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दिल की दौलत

कहानी

दिल की दौलत

आर. एन. सुनगरया,

मैं बहुत खुश दिख रही हूँ, इसलिये नहीं कि आज मेरी सगाई के लिये वही लोग आ रहे हैं, जिन्‍होंने करीब दो वर्ष पूर्व असंतुष्‍ट होकर बाबूजी को टका सा जवाब दे दिया था। मेरी खुशी का कारण यह भी नहीं है कि मेरे गरीब चिंति‍त माता-पिता के सर से बगैर दहेज के बोझ हट जायेगा और मुझे तन्‍हार्इ से मुक्ति मिल जायेगी। अब किसी की बॉंहों में झूलूँगी, सुहाने सपने साकार हो जायेंगे। मुझे खुशी सिर्फ इस बात की है कि मेरा प्रयोग सफल हो गया। इस प्रयोग की बात मेरे दिमाग में तभी आई, जब बाबूजी बेहद क्रोधित होकर घर लौटे और घर पर गुस्‍सा उतारने लगे, ‘’ये बेटी नहीं पूर्व जनम का अभिशाप है। सालों ने घर बुलाकर इन्‍कार कर दिया। मैंने पहले ही कह दिया था कि मेरे पास लड़की को देने कुछ नहीं है, लड़के ने तो कहा भी,’’पिताजी इस तरह व्‍यवहार करना हमारी नीचता ही नहीं, बल्कि इनका अपमान भी है।‘’

‘’चुप बे मंजनू! क्या ऑंख लड़ गई लैला से?’’ सेठ जी की ऑंखें चढ़ गईं थी।

‘’ओह! पिताजी मैंने तो उसे देखी तक नहीं।‘’ झूठ बोला।

बाबूजी नाटक के पात्रों की तरह ज्‍यों का ज्‍यों अभिनय कर रहे थे।

तभी से मेरे दिमाग में ये बात बैठ गई कि यदि वे मुझे वाक्‍यी प्‍यार करते होते तो जो सगाई आज होने जा रही है, वह दो वर्ष पहले हो गई होती। खैर! अच्‍छा ही हुआ। दो वर्ष में वे भी एम.ए. फायनल कर चुके और मैं भी एम.ए. में दाखिल हो गई।

मेरी किस्‍मत भी अच्‍छी थी कि तभी कुछ दिन बाद एक विशेष उत्‍सव में बृजेश जी का दहेज-प्रथा पर भाषण सुनने को मिला।

वे पार्क में अकेले बैठे थे। मैं बहुत ही साहस करके उनके समीप पहुँची, पहले तो हम दोनों की निगाहें मिलते ही, एक अज्ञात घबराहट से विचलित हो गये। कुछ ही क्षणों में हमारी नज़रों ने झटाझट दिलों में मीठी चुभन पैदा करने वाली सैकड़ों अज्ञात बातें कर लीं। बृजेश जी कुछ कहने ही वाले थे, कि मैंने उन्‍हें अपना नाम बताया और बाद में उनके भाषण पर बधाई के साथ टिप्‍पणी की, ‘’बधाई स्‍वीकार कीजिए। आपका भाषण बहुत सफल रहा। वाक्‍यी यदि युवक-युवतियॉं, खासकर युवक ही अपने वातावरण और परिस्थिति के अनुकूल इस कुप्रथा को दूर करने का प्रयत्‍न करें तो यह बिलकुल खत्‍म हो सकती है।‘’

वे पहले तो आश्‍चर्य पूर्वक मुझे देखते रहे, फिर उन्‍होंने मुझे उसी प्रकार धन्‍यवाद दिया, जैसे वे मुझे पहले से जानते हों और बैठने के लिए कहा। मैं संकोच करती हुई बैठ गयी। कुछ क्षण खामोशी छाई रही फिर मैंने पूछा, ‘’माफ कीजिये आपके भाषण पर कुछ चर्चा करना मतानुसार कोई नवयुवक अपने माता-पिता का दिल क्‍यों तोड़ेगा और उन्‍हें बगैर दहेज लिये शादी करने के लिए क्‍यों मजबूर करेगा? मेरा मतलब है क्‍यों मनावेगा?’’

