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मेरे घर आना ज़िंदगी - 1

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(1)

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तनहा

काफिला साथ और सफर तनहा

जो घर फूँके आपनो

कबीर मेरे जीवन में रचे बसे थे। खाली वक्त कभी रहा नहीं। रहा भी तो कबीर के दोहे गुनगुनाती रहती ।

कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ

जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ

घर फूंकने में मुझे गुरेज नहीं । मुंबई में 22 बार घर बदला । दो बार शहर बदले। खूंटे से छूटी गाय की तरह दोनों बार मुम्बई वापस। मोह वश नहीं, मोह तो मेरा हर चीज से हेमंत के साथ ही खत्म हो गया । कीचड़ में सनकर भी कमलपात सी निर्लिप्त रही। मेरे जीवन के हादसों ने न मुझे दुनिया में रहने दिया, न दुनिया छोड़ने दी।

हेमंत सदा के लिए चला गया। असीम में समा गया। मात्र 23 साल मेरा साथ देकर और मैं हिमखंड सी जम गई। अपनी वेदना, पीड़ा, शोक, अवसाद, असफल जिंदगी को लेकर प्रश्न, ईश्वर के प्रति आहत विश्वास और श्रद्धा को किसी के साथ बांट लेने को तड़प उठी। चाहती हूँ मेरे अंदर का हिमकुंड पिघले...बहे । उसे किसी के एहसासों की, गर्मी की जरूरत है पर इस वीराने में मेरी निगाहें भटक कर लौट आती हैं। कहीं कोई भी तो नहीं जिससे तनहाइयां बांट सकूँ। लिल्लाह..... यह कैसा वीरानापन, यह कैसा वनवास कि जिसकी अवधि ही मुकर्रर नहीं। गमों के बेइंतहा साथ ने मेरे मन को पंखुड़ी सा कोमल कर दिया था। मैं ठहर गई थी उस वनवास में अपनी तमाम कठोरता को मोम बनाकर और चकित थी ईश्वरीय फैसले पर ।

तेरा दरबार सच्चा... तेरा फैसला सही...मैं ही न्याय के लायक न थी। टूट जाना चाहिए था। किर्च किर्च बिखर जाना चाहिए था पर आँसू बहा कर गम गलत करना मेरी फितरत नहीं। मैं अलग ही किस्म की हूँ । मुझे आम जिंदगी कभी रास नहीं आई । फिर चाहे खास उबड़ खाबड़ पथरीली कांटो भरी क्यों न हो, मैं उस पर अब चल लेती हूँ। न तलवों के छाले सहलाती न कांटों को खींचती। राह की यह खासियत कहाँ से शुरू हुई समझना मुश्किल है।

***

मंडला मध्य प्रदेश में बाबूजी डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट थे । खूब बड़ा बंगला नौकर चाकर। मैं उसी बंगले में 23 नवंबर को मैं पैदा हुई । मैं अभागिन, अम्मा को भी बहुत पीड़ा हुई मुझे जन्म देते हुए। बाबूजी ने जबलपुर से स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की भीड़ इकट्ठी कर ली। मेरे जन्म लेते ही बंगले के अहाते में पुलिस दल ने तीस बंदूकों की सलामी दी थी। दुनिया में पदार्पण का मेरा शोर और पीड़ा भरा वह खास अंदाज उम्र भर के लिए मेरी जिंदगी में रच बस गया था।

घर में मेरे लिए अलग नौकरानी थी। बंगले के पीछे दो गायों की गौशाला थी। एक सफेद एक भूरी। भूरी गाय का बछड़ा भी भूरा। मैंने बछड़े का नाम मटरू रखा था। मटरू अहाते में मेरे संग उछलता कूदता था । मैं उसे छोटी सी लुटिया में पीने को पानी देती थी। लुटिया में उसका मुंह कैसे जाए, मैं बुक्का फाड़ कर रोती कि" मेरा मटरू प्यासा है। "

एक दिन अम्मा का लाल बटुआ उठाकर गेट पर खड़ी हो गई और उसमें रखे चांदी के सिक्के राह से गुजरते हर राहगीर को देने लगी। सिक्का लेते ही राहगीर सलाम ठोकते। मैं खिलखिलाती..... मैजिस्ट्रेट की बेटी सिक्का बाँट रही है। सिक्का पीछे खड़ी नौकरानी के पास लौट आता । यह कबीराना हरकत भी मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गई ।

