Ek Samundar mere andar - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

इक समंदर मेरे अंदर - 11

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(11)

जब उनका परिवार पारस नगर पहुंचा और पिताजी बिल्डर के कार्यालय में गये तो उसने हंसकर कहा – ‘वेलकम सर जी ..वो क्‍या है न....फ्लैट पूरा रेडी है। आप अपना घर देख सकते हैं। अंदर का काम बाकी है

....मतलब कि इलेक्ट्रिकल्स वायरिंग, ट्यूब लाइट, पंखा, स्‍विच बोर्ड। अभी आपको तो मालूम है न कि बिल्डर सिर्फ पॉइंट फ्री देता है। बाकी सब काम अपनी पसंद का आप करवा सकते हैं। आपको जैसा लाइट लगाना है, लगवाने का।‘

यानी यह सब खर्च फ्लैट की कीमत में शामिल नहीं था। एक अच्‍छी खा़सी राशि में सिर्फ़ दीवारों से घिरी छत और ज़मीन पर सोने का फ़र्श खरीदा गया था। इस पर पिताजी के माथे पर चिंता की लकीरें दिखाई दी थीं।

जब वे चिंता में होते थे तो उनके माथे पर तीन लकीरें साफ देखी जा सकती थीं। वे बोले – ‘यह पहले बताना था। हम सेनिटोरियम नहीं छोड़ते। अब तो न यहां के रहे और न वहां के। सामान से भरा टैंपो आता ही होगा।‘

‘साहब, आप चिंता क्‍यों करते हैं? जब तक उस फ्लैट में अंदर का काम नहीं हो जाता, हम आपको वन रूम किचन का फ्लैट दे रहे हैं। टायलेट, बाथरूम, वॉश बेसिन सब कुछ अंदर ही होगा। आपको चाल के माफिक बाहर नहीं जाना पड़ेगा।‘

यह सुनकर वे थोड़े सहज हुए थे। बिल्डर ने अपने ऑफिस के लड़के को बुलाया – ‘धीकरा, अईंया आव। ए—1, ग्राउंड फ्लोर नी चाबी लईने जा और साहेब को कमरा दिखा दे।‘ एक बार फिर उनका परिवार अस्थाई रूप से फ्लैट में रहने लगा था। सामने खुली जगह, जहां एक और बिल्‍डिंग बनने का सामान रखा हुआ था।

सीमेंट के अलावा सब कुछ….बजरी काली मिट्टी, सरिया, ग्रिल और भी बहुत कुछ और सरिया देखकर उसे बरबस ही मोरे और जोगेश्वरी का वह मैदान याद आ गया था और एक बार फिर पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई थी।

यह सुरक्षित इलाका था। हर बिल्‍डिंग के सामने एक चौकीदार और मेन गेट पर एक हट्टा-कट्टा चौकीदार रहता था। ये सभी शिफ्ट में काम करते थे। आसपास गुजराती परिवार थे। सामने के परिवार में एक छोटा बच्‍चा था...नाम था गोपी। बहुत ऊधमी था और साथ ही चंचल भी। पास ही में कुआं था।

गोपी उसमें झांककर देखता था तो कामना उसे पीछे से पकड़कर घसीट लेती थी। गोपी की मां छोटी सी, छरहरी थी। ग़ज़ब की फुर्ती थी उसमें। कभी उसके चेहरे पर थकान नहीं देखी थी। बच्‍चा शाम को बाहर खेलता, रेत में लोटता था। कभी वह रेत में तो कभी रेत उस पर।

एक दिन शाम को साढ़े छ: बजे तक गोपी घर नहीं पहुंचा तो उसकी अम्‍मां घबराई हुई आयी और बोली – ‘कामना, गोपी नईं दिखातो मैदान मां। क्‍यां गया, खबर नथी।‘

कुछ देर पहले ही कामना ने गोपी को रेत पर कूदते हुए देखा था। इतनी देर में कहां जा सकता था। गेट पर तो वाचमैन था। उसने कहा – ‘आंटी, घबराओ मत। वह यहीं होगा। चलिये, देखते हैं।‘

