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मेरा स्वर्णिम बंगाल - 7

मेरा स्वर्णिम बंगाल

संस्मरण

(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)

मल्लिका मुखर्जी

(7)

पापा के इरादे बुलंद थे, पर भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। किसी पौधे को अगर जड़ से उखाड़ दिया जाए और मीलों दूर ले जाकर एक नई जमीं पर उसे लगाया जाए तो पहले की तरह पनपने की गुंजाइश कितनी हो सकती है? देश के विभाजन के बाद सभी विस्थापित परिवारों की यही स्थिति थी! मेरी प्रिय सखी उमा झुनझुनवाला, कोलकाता की नाट्य संस्था ‘लिटिल थेस्पियन’ (Little Thespian) की संस्थापक, अभिनय और निर्देशन के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित नाम, जो संवेदनशील कवयित्री भी हैं। उन्होंने अपनी कविता ‘शरणार्थी’ में हर उस शख्स के दिल के जज्बात को बयाँ किया है जिसे वक्त की मार से शरणार्थी बनना पड़ा।

शरणार्थी

एक दिन तुमने कहा, ‘हम शरणार्थी हैं’
और हम शरणार्थी बन गए।

जाने क्यूँ और कब,
विध्वंस की लीलाओं ने लील लिए

हमारे घर परिवार।

जाने कब और कैसे,
हमारी छतें पिघल कर तम्बुओं में पसर गईं।

जाने कैसे और किसने,
हमारी जड़ों को उखाड़ कर

अपने हथियार गाड़ दिए!

क्यूँ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी

तानाशाही, यातनाएं और उत्पीड़न

हमारी हथेलियों में खोद दी गईं?

मगर इंसानियत के हत्यारे
भूल गए शायद प्रकृति का नियम,
विनाश के साथ जुड़ा है सृजन।

मृत्यु तो प्रारम्भ है नए जीवों के जन्म का,
विकास का और विस्तार का।

इस अदभुत सृष्टि में
विस्थापित मनु ने भी किया था

सामना भयानक प्रलय का।

नवजीवन की आशाओं के समक्ष
भूमध्य सागर के सारे खतरे
हो गए थे बिलकुल बौने-से।

हाँ ये सच है, हमें बहुत याद आते हैं
हमारे अपने सभी संगी साथी।

हमारी गलियाँ, हमारे चौपाल,

गाँव के मेले ठेले और बाज़ार

और हमारे सारे तीज त्यौहार।

हमारी नदियाँ, तालाब, झरने,
जामुन, अमरुद और आम के पेड़,
हमारे खेत खलिहान और ढोर ढंगर!

मगर ये भी सच है,
सूरज पर रहा अधिकार कब

किसी एक टूकड़े का?

चाँद की उजली चमक को
बाँध पाया कब कोई अपने स्वार्थों की मुट्ठी में?

हवा को नचा पाया कौन
अपने हंटर के इशारे पर

किसी भी पिंजरे में बंद कर?

आग़ हवा, पानी, मिटटी, धरा पर है जहाँ-जहाँ
रहेगी उर्वरता जीवन में वहाँ-वहाँ।

सुनो विध्वंसकारी तत्वों,

हम उस बीज की भांति हैं
जिसमे नई उम्मीदों की फ़सल बंद है।

उखाड़ कर फेंके जायेंगे हम
जब भी इधर उधर वीरानों में,
नई सृष्टि का होगा प्रारम्भ वहीं से।

हमारा विस्थापन अंत नहीं जीवन का,
विकास का एक नियम है।

इसलिए बन्धु, हम शरणार्थी नहीं
तुम्हारे ही जीवन का अंग हैं।
हम तुममे व्याप्त शिव की तीसरी आँख हैं।

पापा भी बहुत याद करते थे अपने बंधु-बांधव को, अपनी गलियाँ, नदियाँ, तालाब, आम के पेड़, खेत खलिहान और अपनी गैया को, पर वे यह भी कहते थे कि विस्थापन जीवन का अंत नहीं है। वे मानते थे कि हमें समय और संजोग के अनुसार ख़ुद को बदलते रहना चाहिए तभी हम मंज़िल तक पहुँच पायेंगे। बदलने की प्रक्रिया में हमें भले ही बहुत सारे अवरोधों को पार करना पड़े।

