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सड़क पर औरतें

सड़क पर औरतें

प्रियदर्शन

उसे वहां से नहीं मुड़ना था। घर अगले मोड़ पर था। लेकिन वह मुड़ गई। उसे मालूम था, कुछ देर चलेगी तो बाज़ार आ जाएगा।

धूप तेज़ थी। दुपट्टा उसने मुंह पर लपेट रखा था। लेकिन उसकी पीठ पसीने से चुहचुहा रही थी। एक बार मन हुआ कि वह लौट जाए। रिक्शा करके पांच मिनट में घर पहुंच जाएगी। मां से पैसे लेकर वह रिक्शे वाले को दे देगी। लेकिन पैर न रुके, न मुड़े। वह यंत्रवत चलती जा रही थी।

या नहीं। जीवन भर तो वह यंत्रवत ही चलती रही थी। कोई चाबी भर देता था, कोई दिशा तय कर देता था, कोई रास्ता बता देता था, कोई पहुंचा देता था, कोई वापस ले आता था। इस तरह यंत्रवत जीते-जीते निकले थे पूरे बाईस साल।

फिर इस यंत्र में जाने कहां से जीवन आ गया, अकुलाहट आ गई, सवाल आ गए। जिन लोगों ने यह यंत्र बनाया था, उन्हें कृत्रिम मेधा को लेकर चल रही बहसें नहीं मालूम थीं। उन्हें नहीं पता था कि वैज्ञानिकों में एक बहस यह भी चल रही है कि अगर कृत्रिम मेधा वाले रोबोट एक दिन खुद सोचने और फ़ैसले करने लगे तो कहीं वे दुनिया को तहस-नहस तो नहीं कर डालेंगे? कहीं हम अपनी सभ्यता का सर्वनाश ही तो नहीं रच रहे हैं।

इस यंत्र का संकट यही था। वह सोचने लगा था। पहली बार उसने 16 साल की उम्र में विद्रोह किया था- बहुत मामूली सा। उसे ग्यारहवीं में आर्ट्स लेने की सलाह दी जा रही थी, उसने साइंस लेने का फ़ैसला किया था। भाई ने समझाया था- तुझसे नहीं होगा। पिता निरपेक्ष थे- साइंस ले या आर्ट्स- बेटी ग्रेजुएशन कर ले, इसके बाद इसका रास्ता और रिश्ता देखा जाएगा।

उसने साइंस ले ली। भाई बहुत नाराज़ हुआ। पिता दो साल बाद नाराज हुए, जब उसने घर में मेडिकल की तैयारी की कोचिंग के लिए सहमते-सहमते पैसों की बात छेड़ी। पिता ने फौरन याद दिलाया- कोचिंग-वोचिंग से कुछ नहीं होता। देखा नहीं, बड़े भाई को? दो लाख रुपये बरबाद कर दिए, कहीं इंजीनियरिंग में नहीं हुआ। तुम क्या सितारे तोड़ लोगी? घर से जो कर सकती हो, करो।

उसके पास जवाब था, लेकिन दिया नहीं गया। भाई रुपये ही नहीं, समय भी बरबाद कर रहा था। उसे इंजीनियरिंग और पढ़ाई नहीं करनी थी, पढ़ाई का दिखावा करना था। वह पढ़ेगी। कोचिंग मिल जाए तो मेडिकल निकाल लेगी।

न कोचिंग मिली, न मेडिकल निकला। बल्कि उसने फॉर्म भरा ही नहीं। बाकी जो सहेलियां भर रही थीं, वे उसे बोलती रहीं- भर दे, लेकिन उसका मन उचट चुका था। अब उसे डॉक्टर नहीं बनना। घर वाले जो चाहें, बना दें उसे।

