Ek Samundar mere andar - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

इक समंदर मेरे अंदर - 1

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

दिवंगत अम्‍मां-पिता बिमला और प्रेमचंद चतुर्वेदी की स्मृति को समर्पित

अपनी बात

....उबरना स्वयं से....

मैं यह तो नहीं कहूंगी कि मैं उपन्‍यास लिखने के लिये तड़प रही थी या मन में कसक उठ रही थी, या न लिख पाने से डिप्रेशन में जा रही थी। हां, मन में यह बात अवश्य थी कि मुंबई के जरिये अपनी बात कहूं। दूसरे शहर से उजड़ कर आये एक परिवार के फिर से उठ खड़े होने की कहानी कहने का मन था जो इन पन्नों में आपको नज़र आयेगी।

यहां बसने की नीयत से आये किसी ऐसे व्‍यक्‍ति के लिए जिसके साथ पत्‍नी और दो छोटी बेटियां हों, महानगर में संघर्ष करना बड़े जीवट का काम है। अर्श से फ़र्श और फिर अर्श तक पहुंचने के लिये जिस मज़बूत मनोबल, आत्‍म विश्‍वास और आत्‍म सम्‍मान की ज़रूरत होती है, उसी जीवट की कहानी है यह।

इन पन्नों पर लेखकीय निगाह से कदम कदम पर तब की बंबई और आज की मुंबई बिखरी हुई है। ये मेरा दिल और ईमान ही जानता है कि मैंने इस उपन्‍यास को किन मानसिक परेशानियों से गुजरते हुए पूरा किया है। पहली बार अनुभव हुआ कि बार बार अतीत में जाकर उसे खंगालना और संतुलित रह कर बयान करना कितना दुष्कर कार्य होता है।

इस पुस्‍तक को आदरणीय व वरिष्ठ रचनाकारों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है। आदरणीय चित्रा मुद्गल और मुंबई निवासी आदरणीय अचला नागर जी ने इस उपन्‍यास को पूरी तल्लीनता से पढ़ा और बहुमूल्य सुझाव दिये, जिन्‍हें मैंने स्‍वीकारते हुए और उपन्‍यास को संशोधित करते हुए अंतिम रूप दिया है।

यह रचना सभी रचनाकारों के आशीर्वचनों से छलक रही है।

यह उपन्‍यास आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। अब यह कृति आपकी हुई।

मधु अरोड़ा, मुंबई।

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(1)

आज वह फिर अपने बाल सखा समुद्र से मिलने आयी है। अकेले ही। इस बार कुछ लंबे अरसे के लिए और एक नये तट पर। क्‍या करे, मुंबई के सारे तट तो उसे पहचानते हैं। बहुत अच्‍छी तरह से।

चौपाटी उसका बचपन का संगी साथी रहा तो मैरीन ड्राइव उसके पहले और इकलौते प्रेम का साक्षी। वहां कितनी कितनी शामें तो दोनों ने एक साथ गुजारी हैं, कोई गिनती नहीं। बल्‍कि वह याद करती है आज तो हंसी आती है।

वे दोनों मैरीन ड्राइव की दीवार पर समंदर की ओर पैर करके बैठे हुए दूर लंगर डाले जहाजों की टिमटिमाती बत्तियों को गिनते हुए जहाजों की गिनती किया करते थे और हमेशा उन दोनों के गिने हुए जहाजों की संख्‍या एक जैसी नहीं होती थी।

और तो और दूसरी और तीसरी, चौथी बार गिनने पर दोनों के जहाजों की संख्‍या बदल चुकी होती थी। जब भी वे हाई टाइड के समय या बरसात में भीगते हुए मैरीन ड्राइव की दीवार पर बैठते तो सोम समंदर को देख कर दिनकर जी की ये पंक्तियां जरूर सुनाते थे। वह जानती थी कि जनाब को बस समंदर के बारे में ये दो पंक्तियां ही याद हैं –

नदियां आती स्वयं, मगर सागर ध्‍यान कब देता है।

बेला का सौभाग्य जिसे आलिंगन में भरने को

चिर उद्भ्रांत महोदधि लहराता रहता है।

हालांकि उसने कोवलम बीच का हरहराता समंदर देखा है, कन्याकुमारी पर तीनों सागरों की मिलन स्थली देखी है, अलीबाग का शांत समंदर देखा है और अपने ही शहर के अमूमन सभी बीच देखे हैं लेकिन सब जगह इतनी भीड़ देख कर वह घबरा जाती है।