मोईनपुर गाँव देखकर मुझे पापा की बात सही लग रही थी। प्रफुल्लचंद्र शील महाशय इसी गाँव में आज भी उसी हालात में रह रहे हैं जिस हाल में आज से पैंसठ वर्ष पहले थे। उनकी आँखों में तैरते आँसू उनकी हताशा बयाँ कर रहे थे। उनकी खूबसूरत पौत्री को देखकर मुझे इतिहास के वह पन्ने फड़फड़ाते नज़र आए जिसमें लिखा था, कितनी महिलाओं की इज्जत लूटी गई। आज भी यह डर वहाँ के हर माँ-बाप को सताता है। राजनीति का खेल कितना घिनौना हो सकता है, देश का आम आदमी उसका अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता! यह भी सत्य है कि हर किसी के पास विकल्प नहीं होता चुनने के लिए।

अब रास्ता आसान लग रहा था। हमें ढाका के बायपास रास्ते से ही मैमनसिंह के लिए रवाना होना था। मैमनसिंह और ब्राह्मणबाड़िया एक दूसरे की विपरीत दिशा में थे। मुख्य मार्ग पर आते आते काफ़ी समय बीत गया। कार तेज गति से दौड़ रही थी, साथ में दिमाग भी। शाम के क़रीब सवा छः बजे हम कालीगंज के मीर बाज़ार से गुजरे। आधे घंटे बाद गाजीपुर शहर आया। ट्राफिक बहुत ज्यादा था। यहाँ चौराहे पर काफ़ी देर तक रुकना पड़ा। फिर राजेन्द्रपुर चौराहा, केंटोनमेंट, भालुका चौराहा, त्रिशाल चौराहा, यह पूरा रोड चौड़ा बनाया जा रहा था। पूरा रोड टूटा हुआ था। चारों और घना अँधेरा था। पंद्रह बीस मिनट के बाद रास्ते के दोनों तरफ़ छोटे छोटे गाँवों में जलती बत्तियां दिखने लगी तो मन को सुकून का अहसास होने लगा।

मौसी को अँधेरे से डर लग रहा था। वे बार-बार जोशिम भाई से पूछ रही थी, ‘और कितनी दूर है मैमनसिंह?’

जोशिम भाई इंसानों का मन पढ़ने में माहिर थे। वे यह जान गए थे कि हम सभी कुछ डरे हुए थे, खासकर उनकी कार ही हमें डरा रही थी। इतनी पुरानी कार, अगर टायर पंक्चर हो गया तो? मीलों तक सिर्फ़ अँधेरा छाया हुआ था।

वे तुरंत बोले, ‘दीदी, कुछ ही देर में आ जाएगा। हम मैमनसिंह ज़िले की हद में प्रवेश कर चुके हैं।’

मैं तो मन ही मन प्रभु से प्रार्थना कर रही थी कि इस कार के साथ कोई अनहोनी न हो। साढ़े आठ बजे हमने मैमनसिंह शहर में प्रवेश किया। नौ बजे हम ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे स्थित बिपिन पार्क के सामने खड़े थे। रांगा मौसी के पास इतना ही पता था कि बिपिन पार्क के सामने वाली कोई गली में अनिल मामा रहते हैं। रास्ते में कोई चहल पहल नहीं थी। माँ से सुना था कि देश विभाजन के साथ शुरु हुए कौमी दंगों में लोग हत्या के बाद लाशें ब्रह्मपुत्र नदी में फेंक देते थे। पानी का रंग भी बदलता दिखाई देता! बदन में एक सिहरन-सी दौड़ गई! एक छोटी-सी दूकान खुली हुई थी जहाँ एक बुजुर्ग बैठे हुए थे।

मौसा जी ने उन्हें अनिल घोष का पता पूछा। वे बोले, ‘और थोडा आगे चले जाइये पहली गली में ही उनका घर है।’