धीरे-धीरे पढ़ने से भी उसका मन उचटने लगा। ट्वेल्थ में 92% नंबर लाने के बावजूद बीएससी उससे नहीं हुई। जब मेडिकल नहीं करना है, जब कुछ भी नहीं करना है, तो पढ़ कर क्या फ़ायदा? उसने एग्ज़ाम ड्रॉप कर दिए। घर वालों की लानत-मलामत झेलती रही। भाई ने कहा- पहले ही कहा था, तुझसे नहीं होगा। मां ने पूछा, क्यों तेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता? पिता ने घुड़का- बीए भी पास नहीं करेगी तो अच्छे घर में शादी कैसे होगी? सबने मिल कर याद किया कि यह तो मेडिकल की कोचिंग के लिए साठ हजार रुपये की फीस देने की बात कर रही थी। सबने यह नतीजा निकाला कि अच्छा हुआ, नहीं तो वे पैसे भी डूब जाते।

उसने लंबी-गहरी सांस ली और छोड़ी। जैसे इस सांस के साथ वह अपने वे पिछले छह साल भुला देना चाहती हो। सब कहते हैं, इक्कीसवीं सदी है। लड़कियां पढ़ाई जा रही हैं। नौकरी कर रही हैं। किसी ने उसका घर नहीं देखा। सबको जैसे उसके पढ़ने से चिढ़ थी। सबको जैसे भाई का करिअर संवारना था- भाई को छोड़कर। वह बेपरवाह था। उसकी एक ही चिंता होती थी- वह कहां जा रही है? कॉलेज जा रही है या सहेलियों के साथ घूम रही है? कहीं लड़कों के साथ तो नहीं घूमती।

लड़कों के साथ वह नहीं घूमती थी। लड़कों के साथ घूमने के लिए हिम्मत चाहिए। यह हिम्मत परिवार से आती है। परिवार ने उसे हिम्मत दी ही नहीं, उल्टे छीन ली। सहेलियों के साथ भी वह कभी ढंग से मस्ती नहीं कर पाई। कॉलेज जाती-आती रही। मेडिकल करने का सपना जैसे-जैसे बिखरता गया, उसके भीतर का उत्साह भी मरता गया। सहेलियां भी छूटती गईं।

अब तो कोई नहीं है उसके साथ। सहेलियां छूटीं, कॉलेज छूटा, आज घर भी छूटता लग रहा है। उसने सिर उठा कर देखा- धूप में आंखें चुंधिया गईं। जो गॉगल्स बहुत अरमान से खरीदे थे, वे भी मेज़ पर छूट गए।

लेकिन इस तरह वह कहां जाएगी? वह थक रही है। एक घंटे से लगातार चल रही है। उसे हल्की-हल्की भूख भी महसूस होने लगी थी। बाजार है, लेकिन जेब में पैसे नहीं हैं। होते भी तो क्या वह अकेले कहीं बैठ कर कुछ खा पाती? घर वालों ने इतनी हिम्मत भी नहीं दी। लेकिन बात-बात पर घरवालों को क्या कोसना? उन्होंने तो फिर भी उसे स्कूल भेजा, कॉलेज भेजा, कदम-कदम पर उसकी सुरक्षा का ख़याल रखा। उसकी आंख भर आई। अब भी वे लोग उसके बारे में सोच रहे होंगे। हो सकता है, भाई खोजने निकला हो। हो सकता है, मां रो रही हो। हो सकता है, पिता भाई पर बरस रहे हों। सब परेशान तो होंगे।

एक बार फिर उसका मन हुआ, लौटे, रिक्शा करे और घर चली जाए। लेकिन जी में कुछ अकड़ा-जकड़ा हुआ सा था। वह घर नहीं जाएगी। सड़क पर चलते-चलते गिर पड़ेगी, मर जाएगी, लेकिन घर नहीं जाएगी। शाम होगी तो किसी पार्क में बैठ जाएगी, सो लेगी, लेकिन घर नहीं जाएगी। मगर यहां तक सोचते-सोचते वह अपने-आप से डर गई। यहां तो सड़क पर चलने में डर लगता है, पार्क में उसे अकेला कोई देखेगा तो उसका क्या हाल बनाएगा? बदमाश तो बदमाश, पुलिस भी नहीं छोड़ेगी। क्या भाई ठीक कहता था? अकेले निकल कर देखो तो समझ में आएगा कि बोलने और निकलने में कितना अंतर होता है।

