Hone se n hone tak - 49 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 49

होने से न होने तक

49.

मैं खाने की मेज़ से उठने ही वाली थी कि दोपहर की डाक से आया एक लिफाफा सतवंती ने मुझे पकड़ा दिया था। यश की चिट्ठी। लगा था जैसे आज का दिन सार्थक हो गया हो...आगे आने वाले और बहुत से दिन भी। यश के अलावा मेरा इस दुनिया में और है ही कौन। इस रिश्ते को केई नाम देने की बात मैंने कभी सोची ही नहीं। या शायद साहस ही नहीं हुआ था वैसा। सोचती तो आण्टी ने उस सोच को कोई मान दिया होता क्या ?...और यश ने? आज इस उम्र में पहुॅच कर अपने ऊपर बहुत झुंझलाहट होती है। यश के ऊपर भी। क्या रिश्ता है, कोई भी तो नहीं। क्या कहें...मन का रिश्ता ? वह भी तो बड़ी अजीब सी,बचकानी सी बात लगती है...जैसे हवा में लटकता हुआ कोई शून्य है...जिसे किसी ठोस सच की तरह पकड़े बैठी हूं...कब से...अभी तक....इस उम्र तक। अब इस उम्र में उस रिश्ते, उस एहसास से उबरने का भी क्या मतलब? वैसे भी एहसास कोई बिजली का बटन तो नहीं है न जो जब चाहा स्विच आफ कर दिया। अब कभी कभी लगता है क्यों? पर हर क्यों का जवाब थोड़ी होता है इंसान के पास-या कि हम जवाब चाहते नहीं...या कि उसके सच का सामना नहीं कर सकते। यश और मेरे रिश्ते में मेरी मुट्ठी तो सदैव ख़ाली ही थी-बस मैं ही किसी ज़िद्द की तरह उसे बंद किए बैठी रही हूं--अभी तक। अक्सर मन में आता है कि अगर मैं गौरी से ज़्यादा सुन्दर होती,उससे ज़्यादा अभिजात्य और अगर आण्टी ने यश के लिए मुझे चाहा होता तो क्या तब भी मेरे और यश के रिश्ते का रंग यही होता? क्या तब भी यश ने जो है मेरे साथ वैसा ही रिश्ता चाहा होता। पर क्या करुंगी इतना सोच कर। वैसे ही मन में कोई कम पीड़ा है जो उसमें एक हार और अपमान के एहसास को और जोड़ लूॅ। भला क्या मिलेगा उससे। पर क्या करुं मन ही तो है न जाने कहॉ कहॉ उलझ जाता है। जिससे कुछ हासिल नहीं-वहॉ भी। फिर अपने आप को न जाने कितना आहत,कितना अकेला और अपमानित महसूस करती रहती हूं। जैसे यश को याद करना भी अपने आप में आत्म सम्मान की कमी जैसा छोटापन लगने लगता है। पर ज़िदगी को इस तरह से रैशन्लाइज़ कर पाना संभव है क्या। मैं यश से कहॉ उबर पाती हूं। कितने बरस बीत गये यश को गये हुए...जैसे न जाने कब की बात है...किसी पिछले जनम की जैसे। कभी लगने लगता है कि सब कुछ अभी अभी बीत रहा है...तब जैसे जीया गया पूरा अतीत मेरे वर्तमान के साथ साथ चलने लगता है। तब और भी ज़्यादा अकेली होने लगती हॅू मैं।

लिफाफा अभी भी मेरे हाथ में है। मैंने उसे अभी भी खोला ही नहीं है। सतवंती एक जगह खड़ी मेरी ही तरफ देख रही है...घूर कर। मेरे चेहरे पर आते जाते भाव।

‘‘क्या देख रही है?’’ मैंने पूछा था।

‘‘कुछ नहीं।’’ और सतवंती सामने से हट गयी थी।

मैं ने अचकचा कर लिफाफा खोल लिया था। नए साल का कार्ड। हमेशा की तरह उसके बॉए तरफ आगे पीछे छोटी छोटी लिखावट में यश की चिट्ठी। लिखा है तुम्हारी नयी किताब देखी और पढी। तबियत ख़ुश हो गयी। बहुत अच्छा लिखती हो। लिखो...ऐसे ही अच्छा अच्छा लिखती रहो। बहुत बहुत ख्याति पाओ। यश सहगल की दुआएॅ तुम्हारे साथ हैं। अचानक बहुत साल पहले कही गयी यश की बात याद आती है, ‘‘हिन्दी साहित्य में तुम्हारा नाम हुआ तो मेरा भी होगा।’’मन में न जाने क्या क्या घुमड़ने लगता है-एक झुंझलाहट भी।