हम चल दिए। गली तो आ गई, पर यहाँ घना अँधेरा छाया हुआ था, थोड़ा डर भी लग रहा था। बीस क़दम चलते ही टूटा-फूटा काठ का दरवाजा दिखाई दिया जो अन्दर से बंद था। हमने सोचा, इसी दरवाजे पर पता पूछ लेते हैं। एक महिला ने दरवाजा खोला। हमने अनिल घोष का पता पूछा।

उन्होंने कहा, ‘पहले वे यहीं रहते थे, अब नया फ्लैट खरीदकर वहीं रहने चले गए हैं।’

जब हमने अपना हमारा परिचय दिया तो वे तुरंत बोली, ‘अरे!..आइये...आइये...बाकी भाई तो यहीं रहते हैं।’

अनिल घोष नानी माँ के सात भाइयों में दूसरे नंबर के भाई सुरेन्द्रचंद्र घोष के पाँच पुत्रों में से दूसरे नंबर पर थे जो नानी माँ की सारी जायदाद की देखभाल करते थे। अनिल घोष के अन्य चार भाई सुनील, अजय (बाबुल), विजय (दोदुल), मृदुल अपने परिवार के साथ इसी मकान में रहते थे। अन्दर प्रवेश करते ही मध्य में एक चौक दिखाई दिया जिसके चारों ओर छोटे-बड़े कमरे थे। हवेलीनुमा मकान काफ़ी बड़ा था, पर जर्जरित अवस्था में था। दीवारें तो जैसे गिरने को थी। चौक पानी से भीगा हुआ था। पास ही में एक हैण्ड पम्प था।

एक कमरे में हम बैठे ही थे कि विजय मामा (माँ के ममेरे भाई होने के नाते सभी मेरे मामा हुए) आ पहुँचे। परिचय हुआ। चाय पानी का इंतजाम भी हुआ, पर रात रुकने के लिए किसी का कोई आग्रह नहीं दिख रहा था। मैं तो यही सोच रही थी कि यह लोग यहाँ रहते कैसे हैं? रात बढ़ती जा रही थी, हम बड़ी दुविधा में थे।

बातों ही बातों में विजय मामा ने अनिल मामा के घर का पता बताया और थोड़े संकोच के साथ कहा, ‘उनका घर नया है, बड़ा भी है, आपको वहाँ रात रुकने में आसानी रहेगी।’

रात बढ़ती जा रही थी। हम निकल पड़े। अनिल मामा का फ्लैट ज्यादा दूर नहीं था। कॉलिंग बेल बजाते ही उनके बेटे ने दरवाजा खोला। कोने में डाइनिंग टेबल पर अनिल मामा खाना खा रहे थे। उम्र होगी सत्तर के आस-पास। परिचय पाते ही बाप-बेटे के चेहरे की रंगत उड़ने लगी। अनिल मामा जल्दी-जल्दी खाना खाने लगे। मैं बारी-बारी से दोनों के चेहरे देख रही थी। आज तक नानी माँ से सुनती आई थी कि इस परिवार के सदस्यों ने किस तरह उनके परिवार का जीना हराम कर रखा था। पिछले पचास सालों में उन्होंने अपनी बेवा बुआ की सारी संपत्ति अपने पास रखते हुए भी कभी उनकी मदद नहीं की और उन्हें परिवार सहित भूखमरी की स्थिति में पहुँचा दिया। अपनी छह संतानें और जेठानी की आठ संतानें मिलाकर सोलह सदस्यों का संयुक्त परिवार और आय का कोई साधन नहीं!

लोगों को पता न चले इसलिए नानी माँ बाहर चौक में सिगड़ी जलाती फिर रसोईघर में लाकर रख देती। कभी थोड़े से चावल एक बड़ी पतीली में उबालती और मांड के साथ ही सभी को थोड़ा-थोड़ा देती। रांगा मौसी से ही सुना है कि एक दिन कुछ भी न था खाने को तो किराये के मकान के बागीचे में स्थित अमरुद के पेड़ से थोड़े अमरुद तोड़कर सभी बच्चों ने खाए। उधर रायजान गाँव में धान के गोदाम भरे पड़े थे!

