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एक अप्रेषित-पत्र - 14 - अंतिम भाग

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

एक अप्रेषित पत्र

दीदी का पत्र आशा के विपरीत आया था। पत्र बहुत संक्षेप में था, उनकी आदत के बिल्कुल उलटे। पत्र में लिखीं चार पंक्तियों ने पत्नी रजनी और बेटी सुमेधा को तो परेशान कर ही दिया था, मैं भी कम परेशानी में नहीं हूँ। आखिर दीदी ने ऐसा क्यों लिखा? एकदम दो टूक जवाब, जिसकी वे आदी नहीं हैं; फिर ऐसा क्यों किया उन्होंने प्रश्न, उत्तर का समाधान न पा और उलझता जा रहा था। वह सुमेधा को अपने पास रख कर क्यों नहीं पढ़ा सकतीं थीं? क्या असुविधा होती उन्हें? पति—पत्नी और दो बेटियों के रहते एक और बेटी उनके पास पहुँचकर उनके विद्यालय में पढ़ती, तो उन्हें क्या परेशानी होती भला? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

दीदी ने अपने पत्र में लिखा है, ‘‘कैलाश, सुमेधा मेरे विद्यालय में तो पढ़ सकती है; परन्तु उसे हॉस्टल में रहना होगा।''

आज मैं जो कुछ भी हूँ दीदी की बदौलत। मेरे लिए दीदी ने क्या नहीं किया? मेरे लिए देखे सपने साकार करने में उन्होंने स्वयं को किस तरह खपा दिया था, क्या मैं नहीं जानता?

मेरी, सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता के पद पर नियुक्ति हो जाने के बाद ही उन्होंने अपना विवाह किया था। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में महिला कालेज की प्राचार्या होने के साथ—साथ वह एक कुशल गृहणी और सामाजिक सरोकार रखने वाली महिला भी हैं। कुल मिलाकर वह दूसरों के लिए एक अच्छा उदाहरण हैं।

सुमेधा के जन्म लेते ही मैंने सभी के समक्ष निश्चय कर कह दिया था कि बच्ची को बड़ी होने पर दीदी की कस्टडी में रखूँगा, पर बेटी की तोतली बोली के बाद उत्तरोत्तर उसकी कक्षाएँ बढ़ती गयीं और मोहवश मैं उसे अपने से दूर नहीं रख सका।

सुमेधा ने इण्टरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली थी। सहायक अभियंता के पद से पदोन्नति पाकर मैं अधिशासी अभियंता के पद पर आ गया हूँ; परन्तु स्थानान्तरण होते रहने के कारण सुमेधा की शिक्षा में आ रहे व्यवधान को देखते हुए मैंने दीदी को पत्र लिखा था कि अब आगे की पढ़ाई सुमेधा आपके पास रहकर करेगी।

सारी रात मैं करवटें बदलता रहा, नींद मेरी आँखों से कोसों दूर चली गयी। दीदी के पत्र में लिखी पंक्तियाँ आँखों के सामने डोलती रहीं। दूसरे ही दिन मैंने स्वयं लखनऊ जाकर दीदी से मिलने का निर्णय लिया। रजनी ने दीदी की पसंद का भरवा लाल मिर्च का अचार एक मर्तवान में भर सूटकेस के साथ कर दिया।

अगले दिन कार्यालय से अवकाश ले मैं दीदी के पास लखनऊ पहुँच गया। मुझे देखते ही दीदी मेरे अचानक पहुँचने का कारण समझ गयीं। उन्होंने कॉलेज से एक दिन की छुट्‌टी के लिए एप्लीकेशन भिजवा दी और अपनी भाभी और सुमेधा के हाल चाल पूछे। जीजाजी ऑफिस टुअर पर बनारस गये हुए थे। दोनों भांजियाँ अपने—अपने स्कूल रवाना हो गयीं, तब मैंने ब्रीफकेश से दीदी का पत्र निकालकर उनके सामने रख दिया। पत्र देखकर दीदी पहले धीमें से मुस्करायीं फिर गम्भीर हो गयीं। कुछ देर शान्त रहने के बाद बोलीं ‘‘कैलाश, दूसरों के यहाँ रहकर पढ़ना एक बहुत बड़ी यातना से होकर गुजरना होता है। तुम इसे समझ नहीं सकोगे।''

‘‘दीदी मैं वाकई नहीं समझा, सुमेधा आपके पास रहकर पढ़ेगी इसमें यातना जैसी क्या बात है?''

