Tere Shahar Ke Mere Log - 19 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

तेरे शहर के मेरे लोग - 19 - अंतिम भाग

( उन्नीस - अंतिम भाग)
मेरे पिता मेरे साथ बस मेरी पच्चीस वर्ष तक की आयु तक रहे, फ़िर दुनिया छोड़ गए।
मेरी मां मेरे साथ मेरी तिरेसठ वर्ष की उम्र तक रहीं। वो तिरानबे साल की उम्र में दिवंगत हुईं।
अब मेरी उलझन ये थी कि चालीस साल पहले चले गए पिता को याद करने का जरिया क्या हो? उन्हें कैसे याद करूं।
वैसे तो हम जन्म - जन्मांतर पहले हुए पूर्वजों को भी उनकी तस्वीर रख कर पूज लेते हैं। ईश्वर तो राम जाने कितना ही पुराना है, फ़िर भी उसकी मूर्ति रख कर पूजा ही जाता है।
लेकिन मेरे पिता को याद रख पाना बहुत कठिन था। क्योंकि वो तस्वीर या मूर्ति पूजा में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखते थे।
सच पूछो तो वो किसी को पूजने में ही विश्वास नहीं रखते थे।
वो कहा करते थे कि अगर ये दुनिया सचमुच किसी ईश्वर ने बनाई है तो वो इतना मतलबी तो नहीं हो सकता कि उसी की सुने, जो उसे पूजे।
वो इतना स्वार्थी नहीं हो सकता कि कुछ लेकर ही कुछ दे।
उनकी ये बात मेरे मन पर अंकित है क्योंकि ये तार्किक है।
मेरे एक मित्र रोज़ ईश्वर के दर्शन के लिए मंदिर जाया करते थे। वे मुझे भी कभी - कभी कहते कि साथ में चलो। मैं उनका मन रखने के लिए कभी उनके साथ चला भी जाता था।
रास्ते में दांत के एक डॉक्टर का क्लीनिक पड़ता था, जिससे कभी इलाज लेने के कारण मेरी थोड़ी मित्रता जैसी हो गई थी। एक दिन मैंने उनसे कहा चलो इस डॉक्टर के पास चलें।
वो बोले, अरे क्यों? कोई तकलीफ़ है क्या?
मैंने कहा - नहीं, ऐसे ही बैठेंगे। आप रोज़ मंदिर क्यों जाते हो, कोई कष्ट है क्या?
- अरे नहीं, मैं तो दर्शन करने जाता हूं।
मैंने कहा - अगर एक बार दर्शन करके आपको ईश्वर की छवि याद नहीं होती तो आपको आंख के डॉक्टर के पास चलना चाहिए। और अगर तस्वीर आपके मन में बसी है तो आप अपने घर पर भी उसका दर्शन लाभ ले सकते हो। हां, अगर उनसे कुछ मांगना है तो चलो, अगर कोई ग़लती हो गई है और प्रायश्चित करना है तो चलो। अगर आपने किसी को कोई कष्ट दे दिया है या अब देना है या किसी ने आपको कोई कष्ट दे दिया है तो चलो।
मैंने उनसे कोई उत्तर नहीं मांगा, क्योंकि उनके पास था ही नहीं।
मेरे पिता अंग्रेज़ी और गणित के शिक्षक थे। यूनिवर्सिटी से लॉ में स्वर्णपदक प्राप्त कर लेने के बावजूद उन्होंने यही दोनों विषय पढ़ाए थे।
अंग्रेज़ी साहित्य में मेरी रुचि उन्हीं की देन है। वो मुझे क्लासिक किताबें पढ़ने के लिए लाकर दिया करते थे।
पर गणित में मेरी रुचि वो बहुत कोशिश करके भी नहीं जगा पाए। वो मुझे बहुत रोचक तरीके से पढ़ाते थे पर मेरा भय निकलता ही न था।
मैंने फिजिक्स भी न्यूमेरिकल्स से बच कर पढ़ी, इकोनॉमिक्स भी स्टेटिस्टिक्स से बच कर पढ़ी और कॉमर्स भी अकाउंटेंसी से बच कर पढ़ी।
इसी का नतीजा है कि मैं बैंक में साहित्यकार बन कर बैठा रहा, विश्वविद्यालयों में प्रशासक बन कर, पत्रकारिता में तकनीक विहीन होकर, और राजनीति में "वोट" विहीन होकर!
शुक्र है कि व्यापार में मैं आगे नहीं बढ़ा, वरना वहां शायद नोट विहीन होकर रहता।
मेरी ये अपंगता मुझे मेरे पिता की याद हर दिन दिलाती है।
लेकिन आपने तो मेरी कहानी पढ़ी है। आप जानते हैं कि मैं भाग्य से ज़रूर हारा पर कर्म से कभी नहीं हारा।
भाग्य को क्या दोष दूं, मैं ईश्वर के दरवाज़े पर कभी श्रद्धा से गया ही नहीं। मेरा यक़ीन कर्म की लकीरों पर तो हमेशा रहा ही। अलबत्ता भाग्य की लकीरों पर न रहा हो!
तो मैं अपने पिता को भी कर्म से ही याद कर लेता हूं।
उनकी सिखाई उसी गणित के सहारे, जो मैंने कभी नहीं सीखी।
बताता हूं कैसे।
अब मैं हर समय गिनती ही गिनता रहता हूं।
घूमने जाता हूं तो अपने कदम गिनता हूं।
दूध चाय कॉफी बनाते समय उसमें शक्कर मिलाता हूं तो गिनता रहता हूं।
सिलबट्टे पर चटनी पीसते समय गिनता हूं। मिक्सी में बनी चटनी मुझे पसंद नहीं आती।
डॉक्टर रक्तचाप नापे तो गिनता हूं कि डेढ़ सौ से ज़्यादा तो नहीं!
कोई मिलने आने वाला हो तो आने के मिनट गिनता हूं।
रेडियो - टीवी में मनपसंद कार्यक्रम के इंतजार में समय गिनता हूं।
बचपन में गर्मी की रात को जब छत पर सोते हुए कभी हवा न चले तो मेरे पिता कहा करते थे कि देश के बावन पुरों के नाम गिनो, नींद आ जाएगी।
और सचमुच मैं पूरे बावन कभी नहीं गिन पाया।
हमेशा पहले ही, न जाने कब नींद आ जाती थी। हमेशा "जयपुर" से शुरू करता था और न जाने कितने गिन कर सो जाता।
( समाप्त )
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