‘’पहली बात तो यह है कि उनका दिल टूटेगा नहीं।‘’ उन्‍होंने मुस्‍कान बिखेर दी, ‘’और यदि टूट भी जाता है या औलाद से नाराज हो भी जाते हैं तो वह नाराजगी कुछ ही समय की होती है।‘’

कुछ देर खामोश रही, फिर बृजेशजी ही बोले, ‘’लड़के को लड़की से प्‍यार हो तो अच्‍छा है या वह लड़का इस कुप्रथा को खत्‍म करने के पक्ष में हो, तभी वह ऐसा विद्रोही कदम उठा सकता है। अन्‍यथा उसे क्‍या पड़ी है, एक अन्जान लड़की से अपनी शादी करने की और दहेज जैसे फोकट के धन को ठुकराने की।‘’

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इसके बाद हम दूसरे-तीसरे दिन मिलने लगे। धीरे-धीरे यह मिलना मय प्रतीक्षा के रोज-रोज मिलने में बदल गया। वे मेरे लिये दोस्‍त के स्‍थान पर प्रेमी हो गये और मैं उनके लिये प्रेमिका। जमाने की जा़लिम नज़रें हमारे ऊपर चोंट करने लगी। और हम उजागर मिलने की वजह चोरी छुपे मिलने लगे। लेकिन जो काम जितना चोरी से किया जाता है, वह एक दिन अवश्‍य उतना ही उजागर भी हो जाता है।

हमारे साथ यही हुआ। हम रोज-रोज नया और रमणीक स्‍थान चुन लेते और घण्‍टों बातें किया करते। कभी सामाजिक समस्‍याओं के समाधान खोजते, तो कभी समाज में फैली कुप्रथाओं को दफन करने के प्रस्‍ताव बनाते।

इन सब बातों में प्रधानता प्रेम की बातों को ही मिलती। हम अनेक हसीन स्‍वप्‍न संसार बनाते और उनमें हमारी भावनाऍं सुसज्जित हो जाती। हमें ऐसा आनन्‍द मिलता कि हम हरपल इसमें डूबे रहना चाहते। मगर इसमें डूबने से हमें एक अज्ञात शक्ति रोक लेती। हर सुनसान खण्‍डहर हमारे लिये प्रिय होता। हम सन्नाटे में समा जाते। हमें पता भी नहीं चलता कि हमारी-सॉंसों की सरगम कितनी तीव्र हो जाती है और हमें ज्ञात भी नहीं हो पाता कि कब सूर्य गया, चॉंद आया एवं चॉंदनी जवान हो गई। शीतल समीर हमें इतना आनन्दित करती कि हम भूल जाते दुनिया भी है या नहीं।

वाक्‍यी हमें एक-दूसरे के सिवा कुछ नजर नहीं आता, हमारे कदम बहकने लगे। आलिंगन करते-करते हम इतने खो गये, इतने खो गये कि ना जाने कब हमारे कपड़ों के बटन खुल गये। हम एक दूसरे के पहलू में, कशमशाती देहों को मसलते हुये समा जाना चाहते थे कि सन्नाटे ने हमें सचेत कर दिया। यानि वह भंग हो गया, ‘’क्‍या हो रहा है ये!’’ एक क्रोधित और चीखती आवाज ने हमारे रोम-रोम में सनसनी और थर-थराहट संचित कर दी। हमने देखा एक वृद्ध व्‍यक्ति हमारी और बढ़ रहा है, ‘’आज तक तुम्‍हारा पीछा करने से मुझे लगा था कि तुम्‍हारे बीच एक आदर्श प्रेम पल रहा है, लेकिन आज पता चला कि तुम्‍हारे प्रेम में भी वासना है।‘’ वृद्ध की आवाज कुछ तेज हो गई, ‘’वही वासना जो गत पॉंच वर्ष पूर्व मेरी बेटी और उसके प्रेमी में थी और वही वासना उनकी मौत का कारण बन गई।‘’ वृद्ध ने रोते हुये बताया, ‘’उनमें भी आदर्श प्रेम था, लेकिन वे जवानी के आवेगों और अपनी सीमा पर काबू ना कर पाये और शारीरिक संबंध बना बैठे। शायद इसके प्रायश्चित स्‍वरूप लड़के के मॉं-बाप द्वारा शादी की अस्‍वीकृति मिलने के पश्‍चात लड़की ने आत्‍महत्‍या कर ली। लड़का भी ज्‍यादा दिन ना जी सका और उनका प्रेम मिट्टी में मिल गया।‘’