मंडला में संत धनीराम बाबा थे । जिन्हें लगभग पूरा मंडला पूजता था । रपटा पुल के पास उनकी छोटी सी कुटिया थी और कुटिया के सामने विशाल मैदान जिसमें रोज ही सैकड़ों की संख्या में भक्तगण बैठे रहते। आश्रम से लगा नर्मदा नदी का रपटा घाट था। धनीराम बाबा सब की समस्याएं सुलझाते। उनसे उबरने के उपाय बताते। भक्तों के द्वारा पूड़ी, लड्डू खीर का जो प्रसाद उन्हें चढ़ाया जाता वे स्वयं अपने हाथों से उसे भक्तों में बांट देते। न कभी प्रसाद कम पड़ा और न कोई उनके आश्रम से भूखा गया । एक बार अम्मा मुझे, प्रमिला और जीजी को लेकर उनके आश्रम गईं। काफी देर बैठने के बाद जीजी अपनी सहेली नीलू के साथ मुझे और प्रमिला को लेकर रपटा घाट आ गई। हम दोनों को किनारे पर बैठाकर वे दोनों तैरने लगीं। कभी पानी में छुप जाती तो मिनटों गायब रहतीं। कभी पानी के ऊपर लेटे हुए बिना हाथ-पैर चलाए तैरतीं। मुझे भी मन हुआ पानी में जाने का। घाट के पास से ही नदी गहरी थी। मैं डूबने लगी। लहरों के संग रपटा पुल के नीचे तक बहती चली गई। जब प्रमिला चीख चीख कर रोने लगी तब जीजी और नलू का ध्यान गया। मेरा सिर भर दिख रहा था । जीजी ने मेरे बाल पकड़कर अपनी ओर मुझे खींचा। मैं ढेर सारा पानी पी गई थी। लेकिन बेहोश नहीं हुई । अम्मा हमें खोजते हुए घाट तक आ गई थीं। उन्हीं ने बताया कि जब मैं रपटा पुल के नीचे थी तो धनीराम बाबा पुल के ऊपर खड़े लौट जाने का इशारा कर रहे थे। वे दोनों हाथ तेजी से हिला रहे थे जबकि पुल के नीचे नदी का बहाव पश्चिम दिशा में था और घाट पूर्व दिशा में। विपरीत दिशा में मैं कैसे मुड़ी, ताज्जुब होता है।

बचपन की इस घटना ने नदी के प्रति मेरे मन में खौफ पैदा कर दिया। यही वजह थी कि घर में सब तैराक थे पर मैंने कभी तैरना नहीं सीखा। कभी कभी मुझे सपना आता कि नर्मदा नदी के बीचों-बीच एक स्त्री का मुख और बाहें हैं। बाहें मुझे दबोच लेने को आतुर हैं। बार-बार देखे इस स्वप्न की दार्शनिकता मैं आज तक नहीं समझ पाई।

बचपन के यानी नौ दस वर्ष की उम्र के वे साल बहुत तेजी से घटी दुर्घटनाओं के साक्षी बन मेरी जिंदगी में गहरे धंसे हैं। आज भी उनसे उबर नहीं पाती हूँ जैसे एक सघन अंधेरा मेरी ओर बढ़ता है। जैसे युग युग की रातें इकट्ठी हो गई हों एक साथ। जैसे सदियों की आंधियां गुजर रही हों मेरे भीतर। बहुत स्पष्ट याद है वह रोमांचक घटना जब बाबूजी कत्ल के केस की सुनवाई कर रहे थे । सभी पेशियों की गवाहियाँ खूनी को निर्दोष साबित कर रही थीं। विपक्ष मालदार भी था और ताकतवर भी । धमकियां आनी शुरू हो गईं। बाबू जी ने सरकारी सुरक्षा मांगी ।

दो पुलिस कॉन्स्टेबल बदल-बदल कर घर की ड्यूटी पर तैनात किए गए । रमेश भाई छाया की तरह बाबूजी के साथ रहते। रात को टॉयलेट भी रमेश भाई की सुरक्षा में जाते । लेकिन इतनी सुरक्षा के बावजूद बाबूजी पर हमला करने की कोशिश की गई।