मेरी नज़र में पापा किसी फ़रिश्ते से कम न थे। उन्होंने कुछ समय के लिए रांगा मौसी और सुनीप मामा को हमारे यहाँ बुला लिया ताकि परिवार के दो सदस्यों की चिंता कम हो। नानी माँ ने न जाने कितने आँसू बहाए होंगे अपने जीवन-काल में इस दुष्ट भतीजे की बदौलत! मुझे याद आ रहा था वह समय जब अनाहार से नानीमाँ को टी.बी. हो गया था और पापा उन्हें रुपये भेजते थे कि वे दवाई के साथ दूध ले सकें। मैं सोचती, जिस परिवार के सभी सदस्य आधे पेट सोते थे, वहाँ नानी माँ क्या सचमुच दूध लेती होंगी? उनकी प्रबल जिजीविषा ने ही उन्हें स्वस्थ बनाया होगा।

मुझे आज यह दोनों कोई शैतान या राक्षस से कम नज़र नहीं आ रहे थे! बेशर्मी की हद तो तब हुई जब उन्होंने हमें बैठने को भी नहीं कहा। हम ख़ुद ही बैठ गए। पिता-पुत्र के चेहरे पर तनाव स्पष्ट दीख रहा था। उन्हें यही डर था कि नानी माँ की 200 बीघा जमीन जो वे हड़प गए थे, उस बुआ की एक बेटी (रांगा मौसी) और एक पौत्री यानि मैं, कहीं इस संपत्ति की तलाश में तो नहीं आए?

अनिल मामा ने स्पष्ट कह दिया मौसी को, ‘तुम्हारी भाभी अभी घर पर नहीं है, एक रिश्तेदार के घर गई है। कल सुबह आएगी। आप लोग सुबह आ जाना।’

‘अतिथि देवो भव’ के सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन इतनी बुरी तरह से होते भी हमने इसी देश में देखा। फिर भी इतनी रात को ख़ुद को सुरक्षित करने के मकसद से जब हम लोगों ने आग्रह किया कि हम रात को यहीं रुक जाते हैं तब उनके धूर्त बेटे ने कहा, ‘नहीं नहीं, हमारे पास इतने बिछौने नहीं है। यहाँ आस-पास आपको कोई अच्छा होटल भी मिल जायेगा, वहाँ रहने-खाने का इंतजाम हो जाएगा।’

सुनकर मौसा जी एकदम खड़े हो गए, उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था। कुछ ही देर में हम उठ खड़े हुए। इनसे तो वह जशीमुद्दीन भला था।

उसने कहा, ‘दीदी हम पहले एक होटल में खाने की जगह ढूंढते हैं, ग्यारह बजने को है, जल्द ढूँढना होगा। पहले आप लोग खाना खा लें फिर रहने का भी कोई न कोई इंतजाम हो ही जायेगा।’

हम निकल पड़े, एक होटल खुला था, हमारे खाने का इंतजाम हो गया। अब हम इस बात से परेशान थे कि रात कहाँ बिताएँ? अनजाना देश, अनजाने लोग। जिनको अपना समझा था, वे ही पराये बन गए। हमें जोशिम भाई ही अपने लग रहे थे। रात के बारह बजे के क़रीब हम एक गेस्टहाउस के सामने रुके- निराला गेस्टहाउस।

जोशिम भाई ने कहा, ‘यहाँ सही रहेगा। इतना अच्छा तो नहीं है, पर रात कट जाएगी। इतनी रात को अब ज्यादा घूमना ठीक नहीं।’

चौथी मंज़िल पर दो कमरे मिल गए। ठीक-ठाक थे। इतने थक चुके थे कि और कुछ सोचने की शक्ति नहीं थी। नींद कोसों दूर चली गई और मन नानी माँ के पास। मैमनसिंह जिले का गोबरजना गाँव नानी माँ का नैहर था। नानी माँ के पिताजी बिपिन बिहारी घोष गाँव के मुखिया थे। धनी थे। मैमनसिंह शहर में भी उनकी एकाधिक कोठियाँ थी। गोबरजना स्थित उनका हवेलीनुमा आवास ‘राजबाड़ी’ के नाम से पहचाना जाता था। आवास का नाम था- ‘आनंदमयी भवन’। दीपावली की रात इस हवेली को दिए जलाकर सुशोभित किया जाता। 10 संतानों और 65 सदस्यों का एक संयुक्त परिवार था।

