Mera Swarnim Bengal - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

मेरा स्वर्णिम बंगाल - 5

मेरा स्वर्णिम बंगाल

संस्मरण

(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)

मल्लिका मुखर्जी

(5)

समय काफ़ी बिगड़ा, उपर से टेक्सी भी बहुत पुरानी एवं खस्ता हाल में थी। न तो दरवाजा ठीक से बंद हो रहा था, न ही खिड़की। सीट भी सही नहीं थी, पर टेक्सी ड्राइवर बड़ा भला इन्सान लगा। यह सुनकर कि हम भारत से आए हैं, उसके चेहरे पर मैंने अंधेरे में भी एक चमक देखी। रास्ते में हमने ड्राइवर से काफी बातें की। हमने उसे यहाँ आने का उद्देश्य बताया।

वह झट से बोला, ‘मैं कोमिल्ला ज़िले का ही रहनेवाला हूँ। आप लोग चाहें तो मैं आप लोगों को पूरे बांग्लादेश का सफ़र करवा सकता हूँ।’

मुझे लगा कोई अपना मिल गया। हमने जानना चाहा कि खर्च कितना होगा, उसने सब मिलाकर 9000 टाका कहा, यानि चटगाँव उपक्षेत्र के कोमिल्ला (अब ब्राह्मणबाडिया) ज़िले का गाँव मोईनपुर, ढाका उपक्षेत्र के मैमनसिंह ज़िले का गाँव रायजान तथा बिक्रमपुर (अब मुंशीगंज) ज़िले का गाँव कनकसार, तीनों स्थान की यात्रा के लिए वह राजी हो गया। हमने उसे बताया कि हम होटल पहुँचकर बताएँगे। हमने उसका फोन नंबर लिया। उसका नाम था जशीमुद्दीन सरकार।

मैंने पूछा, ‘क्या आप पहले हिन्दू थे?’

थोडा झिझककर उसने कहा, ‘नहीं।’

मैंने कहा, ‘पर सरकार पदवी (surname) तो बंगाली हिन्दू में ही होती है न?’

वह चुप रहा। उसके चेहरे पर उभर आई दर्द की रेखाएँ बता रही थी कि मेरी धारणा सही थी। पाकिस्तानी सैन्य की प्रताड़ना में नरसंहार, बलात्कार, लूटपाट के साथ-साथ गैर मुसलमान को मुसलमान बनने के लिए मजबूर करना भी तो शामिल था! उसी डर से तो पापा जन्मभूमि छोडने पर मजबूर हुए थे। मजहबी ताकतों का सियासत में दखल और उसके परिणाम को बांग्लादेश की अवाम से बेहतर और कौन जान सकता है?

वर्ना ताऊजी अपने बेटे को पापा को सौंपते हुए यह कहते, ‘वंश का एक ही बेटा है, तू अपने साथ उसे ले जाना चाहता है, ले जा। जरूरत पड़ी तो मैं धर्म परिवर्तन कर लूँगा पर वतन नहीं छोड़ सकता।’

मतलब वहाँ के हिन्दुओं के लिए दो ही विकल्प बचे थे, देश छोड़ो या धर्म। पापा ने दूसरा विकल्प चुना।

उन्होंने कहा, ‘जहाँ भी मैं रहूँगा उस जमीं को अपनी मातृभूमि मान लूँगा पर धर्म परिवर्तन इन्सानियत नहीं होती।’

वे धर्म निरपेक्षता के कट्टर हिमायती थे। धर्मांधता में यकीन नहीं करते थे। दोनों क्षेत्रों की जनता का धर्म एक होते हुए भी भाषा और जातिगत दूरियों के कारण ही तो पूर्वी पाकिस्तान में दमन चक्र चला!