हल्‍का सा अंधेरा होने लगा था। कामना को रेत में दो छोटे छोटे पांव दिखे। उसने आंटी से कहा – ‘ये क्‍या है...ज़़रा देखिये। इस पर वे दौड़कर गईं और बोलीं – ‘आ तो गोपी ना पग छे और धाड़ मारकर रोने लगीं थीं।‘

इस पर कामना ने कहा – ‘ये वक्‍त़ रोने का नहीं है। ये पैर खींचकर बाहर निकालिये’ और उसने बिना देर किये वे नन्हें पैर खींचकर बाहर निकाल लिये थे। यह क्‍या....गोपी तो खिलखिलाकर हंस रहा था और बोला था - आजे मम्‍मी, मज्‍जा आवी गया’ और उसकी मां उसे गोद में उठाकर लगभग भागती सी घर चली गई थी।

उस कुएं पर शाम को छ: बजे के बाद जाली रख दी जाती थी। दीपावली नज़दीक आ रही थी। पूरी कॉलोनी के घर की साफ-सफाई होने लगी थी। खिड़कियां, रोशनदान तक भर-भर बाल्टी से धोये जाते थे, जबकि शहर में पानी की कमी होती थी। यह कॉलोनी प्राइवेट बिल्डर की थी, इसलिये पानी की कमी कभी नहीं होती, ऐसा बिल्डर का कहना था।

उस छोटे से घर में कामना के ताऊजी आये थे। अकेले थे। गांव में बहुत बड़ा घर था, खेती थी। खेती अकेले ताऊजी के वश में नहीं थी। खेत बटाई पर दे रखे थे। उनके लायक दाना पानी घर में आ जाता था।

वे गांव की बातें खूब बताते थे। वे अकेले भी कितनी देखभाल करते? ताई जी काफी पहले ही संसार से विदा हो चुकी थीं। बेटा आरआरएस में चला गया था। बेटियां ब्‍याह दी गई थीं। सबके अपने अपने परिवार थे। ताऊजी अकेले पड़ गये थे।

इस बीच पता चला कि उनकी छोटी बेटी स्टोव के फटने से जल गई थी और वह भी इस संसार को विदा कह चुकी थी। शायद यह वारदात कलकत्‍ता में हुई थी। ताऊजी होकर आये थे।

पिताजी जा नहीं पाये थे और पता भी बहुत देर से चला था। ताऊजी अकेलेपन से घबराकर मुंबई आ गये थे। उन्‍होंने अम्‍मां से कहा – ‘हमसें पर्दा करबे की जरुअत नांय है। जगह छोटी है, आराम सैं रहौ।‘ बावजूद इसके अम्‍मां के सिर से पल्ला नहीं हटा था।

उस घर में दरवाज़े से सटा एक टिन का बड़ा बक्‍सा रखा रहता था। उसमें वे चीज़ें रखी थीं, जो रोज़ काम नहीं आती थीं। उस दिन रात को बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। रुकने का नाम नहीं ले रही थी। कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला था।

जब नींद खुली तो बारिश रुक चुकी थी और कामना को टिन के बक्से में से कुछ सामान निकालना था। उसने बक्‍सा सरकाया और बक्से के पीछे देखा तो कुछ लंबी सी छाया हिलती दिखाई दी थी।

उसने बक्‍सा और सरकाया तो वह छाया और हिली और ऐसा लगा मानो वह छाया सांप सीढ़ी के खेल का छोटा सांप हो। उसने बक्‍सा फिर सरका दिया था और ताऊजी को बुला लिया था। ताऊजी ने दीवाल और बक्से की संद के बीच में से देखा तो पाया कि वह तो सांप था।

वे बाल्‍कनी के दरवाज़े से बाहर गये और वहां से एक बड़ा पथ्‍थर लाये।

उन्‍होंने कामना से धीरे से बक्‍सा थोड़ा ज्‍य़ादा सरकाने के लिये कहा, ताकि सांप हड़बड़ाकर बाहर निकले और वे वह पथ्‍थर उसके फ़न पर मार देंगे। उनका कहना सही था।