वृद्ध ने यह भी बताया, ‘’तुम्‍हारे प्रेम की चिंगारी ने अब मशाल का रूप धारण कर लिया है। उसकी रोशनी घर-घर पहुँच चुकी है। कहीं ऐसा ना हो कि वह मशाल तुम्‍हारे ही घर को फूँक कर रख दे।‘’

वृद्ध ने सच ही कहा था। घर-घर हमारी प्रेम-कहानी की चर्चा थी। जिधर से भी निकली अजीब सी-घुटन पैदा करने नज़रें मुझे घूरती। ये नज़रें तो मैंने सह भी लीं, लेकिन बृजेश जी से जुदाई सहन ना हो पाई। उन्‍हें ज्ञात हर स्‍थान पर ढूँढ़ने के बाद भी कोई सफलता नहीं मिली।

लोगों की शिकायतें, तानेबाजी और मेरी अव्‍यवस्थित नियमताओं से तंग आकर बाबूजी ने मेरा घर से कहीं जाना-आना बंद कर दिया। मैं भी उन्‍हें ढूँढ़-ढूँढ़ कर परेशान हो चुकी, तो घर पर ही आराम करना पसन्‍द किया।

क्‍या मैं आराम कर सकी? तन्‍हाई में यादों के तूफान मुझे घेर लेते, मैं तरह-तरह के विचार सोचती, यदि उस दिन वह वृद्ध ना आता तो वाक्‍यी कुछ गड़बड़ हो गई होती, तब बृजेश जी का इस तरह गायब होना मेरी मौत का संदेश ही होता। अगर वे मिलते भी तो मैं उन्‍हें प्‍यार का बीज बताती, शायद वे कहते, मैं कैसे विश्‍वास करूँ कि यह मेरा ही है.......

नहीं-नहीं यह सुनने से तो मेरे ऊपर आसमान टूट पड़ेगा। अगर वे इसे स्‍वीकार भी कर लेते, तो क्‍या घर वाले और दुनियॉं हमें सुखी जीवन जीने देती?

अच्‍छा हुआ वह वृद्ध देवता वहाँ आ पहुँचे।‍हें ‍़1 ं और घण्‍टाें ह एक दिन अवश्‍यक उनकी एक-एक बात मुझे आज तक ज्‍यों कि त्‍यों याद है।

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हर पल, गुमसुम बैठी, एक ही विचार में मगन, एक स्‍वप्‍न देखकर मैं बोर हो गई और वहॉं की हर, चीज मुझे खाने को दौड़ने लगी। जब भी बाहर जाने का मूड बनाती, ना जाने क्‍यों रूक ही जाती। इसलिये नहीं कि बाबूजी ने बाहर जाने को मना कर दिया है। जाती भी तो कहॉं? सब तो वीरान सा लग रहा था। गर्मी की छुट्टी चल रही थी। क्‍या मालूम बृजेशजी कहीं सैर करने चले गये हों। शायद इसलिये मुझसे मिलने ना आये हों। लेकिन यह बात होती तो, क्‍या वे मुझे बतलाते नहीं?