रास्ते में ट्राफिक बहुत ज्यादा था। रात के क़रीब साढ़े दस बज चुके थे। अब मैं खिड़की के बाहर देख रही थी। मन में बांग्लादेश का इतिहास जो यहाँ आने से पहले मैंने इंटरनेट से जाना, वही चल रहा था। टेक्सी होटल फार्मगेट के सामने आकर रुकी। और मन वास्तविकता के धरातल पर आ पहुँचा। अब मैं उसी ढाका शहर में खड़ी थी जहाँ वर्ष 1952 में पाकिस्तानी सेना ने उर्दू भाषा का विरोध कर रहे छात्रों की निर्मम हत्या कर दी थी। हम होटल में दाख़िल हुए। अनुप शाहा ने हमारा स्वागत किया, चाय पिलाई। हमें कमरे तक पहुँचाया। बड़े ही सलीके से कमरा सजा था। एक शांति का अनुभव हुआ। खाना खाते-खाते रात के बारह बज चुके थे। जशीमुद्दीन को हमने दूसरे दिन सुबह बुला लिया था। पहले हम ढाका शहर घूमना चाहते थे।

आठ फरवरी को सुबह-सुबह ही हम नित्य कर्म से निपटकर तैयार हो गए। कमरे में न्यूज़ पेपर दिया गया- ‘Daily Sun’, मुझे अच्छा लगा कि समाचार में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी और भारतीय अभिनेत्री करीना कपूर की न्यूज़ भी छपी थी। सुबह का नास्ता और चाय होटल की तरफ से था, नान-सब्जी-ऑम्लेट। नास्ता करके हम काउंटर पर पहुँचे। अनुप जी की मदद से हमने वहाँ की ग्रामीण कंपनी का एक सिमकार्ड 150 टाका में खरीदा और 100 टाका का रीचार्ज करवाया। एक मिनिट भारत में बात करने का चार्ज था 20 टाका, फिर भी इमरजन्सी में घर-परिवार के सदस्य से बात करने की सुविधा तो उपलब्ध थी।

ग्यारह बजे जशीमुद्दीन आ पहुँचे। सबसे पहले हम ढाकेश्वरी मंदिर पहुँचे, जहाँ प्रवेश करते ही सब से पहले माँ दुर्गा और कार्तिक, गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती की प्रतिमाएँ दिखी। वहाँ नमन करके हम अंदर की तरफ गए। मंदिर के मध्य में ढाकेश्वरी देवी की प्रतिमा विराजमान थी, हम सभी ने पूजा-अर्चना की। ढाकेश्वरी मन्दिर बांग्लादेश का राष्ट्रीय मंदिर है। 12वीं शताब्दी में सेन राजवंश के बल्लाल सेन ने ढाकेश्वरी देवी मन्दिर का निर्माण करवाया था। ढाकेश्वरी देवी के नाम पर ही ढाका का नामकरण हुआ है। ढाकेश्वरी पीठ की गिनती शक्तिपीठ में की जाती है।

भारत के विभाजन से पहले तक ढाकेश्वरी देवी मन्दिर सम्पूर्ण भारत के शक्तिपूजक समाज के लिए आस्था का बहुत बड़ा केन्द्र था। भोग प्रसाद में देरी थी, समय की कमी थी, हम रुक नहीं पाए। बहुत सारे बंगाली हिन्दू परिवार वहाँ मौजूद थे। वहाँ एक भाई से मौसा जी ने कुछ बातें की। वहाँ के किसी भी व्यक्ति से वार्तालाप करने में एक अजीब सी कशिश महसूस होती थी। मुझे लगा वहाँ रह रहे हर व्यक्ति का भारत के किसी न किसी परिवार से कोई नाता रहा है चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, अपनों से बिछड़ने का दर्द राजनीतिक दरिन्दे क्या कभी समझ पाएँगे?

