Ek muththi ishq - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

एक मुट्ठी इश्क़--10 - (अंतिम भाग)


इख़लाक ने जीनत़ को चारपाई पर लिटा दिया, फात़िमा ने फौरऩ चूल्हे पर आग सुलगाई और कटोरी मे तेल कुनकुना करके जीनत़ की पीठ और कमर पर मालिश की।।
चोट कुछ ज्यादा ही लगी थी जीनत को ,कई दिनों तक उसे उठने बैठने मे बहुत दिक्कतें हुई,लेकिन अब वो धीरे धीरे ठीक हो चली थी,फात़िमा पूरा पूरा ख्याल रखती जीनत़ का और आते जाते इख़लाक भी खैर-खबर लेता रहता,पता नहीं इख़लाक़ ऊपर से तो नाराज़गी का दिखावा करता लेकिन दिल ही दिल में उसे जीनत़ की बहुत फिकर रहती,वो मन मे सोचता कि उसके बच्चे एक मां को तो खो चुके थे,वो दोबारा नहीं चाहता था कि अब ये मां उसके बच्चों से दूर हो जाए और बच्चे भी तो दिनभर अम्मी..अम्मी..का दम भरते रहते,लेकिन इख़लाक को फिर भी एक चिंता हमेशा खाए रहती कि अगर जीनत़ के घर से उसे कोई लेने आ पहुँचा तो वो क्या करेगा, जीनत़ के बिना तो उसका परिवार फिर से अधूरा हो जाएगा लेकिन दूसरे ही पल वो सोचता कि कोई बचा भी होता तो अब तक आ पहुँचता, इस दिमाग़ी कश्मकश से कभी कभी इख़लाक परेशान हो उठता।।
उधर जीनत़ के मन भी उलझनें कम ना थीं,एक पराये इंसान ने उसकी बच्ची को अपनी जिन्दगी में जगह दे दी,उसे आसरा दिया लेकिन इस बच्चीं का भविष्य क्या होगा, मैं ये कैसे तय करूँ कि उसका पिता कौन होगा,उसे प्राण देने वाला या पालने वाला,लेकिन जो भी हो ,अब इस घर के सिवाय मेरा और कहीं आसरा भी तो नहीं, कहाँ जाऊँ नन्ही सी जान को लेकर और फिर अकेले कैसे इसे महफ़ूज़ रख पाऊँगी क्योंकि अभी तो मुझे खुद महफ़ूज़ रहना नहीं आता,कम से कम इसे यहाँ परिवार तो नसीब है,प्यार की छाँव है, इज्जत की रोटी हम मां बेटी को मिल रही और भला क्या चाहिए जिन्दगी जीने के लिए, सब मेरी मेरी बेटी पर जान छिड़कते हैं,इससे ज्यादा महफ़ूज़ जगह मुझे और मेरी बेटी के लिए क्या हो सकती हैं।।
जीनत़ और इख़लाक दोनों ही उधेड़बुन मे थें,इश़्क दोनों दिलों मे पनप रहा था वो भी पाक़,लेकिन दोनों ही दिल ये कूबूल नहीं कर पा रहे थे कि ये इज्ज़त थी या एक दूसरे के लिए इश़्क, क्योंकि एहसान तो दोनों ओर से बराबर था और रिश्ते की मजबूत नींव बस एक ही थी और वो थी इंसानियत, जो शायद दुनिया में बहुत ही कम देखने को मिलती है।।
अब फात़िमा के भी सब्र का बांध टूट चुका था,वो चाहती थीं कि जीनत़ और इख़लाक एक हो जाएँ और निकाह कर ले ताकि उनका परिवार पूरा हो जाएँ, उसने एक दिन हिम्मत करके जीनत़ से पूछ ही लिया___
जीनत़.. एक बात तो बता।।
हां,आपा!पूछिए,जीनत़ बोली।।
अच्छा,ये बता तुझे इख़लाक कैसा लगता हैं, फात़िमा ने पूछा।।
जी,वे तो बहुत ही अच्छे इंसान हैं, इतना नेक़दिल तो सिर्फ ख़ुदा ही हो सकता है, जीनत बोली।।
मैने ये नहीं जानना चाहा था,मै तो किसी और इरादे से पूछ रही थीं, फात़िमा बोली।।
इरादा... कौन सा इरादा.. आपा! जीनत़ ने फात़िमा से पूछा।।
अच्छा! अब साफ़ साफ़ पूछती हूँ, तू इख़लाक से निकाह क्यों नहीं कर लेती,ये अधूरा सा परिवार पूरा हो जाएगा।।
निकाह.... और उनसें, जीनत़ ने अवाक् होकर पूछा।।
हां,जीनत...निकाह,तू उसे पसंद करती हैं, वो तुझे पसंद करता है फिर ये किस बात की दूरियाँ और कितना वक्त़ चाहिए, तुम दोनों को एक होने के लिए,फात़िमा बोली।।
लेकिन आपा! उनकी क्या मर्जी है, ये आपने उनसे पूछा,जीनत़ बोली।।
उसकी छोड़ तू अपनी बता,फात़िमा बोली।।
पहले आप उनी मर्जी पूछिए,कोई भी काम जबरदस्ती नहीं होना चाहिए, जीनत़ बोली।।
ठीक है तो यह तय रहा, अगर इख़लाक ने हां कर दी तो फिर तेरी भी हां ही होगी और इतना कहकर फात़िमा ,इख़लाक की कोठरी में जा पहुंची।।
अब तो जीनत़ उलझन मे आ गई थीं आखिर उसकी जिन्दगी मे अब क्या होने वाला है?