बाकी बीच या तो बहुत भीड़ भाड़ वाले हो गये हैं या ट्रैफिक के मारे वहां जाना ही नहीं हो पाता। इतनी भीड़ में न तो समंदर का संगीत सुना जा सकता है और न ही उससे बात ही की जा सकती है।

वह आज मढ आइलैंड के सागर तट पर आयी है। लहरों की तरफ देखते हुए पूछती है समुद्र से - सुनोगे न मेरी बात? तुम्‍हें तो पता है न कि सब अपनी बात सुनाना चाहते हैं। कोई सुनना ही नहीं चाहता।

आज के वक्‍त़ की सबसे बड़ी त्रासदी तो यही है न कि कहना सबको है, सुनने का वक्‍त़ किसी के पास नहीं। मुझे भी अपनी कहानी सुनानी ही है इसलिए तो तुम्‍हारे पास आयी हूं। तुम तो आधी सदी के मेरे सखा हो।

अपनी कितनी तो ठंडी सुबहें, अलसाती दुपहरियां, सुरमई शामें, शांत चाँदनी और अंधेरी रातें मैंने तुम्‍हारे अलग अलग तटों पर अकेले भी और सहेलियों या परिवार वालों के साथ गुजारी हैं। सुनोगे न मेरी कहानी।

वैसे भी मेरी तरफ तुम्‍हारा उधार निकलता है। मैंने हमेशा तुम्‍हारी मस्‍त कर देने वाली चिंघाड़ती लहरों का शोर सुना है तो कभी तुम्‍हारी शांत और मद्धम नन्‍हीं नन्‍हीं लहरों का शिशु गान भी सुना है। तो मेरा हक़ बनता है कि तुमसे कुछ मन की बात कहूं।

एक पारिवारिक मित्र ने उसके ठहरने और समंदर से जी भर कर मुलाकातें करने के लिए अपने बंगले में रहने का इंतज़ाम कर दिया है। वह अब कभी भी सुबह़, दोपहर, शाम समंदर से मिलने आ सकती है। जहां वह ठहरी है, वह बँगला समंदर तट से गिन कर दो सौ कदम दूर है।

वह चाहे तो नंगे पैर ही चली आये और रेत पर कदमों के निशां बनाती चले। बेशक वे निशां कुछ ही पलों में समंदर अपनी उद्दाम लहरों से किसी शरारती बच्‍चे की तरह मिटा देगा। आज वह सवेरे सवेरे ही गुनगुने अंधेरे में अपने सखा से मिलने चली आयी है।

वह देखती है। दूर दूर तक समुद्र फैला है। पानी ही पानी...वो दूर दिखता क्षितिज...अभी सूरज की किरणें अपनी मौजू़दगी का अहसास कराने चली आयेंगी और सारी सीनरी एकदम पूरी हो जायेगी।

वह पालथी मारकर रेत पर ही बैठ गयी है। आंखें बंद किये। पास आती लहरों की हलकी हलकी आवाज़ कानों तक आ रही है। ये पानी अब उसके तन को छूने लगा है। वह हडबड़ाकर पीछे हटना चाहती है लेकिन टाल जाती है।

अपने आपको भीगने देती है। लहरें पहले उससे टकराती हैं और बाद में आने वाली लहरें उसे पार करके पीछे की तरफ बढ़ जाती हैं। वह मुस्‍कुराती है – भला लहरें भी किसी के रोके से रुकी हैं। वह आंखें बंद करके लहरों की आवाज़ सुनती है।

रेत पर पसरती पानी की लहरें मानो दुल्‍हन के पैरों की पायल की रुन झुन बजा रही हों। वह वहीं इस शानदार दृश्‍य का हिस्‍सा बन जाना चाहती है। वह सोच रही है, काश! वक्‍त़ ठहर जाये। वैसे भी कौन उसका इंतज़ार कर रहा है। उसके पास वक्‍त़ ही वक्‍त़ है।

तभी उसके कानों में बहुत ही पास किसी बच्‍ची के खिलखिला कर हंसने की आवाज आयी। उसने देखा कि अपने पिता की उँगली थामे एक छोटी सी लड़की घेरदार फ्रॉक पहने पानी से बचते बचाते भाग रही है। चीख रही है। खुशी के मारे पागल हो रही है।

सुबह के इस सन्नाटे में सिर्फ उस बच्‍ची की ही आवाज़ गूंज रही है। अरे, ये बच्‍ची तो बचपन वाली कामना है। वह भी तो गायत्री की उंगली पकड़कर रेत पर भागा करती थी। बच्‍ची अपने पिता की उँगली थामे फुदकती कूदती दूर चली जा रही है।