नानी माँ से मैंने सुना था कि नाना जी तो इसी उम्मीद में अपने वतन रायजान में ही रह गए थे कि देश का यह विभाजन ज्यादा दिनों तक नहीं रहेगा! 14 जून 1964 के दिन अचानक नाना जी की मौत की ख़बर पाकर नानी माँ को तुरन्त बांग्लादेश (उस वक्त का पूर्व पाकिस्तान) जाना पड़ा। नाना जी की अंतिम क्रिया तथा बाद की सारी धार्मिक क्रिया से निपटने के बाद नानी माँ जब वापस पश्चिम बंगाल आने की तैयारी कर रही थी, उनके मायके में सात भाइयों में होड मची थी, जीजा जी के इतनी विशाल जायदाद का हक़दार कौन होगा?

आख़िरकार सुरेन्द्रचंद्र घोष जीत गए क्योंकि पेशे से वकील होने के नाते वे कानूनी दांवपेंच से वाकिफ थे। उन्होंने बहन को समझा दिया कि अगर वे सारी जायदाद ऐसे ही छोड़कर चली जाती हैं तो यह सरकार के नाम हो जाएगी। वे सारी जमीं-जायदाद सब उनके नाम कर दें ताकि वे देखभाल कर सकें, साथ ही यह वादा भी किया कि वे इस जमीं की फसल की जो भी आय होगी, उसकी कीमत भेज दिया करेगें। समस्या यह थी कि इस जायदाद पर नानी माँ का हक़ नहीं था, वे कैसे लिखती? भाई ने उपाय ढूंढा, नाना जी के नाम से सारी जायदाद अपने नाम ट्रांसफर का विल बनाया और नाना जी के ज्येष्ठ भतीजे जो अब इस संयुक्त संपत्ति के लीगल हेयर थे, उन से मृत नाना जी के नाम से नकली हस्ताक्षर करवाये, वो भी उनकी मृत्युतिथि से पहले की तारीख लिखकर!

नानी माँ के पिता बिपिन बिहारी घोष की जो तीन कोठियाँ मैमनसिंह शहर में थी, उनमें से एक ‘साहिबकुठी’ के नाम से जानी जाती थी। गोरे साहब लोग जब इस शहर में आते, यहीं ठहरते। उस जमाने में महिलाएं संपत्ति की उत्तराधिकारी नहीं बन सकती थीं, इस कोठी के वारिस बिपिनबाबू ने उनकी तीन बेटियों को बनाया था। सुरेन्द्रचंद्र ने वह कोठी भी अपने नाम करवा ली।

उन्होंने इस जायदाद की देखभाल का कार्य करने के लिए अपने पाँच बेटों सुनील, अनिल, अजय, विजय तथा मृदुल में से दूसरे नंबर के बेटे अनिल को चुना क्योंकि वे भी पेशे से वकील थे! अब तो अनिल मामा का बेटा भी वकील बन गया है! इस पेशे का मूल उद्देश्य निष्ठा एवं प्रतिबद्धता है तथा अपने ग्राहकों के हितों की रक्षा करना है। एक वकील यह सुनिश्चित करता है कि उसके मुवक्किल को न्याय मिले। नानी की माँ को कहाँ पता था कि एक शैतान, जिनके कोई नैतिक मानक नहीं थे, उन्हें उनके भाई के रूप में मिला था!

माफी चाहती हूँ नानी माँ से, पर आज मैंने उनके भतीजे अनिल घोष की मक्कारी को देख लिया। पश्चिम बंगाल के चंदननगर के एक जर्जरित मकान में किराएदार बनकर रह रही विधवा बुआ और उनकी विधवा जेठानी का परिवार जब भूखमरी से परेशान था तब उनका यह भतीजा अपनी बुआ की इतनी बड़ी जायदाद की आय बैठे-बैठे हजम कर रहा था।

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