‘‘कैलाश तुम्हें याद है न हमारे बाबूजी ने नौकरी छूट जाने के बाद मुझे गाँव से शहर चाचा जी के पास पढ़ने भेजा था।''

‘‘हाँ, और वहाँ पढ़ने के कारण ही आज आप प्रिन्सिपल हैं और आपकी जल्दी लग गयी नौकरी ने न केवल पिताजी को आर्थिक संकट से उबार लिया था, बल्कि मुझे भी इस मुकाम तक पहुँचने में आपको ही श्रेय जाता है।''

‘‘वह सब तो ठीक है कैलाश! परन्तु तुम जान सकते हो....... मैंने चाचाजी के यहाँ कितनी मानसिक और शारीरिक वेदनाएँ झेली हैं।''....... एकाएक दीदी के चेहरे पर तनाव स्पष्ट झलक आया। उनकी आँखें कहीं दूर स्मृतियों में खो गयीं। स्वयं को वापस लाती हुइर्ं—सी वह बोलीं, ‘‘कभी अपने बच्चे को दूसरों के यहाँ रखकर नहीं पढ़ाना चाहिए कैलाश! भले ही वह अपने कितने ही सगे—संबंधी क्यों न हों।''

‘‘.......... पर दीदी...... मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.......... रजनी और सुमेधा भी आपके जवाब से परेशान हैं। भला तुम हमारे लिए दूसरी कब से हो गयीं।''

‘‘अच्छा छोड़ो, चलो दूसरी बातें करें......... फिर साथ—साथ खाना खायेंगे।''

दीदी से बहुत सारी बातें हुई........ बचपन से लेकर अभी तक की बातें....... जो हर बार मिलने पर होती हैं। माँ, बाबूजी की यादें......... कई बार हम दोनों ने अपने आँसू पोंछे, तो कई बार खिलखिला कर हँस भी लिये। सुबह से शाम हो गयी। दोनों भांजियाँ अपने कॉलेज से वापस आ गयीं और रात्रि के दूसरे प्रहर जीजाजी भी बनारस से लौट आये। देर रात खूब बतियाने के बाद ही सभी सोये।

अगले दिन दीदी ने एक बन्द लिफाफा मुझे जाते समय दिया और कहा........ कैलाश! इस लिफाफे में बाबूजी को मेरा लिखा एक पत्र तब का है, जब मैं चाचाजी के यहाँ रहकर पढ़ती थी। इस पत्र को तब पोस्ट नहीं किया था और मेरे अलावा आज तक इसे किसी ने नहीं पढ़ा है। इस पत्र को पढ़कर मैं अपने अतीत को दोहराती रहती हूँ। इसे आज तुम्हें दे रही हूँ, चाहो तो सँभालकर रखना, चाहो तो फाड़कर फेंक देना..... और मुझे उम्मीद है कि मेरे इस अप्रेषित पत्र को पढ़ लेने के बाद तुम्हें अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं मिल जायेगा।''

दीदी की आँखों में भर आये आँसुओं को रूमाल से पोंछते मैंने उन्हें अपने कंधे का सहारा दिया। हर बार की विदाई की तरह इस बार भी वह सिसक उठीं थीं। उनके आधे से ज्यादा सफेद हो चुके बालों के ऊपर अपना हाथ रखते, मैंने उन्हें ढाढस बँधाया। मेरे लिए लाये गये पानी के गिलास को मैंने उनके होठों से लगा दिया।

जीजाजी ने गाड़ी का हार्न बजाया। मैंने दीदी के चरण स्पर्श किये। हम भाई बहन की जुदाई को दोनों भांजियाँ शान्त भाव से देख रहीं थीं। मैंने दोनों के सिर पर हाथ फेरा और उन्हें ‘बॉय' कह जीजाजी की बगल वाली सीट पर बैठ गया। जीजाजी ने स्टार्ट कार की गति बढ़ा दी।