धीरे धीरे गुनगुने उजाले में गा़यब हो गयी है। उसके बारे में सोचते हुए वह खुद अतीत के अंधेरे उजाले में उतरती चली गयी है। कितनी अजीब बात है कि वह यहां पर सब कुछ भूलने के लिए आयी है। अपने आपको खाली करने के लिए लेकिन हो वही रहा है जो हर बार होता है।

भूलने के बजाय सब कुछ याद आने लगता है। बेतरतीबी से। भूली बिसरी बातों को याद करने का कोई सिलसिला नहीं रहता। एक बात का सिरा पकड़ो तो वह कहां की कहां ले जाती है। वह भूलने के बजाय यादों की गली में उतरती जा रही है।

यादों से पीछा छुड़ाना कितना मुश्‍किल होता है। उसने भी तय कर लिया है। चलने दो सब कुछ। भूलने के बजाय याद करने का और याद करने के बजाय भूलने का सिलसिला जैसा चलता है, चलने दो। कुछ तो तनाव कम होगा।

उसे अपने नाम से जुड़ी बातें याद आती हैं। कामना। यही नाम अम्‍मां बाप ने दिया था जो चाहे अनचाहे, जाने अनजाने उसके साथ होश संभालने के दिन से जुड़ा हुआ है। खुद को हमेशा इसी नाम से पुकारे जाते सुना है।

उसकी बड़ी इच्‍छा थी कि उसे कोई प्‍यार के नाम से...मसलन...गुड़िया, टुआ, भानी या किसी और नाम से पुकारे। ऐसा कभी हुआ नहीं। उसकी बड़ी बहन है गायत्री। फिर दो छोटे भाई परिवार में शामिल हुए, रमेश और नरेश। बचपन में रमेश और नरेश रम्‍मी और नर्री हुआ करते थे।

गायत्री को देखकर और उसकी अनुशासित आवाज़ सुनकर कामना को हमेशा लक्ष्‍मण रेखा ही याद आती है। इसकी तुलना में उसने अम्मां को हमेशा सीधे पल्‍ले की साड़ी में चुप रहते ही देखा है। उसे याद आता है कि वह हमेशा से बंबई में ही थी।

बेशक़ उसके पापा बताते हैं कि वे जब बंबई आये थे तो वह छुटकी सी थी। तीन बरस की। लेकिन उसकी स्मृति वहां तक नहीं जाती। उसे बस इतना याद आता है कि चलते समय अम्मां उसकी अंगुली पकड़ती थीं और गायत्री अम्मां की साड़ी का पल्ला मुठ्ठी में दबा कर चलती थी।

पापा बताते थे कि वे जब यहां आये थे तो शुरुआती दौर में उन्‍हें कई बरस तक अलग अलग चालों में रहना पड़ा था। उसे अनंतवाड़ी के एक छोटे से कमरे में रहने की याद है। कभी कभी उसका दम घुटने लगता था।

वह बाहर की खुली हवा में सांस लेना चाहती लेकिन चाल में इतनी जगह ही नहीं होती थी कि आदमी खुलापन महसूस करे। बेशक़ उसका वक्‍त़ भी बदला। बहुत बाद में। भरपूर खुलापन मिला। धीरे धीरे। सुविधाएं, सम्पन्नता और ऐशो आराम दबे पाँव उसकी जिंदगी में भी आये।

उसके हिस्‍से में भी सब कुछ आया...ऊंचे पद से सेवानिवृत्त पति, और 21वीं सदी के कॉर्पोरेट सेक्टर में लक्ष्‍यभेदी नौकरी करते बेटे, जो मुस्तैदी से अपने अपने टार्गेट पूरे करने के चक्‍कर में पता नहीं कब मशीनों में बदल चुके हैं।

उनके पास सिर उठा कर आस पास देखने की फु़र्सत नहीं कि अमां बाप की तरफ नज़र उठा कर देख भी लें। दोनों ही जरूरत से ज्‍य़ादा व्‍यस्त हैं। उसे लगता है कि वह पहले भी अकेली थी और आज भी अकेली है।

तब पिताजी का अनुशासन बोलने की इजाज़त नहीं देता था। अम्मां चुप, पिताजी चुप लेकिन उनकी चुप्पी में ही सारे कहे अनकहे आदेश छुपे होते थे। गायत्री चुप और उनको देखती कामना चुप और यह चुप्‍पी उसके स्‍वभाव का हिस्‍सा बनती चली गयी है।