कामना ने जैसे ही बक्‍सा सरकाया वह सांप फुर्ती से बाहर निकला और अपना फ़न फैला लिया था। अरे, यह तो नाग था पर छोटा था। ताऊजी ने वह पथ्‍थर उसके फ़न पर दे मारा और वह वहीं तड़फड़ाकर मिनटों में शान्त हो गया था।

उसके शरीर पर सफेद कौड़ियां बनी थीं। वह कौड़ीला नाग था। बताया गया कि यदि नाग को एक बार में ही न मारा जाये तो घायल हुआ नाग या सांप बिफर जाता है और मारने वाले को काटकर ही छोड़ता है।

ताऊजी का मुंबई में ज्‍य़ादा दिन मन नहीं लगा था और वे पन्द्रह दिनों की बजाय दस दिनों में ही गांव चले गये थे। यदि गांव के आदमी का मन शहर में लग जाये तो फिर शहर उससे नहीं छूटता। पिताजी से भी मुंबई कहां छूट पायी?

अब आराम से दिन कट रहे थे। बिल्डर भी उनके बड़े फ्लैट में अंदर का काम तेजी से करवा रहा था। क़रीब छ: महीने के बाद बिल्डर के मैनेजर ने उन्‍हें पास ही बने अपने ऑफिस में बुलाया और कहा – ‘सर, आपका फ्लैट तैयार है। आप जब चाहें शिफ्ट कर सकते हैं।‘

पिताजी बहुत खुश हुए थे। अब दूर से तो रिश्तेदारों को बुलाना संभव नहीं था...सो कुछ दोस्‍त और खेतान परिवार के लोग आये थे, उन्‍होंने दरवाज़े पर वंदनवार बांधे, सत्‍यनारायण की पूजा करवाई थी।

इस नये घर में आकर सभी बहुत खुश थे। खुला खुला घर, बाल्‍कनी, स्टैंडिंग किचन। सब्जी और दाल अभी भी भगौने या पतीली में बनाई जाती थी। अम्‍मां बताती थीं कि गांव में एक बूढी थीं। उन्‍हें दिखता कम था, पर सुनने की शक्ति बहुत तेज़ थी।

वे चौके में चूल्‍हे पर चढ़ी पतीली में खौलते पानी को अंदाज से ही बता देती थीं कि चूल्‍हे पर बड़ी पतीली चढ़ी है या छोटी। वे ग़ज़ब का अनुमान लगा लेती थीं।

अंधेरी में को-एजुकेशन का कॉलेज था। वह सातवीं तक को-एजुकेशन में पढ़ चुकी थी। इसलिये उसके मन में लड़कों से बात करने को लेकर कोई कुंठा या हिचक नहीं थी। वह अपनी स्‍कूल की सहेलियों...बिमला, कमला के साथ रहती थी।

पहले तो हर लड़की की तरह वह भी लड़कों से बचने और बात न करने का नाटक करती रही थी। पर लड़के कहां मानते थे। उसके साथ सातवीं में पढ़ने वाला उमेश तिवारी कॉलेज में भी उसके साथ था। वह पुरानी मित्रता का दावा करते हुए कामना की कॉपी नोट्स लेने के लिये ले लेता था।

वह भी दे देती थी। एक दिन उसने यूं ही अपनी कॉपी का आख़िरी पन्ना खोला तो वहां शायरी लिखी थी और वह भी दो कौड़ी की। उस बंदे को यह कैसे ग़लतफ़हमी हो गई थी कि कामना उससे प्‍यार करती थी। ये लड़के भी न...उंगली पकड़कर पहुंचा पकड़ते हैं।

उसने बिना किसी बहस के उसे कॉपी देना बंद कर दिया था। पढ़ने में वह फिसड्डी था पर कॉलेज में जाकर लड़के खुद को तो खुले आकाश में उड़ते देखना चाहते हैं और लड़की को पिंजरे में बंद रखना चाहते हैं। वह न हुई किसी के पिंजरे में बंद।