इधर इख़लाक से भी फात़िमा ने निकाह के लिए पूछा....
और इख़लाक बोला___
आपा! आपने उनकी मर्जी पूछी कि अपना फैसला हम दोनों के ऊपर थोप रहीं हैं।।
उसी से पूछकर ही आ रही हूँ और उसने कहा है कि तेरे हां करते ही वो भी हां कर देगी,फात़िमा बोली।।
मेरी तो हाँ ही होगी आपा! भला ऐसी नेकदिल और पाकीज़ा लड़की मुझे और कहाँ मिलेगी, उसने कैसे पराये बच्चों को सम्भालकर मां की ममता दी है,जिस हाल मे हमने रखा वैसे ही रही,कभी भी कोई शिकायत नहीं की,मैं ऐसी लड़की से निकाह के लिए कभी ना कर ही नहीं सकता,उसने एक अलग ही जगह बना ली है मेरे दिल मे,उसने मेरे परिवार को पूरा किया है, उसकी वजह से ही तो मेरी उजड़ी हुई जिन्दगी मे फिर से बहार आई हैं, उसके चेहरे की मुस्कुराहट देखकर मैं अपने सारे ग़म भूल गया, उसने मेरी जिन्दगी मे नए रंग भर दिए,मेरी बिखरी हुई दुनिया को संवार दिया है और इससे ज्यादा अब मैं क्या कहूँ,इख़लाक बोला।।
अच्छा! तो मन ही मन में ये खिचड़ी पक रही थी और मुझे खुशबू भी ना आई,चल सुन ली तेरे मन की बात,अब उसे भी बता दूँ,फात़िमा बोली।।
और फात़िमा जैसे ही कोठरी से बाहर निकली,जीनत़ वहीं दरवाजे के बाहर खड़ी सब सुन रही थीं,जैसे ही फात़िमा को बाहर आते देखा तो भागने लगी।।
फात़िमा भी जोर से बोली____
अच्छा! अब भागती कहाँ हैं? तो दरवाज़े के पीछे खड़े होकर मेरी और इख़लाक की बातें सुनी जा रहीं थीं, अब तो तुझे हो गई होगी ना तसल्ली, अब तो तेरी हाँ है ना! फात़िमा ने जीनत़ से कहा।।
और जीनत़ शरमाते हुए दूसरी कोठी मे चली गई।।
देख! इख़लाक कैसे शरमाते हुए चली गई, देखा तूने! वो भी राजी है,फात़िमा बोली।।
और इख़लाक मन ही मन मुस्कुराते हुए अपना सिर खुजाने लगा।।
अब फात़िमा ने तय किया कि उनके गाँव से कोई चालिस पचास किलोमीटर कोई दूसरा गाँव हैं, जहाँ पीर बाबा की मज़ार है, हम सब उस गाँव पीर बाबा की मजा़र पर चादर चढ़ाने जाएंगे और उसी गाँव के मौलवी से निकाह भी पढ़वा लेगें, यहाँ के लोगों को इस निकाह के बारें में पता भी नहीं चलेगा और निकाह भी आराम से हो जाएगा, नहीं तो यहाँ निकाह पढ़वाने पर लोग दस तरह के सवाल खड़े कर देगें कि अभी तक जीनत़ आपके साथ बिना निकाह के रह रही थी।।
सबको फात़िमा की बात अच्छी लगी और एक हफ्ते में सब तैयारियाँ हो गई, सबके नए कपड़े भी सिल कर आ गए, सब बस मे बैठ दूसरे गाँव के लिए चल दिए।।