एक ही वातावरण में घुटते हुये मैं कुछ अस्‍वस्‍थ हो गई। मन तो न कर रहा था, लेकिन बाबूजी के अनुरोध पर मैंने सोचा अस्‍पताल घूम ही आऊँ।

अस्‍पताल पहुँच कर देखा तो डॉक्‍टर के कमरे के सामने रोगियों की लम्‍बी कतार लगी हुई है। मैंने लाईन में खड़ी ना होकर सामने पड़ी बेंच पर बैठना अच्‍छा समझा!

मैं बैठी ही थी कि मुझे तुरन्‍त उठना पड़ा और मेरे दिमाग में अतीत की बहुत सी तरंगें तरंगित हो गई।

क्षण भर बाद मन ही मन में अनेक शिकायतें उभर आईं, आपने मुझे बहुत तड़पाया है। जाओ मैं आपसे बात नहीं करूँगी। आप कहॉं गायब हो गये थे। आपके वगैर सब शून्‍य ही शून्‍य है। आप दुनियाँ से डर गये? जानते नहीं प्‍यार करने वालों से दुनियॉं हारती है। काश! ना आप गायब होते, ना मुझे इतना तरसना-जलना पड़ता। अच्‍छा ही हुआ इससे हमारा प्रेम और घनिष्‍ठ हो गया।

मुझे प्रतीत हुआ मेरे सामने खड़े बृजेशजी की भी शायद वही दशा है, जो मेरी है। यानि वे कुछ कहना चाहते हैं। कुछ मैं। लेकिन किसी का मुँह नहीं खुल रहा है। नज़रों में युद्ध सा हो रहा है। तभी उनका ध्‍यान सामने स्‍ट्रेक्‍चर पर एक अचेत अवस्‍था में पड़ी महिला पर गया, जिसे ऑपरेशन रूम से बाहर निकाली जा रही है। जब वे उसके पास जाकर उसे ठीक से कम्‍बल ओढ़ाने लगे तो मुझे समझते देर नहीं लगी कि वह महिला उनकी कोई घनिष्‍ठ रिश्‍तेदार है या उनकी मॉं हैं। वाक्‍यी वह उनकी माँ है। जब दो आदमी उन्‍हें लेडिज वार्ड में ले जाने लगे, तब उन्‍होंने बताया, ‘’दस/बारह दिन से मॉं के पेट में बहुत दर्द था। आज ऑपरेशन हुआ है।‘’ उन्‍होंने एक दम पूरी स्थिति बदल दी, ‘’पिताजी धंधे के सिलसिले में बाहर गये हुये हैं। चाची-भाभी अपनी-अपनी व्‍यवस्‍थता के कारण अस्‍पताल में रह नहीं सकतीं। इसलिये मुझे ही उनके पास रहना पड़ रहा है। आज रात के लिये किसी पड़ोसन को मनाकर लाऊँगा कि वह लेडी वार्ड में हर पल उनकी देखभाल कर सके।‘’

उनका चेहरा मुझे आज कितना बदला हुआ नज़र आया मलिन, चिन्तित उदास और घबराहटपूर्ण। मेरे मॅुंह से तुरन्‍त निकल गया, ‘’किसी पड़ोसन को लाने की कोई आवश्‍यकता नहीं, मैं जो हूँ यहॉं।‘’

इससे पूर्व कि इस सम्‍बन्‍ध में हम कुछ और चर्चा करते। कम्‍पाऊँडर ने उन्‍हें परचा दिया, ‘’ये दवाईयॉं अभी ले आइये।‘’

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हालॉंकि मैंने पिताजी को सूचित भी कर दिया कि मेरी सहेली बहुत गम्‍भीर है। उसकी देखभाल हेतु मुझे रात में भी रूकना है। वे मान भी गये, लेकिन दुनियाँ है। तरह-तरह की अफवाहें उड़ाना उसकी आदत है। जिसके जो समझ में आया बक दिया। किसी-किसी ने तो यह तक कह दिया कि वह तो किसी लड़के के साथ भाग गई, क्‍योंकि वह उसका विवाह नहीं कर सकता। शुक्र है पिताजी ने कोई अफवाह सच ना मानी, क्‍योंकि वाक्‍यी मेरी सहेली भी अस्‍पताल में भर्ती थी।