बाज़ार पीछे छूट चुका था। एक कॉलोनी शुरू हो गई थी। उसके पांव जैसे अब जवाब देने को थे। पीठ का कपड़ा बिल्कुल जैसे चिपक चुका था। न उसने घड़ी लगाई है, न मोबाइल लिया है, उसे समय का भी कुछ समझ में नहीं आ रहा। ग्यारह बज रहे हैं या बारह, पता नहीं। वह समय भी किससे पूछे। अब उसे कुछ लोग देखने लगे थे। उसे समझ में आ गया कि उउसका चेहरा कुछ-कुछ उसकी कहानी कह रहा है। उसकी चप्पल बिल्कुल धूल से भर गई थी। उसका मन हुआ, कहीं बैठ जाए। लेकिन कहां? यहां तो बस सड़क है और दोनों तरफ़ घर हैं।

क्यों निकल पड़ी वह? ऐसा क्या हो गया था? पिता ने डांटा ही था न। वह नौकरी करना चाहती थी- कपड़ों के शो रूम में उसे काम मिल रहा था। छह हजार रुपये मिलते। समय देना पड़ता, लेकिन संतोष होता, कुछ कर तो रही है। मगर पापा ने सुना तो भड़क गए। अब साड़ी बेचोगी तुम? यही घर की इज़्ज़त है? कोई ढंग का काम कर नहीं पाई तो यही करोगी? उसने हिम्मत जुटा कर बोल दिया था- ढंग का काम तो आप लोगों ने करने नहीं दिया। डॉक्टर बनना चाहती थी, आपने कह दिया नहीं होगा। तो जो मुझसे होगा, वही करूंगी। बेचूंगी साड़ी।

मां ने सिर थाम लिया। इतना पढ़ा-लिखा कर क्या फायदा हुआ? उसने पूछा, कितना? बीए-बीएससी तो आजकल हर कोई कर लेता है। भीड़ में ढेला मारो, जिसको लगेगा, वह बीए पास होगा। भाई भी बीए पास बैठा है. वह क्या कर रहा है?

भाई दांत पीसता हुआ आगे बढ़ा था। मुझसे बराबरी करती है? मुझसे? हां तुमसे, क्यों नहीं करूंगी बराबरी तुमसे? तुमने कौन सा तीर मारा है?

उसने तीर मारा हो न मारा हो, थप्पड़ ज़रूर मारा। वह एक क्षण के लिए स्तब्ध रह गई। भाई थप्पड़ मारेगा, यह तो उसने सोचा भी नहीं था। मां अरे-अरे मारो मत, करती हुई आगे बढ़ी। पिता ने भी आंख के इशारे से बेटे को डांटा- यह काम नहीं।

लेकिन भाई की आंखें जल रही थीं। अगर ये दुकान गई तो मैं इसको चोटी पकड़ कर खींच लाऊंगा। आखिर ये बात सूझी ही कैसे कि तू दुकान में साड़ी बेचेगी?

उसने नहीं बताया कि उसकी इकलौती बची सहेली ने ये आइडिया दिया था। उसके पिता गुजर गए थे, मां कुछ करने की हालत में नहीं थी, तो उसके एक रिश्तेदार ने यहां नौकरी लगा दी। शुरू में कुछ बुरा लगता है, लेकिन काम अच्छा है। मालकिन भी साथ रहती है। कभी-कभार साड़ी ठीक से न सहेजने पर डांट भले दे, लेकिन भली है। सखी ने विस्तार में बताया था। यह भी बताया था कि वह चाहे तो उसके लिए बात कर लेगी। वहां और भी लड़कियों की जरूरत है।