यश हमेशा ही ऐसा ही छोटा सा पत्र लिखते हैं। अक्सर इसी तरह से कार्ड के आगे पीछे लिखा हुआ। अब बहुत दिन के अन्तर पर आते हैं यह पत्र। यश के हाथ की कुछ पंक्तियॉ ही मुझ को कई कई दिन के लिए अपनेपन की एक गंध में सराबोर कर देती हैं-एक अजब सी बेचैनी से भी भर देती हैं। मन के आस पास यश का एहसास और उसके दूर चले जाने की पीड़ा भी। यश का पत्र लिखने का वही पुराना अंदाज़, जैसे सामने बैठ कर बातें कर रहे हों। चलो यश ने मेरी किताब पढ़ ली। अपने ऊपर शर्म सी आती है। कितने दिन से सोच रही थी कि उसे किताब भेज दूॅ...पर मन पर अजब सा आलस्य चढ़ा रहा। अपने ऊपर आश्चर्य होता रहा था कि ऐसा कैसे कर सकती हूं मैं कि यश को किताब भेजना ही याद न रहे।

मुझ को उस रात पूरे समय ठीक से नींद नहीं आयी थी। पूरी रात ऐसे ही सोते जगते कट गई थी। यश का ख़त जब भी आता है तब हमेशा ही मेरे साथ ऐसा ही होता है।

रात को बुआ के घर चली गयी थी वहॉ से देर से ही लौटी थी। सुबह गाढ़ी नींद से सो रही थी कि फोन की घण्टी बजने लगी थी। सतवंती के गॉव से फोन आया था। कल रात भी आया था यह फोन। मैं ने बता दिया था कि कल दस बजे तक आएगी, तब भी सुबह ही दुबारा फोन कर दिया। यह आदिवासी लोग...न इनकी बात अपने ही समझ आती है और न पूरी तरह से इधर की बात यह लोग समझ पाते हैं। घड़ी की तरफ देखा तो पौने सात बज रहे हैं। बहुत झुंझलाहट हुई थी। फिर सोने की बहुत कोशिश की थी पर नींद ही नहीं आई थी। इतवार का सबेरा ख़राब कर दिया इन लोगों ने। न सो पा रही हूं...न ठीक से ऑख ही खुल रही है। ऐसे ही सोते जगते करीब दो घण्टे बीत गए थे। तभी दरवाज़ें के लैच में चाभी घूमने की आवाज़ आयी थी। चलो सतवंती तो आ गयी। मैंने उसे आवाज़ लगाई थी। सतवंती ने मुस्कुराते सकुचाते हुए कमरे में झांका था,‘‘आप उठ गईं दीदी?’’ उसने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा था।

‘‘हॉ भई तुम्हारे फोन ने सोने कहॉ दिया ?’’

सतवंती कुछ समझी नहीं थी। मैं ने सोचा था फोन की बात उसे बाद में बताऊॅगी,‘‘सतवंती एक प्याला चाय पिला दे पहले। मैंने रात में छोला भिगो दिया था। बारह बजे तक पूरी के साथ खिला देना...ब्रंच...एक साथ खाना भी नाश्ता भी...ठीक।’’

सतवंती ख़ुश लग रही है। वह हॅसी थी,‘‘ठीक’’

मैं चाय का इंतज़ार करती रही थी। सतवंती ने बगल के साइड बोर्ड पर चाय की ट्रे रख दी थी और वहॉ रखी यश की चिट्ठी उसने उठा ली थी। मैं ने उसे लेने के लिए हाथ बढ़ा दिया था।

उसने मुस्करा कर लिफाफा मुझे पकड़ा दिया था,‘‘दीवाली के पहले जो अंकल आपसे मिलने आए थे उनकी चिट्ठी है?’’

‘‘हॉ क्यों?’’ मुझे आश्चर्य हुआ था,‘‘तुझे कैसे पता ?’’

वह अजब तरह से लहरा कर मुस्कुराई थी‘‘मुझे लगा।’’

‘‘तुझे लगा ? मतलब ?’’

‘‘कुछ नहीं’’ और वह सकपका कर चली गई थी।

थोड़ी देर में वह फिर कमरे में आई थी। मैंने ख़ाली प्याला ट्रे में रख दिया था और मुझे अचानक याद आया था,‘‘सतवंती तेरे घर से फोन आया था।’’

वह बाहर जाते जाते रूक गई थी,‘‘जी कब ?’’

‘‘कब क्या। कल से तीन बार आ चुका है। आज सुबह सुबह जगा दिया। इतवार की नींद ख़राब हो गयी।’’

वह खिसियायी हुई सी खड़ी रही थी। मुझे लगा बेवजह ऐसा कहा उससे। इसलिए बहलाती हुयी सी आवाज़ में उससे पूछा था ‘‘क्या बात है तेरे घर से आजकल बहुत फोन आने लगे हैं। कोई ख़ास बात ?’’

‘‘जी’’

‘‘जी ? मतलब है कोई बात ?’’

“जी मेरी मॉ मुझे मई में बुला रही है ?’’

‘‘क्यों किसलिए बुला रही है ? कोई ख़ास बात ?’’

‘‘जी’’ वह सहज भाव से मुस्कुरा दी थी‘‘शादी के लिए बुला रही है।’’

‘‘शादी? किसकी? तेरी शादी ?’’