वहाँ से हम लालबाग किला देखने पहुँचे। इस किले का निर्माण बादशाह औरंगजेब के पुत्र शाहजादा मुहम्‍मद आज़म ने करवाया था। वर्ष 1857 में जब स्‍थानीय जनता ने ब्रिटिश सैनिकों के विरुद्ध विद्रोह किया था तब 260 ब्रिटिश सैनिकों ने इसी किले में शरण ली थी। इस किले में पारी बीबी का मकबरा, लालबाग मस्जिद, हॉल तथा नवाब शाइस्‍ता खान का हमाम भी देखने योग्‍य है।

जब हम बांग्ला भाषा के मेरे प्रिय कवि, संगीतज्ञ और दार्शनिक काज़ी नजरुल इस्लाम की समाधि के क़रीब पहुँचे, श्रद्धा से मेरा सिर झुक गया। एक ऐसे कवि जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से देश के प्रति बलिदान और विदेशी शासन के प्रति विद्रोह के भाव जगाए। उनकी कविता में विद्रोह के स्वर होने के कारण ही वे 'विद्रोही कवि' के नाम से जाने जाते हैं। अपने धर्म निरपेक्ष सिद्धांतों के अनुसार वे मस्जिद में इबादत और माँ काली की पूजा में विरोधाभास नहीं मानते थे। मुसलमान होते हुए भी वे माँ काली के समर्पित भक्त थे। उनकी अनेक रचनाएँ माँ काली को ही समर्पित हैं।

अविश्वास और आतंक के दौर से गुजर रही नयी पीढ़ी के लिये आज भी नजरुल का संघर्ष, नजरुल की राष्ट्रीयता और सम्मान प्रकाश स्तंभ की तरह है। भारत और बांग्लादेश के बीच की गहरी जड़ों और मजबूत साझा विरासत का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के वर्धमान जिला के चुरुलिया गाँव में जन्में काज़ी नजरुल इस्लाम को बांग्लादेश ने राष्ट्रकवि का सम्मान दिया तो भारत और बांग्लादेश, दोनों देशों के राष्ट्रगान मेरे प्रिय कवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाएँ हैं। बांग्लादेश सरकार के आमन्त्रण पर वर्ष 1972 में नजरुल सपरिवार ढाका गए। 29 अगस्त 1976 के दिन यहीं उनकी मृत्यु हुई।

ढाका युनिवर्सिटी, ढाका कॉलेज, नेशनल म्यूज़ियम देखते आगे बढ़ ही रहे थे कि रास्ते में कॉलेज के छात्र, आंदोलन करते मिले। हम वहीं से होटल पर लौट आए। गुजरात में वर्ष 1972 में नवनिर्माण आंदोलन के बाद कोई छात्र आंदोलन याद नहीं आ रहा था। बांग्लादेश में आज भी युवावर्ग कुछ ज्यादा ही सक्रिय है। विभिन्न समस्याओं का सामना कर रहा है बांग्लादेश। शाम को हम होटल पर लौट आए। गाड़ी पुरानी थी पर जशीमुद्दीन हमें बहुत मिलनसार लगा, आख़िर पापा के जिले का जो था! हमने तय कर लिया कि हम उसी के साथ घूमेंगे। हमने उसे कह दिया कि दूसरे दिन सुबह सात बजे के क़रीब वो होटल पर आ जाए। हम पहले मोईनपुर जायेंगे।

होटल पर आकर हमने अनुप शाहा से विनती की, गर हमें मोईनपुर इलाके का एक नक्शा मिल जाए। अनुप जी ने हमें नेट पर से एक प्रिंट निकालकर दी। जिसमें काइनपुर गाँव दिख रहा था। अनुप जी ने कहा मोईनपुर और काइनपुर गाँव पास-पास में ही है, तभी अनुप जी के एक दोस्त उन से मिलने आ गए जो कस्बा के रहनेवाले थे।

उन्होंने कहा ‘मोईनपुर कस्बा पुलिस थाना के अंतर्गत पड़ता है। ढाका से मोईनपुर क़रीब 160 कि.मी. का अंतर है। नक्शे के मुताबिक पहले 125 कि.मी. जाने पर ब्राह्मणबाडिया का मोड़ आएगा, फिर वहाँ से कस्बा रोड पकड़कर करीब 35 कि.मी. जाने पर कुटी चौमोहनी नामक एक जगह आएगी, वहाँ से मोईनपुर तक पहुँचने की एक पतली-सी कच्ची-पक्की सड़क आएगी।’