जीवन में पहली बार उसने घर में बिना कुछ बताए ऐसा काम किया था। साड़ी के शो रूम चली गई थी, मालिक-मालकिन से मिल आई थी। उसके बीएससी करने की बात सुन कर वे कुछ हिचके थे- तुम तो बहुत पढ़ी-लिखी हो, कर सकोगी यह सब काम? उसने सिर हिलाया था- हां। फिर मालिक ने कुछ सोचा था- कहा ठीक है धीरे-धीरे इनको हिसाब-किताब रखने का काम भी दे देंगे।

यह बात हफ़्ते भर पुरानी थी। उसे आज से ही नौकरी पर जाना था। छह दिन वह अपने घर में बता ही नहीं पाई। सुबह-सुबह उसने डरते-सहमते मां को बताया। मां सन्न रह गई। तू साड़ी की दुकान में नौकरी करेगी? पापा को पता चला तो पता है, वो क्या करेंगे? उसे पता था। पता लगने में देर नहीं हुई। मां ने हिचकते-हिचकते पापा को बताया और पापा नाश्ते की मेज से तमतमाते उठ खड़े हुए- अब ये क्या नया भूत सवार हुआ है? दिमाग खराब है तुम्हारा? उनकी आवाज़ इतनी तेज़ थी कि अपने कमरे में सोया भाई भी आंखें मलता निकल आया। जब उसे पूरा माजरा पता चला तो उसने डांटना शुरू कर दिया।

बात लेकिन थप्पड़ पर खत्म नहीं हुई। पिता ने घोषणा कर दी थी कि अगर नौकरी करने जाए तो घर में उन्हें मुंह न दिखाए। रोते-रोते उसने कहा था कि ठीक है, वह नौकरी नहीं करेगी, लेकिन घर पर भी नहीं रहेगी। वह घर छोड़ देगी।

और यहीं भाई ने चुनौती दी थी- इतनी अकड़ है तो निकल जा। देखते हैं, कितने घंटे बाहर रह लेती है। जाओ-जाओ निकलो-निकलो। लगा कि वह कलाई पकड़ कर निकाल देगा।

लेकिन इसकी नौबत नहीं आई। रोती हुई वह निकल पड़ी थी कि हां, नहीं लौटूंगी जा रही हूं। मां थरथराती हुई रोकने की कोशिश करती रही, लेकिन बेटी ने दहलीज पार कर ली थी।

सड़क पर आकर उसने तेज़ी से आंसू पोछे थे। कोई रोता हुआ देख न ले। आसपास वाले क्या सोचेंगे। निकलते हुए ध्यान आया कि न उसने पर्स लिया है और न मोबाइल। ठीक से तैयार तक नहीं है। इस हालत में वह नौकरी के लिए नहीं जा सकती। पहले दिन ऐसी रुआंसी सूरत के साथ पहुंचेगी तो कौन उसे रखेगा? तो वह सड़क पर भटकती रही। उस गली में गई ही नहीं जहां उसकी पहली नौकरी शुरू होनी है। थक कर घर लौटने वाली थी कि मन बदल गया। नहीं लौटेगी।

लेकिन वह क्या करेगी? अब उसमें चलने की हिम्मत नहीं है। प्यास भी लग रही है और बाथरूम भी जाना है। उसने अगल-बगल देखा। शहर के इस इलाक़े में वह आख़िरी बार कब आई थी, याद भी नहीं है। अब तो कॉलोनी भी पीछे छूट गई- यहां से तो कच्चे-पक्के मकानों का सिलसिला है। चार क़दम और चल कर उसे अपने बाईं तरफ़ एक घर दिखा- पुराने ढंग का। बाहर चबूतरे जैसा बना हुआ था। वह एक पल को हिचकी। लेकिन थकान इस हिचक से ज़्यादा थी। वह चबूतरे पर जाकर बैठ गई। बैठते ही लगा कि पांव जैसे जकड़ गए हैं। इतना दर्द। उसे डर लगा रहा था कि कोई घर के भीतर से आकर भगा न दे। एक-दो आते-जाते लोगों ने उसे घर के आगे बैठे कुछ अचरज से देखा। तभी दरवाज़ा खुला- एक महिला का चेहरा नजर आया। क्या बात है? वह इतना थक गई थी कि यह कहने की भी हालत में नहीं थी कि वह दस मिनट सुस्ता कर चली जाएगी। उसने बस कातर आंखों से उसकी ओर देखा।