सोम से जब शादी हुई तो खूब बड़ा परिवार मिला। दिन भर शोर-शराबा रहता था और रसोई घर में उठा पटक मची रहती थी। इतना शोर कि उसका सिर भन्ना उठता था। ऐसे में उसे अपना बाल सखा समुद्र बहुत याद आता था।

पापा बताया करते थे कि गायत्री शुरू से ही निडर थी और पता नहीं वह कब इतनी ज़िद्दी हो गई थी कि प्राण जायें पर वचन न जाये। वह पूरे घर की स्वघोषित मॉनीटर थी। वह खुद गायत्री से बहुत डरती थी। डरने के लिए किसी कारण की ज़रूरत नहीं थी।

अम्मां शाम को चार बजे दोनों को तैयार कर देती थीं और उन्‍हें बगीचे में खेलने जाने के लिये कहती थीं। अम्मा गायत्री और कामना की आंखों में काजल लगातीं, कान के पीछे काजल का दिठौना लगातीं और बालों को कसकर दो चोटियां बनाती थीं।

उन दिनों दो चोटियां बनाकर रिबन के फूल बनाने का, चुटीलों का फैशन था। अम्मा के पास कई चुटीले थे, पर सब काले रंग के थे। रंग-बिरंगे चुटीले उनको पसंद नहीं थे। उनके खुद के बाल बहुत लंबे थे। कभी कभी वे उन चुटीलों को बालों के नीचे से लगाती थीं।

उनका कहना था – ‘बिटियन कौ माथौ चौड़ौ दिखनौ चहियें। सराफत भी कोई चीज़ होतैगी’। वह याद करती है, कुछ ही बरस पहले सामने वाले फ्लैट में रहने वाली मिसेज शाह ने कहा था – ‘कामना, बालों में सामने से पिन लगाया करो।

....बालों से माथा ढकना नहीं चाहिये। दमकता मस्तक व्‍यक्‍तित्‍व को गरिमा प्रदान करता है। इस उमर में छोकड़िया बनकर घूमना ठीक नहीं’। यह सुनकर वह बहुत हंसी थी। वह आज भी बहुत हंसती बहुत है। कुछ बातें पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं। मतलब हो न हो।

उसने मिसेज शाह के सामने ही पर्स से कंघा निकाला था और बाल संवार लिये थे। वे अपने चेहरे पर संतुष्टि का भाव लाकर बोली थीं – ‘हां, अब लग रही हो कि तुम कामना हो। तुम कितनी खूबसूरत हो। ऐसे ही रहा करो’।

उसने भी हंसकर कहा था – ‘आप मेरा बुरा थोड़े ही चाहेंगी’। उन्‍होंने खुश होकर बाद में उसे एक लंबा स्कर्ट दिया था जिसके दोनों ओर से स्‍लिट कटे हुए थे। उसे वह स्कर्ट बहुत पसंद आया था और उसने उसमें ढेर सारे फोटो खिंचवाये थे।

अतीत की गलियों में एक बार उतर जाओ तो फिर वापसी का रास्‍ता ही नहीं सूझता। वह याद करती है - अम्मां बगीचे में खेलने के लिये कहती थीं, जो घर के पास ही था। गायत्री नीचे उतर कर कहती – ‘आज हम बगीचे में नहीं जायेंगे। पूछते पूछते चौपाटी जायेंगे और रेत में खेलेंगे’।

यह सुनकर कामना बहुत खुश हुई थी। तभी गायत्री ने कहा था – ‘तू एक काम कर, जिस दुकान से घर में दूध आता है, वहां से पाव किलो खोया की बर्फी ले आना’। इस पर वह बोली थी – ‘तुम जाओ न। तुम बड़ी हो मना नहीं करेगा’।

इस पर गायत्री धमकाते हुए बोली थी – ‘लेके आती हो कि नहीं? नहीं तो हम तुम्‍हें अपने साथ नहीं ले जायेंगे। सड़त रहियो कमरा में। जाऔ, जल्‍दी से लैकें आऔ। संजा है जायैगी’ और वह चल पड़ी थी बर्फी लेने और लेकर ही आयी थी।

उन दिनों बच्चों को भगाकर ले जाने का चलन शुरू नहीं हुआ था। वे दोनों अटकते भटकते चौपाटी पहुंच ही जाते थे और वहां पहुंच कर गायत्री कहती – ‘घर में बतायबे की ज़रूअत नईं है। संजा को छ: बजे तक घर पहुंच जायेंगे’।

कामना मान जाती थी, छोटी जो थी और फिर दोनों बातों बातों में समुद्र पहुंच जाते थे। उन दिनों रबड़ की चप्‍पलें चलती थीं। चौपाटी पहुंच कर दोनों चप्‍पलें उतार देते थे और रेत की दुनिया में खो जाते थे।