रात के 9 बजे होंगे । खाना खाकर बाबूजी ऊपर के कमरे में बैठकर कानून की और दर्शन की किताबें पढ़ते थे। उस दिन प्रमिला भी उनके साथ थी। जैसे ही वे ऊपर पहुंचे और किताब निकालने को अलमारी खोली कि अलमारी के पल्ले की ओर से चमचमाता छुरा उनकी ओर लपका। जाने किस अदृश्य शक्ति के जरिए वे भागे और तेजी से सीढ़ियों पर लुढ़कते चले गए। प्रमिला कैसे नीचे आई मुझे याद नहीं, पर वह जोर-जोर से रो रही थी । बाबूजी ने काले साए को कमरे की खिड़की से खेतों की ओर कूदते देखा था । बाबूजी गीता के उपासक, कभी किसी बात से विचलित नहीं होते थे। उन्होंने तेज आवाज में कहा --"कोई घर के बाहर नहीं जाएगा, हमला हुआ है मुझ पर । "

फाटक पर तैनात पुलिस कॉन्स्टेबल बस 10 मिनट को ड्यूटी से हटा था कि ताक लगाए बैठे हमलावर को मौका मिल गया अंदर घुसने का । बंगले की खिड़कियों में ग्रिल नहीं थी। बड़ी-बड़ी खिड़कियां ...कोई भी आसानी से अंदर बाहर जा सकता था। बाद में बाबूजी ने बताया कि प्रमिला ने ही भूत भूत कहकर उनका ध्यान हमलावर की ओर दिलाया था। पुलिस तहकीकात तो होनी ही थी। खेतों पर खिड़की से कूदने के निशान मिले । ऐन खिड़की के नीचे की फसल दबी, धंसी मिली। फिर तो आए दिन की धमकियां

" केस वापस लो, पूरा परिवार मिटा डालेंगे, जीना दूभर कर देंगे। " बाबूजी की सुरक्षा और कड़ी कर दी गई । घर दहशत में गिरफ्त रहता। सरेशाम से ही दरवाजे बंद कर दिए जाते और बंद करने के पहले पूरा घर तलाशा जाता। कोई छुपा तो नहीं बैठा है। बहरहाल लंबे चले केस का फैसला बाबूजी के सही न्याय से हुआ।

केस खत्म हो जाने के बाद भी हम बच्चों के चेहरे पर हवाइयां उड़ी रहतीं। नींद में भी हम चौंक -चौंक जाते । अम्मा बाबूजी ने हमारा यह डर दूर करने के लिहाज से हमें चेंज देने की योजना बनाई । हनुमान जयंती भी आने वाली थी । लिहाजा हम सब सूरजकुंड गए । जहां पुरवा ग्राम के नजदीक हनुमान जी का प्राचीन मंदिर है । मंदिर में प्रतिष्ठित हनुमान जी की उस दुर्लभ मूर्ति की खासियत यह है कि वह 24 घंटे में प्राकृतिक रूप से (पंडित नहीं बदलते) तीन बार अपना रूप बदलती है । सुबह 4 से 10 बजे तक मूर्ति बालक जैसी दिखती है। 10 से शाम 6 बजे तक युवा और छह से पूरी रात मूर्ति वृद्ध दिखती है। बाबूजी को ये तीनों रूप देखने थे इसलिए हम सब जीप में सूरजकुंड सुबह-सुबह ही पहुंच गए ।

अम्मा ने हम दोनों बहनों को नेहरू जी जैसी शेरवानी, काली बंडी और चूड़ीदार पहनाया था । साथ में ढेर सारे नाश्ते से भरी डलिया, दूध चाय के थरमस हमारी तो पिकनिक जैसी ही थी। क्योंकि हनुमान जयंती थी इसलिए ढेर सारे रंगारंग कार्यक्रम भी मंदिर परिसर में रखे गए । अखंड रामायण, भजन, भजनों पर नाचते भक्तगण और विशाल भंडारे में स्वादिष्ट भोजन ।