औरतें शायद बहुत सारी बातें बिना कहे समझ जाती हैं। पानी चाहिए? उसके जवाब का इंतज़ार किए बिना वह भीतर गई और कुछ देर में एक गिलास और एक जग लेकर निकली। उसने गटागट एक गिलास पानी पिया। फिर गिलास भरने के लिए जग की ओर बढ़ाया। दूसरा गिलास पानी भी पी लिया। इसके बाद अचानक वह रोने लगी।

महिला कुछ परेशान और घबराई सी दिखने लगी। अगल-बगल उसने देखा- कोई देख तो नहीं रहा। कहा- ऐसे रोओ मत। आओ भीतर आओ।

वह बिना सोचे-समझे भीतर चली आई। घुसते ही जैसे हल्की सी ठंडक ने उसकी चेतना पर पड़ी धूल बुहार दी। कमरे की दीवार पर एक घड़ी थी- उसमें एक बज रहे थे। वह नौ बजे घर से निकली है। यानी चार घंटे लगातार चलती रही है।

कहां से आई हो. जाना कहां है तुमको? उस औरत की आवाज में अब एक रूखापन आ रहा था। लेकिन इस सवाल का जवाब देने की जगह वह बोली- उसे बाथरूम जाना है। औरत ने कुछ संदेह और असमंजस से उसे देखा। वह रो सी पड़ी- बताया कि सबेरे से निकली हुई है।

महिला ने कुछ अनिच्छा से उसे बाथरूम का दरवाज़ा दिखाया। पुराने ढंग का बाथरूम था- अंधेरा सा। लेकिन अचानक बल्ब जल उठा। महिला ने बताया कि स्विच यहां है। बाथरूम के बाद उसने वहीं लगे आईने में अपना चेहरा देखा। वह बिल्कुल भिखारियों जैसी लग रही है। सुबह से उसने कुछ खाया नहीं था। अचानक दो गिलास पानी पी लेने के बाद पेट अजीब सा लगने लगा था। लेकिन फिर भी उसे कुछ राहत मिली थी। वह एक पल के लिए हिचकी, लेकिन फिर नल खोल कर उसने अपने चेहरे पर पानी के ख़ूब छींटे मारे। बाथरूम में तौलिया पड़ा था, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई कि उसका इस्तेमाल करे। चेहरा गीला था, लेकिन अब कुछ साफ़-सुथरा सा लग रहा था। वह बाहर आई तो देखा कि महिला उसे कुछ अजीब ढंग से देख रही है। उसने सिर हिलाया, अस्फुट ढंग से थैंक्स बोला और निकलने को हुई।

वह दरवाज़े पर पहुंचने को थी कि फिर महिला ने उसे रोका। उसे लाकर एक छोटा सा तौलिया दिया- चेहरा पोछ लो। शायद अब वह महिला समझ गई थी कि यह वाकई दुखियारी है जिसका और कोई मकसद नहीं है। उसने कृतज्ञता के साथ तौलिया लिया, चेहरा पोछा और फिर उसे टांगने की जगह खोजने लगी। महिला ने उसके हाथ से तौलिया ले लिया। उसकी आवाज़ अब कुछ नरम थी। पूछा, कहां से आ रही हो? कहां जाना है? वह बताने-बताने को थी कि रो पड़ी। महिला को अचानक खयाल आया- तुमने सुबह से कुछ खाया है? वह शर्म से पानी-पानी हो गई। क्या हालत उसने अपनी बना ली है? लेकिन वह सिर हिला रही थी- नहीं खाया है। महिला फिर भीतर गई और एक थाली में चार रोटियां और सब्जी ले आई- खा लो।

