हाथोंहाथ कह-सुनकर मकान ख़ाली करवाने की बात ख़त्म करवा देंगे.

पत्रिका के मालिक की पी.ए. को अपना नाम वग़ैरह बताने के बाद वह काफ़ी देर तक बाहर कक्ष में बैठा रहा कि मालिक उसे बुलाएँगे, मगर ऐसा कोई बुलावा न आया.

लेखक ने जब चौथी बार पी.ए. को याद दिलाया तो उसने फोन पर बजर मारकर कुछ बात की और फिर लेखक से कहने लगी, ‘‘साहब ने कहा है वे आपको जानते तक नहीं. उन्होंने तो कभी आपका नाम भी नहीं सुना. आप यहाँ से जा सकते हैं.’’

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अजनबी

शाम को दफ़्तर से छुट्टी करके घर जाने के लिए बस स्टॉप पर खड़ा था कि एक नवयुवक ने मुझे मोती नगर जाने वाली बस के बारे में पूछा. चूँकि मैंने भी मोती नगर ही जाना था, मैंने उसे कह दिया कि वह उसी बस में चढ़े, जिसमें मैं चढूँगा.

थोड़ी देर बाद मोती नगर जाने वाली बस आई. मैंने उस नवयुवक को अपने से पहले बस में चढ़ने दिया. अजनबी जो था वह इस जगह से. हम दोनों बस में पहुँचे तो एक ही सीट खाली थी. वह नवयुवक झट-से उस पर बैठ गया. मैं ब्रीफकेस को बस के फर्श पर रखकर उसके पास खड़ा होकर यात्रा करने लगा. अब उसके लिए मैं भी अजनबी बन गया था.

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भूमिका

‘‘भई, तुम ठीक तरह से काम नहीं कर रहे. न कमरे की सफाई अच्छी तरह से होती है, न बिस्तर ही सही तरह से तह किया होता है. अब चाय लाए हो तो वह भी ठण्डी है! क्या घटिया सर्विस है!’’ पिछले चार दिनों से होटल में रह रहा अतिथि होटल कर्मचारी पर बिगड़ रहा था.

होटल कर्मचारी हैरान था कि आख़िर इन साहब को हो क्या गया है. अभी कल तक तो उससे बड़ा अच्छा व्यवहार करते थे और उसके काम की ख़ूब तारीफ़ किया करते थे, मगर आज न जाने क्या हो गया है. सच वह शायद जानता नहीं था. सच यह था कि उन साहब ने अगले दिन सुबह उस होटल को छोड़कर वापिस अपने शहर चले जाना था. होटल से जाते समय होटल कर्मचारी को कोई इनाम या टिप न देने की भूमिका बनानी उस साहब ने अभी से शुरू कर दी थी.

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बंधन के सच

दस साल के वैवाहिक जीवन में प्रिया से कई बार झगड़ा हुआ था, मगर इस बार का झगड़ा कुछ ज़्यादा ही गम्भीर साबित हुआ. हम दोनों की बातचीत तक बन्द हो गई. मैं एक कमरे में और प्रिया दूसरे कमरे में श्रुति के साथ. रात हुई तो प्रिया ने श्रुति के हाथों मेरा खाना भिजवाया. ज़ोरों की भूख लगी हुई थी मुझे, मगर मैंने रुखी-सी आवाज़ में श्रुति को कह दिया कि खाने की थाली पास पड़ी तिपाई पर रख दे और दूसरे कमरे में चली जाए. उसके बाद मैंने अपनी नज़रें फिर से अख़बार में गढ़ा दीं.

अख़बार पढ़ते-पढ़ते मुझे कई बार महसूस हुआ कि श्रुति बीच-बीच में चोरी-छिपे मेरे कमरे में झाँककर चली जाती थी.

तभी दूसरे कमरे से प्रिया की हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी, ‘‘खाना खा रहे हैं क्या, पापा?’’

यह सुनते ही मैं मुस्कुरा पड़ा और खाना खाने के लिए हाथ धोने के वास्ते उठ खड़ा हुआ.

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वसूली

मेट्रो में चढ़ा तो काफी भीड़ थी. कुछ जल्दी में था इसलिए इस मेट्रो को छोड़ भी नहीं सकता था. वरिष्ठ नागरिकों वाली सीटों की तरफ़ नज़र दौड़ाई कि कोई युवक/युवती उस पर विराजमान हो तो उसे उठाकर खुद बैठ जाऊँ, पर उन सीटों पर वरिष्ठ नागरिक ही बैठे हुए थे. मैं खड़े-खड़े यात्रा करने लगा.

तभी मेरी नज़र सामने सीट पर बैठे एक नवयुवक से जा टकराई. उसने एक-दो पल मुझे देखा और फिर नज़रें अपने हाथ में पकड़े मोबाइल की ओर फेर लीं. मैं समझ गया कि उसका इरादा मुझे सीट दे देने का कतई नहीं है.