पापा के बंबई आने की भी अपनी ही कहानी थी। दूर के रिश्‍ते में लगते मामा जी के कहने पर ही पापा अपने परिवार को असम से बंबई ले आये थे। असम से उजड़ कर बंबई आने की कहानी यह थी कि जिस कंपनी में काम करते थे, वह कंपनी बंद हो गई थी।

बिजिनेस में बहुत घाटा हो गया था और सब कर्मचारी रातों रात सड़क पर आ गये थे। अब परिवार के लिये दो जून की रोटी का जुगाड़ तो करना था। नये सिरे से शुरूआत करनी थी और इसके लिये बंबई से बेहतर जगह नहीं हो सकती थी।

मामा जी अपने एक दोस्‍त की साझेदारी में कपड़े के गोदाम के मालिक थे। वहां कपड़े की गांठें खुलती थीं और फिर होलसेल के बाज़ार में जाती थीं। इस बिजनेस की वजह से उनके बड़े व्यावसायिकों से अच्‍छे संबंध थे। वे पैसा बनाना जानते थे।

लेकिन ये सारी बातें कामना की स्मृति से पहले की हैं। सुनी सुनायी बातें। हां, वह कैसे भूल सकती है अनंतवाड़ी वाला घर......वे लोग एक बिल्‍डिंग में एक कमरे के घर में रहते थे। पापा, अम्‍मां, बडी बहन और वह खुद।

साथ के कमरे में रहते थे वे दूर के रिश्‍ते के मामा। ये खोली भी उन्‍हीं मामा जी की थी। वह कमरा क्‍या था, कबूतरखाना था। बिल्‍डिंग के बाहर की मुंडेर पर दिन भर कबूतरों की गुटरगूं चलती रहती और उनके मल-मूत्र की गंध के बीच रहते थे सब लोग। उस गंध के आदी होने के अलावा कोई उपाय नहीं था।

आमने-सामने की बिल्‍डिंगों के बीच ज़रा सी गली थी। दो आदमियों के जाने के लायक। उन दिनों खिड़कियों से कचरा फेंकने का रिवाज़ था....कचरे में रात की बची दाल हो सकती थी, कड़क रोटी हो सकती थी....गंधाती सब्जी हो सकती थी

...और कुछ नहीं तो चाय पत्ती मिला हुआ पानी ही होता था। ये सब कचरा गली से गुजरने वाले आदमी के सिर पर ही गिरता था। आसपास की इमारतों के घरों में होने वाली तेज़ आवाज़ों में बातचीत सब सुन सकते थे।

ये आवाज़ें कई बार इतनी तेज़ होती थीं कि रात को कोई रेडियो बंद करने के लिए उठे तो पता चलता था कि ये अपना नहीं पड़ोसी का रेडियो बज रहा था। ये सारी चीजें वहां के जीवन में स्वाभाविक थीं। सब परिवार इसी तरह से रहते थे।

कभी नोंक-झोंक, तो कभी हंसने खिलखिलाने की आवाज़ें...ये सब शामिल था वहां की जिंदगानी में। उसे एक ही कमरे में रहने वाले लोगों और बाहर चौकोर बने खानों में रहने वाले कबूतरों में कोई फ़र्क़ महसूस नहीं होता था।

इस बारे में कोई भी कुछ भी नहीं सोचता था। शिकायत करने का तो मतलब ही नहीं था। कैसी शिकायत और किससे शिकायत। सब ही तो बंबई में संघर्ष करने आये थे। कर ही रहे थे। मामा जी वाली बिल्‍डिंग में सीढ़ियों में कभी लाइट नहीं होती थी।

कभी कभार जीरो वॉट का बल्‍ब ज़रूर दिख जाता था, पर जल्‍दी ही ग़ायब भी हो जाता था। यह तो बहुत बाद में पता चला था और थोड़ा थोड़ा समझ में आया था कि कुछ घरों में शाम के बाद देह व्यापार होता था और घर के मर्द लोग ही अपनी पत्नियों और बहनों के दलाल हुआ करते थे।

शाम ढली नहीं कि कई कमरों में औरतें सजने लगती थीं। बालों में गुलाब, मोगरे के फूलों के गजरे दिखायी देने लगते थे। रंग बिरंगी साड़ियां, डीप गले के ब्लाउज। वे इतनी बेशरम थीं कि तैयार होते समय खिड़कियां भी बंद नहीं करती थीं।