वह चुपचाप खाती। महिला उसे कुछ उदारता से देखती रही। खाना खाते हुए समझ में आया, भूख कितनी तीखी होती है। खा लेने के बाद उसने महिला की ओर देखा, जैसे जाने की इजाज़त मांग रही हो। लेकिन महिला ने फिर सवाल दुहराया, बताया नहीं, तुमने कहां जा रही होस कौन हो।

भोजन ने उसे कुछ ताकत दे दी थी। फिर भी धीरे-धीरे सहमे हुए ढंग से उसने पूरी कहानी बता दी। महिला की आंखें फैल गईं। सिर्फ़ नौकरी के लिए? मैंने तो सोचा था, प्रेम या शादी का चक्कर होगा। सच बताओ। उसने फिर सिर हिलाया, बस नौकरी के लिए। महिला को अब भी भरोसा नहीं हो रहा था- 6000 की नौकरी के लिए तुम घर छोड़ रही हो? महिला ने तुरंत कहा, ऐसी मूर्खता मत करो, घर जाओ। नौकरी बाद में कर लेना। धीरे-धीरे समझाना घर वालों को। वे मान जाएंगे।

महिला की बात धीरे-धीरे उसकी समझ में आ रही थी। लेकिन कोई चीज़ जैसे भीतर गड़ गई थी। अब यह नौकरी का मामला नहीं रह गया था। नौकरी करने के लिए वह घर छोड़ती तो नौकरी पर जाती। वह तो सड़क पर घूम रही है। महिला ने कहा, रुको एक मिनट। वह चाय बनाकर ले आई थी। समझा रही थी- 20-22 साल की लड़की हो तुम। दुनिया तुमने देखी नहीं है। बहुत ख़तरनाक है। अभी मैं मिल गई। हो सकता है, कुछ दूसरे लोग होते, कुछ गंदा काम करते। ऐसी घर छोड़ने वाली लड़कियॆं की खबर नहीं पढ़ी है? चकलाघर पहुंच जाती हैं।

महिला सौ रुपये का एक नोट उसके हाथ में थमा रही थी। यह पैसा लो और घर चली जाओ। जाओगी तो बस डांट सुनोगी, बाहर घूमती रहोगी तो पता नहीं क्या-क्या झेलना पड़े।

अचानक उसने घड़ी देखी- 2 बजने वाले थे। वह कुछ घबरा सी गई। सुनो निकलो, मेरे पति आने वाले होंगे। वे जान जाएंगे कि एक अनजान लड़की को मैंने घर में रोका और खाना खिलाया है तो मेरी ख़ैर नहीं। चलो, निकलो। लेकिन सीधे घर जाना। उसने देखा, इस एक लम्हे में वह महिला भी घबराई हुई थी। उसे लगा, जैसे वह अकेली सड़क पर नहीं है, वह महिला भी उसके साथ है।

मैं ये पैसे लौटा दूंगी- वह कहना चाहती थी मगर कह नहीं पाई। फिर न जाने क्या हुआ, उसने उस महिला के पांव छुए और निकलने लगी। देखा कि उसकी भी आंख में आंसू थरथरा रहे हैं- घर चली जाना, सीधे जाना। मैं भी नौकरी करना चाहती थी, कहां कर पाई। अब खुश हूं, बहुत खुश हूं। सुरक्षित हूं।