फात़िमा ने खास़तौर पर जीनत़ के लिए नया सुर्ख लाल रंग का जोड़ा सिलवाया था और फात़िमा के कुछ गहने दंगों के बीच बच गए थे,वो भी उसने जीनत़ को दे दिए,लाल दुपट्टे में जीनत का रंग और भी खिल रहा था और उसे देख देखकर इख़लाक के गालों पर लाली छा गई थी,इख़लाक़ और जीनत़ मन ही मन सपने बुननें लगे थे,अब दोनों का परिवार पूरा जो होने जा रहा था।।
बस एक दो घंटों मे पहुंच गई वो सब बस स्टैंड पहुँच गए और पीर बाबा की मज़ार जाने के लिए तांगा ढूंढ़ने लगें,तभी जीनत़ बोली,मुझे प्यास लग रही हैं, मैं प्याऊ तक पानी पीकर आती हूँ और जीनत़ प्याऊ के पास से पानी पीकर वापस लौटी,उसे किसी ने गुरप्रीते... ओय ..गुरप्रीते कहकर पुकारा।।
जीनत़ ने हैरान होकर पीछे मुड़कर देखा तो वो सन्न रह गई____
वहाँ सरबजीत था,सरबजीत को देखकर उसके मुँह से बोल ना निकल सकें, लेकिन सरबजीत ने जरूर बहुत कुछ पूछा अपनी पत्नी गुरप्रीत से___
गुरप्रीते उस रात मैने तुझे बहुत ढ़ूढ़ा,ना जाने कहाँ कहाँ लेकिन मैं तुझे और ज्यादा ना ढूंढ़ पाया क्योंकि दंगाई मेरे खून के प्यासे हो चुके थे और भी एक दो लोंग थे मेरे साथ, हमने दिल्ली वाली बस पकड़ी और दिल्ली चले गए, वहाँ मेरे मामा जी रहते हैं, मैं उन्हीं के पास रूक गया, अभी दस पन्द्रह दिन पहले ही लौटा हूँ, जमीन और घर बेचकर फिर वापस चला जाऊँगा।।
तब तक इख़लाक और फात़िमा भी जीनत़ के पास पहुंच चुके थे और उन्होंने सारी बातें सुन ली थीं, फात़िमा तो सब सुनकर परेशान हो उठी।।
तभी सरबजीत बोला, तू कहाँ रह रही थीं, इतने दिनों से और ये किसका बच्चा हैं तेरी गोद मे।।
तभी फात़िमा बोल पड़ी,ये हमारे साथ रह रही थीं और ये मेरी भाभी की बच्ची है।।
अब जीनत़ को तो कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि वो क्या जवाब दे।।
अब सबकी निगाहें सरबजीत पर थीं कि इसके मुँह से अगला शब्द क्या निकलेगा, क्या ये इसी वक्त़ जीनत़ को अपने साथ ले जाएगा।।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ,सरबजीत बोला___
आज अभी तुम इन्हीं लोगों के साथ रहों, अपना पता बता दो मैं कल आऊँगा, तब तुमसे बात करता हूँ कि आगें क्या करना है?
इख़लाक ने अपना सारा पता सरबजीत को दिया और उस दिन सब बिना निकाह के घर वापस आ गए, सबके होश़ उड़े हुए थे,फात़िमा ने रात का खाना बनाया, बच्चों को खिलाया लेकिन बड़ो मे से किसी ने भी खाने को हाथ ना लगाया, तीनों ऐसे ही भूखे लेट गए, सबके सपने जो टूट गए थे,रात भर तीनों फिक्र के मारे सो ना सकें कि कल पता नहीं क्या होगा।।
फात़िमा मन ही मन मे दुआ कर रही थीं.. याह..अल्लाह..रहम कर,दो इश़्क करने वालों को अलग मत करना,इनका इश़्क बहुत ही पाकीज़ा हैं, इंसानियत को शर्मसार मत होने देना,मेरे ख़ुदा!!