उसने उमेश से बात करना बंद किया था। उमेश को इसमें अपना अपमान महसूस हुआ था। उसने कामना की चाल के सामने वाली बिल्‍डिंग में रहनेवाले भास्‍करन से बात की और योजना बनी कि उमेश रात को आठ बजे भास्‍करन के घर फोन करके कामना को बुलाने के लिये कहेगा।

इस तरह हर दूसरे दिन भास्‍करन के यहां कामना के नाम से फोन आने लगे थे। उन दिनों आज की तरह बॉय फ्रैंड बनाना आसान नहीं था। यदि इस तरह की हिमाकत की भी जाती तो चाल में और राह चलते लोगों के बीच लड़की सिर उठाकर नहीं चल सकती थी।

और यह सोचते ही वह खिलखिलाकर हंस दी थी। दर्द को छिपाकर हंसना भी एक हुनर है और यह हुनर हर किसी के पास नहीं होता...यदि होता तो वे भी कामना की तरह बिंदास ज़िंदगी जी रहे होते। आज तक उसे कोई नहीं समझा, बशर्ते दावे तो बहुत से लोग करते रहे थे।

एक दिन अम्‍मां ही दोपहर में उमेश की मां से मिलने गुफा रोड पर गई थीं और पता नहीं, उन दोनों में क्‍या बात हुई थी कि अगले दिन से ही भास्‍करन के घर फोन आने बंद हो गये थे और भास्‍करन का मुंह उतर गया था। यह दैहिक प्रेम था और वह भी इकतरफा।

इसके बाद वह कॉलेज में बिंदास हो गई थी। वह मस्‍त घूमती। अचानक एक दिन पीछे से आवाज़ सुनाई दी – च्‍च च्‍च...। उन दिनों लड़कियों और किसी को भी पीछे से बुलाने का यही रिवाज था। उसे विज्ञान की प्रयोगशाला देखने का बहुत शौक था। वह वहां चली गयी।

सामने देखा तो एक हट्टा कट्टा लड़का लेबोरेटरी में एक जार से दूसरे जार में कुछ रंगीन रसायन मिला रहा था। वह जिज्ञासावश वहां चली गई। लड़के ने अपने हाथ रोककर पूछा – ‘कामना, तुमने कला विषय क्‍यों लिया? साइंस लेने का था न...अपन पिक्चर भी जा सकते थे।‘

इस पर उसने बिना किसी प्रतिक्रिया के कहा था – ‘मेरे को लेंग्‍वेज पसंद है। गणित नहीं आता। वैसे आप तो इतने बड़े लगते हैं, अभी तक इंटर में ही हैं?’ यह पूछते समय कामना ने अपनी हंसी को बहुत मुश्‍किल से रोका था। वह लड़का नहीं, पूरा मर्द था...लंबा-चौड़ा।

इस पर उस लड़के ने हा हा हंसते हुए उत्तर दिया था – ‘इधर पास किसको होना है। तीन साल में एक क्‍लास पास करने का...निकाला नहीं जायेगा। एक बार पास होना होता है। नहीं तो भी पिताजी उडिपि रेस्‍तरां में गल्‍ले पर बिठाने वाले हैं। सोचा ज़िंदगी का मज़ा ले लिया जाये।‘

इस पर वह हंसकर रह गई थी और वह बोला था – ‘मेरा ऑफर चालू रहेगा। जब दिल करे बोल देना....अपन पिक्चर देखने जायेंगे...यू नो...अपुन को फिल्‍म अच्‍छा लगता पन अपने फादर को पसंद नहीं। इसके लिये कॉलेज से बंक मारकर जाता हूं। कोई लड़की मिली तो ठीक है, वरना अकेला राम।‘