मोईनपुर तक पहूँचने का रास्ता मैंने डायरी में नोट कर लिया। बस अब क्या था, जहाँ चाह वहाँ राह! सब कुछ सही चल रहा था। हमने होटल से ही कुछ नाश्ता, मिठाई, बिस्किट वगैरह खरीद लिया। पानी की बोतलें भी रख ली।

नौ फरवरी को सुबह सात बजे के क़रीब जशीमुद्दीन आ चुका था। हम चाय-नाश्ता करके होटल से निकले। बांग्लादेश में एक बात पर मेरा खास ध्यान गया। किसी भी जगह का पता पूछने पर पहला प्रश्न होगा, ‘कौन से पुलिस थाना में पड़ता है?’ ढाका शहर से बाहर निकलते ही बांग्लादेश प्राकृतिक सौन्दर्य नज़र आने लगा। ऐसी हरियाली, मन प्रफुल्लित हो गया। कुछ देर में कालीगंज आया। मुझे तुरंत ‘कालीगंज की बहु’ टी.वी. सिरियल याद आ गई। ज़िला गाजीपुर में कालीगंज नगर है।

नेशनल हाइवे-2 पर हमारी कार दौड़ रही थी। रास्ते में घोड़ासाल, भाटपाड़ा, नरसिंदी जैसे नगर-शहर आए। रास्ते के दोनों ओर केले के पेड़, छोटे-छोटे असंख्य तालाब, दूर-दूर तक धान के लहराते खेत, इतना सुंदर देश! तभी तो लिखा गया, ‘ओ आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासि!’ बांग्लादेश की आर्थिक, राजनीतिक हालत जो भी हो, बांग्लादेश की धरती मुझे अब भी स्वर्णिम लग रही थी, बिलकुल जैसे कविगुरु की कल्पना में थी! बस, एक बात समझ में न आई, सड़क के किनारे जो कतारबद्ध वृक्ष खड़े थे उन पर एक भी पर्ण नहीं था। ऐसा लग रहा था, सारे ठूँठ खड़े हैं।

मैंने जशीमुद्दीन से पूछा, ‘ये सारे वृक्ष ऐसे सूख क्यों गए हैं, जोशिम भाई?’

अब हम जशीमुद्दीन को इसी नाम से पुकारने लगे थे। उसने कहा, ‘दीदी, यह सूखे नहीं है। ये शीलकोड़ोई वृक्ष हैं जिनके पत्ते इस ॠतु में झड़ जाते हैं। दो तीन महीने बाद नए पत्ते निकल आयेंगे, सारे वृक्ष हरे हो जायेंगे।’

सुनकर अच्छा लगा। शिवपुर उप ज़िला से हमें किशोरगंज जाने का रास्ता मिल गया। किशोरगंज ज़िले में प्रवेश करते ही एक नदी आई जिसमें पानी नहीं था।

जोशिम भाई ने कहा, ‘यह नदी मृत हो गई है। आगे एक और नदी आएगी-मेघना।’

कुछ समय में ही मेघना नदी पर बना सैयद नज़रुल इस्लाम सेतु दिखाई दिया। हमने किनारे गाडी रोक ली। मेघना नदी के दोनों किनारे पानी से छलक रहे थे। कुछ देर रुककर हमने नदी पर से बह रही शीतल हवा के मुलायम स्पर्श का आनंद लिया। माँ से कई बार सुना था मेघना नदी के बारे में। मेघना बांग्लादेश की एक मुख्य नदी है जो गंगा नदी के मुहाने पर डेल्टा बनाने वाली तीन मुख्य सहायक नदियों में से एक है। इन नदियों से विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा सुंदरवन बनता है जो बंगाल की खाड़ी में खुलता है। चांदपुर ज़िले में मेघना नदी में पद्मा नदी मिलती है और अंततः ये भोला ज़िला में बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।

सेतु पार करते ही ब्राह्मणबाड़ीया जाने का मोड़ आया। क़रीब 35 कि.मी. जाने के बाद कुटी चौमोहनी आ गया। यहाँ से दाई तरफ़ मोईनपुर जाने की कच्ची सड़क दिख रही थी। हम उस राह पर आगे बढ़े, पर मुझे मन में यह संशय हो रहा था कि सही राह पर जा रहे हैं कि नहीं। पतली-सी कच्ची सड़क पर कार आगे बढ़ रही थी, रास्ता ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अनजाने देश में अनजानी राह पर चले जा रहे थे। मंज़िल तय थी, राह का पता नहीं था। दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे।

मैं बार-बार जशीमुद्दीन से पूछ रही थी, ‘भैया, मोईनपुर गाँव मिलेगा न?’