शाम होते ही हम नौका विहार के लिए मचलने लगे। बाबूजी ने रमेश भाई के साथ मुझे और प्रमिला को नौका विहार के लिए भेज दिया। सूरजकुंड में नदी का प्रवाह अक्सर शांत रहता है। दोनों किनारों पर गझिन हरियाली और बहाव का कोई छोर नहीं । जब नाव में बैठे तो सूरज अस्त होने को ही था। नदी भी मानो हनुमान जी के रंग में रंग गई थी । खूब दूर तक नौका चलती चली गई, चलती चली गई । अचानक काले डरावने बादल आसमान पर मंडराने लगे। तेज हवाएं चलने लगीं। हवाओं की गति देख मल्लाह ने नौका तट की दिशा में मोड़नी चाही पर नौका तो बिना पतवार के बही चली जा रही थी । चारों ओर जलराशि ही जलराशि। किनारा सूझता नहीं था। थोड़ी ही देर में घनघोर बारिश शुरू हो गई और बिजली कड़कने लगी। हम रमेश भाई से लिपटे रोए जा रहे थे । कभी नौका बाएँ झुक जाती, कभी दाएँ। कभी लहरों पर उछलने लगती। लगता अब गए पानी में। अचानक इतनी जोर की बिजली कड़की कि लगा हमारी नौका पर ही गिरी है । बिजली की चमक में हमने एक दूसरी नाव अपनी ओर आते देखी। नाव पर अम्मा बाबूजी टॉर्च की रोशनी डालते हुए हमारा नाम पुकार रहे थे। बाबूजी नाव पर बिना किसी सहारे के मजबूत स्तंभ से खड़े थे। उनकी नौका के मल्लाह ने हमारी नौका भी अपनी नौका से बांध दी । अब दो नौकाएँ, दो मल्लाह और जिंदगी की आस छोड़ चुके हम सब। नौका रुकी। घुटने घुटने पानी से होकर हम जहां पहुंचे वह किसी किसान का झोपड़ा था। जब हम सबका रोना थमा तब उसने गुड़ डालकर औटाया हुआ गर्म दूध हमें पिलाया । उसके पास खाने को कुछ न था। वह अपनी बगिया से पके हुए पपीते तोड़ लाया।

न जाने किस दैविक शक्ति से हमारा बाल भी बांका नहीं हुआ । किसान के झोपड़े में रात गुजार कर जब हम घर लौटने के लिए रवाना हुए तो पुरवा गांव में कोहराम मचा था। दो नौकाएँ रात के तूफान में लापता थीं। जिनमें करीब तीस लोग सवार थे।

***

बाबूजी ने रिटायरमेंट के पहले ही अपने उसूलों के कारण नौकरी छोड़ दी और हम जबलपुर आ गए। जहाँ वे ताउम्र वकालत करते रहे । उन्होंने अपनी वकालत के काल में कत्ल के 40 मुकदमे लड़े और प्रत्येक मुकदमे में उनकी जीत हुई ।

जबलपुर जाबालि ऋषि की तपस्थली, उन्हीं के नाम पर इस शहर का नाम जबलपुर पड़ा । पर मैं हमेशा सोचती थी कि इसका नाम जलपुर होना चाहिए था। जहाँ देखो ताल ही ताल। जबलपुर के पूर्व में गौर नदी है। अर्धचंद्र बनाकर दक्षिण और पश्चिम दो दिशाओं में नर्मदा नदी बहती है। उत्तर में छोटी सी परियट नदी। जब इन नदियों में बाढ़ आती है तो जबलपुर के आसपास के इलाके टापू बन जाते हैं। जब नदियां शांत बहती हैं इनके किनारे उत्सवमय हो जाते हैं। नर्मदा नदी के किनारे ग्वारीघाट, तिलवारा घाट, भेड़ाघाट विभिन्न त्योहारों में लगे मेलों से सज जाते हैं । शहर के भीतर ढेरों तालाब। हनुमानताल मेरे परदादा का बनवाया हुआ था। रानीताल, चेरीताल, अधारताल का निर्माण रानी दुर्गावती के समय हुआ। फूटाताल, मढाताल, तिलक भूमि की तलैया, श्रीनाथ की तलैया, भंवरताल, गंगासागर, महानद्दा। कितने गिनाऊँ.....ताल ही ताल। तालों के जलवक्ष पर कुमुदिनी की बेल बिछी रहती। जिसके बेंजनी फूल शाम होते ही खिल जाते और सुबह मुरझा जाते। सुबह बीच-बीच में लगे सफेद गुलाबी लाल कमल खिल जाते। कुमुदनी चाँद की दीवानी, कमल सूरज का । मेरा घर का नाम कमला था। मेरे दोनों बड़े भाई मुझे कमल कहते थे। इस फूल के प्रतिरूप ही मेरा स्वभाव। सुबह से दोपहर तक खुश रहती हूँ। दोपहर ढलते ही जाने कौन सी वेदना मुझे निढाल करने लगती है। जो आज तक जस की तस है। चाहे कितनी रात गए सोऊँ पर उठ जाती हूँ भोर होते ही 5 बजे । मैंने कभी अपनी अधूरी नींद की पूर्ति सुबह देर तक सो कर नहीं की।