कामना इसके लिये तो कॉलेज नहीं आई थी। कमला और बिमला ने बॉय फ्रैंड बना लिये थे, मानो वे इसी काम के लिये कॉलेज आई थीं। एक बार फिर अकेली हो गई थी कामना....वह अकेलेपन का वरदान लेकर आई थी शायद। वह जानती थी कि लड़के पहली ही मुलाक़ात में क्‍या चाहते थे लड़कियों से।

इसी दौरान उसकी मुलाक़ात हुई थी सुनेश से। वह कॉलेज के बरामदे में खंभे से लगकर खड़ा होता था। बड़ी बड़ी आंखें थीं और वह चुपचाप कामना को देखा करता था। जब भी कोई लड़का कामना को देखता था, वह नीची नज़रें करके निकल जाती थी।

वह मौन प्रेम वहीं सो गया था और इसी बीच कॉलेज के छात्रों के चुनाव के दिन आ गये थे। पूरा कॉलेज चुनावमय हो गया था और वहीं एक दिन कॉलेज के मैदान में पानी की टंकी पर रंग-बिरंगी चॉक से लिखा था - भावना हू तमने प्रेम करू छू। तू मारी जया भादुरी छे।

भावना छोटे से क़द की थी और उसके कमर से नीचे तक बाल थे। उस टंकी के आसपास लड़के ढोलक बजा रहे थे। वह हील के जूते पहनकर खट खट करती आई थी और टंकी पर लिखी प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति को रौंदकर निकल गई थी।

उस लड़के ने कहा था – ‘हाय मेरा दिल कुचल दिया तूने’। और सब हंस दिये थे। शुरू शुरू में कामना ने यह सब इंजॉय किया था। पता चला कि कॉलेज के एक प्रोफेसर ने फर्स्‍ट ईयर की छात्रा से विवाह रचा लिया था।

वे खुद 35 साल के थे और वह लड़की मात्र 17 साल के थी। उस विवाह की कॉलेज में बहुत चर्चा हुई थी। कॉलेज के प्रिंसिपल के तो क्‍या कहने। वे छात्रों की यूनियन की कोई बात नहीं मानते थे। बहुत ही कड़क स्‍वभाव के थे। छात्र भी क्‍या कम थे।

जब प्रिंसिपल शाम को चार बजे घर जाने के लिये निकलते थे तो छात्र उससे पहले लाल छोटे बमों की माला जलाकर चटाई की तरह मैदान में बिछा देते थे। आगे आगे फूटते बम और तटस्थ भाव से चलते प्रिंसिपल।

गेट से बाहर निकलते ही वे अपने बंगले में घुस जाते थे। छाऋ हंसते थे और कहकर निकल लेते थे – ‘कल भी यही करना है, जब तक अपनी मांगें मान नहीं लेते सर।‘ साथ ही फाइनल परीक्षा की तारीखें तय कर दी गयी थीं और नोटिस बोर्ड पर टाइम टेबल लगाना बाकी था।

परीक्षाएं नज़दीक आती जा रही थीं और लाइब्रेरी भरती जा रही थी, वरना वहां सन्नाटा और कैंटीन में हलचल रहती थी। कामना ने जैसे तैसे परीक्षाएं दीं और साथ ही तय किया कि वह इस कॉलेज को छोड़ देगी और गर्ल्‍स कॉलेज जॉइन करेगी।

इस कॉलेज में पढ़ने का माहौल ही नहीं था। मैनेजमेंट ही ढीला था। उन्‍हें फीस से मतलब था। जब रिजल्ट निकला तो उसे 45 प्रतिशत नंबर मिले थे और इतने कम नंबर तो उसने कभी नहीं पाये थे। प्रोफेसर ठीक से पढ़ाते नहीं थे। ढंग से रहते भी नहीं थे।

एक प्रोफेसर का तो पेट ज़रूरत से ज्‍यादा बाहर निकला रहता था और शर्ट का बीच का बटन खुला रहता था और अंदर से गंदी बनियान झांकती नज़र आती थी। कामना ने कॉलेज छोड़ दिया था और छ: महीने घर में बैठकर जून में गर्ल्‍स कॉलेज में प्रवेश ले लिया था।