दीदी का लहराता हाथ मोड़ के बाद ओझल हो गया। मैंने आँखों में छलक आये आँसुओं को जीजाजी की नजर से बचाते रूमाल से पोंछना चाहा, पर वह समझ गये, बोल,े ‘‘तुम बहन—भाई हो बहुत भावुक, अच्छा लगता है यह सब देखकर। कॉश, तुम्हारी तरह मेरी भी एक बहन होती।''

मैंने गला भरा होने के कारण जीजाजी को कोई जवाब नहीं दिया और दीदी की स्नेहिल स्मृतियों में खोया—सा रहा।

टे्रन एक्जेक्ट टाइम पर आ गयी थी। जीजाजी मुझे विदाकर जा चुके थे, ट्रेन समय से चल दी। बर्थ पर लेटने की व्यवस्था बनाने के बाद मैंने ब्रीफकेस से दीदी का दिया लिफाफा निकाला और उसके अंदर रखे जीर्ण—शीर्ण हो चुके कागज पर लिखे दीदी के उस अप्रेषित पत्र को पढ़ने लगा, जो उन्होंने वर्षों पहले बाबूजी को लिखा था—

आदरणीय बाबूजी,

प्रणाम !

मैं यह पत्र कॉलेज के पुस्तकालय से लिख रही हूँ। पाँचवाँ पीरियड खाली है, भूगोल के सर आज नहीं आये हैं।

परीक्षा निकट है। अतः पढ़ाई जोरों की करनी है...... परन्तु बाबूजी यहाँ पर चाचीजी के कारण मेरा बहुत—सा वक्त यूँ ही जाया हो जाता है। चाह कर भी पढ़ाई पूरी तरह से नहीं कर पाती हूँ। प्रातः चार बजे उठ जाती हूँ और देर रात ग्यारह बजे के बाद ही सोती हूँ, कॉलेज का समय छः घण्टे निकाल दिया जाए......... तो मैं सिर्फ डेढ़ घण्टे प्रातः और दो घण्टे का समय रात में पढ़ने के लिए बमुश्किल निकाल पाती हूँ।

मेरा सतत्‌ प्रयास है कि मैं हाईस्कूल, व इण्टरमीडिएट की तरह बी0ए0 में भी प्रथम श्रेणी के मार्क्स लाऊँ, परन्तु क्या करूँ? चाचीजी मुझे सारे समय किसी न किसी काम में उलझाये रखतीं हैं, जिससे जितनी पढ़ाई होनी चाहिए उतनी हो नहीं पाती। सुबह—सवेरे डिम्पी और रानू को स्कूल के लिए तैयार करना, उनके लिए नाश्ता व लंच मुझे ही बनाना होता है। जब से मैं आयी हूँ चाची जी निश्चिंत चैन की नींद सोती हैंं और कभी भी सात बजे से पहले नहीं जागती। डिम्पी और रानू को पास के चौराहे तक साथ ले जाकर स्कूल बस में बैठाकर वापस आने तक आठ बज जाते हैं, फिर सबके लिए नाश्ता—खाना बनाते और स्वयं तैयार होते—होते अक्सर कॉलेज पहुँचने में देर हो जाती है। मेरा पहला पीरियड इंग्लिश का है; जिसमें प्रायः या तो मैं विलम्ब से पहुँचती हूँ या छूट जाता है।

चाचाजी अपने काम से काम रखते हैं, उन्हें क्या हो रहा है? क्या नहीं?.......... किसी बात से कोई मतलब नहीं रहता। वह भी एक हद तक किनारा—सा किये रहते हैं, शायद चाचीजी के कर्कश स्वभाव के कारण।