हां, वह बुदबुदा भर पाई। अब वह फिर सड़क पर थी। क्या उसकी सलाह मान ले जिसने उसे खाना खिलाया, चाय पिलाई और सौ रुपये भी दिए? धीरे-धीरे उसकी समझ में आ रहा था कि घर से निकलते हुए उसने कुछ ज़्यादा हड़बड़ी दिखाई। कम से कम वह अपना सामान ले लेती। अपना फोन, अपनी घड़ी, अपना पर्स और अपने कुछ कपड़े। हालत यह है कि वह चेंज करना चाहती थी और यह भी नहीं कर पाई। अभी तो दो बजे हैं। धीरे-धीरे शाम उतरेगी और फिर रात- तो वह कहां जाएगी? फिर कौन सी औरत होगी जो उसे खाना खिलाएगी? सबके पति आ चुके होंगे। किसी का घर उनका घर नहीं होगा।

हां, यही, बिल्कुल यहीं फांस है। जो घर है वह उसका नहीं है। वह घर का एक सामान है जिसे सुरक्षित रखा जाना है और फिर कहीं और डिलीवर किया जाना है। वहां भी वह सामान हो जाएगी। लेकिन सबके साथ ऐसा कहां होता है? बहुत सारी औरतें अपने घर की मालिक होती हैं। मगर वह उन्हें हासिल करना पड़ता है, उसके लिए लड़ना पड़ता है। जैसे वह लड़ रही है।

क्या वाकई वह लड़ रही है? अगर हां तो इतनी जल्दी हार जाएगी लड़ाई? महज कुछ घंटों में? उसका मन फिर कांपने लगा था। अब वह क्या करे। अचानक उसे खयाल आया, पहले अपनी नौकरी बचानी होगी। उसके पास सौ रुपये हैं। ऑटो से सिर्फ़ दस रुपये और 10 मिनट लगेंगे, वह पहुंच जाएगी। उसने तय किया- बाक़ी बातें बाद में। पहले दुकान चले।

लेकिन ऑटो से उतरने के बाद दुकान के सामने खड़ी वह सकुचा गई। वह कैसी गंदी लग रही है? वह भीतर जाए या न जाए? उसका दिल धड़कने लगा था। उसे निकाल दिया गया तो? या क्या पता, निकाल ही दिया गया हो? पांच मिनट वह वैसे ही खड़ी रही। भीतर का नज़ारा उसे दिख रहा था। एक चौड़े से गद्दे पर लड़कियां साड़ियां सहेज रही थीं। अचानक उसने देखा कि उसकी सहेली ने उसे देख लिया है। वह साड़ी छोड़कर भागी-भागी दुकान से बाहर आई- क्या कर रही है तू यहां? यहां तो दो घंटे पहले बहुत तमाशा हुआ है।

वह कुछ समझ नहीं सकी। उसका हाथ पकड़ कर तेज़ी से उसकी सहेली उसे दुकान से कुछ दूर ले गई। पूछा, कहां थी तू सबेरे से? उसने सुबह के झगड़े के बारे में बताया, घर छोड़ कर निकलने के बारे में भी बताया।

सहेली को यह सब मालूम था। सहेली ने बताया कि उसके पिता और भाई दुकान पर आ धमके थे। उन्होंने पहले आकर उसे खोजा। फिर मालिक-मालकिन से बहस करने लगे। धमकी भी दी है कि उसे काम पर रखा तो देख लेंगे। वे तो बता रहे थे कि घर लौटेगी तो घर भी घुसने नहीं देंगे।

उसका जी धक्क से रह गया। यानी यह नौकरी भी गई और घऱ भी गया? अब क्या करूं मैं? सहेली ने पूछा, वह रात को कहां रहेगी? वह चुपचाप सहेली को देखती रही। सहेली ने कहा, मेरे घर चली आ। मैं ऐसे बाप और भाइयों को खूब जानती हूं। उसे फिर भी अच्छा नहीं लगा। पापा-भाई जो भी थे, उसके थे। सहेली ने कहा कि वह अपनी मां को समझा लेगी। घर में बस वे हम दो लोग हैं। तू आ जाएगी तो आसानी से रह लेगी। और नौकरी का? चल तू मालकिन से बात कर ले। बैठी हुई है। इस सूरत में? तो क्या हुआ? अब तो सबको पता चल चुका है। अच्छा ही हुआ। बाद में मुसीबत आती तो दिक्कत होती।