नामों की भी मेरे जीवन में खूब घुसपैठ रही । जयशंकर प्रसाद की कामायनी पढ़कर मेरे भाई बहन मुझे कामायनी फिर किमी नाम से पुकारने लगे। यूँ स्कूल में नाम लिखाने से पहले मेरा नाम शेफाली भी रखा गया । फिर बड़े चाचा जब स्कूल में मुझे भर्ती करने ले गए तो जाने क्या सूझा उन्हें संतोष नाम लिखा दिया। संतोष मामा जी का नाम था। जब बाबूजी ने संतोष नाम पर एतराज किया तो चाचा जी बोले "राजसी ठाट रहेंगे इसके, जैसे जॉर्ज चतुर्थ, जॉर्ज पंचम ।

नाम की महिमा अब भी लोगों को भ्रम में रखती है कि मैं लड़की हूँ कि लड़का ।

रात्रि भोज के दौरान सब एक साथ बैठकर खाते थे और बौद्धिक चर्चाएं होती थी। बाबूजी ने चर्चा के दौरान बताया था कि सन 1956 में जबलपुर मध्य प्रदेश की राजधानी होते-होते रह गया था । जबकि आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक इन सभी दृष्टियों से जबलपुर मालामाल था और लोकतांत्रिक चेतना का सबसे प्रमुख केंद्र था लेकिन उस जमाने में सेठ गोविंद दास का कट्टरपंथी रवैया कांग्रेस को पसंद न था और चूंकि वे संसद सदस्य थे अतः कांग्रेस की इस ना पसंदगी ने जबलपुर के शीश पर राजधानी का मुकुट चढ़ने ही नहीं दिया। राजधानी के गौरव से वंचित जबलपुर को विनोबा भावे ने संस्कारधानी की उपाधि दी।

यह तो बहुत बाद में जब मैं स्कूल (महारानी लक्ष्मीबाई कन्या विद्यालय) में पढ़ती थी और जब जबलपुर सांप्रदायिक दंगों की भयानक चपेट से गुजर रहा था तब पता चला था कि जबलपुर को संस्कारधानी का विशेषण गौरव गान करने के लिए नहीं बल्कि सांप्रदायिकता की आग में झुलसे शहर के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए दिया था। जिस शहर में एक तरफ साहित्य और राजनीति के बीच और दूसरी तरफ साहित्य व समाज के बीच इतना जीवंत संपर्क रहा वहाँ क्यों कर सांप्रदायिकता की विषबेल पनप सकी। सोच सोच कर हैरान, परेशान रही मैं .....हफ्तों, महीनों बार-बार आंखों के सामने वह खूनी मंजर, वह दिल दहला देने वाला नजारा आता रहा।

उषा भार्गव कांड सुर्खियों में था। उषा भार्गव का मुस्लिम लड़के से प्रेम वजह बना दंगों की, जब किन्ही अज्ञात व्यक्तियों ने उषा भार्गव का कत्ल कर दिया। आम राय थी कि यह कत्ल मुस्लिम संप्रदाय के हाथों हुआ है । मैं एनसीसी में थी और उस दिन हमारी परेड का अभ्यास स्कूल में चल रहा था। अचानक दंगे भड़कने की खबर मिली थी और हमें पुलिस की सुरक्षा में पुलिस जीप में हमारे घरों तक पहुंचाया गया था । मेरा चूँकि सिविल लाइंस में घर था सो सबसे आखरी में मैं घर पहुंची। मैंने डबडबाई आंखों से शहर की तबाही देखी थी । जली अधजली धुंए से भरी मढाताल, घमापुर, बड़े फुहारे की दुकानें। कमानिया गेट की चहल-पहल भरी सड़क पर खून मांस के लोथड़े, बिखरा टूटा फूटा सामान, जले हुए टायर, लोगों का वहशी हुजूम..." मारो मारो "की दानवी आवाज। यह आवाज हिंदू की थी या मुसलमान की कोई सिक्स्थ सेंस वाला भी नहीं बता सकता था। मैं रोने लगी थी और मेरा हृदय मरोड़े लेने लगा था। घर लौटने के बाद शाम मुझसे खाना नहीं खाया गया और मैं सोते हुए भी चौंक-चौंक पड़ी थी। अगली दो रातें गजब का खून बरसाती रहीं। चीखों की समवेत लय कानों में गुपचुप प्रवेश कर मुझे सर्वांग पीड़ा से भरती रही । नहीं जानती वह कैसी छाप थी जिसने मेरे मासूम, संस्कारी और संवेदनाशील ह्रदय को चप्पा चप्पा बींध डाला था। मन में सवाल उठा था आखिर किसने हक दिया ईश्वर की बनाई रचना को खत्म करने का? क्यों संप्रदायों में बंटा है समाज और क्यों एकता से नहीं रह सकता यह वर्ग? कहाँ की दुश्मनी है जो ये दोनों संप्रदाय कौरव पांडव बने अपने ही हस्तिनापुर को मिटाने पर तुले हैं। इस घटना ने कई बरसों बाद मुझसे लिखवाई "अजुध्या की लपटें" कहानी जिसमें मैंने बाबरी मस्जिद ढहाने को प्रसंग बना उषा भार्गव कांड ही लिखा था। "अजुध्या की लपटें" एकांत श्रीवास्तव के संपादन में कोलकाता से निकलने वाली मासिक पत्रिका वागर्थ में छपी और बेहद चर्चित हुई।