शाम कॉलेज से आने के बाद जब तक सभी लोग खा—पीकर सोने नहीं चले जाते मुझे काम से फुर्सत ही नहीं मिलती। उसपर ‘‘डिम्पी और रानू का होमवर्क पूरा करा दूँ या उन्हें पढ़ा दूँ'' के निर्देश चाचीजी के मिलते रहते हैं। ऊपर से उनके मायके से कोई न कोई आये दिन पधारता रहता है, जिनके लिए वक्त—बेवक्त नाश्ता या भोजन मुझे ही बनाना पड़ता है। इस सबके बावजूद मुझे सबसे अधिक मानसिक वेदना तब उठानी पड़ जाती हैं, जब चाचीजी बेवजह अंटसंट बक जाती हैं। वे क्या—क्या कह जाती हैं........ वह सब लिखना ठीक नहीं है आप इतने से ही समझ लें कि मुझे यहाँ पर पल—छिन अपमान सहना पड़ता है, मानसिक कष्ट उठाना पड़ता है, जिसका पढ़ाई में अप्रत्यक्ष रूप से बुरा प्रभाव पड़ता है........ ऐसे में भला सुचारु रूप से कैसे पढ़ाई हो सकती है ?

चाचाजी जानते—बूझते भी अंजान बने रहना चाहते हैं, वह चाचीजी से कुछ भी नहीं कहते, उन्हें मेरी पढ़ाई की जरा भी चिन्ता नहीं है।

इससे अच्छा होता कि आप मुझे प्राइवेट ही बी0ए0 करने देते कम से कम मुझे इस तरह अपमान तो न सहना पड़ता।

पता नहीं क्यों चाचीजी मुझसे चिढ़ी—सी रहती हैं, ताने और व्यंग उनके मुँह में रचे—बसे रहते हैंं। मैं उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाती हूँ। मेरी वजह से ही बेचारे चाचाजी को भी जब—तब उनकी जली—कटी बातें सुननी पड़ती हैं।

इस सबके बाद भी मैं यह सोचती हूँ....... चलो पहला असहनीय वर्ष परीक्षा के बाद समाप्त हो जायेगा। अगले वर्ष फाइनल भी मैं किसी तरह कर लूँगी; परन्तु एम0ए0 मैं किसी भी दशा में यहाँ रहकर नहीं करूँगी। भूगोल और मनोविज्ञान जैसे विषयों के साथ फाइनल ईयर व्यक्तिगत छात्रा के रूप में यदि करने का प्राविधान होता तो मैं अगले वर्ष से ही यहाँ नहीं पढ़ती।

अभी कुछ दिन पहले ही चाचीजी की छोटी बहन पूरे पन्द्रह दिन रहकर गयी हैं। वह इण्टर में पढ़ रही हैं। चाचीजी कह रहीं थीं कि वह अगले वर्ष यहीं रह कर पढ़ेगी। इन पन्द्रह दिनोें में उसने मेरी नाक में दम कर रखा था।

कभी—कभी मन में यह भी ख्याल आने लगता है कि कॉलेज से घर न जाकर सीधे रेलवे स्टेशन चली जाऊँ और साबरमती में बैठ सीधे गाँव आ जाऊँ आपके पास......... माँ के पास...... कैलाश के पास........ पर घर की परिस्थितियाँ, आपकी उम्मीदें ध्यान में आ जातीं हैं....... जो मुझे सबकुछ सहन कर लेने की स्थिति में ला खड़ा करतीं हैं।

सच बाबूजी मैं रोज ही आँसू पीती हूँ....... कॉलेज में हो रही पढ़ाई और खाली पीरियड में पुस्तकालय में बैठकर जो भी कुछ पढ़ पाती हूँ....... उसी पर निर्भर है मेरा परीक्षा—परिणाम।

जिस दिन कॉलेज में कोई छुट्‌टी होगी, उस दिन तो घर के काम से ऐसी थककर चूर कर दी जाती हूँ कि लिख नहीं सकती....... घर भर के गंदें कपड़े मुझसे ही धुलवाये जाते हैं।

चाचीजी के व्यंगवाणों से हृदय छलनी होता रहता है........ जितना चाचीजी कह जातीं हैं उसका शतांश भी मैंने आपके या माँ के मुँह से अपने लिए कभी नहीं सुना है।