वह सहेली के पीछे-पीछे दुकान में घुसी। मालिक-मालकिन दोनों की नजर उस पर पड़ी। दुकान के एक कोने में बने अपने बॉक्स में दोनों ने उसे बुलाया। मालकिन ने पूछा- सुबह से कहां थी तुम? उसने बताया, सड़क पर भटक रही थी। मालिक ने कहा, पता है तुम्हारे घरवालों ने यहां आकर हंगामा किया है? मालकिन ने जोड़ा- घर चली जाओ और सबको समझा लो।

यानी नौकरी गई। वह चुपचाप खड़ी रही- आंख कुछ धुंधली सी हो गई। अरे ये बहुत छोटी नौकरी है। ऐसी नौकरी के लिए घर छोड़ दोगी? किसी और अच्छी नौकरी के लिए कोशिश करना। चलो, हम लोग भी मदद कर देंगे- मालकिन ने नरमी से कहा।

अब वह फट सी पड़ी। घर में रहूंगी तो इस नौकरी लायक भी नहीं बचूंगी। पढ़ने में भाई से तेज़ रही- उसे कोचिंग दिलाई गई, मुझे नहीं। मेडिकल करना चाहती थी- घर में कोई तैयार नहीं हुआ। सब मुझ पर ही दोष मढ़ते हैं। मैं नहीं लौटूंगी।

अगर यहां काम न करने दें तब भी नहीं? मालकिन ने पूछ ही लिया। उसने सिसकियों के बीच सिर हिलाया- तब भी नहीं।

क्या करोगी फिर? पता नहीं।

घर से कुछ लेकर नहीं निकली? फिर उसने सिर हिलाया- नहीं।

मालिक-मालकिन ने ठंडी सांस ली। दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे। मालकिन कह रही थी, पता है, 20 साल पहले हम भी घर से ऐसे ही निकले थे। हम दोनों को शादी करनी थी। घर में लोग तैयार नहीं थे। फिर अपने बल पर काम किया, दुकान यहां तक बढ़ा ली।

लेकिन हम दो थे, तुम अकेली हो, सोच लो। यह मालिक की आवाज़ थी।

उसने इस बार मालकिन का चेहरा देखा- अमूमन बहुत रुक्ष रहने वाला चेहरा अभी बहुत मुलायम था। उसे वह महिला याद आई जिसने सौ रुपये दिए। याद आया कि वह पति के घर लौटने के खयाल से घबरा गई थी। उसे सहेली याद आई जिसके घर वह रात को रहेगी।

मैं अकेली नहीं हूं. हम बहुत सारे हैं- उसने बहुत धीरे से कहा और अपनी ही बात से चौंक गई।

जा, मुंह-हाथ ठीक से धो ले, काम शुरू कर। मालकिन उसे लेकर अपने साथ बाहर आ गईं। तेरे बाप-भाई को हम देख लेंगे। तू बालिग है, बस यही बहुत है।

शाम को सहेली के साथ घर लौटते हुए उसने पूछा, तुम्हें तो बहुत दिक्कत हुई होगी, जब तुम्हारे पापा गुजर गए होंगे?

सहेली एक लम्हे को चुप रही। फिर उसने धीरे से कहा- वे गुज़रे नहीं हैं। उन्होंने हमें निकाल दिया था। मैं किसी को बता नहीं पाई।

उसे लगा कि उसने अनजाने में मालकिन से जो कहा, वह वाकई सच था। वह अकेली नहीं हैं, दुनिया की इस सड़क पर बहुत सारी हैं- एक-दूसरे का हाथ थाम कर, एक-दूसरे को सहारा देकर अपना घर खोजती-बनाती स्त्रियां।