बचपन की यादों में कुछ यादें अभी भी रड़कती हैं । जबलपुर का एसिड कांड तो ताजे घाव सा है। ईश्वर मेरे जैसा भावुक संवेदनशील और नरम दिल किसी को न दे । ऐसे दिल वालों के लिए दुनिया नंदनवन होनी चाहिए। जहाँ प्यार ही प्यार हो, संगीत हो और फूलों से पटी धरती। पर जिंदगी ऐसी नहीं होती। यहाँ प्यार करने का दावा करने वाले दिल निर्मम भी होते हैं। जबलपुर में खमरिया स्थित रॉबर्टसन कॉलेज में जीजाजी बॉटनी के लेक्चरर थे। कॉलेज का वार्षिकोत्सव था जिसमें मैं जीजी के हाथ की सिली गुलाबी साटन की फुग्गेदार बाहों वाली खूबसूरत फ्रॉक पहने, गुलाबी रिबन की दो चोटियां करे जीजी और प्रमिला के साथ गई थी। जीजाजी ने हमें सबसे आगे की सीट पर बैठा दिया था। कॉलेज की लड़कियों के नृत्य और नाटक मन मोह रहे थे कि तभी अचानक सांप -सांप के शोर सहित भगदड़ मच गई । मैं दौड़कर टेबल के नीचे छिप गई। पता चला सांप नहीं वो एसिड के बल्ब थे जो किसी ने हॉल में फेंके थे। मांस के जलने की बू, चीख-पुकार, रोना कलपना और हमारी खोज के संग संग घायलों को प्राथमिक चिकित्सा के लिए कॉलेज की प्रयोगशाला में ले जाया गया। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ गई। बहुत भयानक दिल दहला देने वाला था वह कांड । पता चला इश्क का मामला था। लड़की किसी और से प्रेम करती थी और इसी खुन्नस में जुनूनी आशिक ने अपने साथियों के साथ इस काम को अंजाम दिया । लड़की तो बच गई .....निर्दोष दर्शक इसका शिकार हो गए । यौवन के द्वार पर पहुंची खूबसूरत लड़कियों के चेहरे वीभत्स हो गए। कंधे, पीठ, कमर ....एसिड जहां-जहां गिरा अपने खूंखार निशान बनाता गया। मुझे जीजी ने टेबल के नीचे से खोज निकाला। डरी सहमी मैं सुबक रही थी। हम सब प्रयोगशाला के कोने में तब तक बैठे रहे जब तक सारे घायल अस्पताल नहीं पहुंच गए। वह तड़प, वह रोना कलपना, दर्द भरी चीखें आज भी मेरा कलेजा दहला देती हैं। प्रेम का यह कैसा रूप कि मानवता भी रो पड़े।

इन घटनाओं ने शहर को लेकर जहाँ मुझे शर्मिंदा किया है वहीं गर्व भी है मुझे जबलपुर पर । यहाँ हितकारिणी सभा है । शुभचिंतक प्रेस भी और लोक चेतना प्रकाशन भी । शुभचिंतक प्रेस से बाबूजी (गणेश प्रसाद वर्मा )की दर्शन शास्त्र की किताब "सरस्वती पूजन द्वारा विश्व शांति "प्रकाशित हुई थी। जिसकी ढेरों प्रतियां बाबूजी के ऑफिस की अलमारी में बरसों पड़ी रही थीं। वह किताब अनूठी थी पर उसकी बिक्री कम हुई।

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