क्या चाचाजी, चाचीजी के हमारे प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनते हैं? आप ही तो कहा करते थे, ‘‘बेटी ! रजत चाचा तेरे सगे चाचा हैं........ मैंने उसे बेटे की तरह पढ़ाया था.......... तेरी माँ ने उसे कभी भी हमारी माँ की याद नहीं आने दी थी.......... वैसे ही तेरे चाचा, चाची तेरा ध्यान रखेंगे किसी बात की तू चिन्ता मत करना। खूब मन लगाकर पढ़ना........ तुझसे बहुत उम्मीदें जुड़ी हैं....... बेटे।''

आपके कहे ये अंतिम शब्द मुझे बहुत शक्ति दे जाते हैं बाबूजी।

चाचीजी तो अपनी जगह ठीक ही हैं........ उनके मायके वाले यहाँ तक कि डिम्पी और रानू का व्यवहार भी मेरे प्रति ऐसा रहता है, जैसे मैं उनकी बड़ी दीदी न होकर कोई नौकरानी होऊँ।

ईश्वर कभी भी किसी माँ—बाप को ऐसी स्थिति न दे कि उन्हें अपने बच्चे किसी और के आसरे में देकर पढ़ाने पड़ें। काश! हमारे घर की परिस्थितियाँ अनुकूल होतीं....... काश........ हमारे गाँव के स्कूल में ही हाईस्कूल से आगे की कक्षाएँ होतीं।

बाबूजी, ऊपर जो कुछ भी लिख गयी हूँ, वह केवल एक चौथाई बयान है। पूरी तरह से सारी बातें लिख नहीं पाऊँगी आप समझ सकते हैं........ केवल एक पंक्ति में....... ‘अपने बच्चे को किसी और के आश्रय में देकर पढ़ाना, उसे पल—पल अपमानित करने के लिए भेजना है।'

पाँचवा पीरियड समाप्त होने के निकट है। छठा पीरियड मनोविज्ञान का है, भावावेश में जो भी कुछ लिख गयी हूँ, उसके लिए क्षमा कीजियेगा, माँ को प्रणाम्‌। कैलाश को प्यार।

आपकी बेटी

निर्मला

दीदी के पत्र को तहकर लिफाफे में रखते हुए मेरी आँखें बरबस भर आयीं।

वर्षों पहले दीदी की आँखें भी इसी तरह कई—कई बार सजल हुई होंगी और पिताजी की नौकरी छूटने के बाद घर की दयनीय परिस्थितियों को ध्यान में रख........... सारे कष्ट—दुख, शारीरिक—मानसिक क्लेश, वेदनाएँ सहती दीदी ने इस पत्र को तब प्रेषित न करने का निर्णय लिया होगा।

मैंने बर्थ पर लेटे—लेटे अपने नेत्र मूँद लिये और अतीत में चला गया। जब दीदी छुटि्‌टयों में गाँव आतीं थीं, तब वह हर समय पढ़ाई—पढ़ाई की रट लगाये रहतीं थीं........ छुटि्‌टयों की समाप्ति पर हँसती, मुस्कराती दीदी जब शहर चाचाजी के यहाँ पढ़ने के लिए जाने लगतीं थीं, तब वह कितनी बेचैन और बेवश—सी हो जाया करतीं थीं........ कितना सारा मान—अपमान वह अपने अंदर उन दिनों जज्ब किये रहतीं थीं........ भरसक हँसते—मुस्कराते रहने की उनकी नाकाम कोशिशों के बाद भी वह अपनी रुलाई रोक नहीं पातीं थीं........ ठीक वैसी ही उनकी विदाई तब होती थी........ जैसे पहली बार ससुराल के लिए लड़की की विदाई होती है।

मेरी आँखों से अश्रुधार स्वतः बह निकली। दीदी का चेहरा आँसुओं के कारण धुंधलाया—सा दिखायी दिया, अगले ही पल उनके कहे शब्द कानों में स्पष्ट गूँज उठे, ‘‘कैलाश ! दूसरों के यहाँ रहकर पढ़ना एक बहुत बड़ी यातना से होकर गुजरना होता है।''

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