अगले स्टेषन पर मेट्रो रूकी तो एक खूबसूरत-सी नवयौवना मेट्रो में चढ़ी और मेरी बगल में आकर खड़ी हो गई. उसे देखते ही उस नवयुवक ने अपनी सीट से उठने का उपक्रम करते हुए बड़ी बेतकल्लुफ़ी से उससे कहा, ‘‘मैम, बैठ जाइए आप!’’

वह नवयुवती भी सीट पर बैठने का तैयार हो गई. मैंने देखा कि नवयुवक के सीट से उठने और नवयुवती के सीट पर बैठने की प्रक्रिया के दौरान नवयुवक ने अपनी कोहनी को नवयुवती की सीने से अच्छी तरह सटा दिया था. मुझे लगा सीट देने की क़ीमत वसूल रहा है वह जैसे.

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प्रतिक्रिया

मेट्रो में मेरे साथवाली सीट पर बैठी अधेड़ उम्र की स्त्री के प्रति मैं अनायास ही आकर्षित हो गया था. उससे बातचीत के सूत्र जोड़ने की कई कोशिशें मैंने कीं, लेकिन उसने मुझमें कोई ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. मैं अनमना-सा यात्रा करने लगा.

अगले स्टेशन पर एक नवयौवना मेट्रो में चढ़ी और मेरे बिल्कुल क़रीब आकर खड़ी हो गई. उसकी सुविधा के लिए मैंने अपनी टाँगें कुछ सिकोडीं तो उसने मुस्कुराकर बेबाकी से मुझे ‘थैंक्स’ कहा.

तभी मेरे साथ बैठी अधेड़ स्त्री ने अपने आप ही मुझसे बातचीत करनी शुरू कर दी.

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ठोकर

ठसाठस भरी लोकल बस में अचानक दो जनों के ज़ोर-ज़ोर-से बहस करने की आवाज़ सुनाई दी. ध्यान से सुनने पर पता चला कि एक यात्री कंडक्टर से सौ रुपयों में से अपने बाकी रुपए वापिस माँग रहा था, जबकि कंडक्टर अपनी बात पर अड़ा था कि उसे सौ का कोई नोट मिला ही नहीं है. नौबत हाथापाई तक पहुँचने वाली थी. तभी कुछ लोगों ने आगे बढ़कर उन दोनों को शांत किया, मगर वे दोनों अपनी-अपनी बात बार-बार दोहरा रहे थे. धीमी-धीमी आवाज़ में बात करते हुए कुछ यात्री कंडक्टर का पक्ष ले रहे थे और कुछ उस यात्री का.

न जाने क्यों मुझे गरीब-सा दिखनेवाला वह यात्री सच्चा लग रहा था. मेरे मन में बार-बार यही बात आ रही थी कि हो-न-हो कंडक्टर ही बदमाशी कर रहा है और जानबूझकर उस यात्री के पैसे मार रहा है.

तभी मुझे न जाने क्या सूझी कि मैं अपनी सीट से उठकर उस यात्री के पास गया और अपने पर्स से पचास रुपए निकालकर यह कहते हुए उसे दे दिए कि इनसे उसके नुक्सान की कुछ भरपाई तो हो ही जाएगी.

लौटकर वापिस अपनी सीट पर बैठने के बाद मैं अपनेआप को हवा में उड़ता हुआ-सा महसूस कर रहा था. मुझे लग रहा था कि बस के सब यात्री मुझे प्रशंसाभरी नज़रों से देख रहे हैं.

कुछ देर बाद मैंने अपनी अगली-से-अगली सीट पर दो लोगों को आपस में बात करते सुना, ‘‘.........लल्लू है स्साला. पचास रुपए यूँ ही बेकार में उड़ा दिए बेवकूफ ने.’’

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ज़िन्दगी की मजबूरियाँ

‘‘मम्मी ने जाते समय ये पाँच सौ रुपए दिए थे और कहा था कि 125-125 हैं हम चारों के.’’ मीना मुझसे कह रही थी.

‘‘मुझे नहीं चाहिए उनके रुपए!’’ मैंने रूखाई से कहा और हाथ में पकड़ा अख़बार फिर से पढ़ने लगा.

मीना की मम्मी के कुछ दिनों तक हमारे यहाँ रहने के कारण मैं बहुत खीझा हुआ था. साथ ही परेशान भी बहुत था.

सीमा कुछ पल तक मुझे देखती रही. फिर उस नोट को पास पड़ी तिपाई पर रखी किताब के नीचे रखकर कमरे से बाहर चली गई.

तभी साथ वाले कमरे से चुन्नू की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘मम्मी, कब लेकर दोगे आप मुझे बैटरीवाली कार? हर बार कह देते हो अगले महीने! अगले महीने फिर कह देते हो अगले महीने! मुझे कुछ नहीं पता! मुझे तो आज ही लेकर दो बैटरीवाली कार!’’

सीमा ने चुन्नू को बहलाने की बहुत कोशिश की, पर उसकी ज़िद बढ़ती-ही जा रही थी.

तभी मैं एक झटके-से उठा और किताब के नीचे दबा पाँच सौ का नोट अपनी जेब में डालकर दूसरे कमरे की ओर बढ़ते हुए चुन्नू से कहने लगा, ‘‘चलो, चलते हैं मार्केट कार लेने!’’

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