वह बड़ा आशावादी था। बोला, ‘हाँ दीदी, क्यों नहीं मिलेगा? आप निश्चिंत रहिए।’

मैंने कहा, ‘आप किसी से पूछें।'

एक राहगीर को देखकर उसने कार रोकी, पूछा, ‘भाईसाहब, मोईनपुर जानेका रास्ता बतायेंगे?’ उसने कुछ रुककर कहा, ‘आगे एक गाँव है, काइनपुर, वहाँ पूछ लीजिए।’

और थोड़ा आगे चलकर एक और राहगीर से पूछा तो वह नयनपुर के बारे में बताने लगा। अब हम इन तीन नामों में उलझ गए। मौसा जी ने कहा, ‘गाँव का नाम शायद मोईनपुर से बदलकर काइनपुर या नयनपुर हो गया होगा। कितने वर्ष बीत गए हैं!’ मैंने हाँ में सिर तो हिलाया, पर मन ही मन मैं पापा के गाँव का नाम मोईनपुर ही देखना चाहती थी।

मुझे लोकप्रिय कथाकार उदय प्रकाश की कहानियों को लेकर कवि समीक्षक प्रेमचंद गाँधी द्वारा कही गई कुछ बातें याद आने लगी। वे उदय प्रकाश की एक बेहद छोटी कहानी ‘घर’ में दर्शाई गई विस्थापन की पीड़ा का उल्लेख करते हुए कहते हैं, ‘हम सब इस कहानी के पात्र की तरह नक्‍शों में अपना मूल घर-गाँव तलाश कर रहे लोग हैं। हमसे वो नदी-पहाड़-जंगल छूट गये हैं या कि छूटते जा रहे हैं, जिनके साथ हमारा पुरखों जैसा रिश्‍ता रहा। अब हमारे पास ऐसा कुछ भी नहीं बचा है, जिसे हम नक्‍शों में भी खोज सकें। जब से मनुष्‍य ने अपने लोभ और लालच के लिए धर्म या सत्ता के नाम पर इलाकों को जीतने का सिलसिला शुरु किया तभी से सामान्‍य आदमी विस्‍थापन के लिए विवश हुआ है। सोचिए कि मानव सभ्‍यता ने इतिहास में कितने हमले सहन किये हैं? उन हमलों में कितने करोड़ लोगों को अपना घर-संसार ही नहीं सामाजिक-पारिवारिक संस्‍कार भी छोड़ने पड़े होंगे।’

उदय प्रकाश की बहुत-सी कहानियों में इस विस्‍थापन के दर्द को बेहद तनाव के साथ महसूस किया जा सकता है और इस तनाव में आप मनुष्‍य के सबसे नज़दीकी रिश्‍तों को देखेंगे तो मन हाहाकार कर उठता है। मुझे श्यामल भैया की कही एक बात याद आई। उनका जन्म अपने ननिहाल में हुआ था। केंदुआइ नामक वह गाँव आधा पाकिस्तान में गया और आधा हिन्दुस्तान में रहा! उनके मामा जी का परिवार अपने ही गाँव में शरणार्थी बन गया!

कच्चा उबड़-खाबड़ रास्ता ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। क़रीब पंद्रह कि.मी. जाने के बाद अचानक बी.डी.आर. केम्प का बोर्ड दिखाई दिया। बोर्ड पर लिखा था- मोईनपुर।

मैं खुशी से उछल पड़ी, ‘मौसी, वह देखो, मोईनपुर आ गया, पापा का गाँव!’

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