उधर इख़लाक के भी दिमाग़ मे बहुत सी उलझनें थीं,वो अब सच मे जीनत को पाकर खुश रहने लगा था और उसकी ये खुशी अब दूर होने वाली थी।।
गुरप्रीत भी सोच रही थी कि अब तो उसका पति जिन्दा है और वो उसे जहाँ ले जाना चाहेगा ले जाएगा और उसे जाना भी पड़ेगा और ये लोग,इन बेचारों का क्या कसूर है जो इन्हें ऐसी सज़ा मिल रही है, शायद अच्छे इंसानों के साथ हमेशा ऐसा ही होता है और गुरप्रीत फफक फफक कर रो पड़ी और ये ये सोचते सोचते उसकी आंख लग गई।।
सुबह हुई सब बोझिल मन से उठे,किसी का भी किसी काम मे मन नही लग रहा था,कोई किसी से बात भी नहीं कर रहा था और ना नजरें मिला पा रहा था,बस सबको सरबजीत का इंतजार था कि वो जल्दी से आकर अपना फैसला बताएं।।
दोपहर होने से पहले सरबजीत आ पहुंचा, सब गुमसुम होकर उसके फैसले का इन्तज़ार कर रहे थे,फात़िमा ने असलम से कहा कि बेटा तू थोड़ी देर दूसरी कोठरी मे सारे बच्चों को ले जा,हम सब बड़े कुछ बात कर रहे हैं और असलम सभी बच्चों को कोठरी मे लेकर चला गया।।
अब सरबजीत बोला___
गुरप्रीत ये तुम्हारे बाबूजी के जमीन जायदाद के काग़ज हैं जो अब सब तुम्हारे नाम हैं क्योंकि तुम ही उनकी अकेली वारिस हो और मै तुमसे ये कहना चाहता हूँ कि तुम अब अपने बाबूजी के गाँव लौट जाओ या तुम्हें यहाँ इनके साथ रहना हैं तो रहो क्योंकि मैं अब तुम्हें अपने साथ नहीं रख सकता।।
फात़िमा ने पूछा, क्यों भाईजान!
वो इसलिए कि दिल्ली से वापस आकर भी मैने गुरप्रीत को बहुत ढ़ूढ़ा और बहुत ढ़ूढ़ने पर जब वो नहीं मिली तो दिल्ली मे मामा जी ने मेरी दूसरी शादी करवा दी,वो मामी जी की भतीजी हैं अब वो माँ बनने वाली है और मैं उसे नहीं छोड़ सकता वो भी बिल्कुल अनाथ है मेरी तरह,इसलिए गुरप्रीत मुझे भूल जाओ उसी तरह से जैसे मैने तुम्हें भुला दिया है और हो सके तो इस अपराध के लिए मुझे माफ़ कर देना और इतना कहकर सरबजीत जाने लगा।।
तभी फात़िमा बोली, खाना तो खाकर जाइए,भाईजान!
नहीं बहनजी !फिर कभी और आप सब भी मुझे माफ़ करें और मुझे ग़लत ना समझें और इतना कहकर सरबजीत चला गया।।
सरबजीत की बात सुनकर सबके मन में खुशी की लहर दौड़ गई,सबके मायूस चेहरे खिल उठे।।
फात़िमा बोली,लो भाई अब सब गुड़ खाकर मुँह मीठा करो निकाह पक्का जो हो गया हैं अब कल ही चल कर निकाह पढ़वा आते ना जाने फिर कौन सी मुसीबत आ जाए।।
और दो चार दिनों मे ही इख़लाक और जीनत़ का निकाह हो गया, जीनत़ ने अपनी सारी जमीन जायदाद बेच दी और उन पैसों से बच्चों को स्कूल मे दाखिला दिलवाया और एक अच्छा सा घर बनवा लिया और भी खेत खरीदे अब उनकी जिन्दगी मे सब पहले से बेहतर था।।
इस तरह से दो बिखरे हुए लोगों को अपनी अपनी मौहब्बत मिल गई, जो इश़्क इंसानियत के नाते हो उसे पाकीज़ा इश़्क ही कहते हैं।।
फात़िमा,इख़लाक़ और जीनत़ के पाकीज़ा इश़्क की कहानी समीरा को सुनाते सुनाते उदास हो उठी।।

समाप्त___
सरोज वर्मा__