‘‘जी।’’

जिस सहज स्वभाविक ढंग से उसने पूरी बात की है,वह मुझे अजीब लगता है। बहादुर से उसका रिश्ता मैं जानती हूं। उस बारे में वह कुछ छिपाती भी नहीं है।

‘‘फिर तू जा रही है मई में ?’’

‘‘जी नहीं’’ मई में गॉव मे बहुत गर्मी होती है। वहॉ पंखा नही बिजली नहीं, दिमाग घूम जाता है।’’ उसने अपने सिर पर हाथ रखा था ‘‘मैंने बोल दिया मॉ को दशहरे पर आऊॅगी।’’

‘‘मतलब दशहरे के महीने में शादी करेगी।’’

‘‘जी ’’

‘‘फिर क्या गर्मी में इधर आ जाएगी।’’

‘‘नहीं’’ वह हॅसी थी ‘‘सो कैसे आऊॅगी। पर तब तक उधर रहने की आदत फिर से हो जाएगी। धीरे धीरे।’’

‘‘अब इतने साल बाद उधर जा कर रहेगी तो अजीब नहीं लगेगा?’’

‘‘लगेगा...पर क्या करुंगी...जाना तो पड़ेगा ही।’’

‘‘अरे तो इधर के किसी लड़के से शादी कर ले।’’

वह वैसे ही मुस्कुराती रही थी,‘‘शादी तो अपने गॉव जा कर ही करनी पड़ती है न...अपनी ही तरफ के लड़के से।’’

उसके चेहरे पर कोई पीड़ा कोई द्विविधा नहीं। मुझ को अजीब लगा था। लगा था इसके लिए हर रिश्ता कितना निश्चित, कितना व्याख्यायित है। जो है,सो है। मेरे मन में बहुत से सवाल,बहुत सी बातें आती रही थीं। पर मैं चुप रही थी। सोचा कि रिश्तों की जो उलझनें उसकी सोच के बाहर हैं, मैं उन्हें उसे क्यों सुझाऊॅ। मैंने बहुत चाहा था कि मैं उससे कुछ न कहूं पर अचानक मुह से निकला था,‘‘यहॉ की,यहॉ के लोगों की याद नहीं आएगी सतवंती?’’

लगा था उसके चेहरे पर बादल घिर आए हों जैसे। पर बस क्षण भर के लिए। उसने बड़े भोलेपन से अपने कंधे उचकाए थे,‘‘आएगी’’ वह मेरी तरफ देख कर मुस्करा दी थी,‘‘पर क्या कर सकती हूं। ठीक है, रहना तो उधर ही है न।’’वह मुस्कुरायी थी।

कालेज में एनुअल फंक्शन की तैयारी चल रही है। अब तो किसी काम को करने में उछाह ही नही लगता। जैसे हम सब नौकरी का बोझा कंधे पर ढोते हुए बंधुआ मज़दूर हैं। पर जो काम पहले से करते रहे थे वे तो करना ही है। फरक केवल इतना है कि दीपा दी के ज़माने में ख़ुश हो कर करते थे अब ऊब कर करते हैं। पर उतना बारीक सा फरक समझ पाने लायक बुद्धि इन सत्ताधारियों के पास नहीं है। फिर उससे उन्हे कोई फरक भी नही पड़ता। अभी अभी मैं ने छात्राओं की पूरे वर्ष की भागीदारी की लंबी सी लिस्ट तैयार की है। इधर के सालों में स्टूडैन्टस की सॅख्या भी तो कितनी बढ़ गयी है। अपनी वार्षिक रिपोर्ट में दमयन्ती अरोरा बड़े गर्व से पढ़ कर सुनाऐंगी। हूं। सब कुछ नम्बरों में ही तो सिमट कर रह गया है। संस्था क्या है ग्रैजुएट्स प्रोड्यूस करने की फैक्ट्री है, फिर चाहे कूड़ा ही क्यों न प्रोड्यूस करो कौन देखता है, परवाह ही किसे है। बस दमयन्ती अरोरा की नौकरी बनी रहे और मिसेज़ चौधरी और गुप्ता गर्दन तान कर चल सकें कि चन्द्रा सहाय पी.जी. कालेज के अध्यक्ष और प्रबंधक हैं। उनका अहं तुष्ट होता रहे। फिर और फायदे कम हैं क्या? शशि अंकल पर आरोप की ऊॅगली उठाने वाले ये लोग कितनी चालाकी से काम कर रहे हैं। नौकर चाकर,गाड़ी का पैट्रोल सब यहीं के खातों में तो फिट होता है। एक भी चपरासी बाबू इनकी मर्ज़ी के बग़ैर अपायन्ट नहीं हो सकता। शशि अंकल के समय में सारी नियुक्तियॉं अकेले दीपा दी करती थीं। सुनते हैं प्रबंधक गुप्ता इन अपायन्टमैंन्ट्स में ख़ूब पैसा खा रहे हैं। अध्यक्षा भी तो कोई कम नहीं। हिसाब किताब फिट है। कोई एक अकेला यही विद्यालय थोड़ी है इनकी किटी में।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com