छटवें दिन जब मैं उनसे कुशलता पूछने गई, तो मुझे दरवाजे पर ही रूकना पड़ा। क्‍योंकि बृजेशजी और मॉंजी मेरे ही विषय में बातें कर रहे थे। मॉंजी तारीफ कर रही हैं, ‘’तुम्‍हारी दोस्‍त का नाम सोना है, वह सचमुच ‘सोना’ ही है। उसका व्‍यक्तित्‍व और बोलचाल तो मानो सुहागा है। उसने रात-दिन एक करके जो मेरी सेवा श्रुर्षा की है। वह तो मेरी अपनी बेटी की ही प्रतिमूर्ति हो। तो भगवान को बहुत-बहुत धन्‍यवाद दूँ।‘’

‘’प्रतिमूर्ति ही क्‍यों, वही आपकी बहु बन सकती है।‘’ बृजेशने फौरन कह दिया।

‘’अच्‍छा!’’ मॉंजी ने मुस्‍कुराते हुये उन्‍हें देखा, ‘’आज वह आई नहीं।‘’

मेरा हृदय आनन्‍दपूर्वक छलांगें लेने लगा। मैंने शर्म पर काबू कर हाथ जोड़ते हुये प्रवेश किया और मॉंजी के पैर छू लिये। बड़ा अजीब सा लगा, फिर उनकी तरफ देखते हुये मुझे पुन: शर्म आ गई।

इससे पूर्व कि हम उसी वातावरण में कुछ बातें करते, वह वातावरण ही बदल गया। यानि दो व्‍यक्तियों ने प्रवेश किया। मैं फौरन खड़ी हो गई। मुझे ना जाने कैसी घुटन सी मेहसूस हुयी ओर मैं बाहर की ओर चल दी। लगभग सभी मुझे ही देख रहे थे। बृजेशजी की आवाज सुनाई दी, ‘’नमस्‍ते पिताजी।‘’

मैं बाहर बगल की खिड़की के पास खड़ी ना जाने क्‍या-क्‍या सोचने लगी। मुझे लगा कि मेरे सब सपने मात्र सपने ही रहेंगे। खिड़की के कॉंच से मैंने उन्‍हें देखा, उतने समय तक सन्‍नाटा छाया रहा, जितने समय में उनके पिताजी कह सकते थे, ‘’ये तो वही लड़की है जिसके पिता को घर से अपमानित होकर लौटना पड़ा था।‘’

बृजेशजी के पिताजी ने उनके साथ आये व्‍यक्ति का परिचय दिया, ‘’ये हैं सेठ स्‍वरूप सिंह, तुम्‍हारे होने वाले ससुर।‘’ मानों एक व्‍यापारी दूसरे व्‍यापारी को अपना बकरा दिखा रहा हो।

‘’ससुर!’’ उन्‍होंने साश्‍चर्य हाथ जोड़ लिये।

मेरे अन्‍दर भी जैसे एक अग्नि-रेखा खिंच गई।

उनके पिताजी तो मॉंजी का हाल चाल पूछने लगे। शेष वे दोनों पड़ोस में पड़े स्‍टूलों पर बैठकर बातें करने लगे। जब बृजेशजी से पढ़ाई-लिखाई आदि प्रारम्भिक पश्‍न पूछ लिये गये। तब बृजेशजी ने पूछा, ‘’क्‍या आप बर्दाश्‍त करेंगे कि आपकी बेटी ज़हरीली जिन्‍दगी जिये। हर तरह से उसे तन्‍हाई और नफ़रत मिले। क्‍या आप चाहेंगे कि आपकी बेटी का जीवन कॉंटों का घौंसला बनकर रह जाये? क्‍या आप पसन्‍द करेंगे कि आपकी बेटी प्रतिपल तरसती रहे, घुटती रहे। आपको और भाग्‍य को कोसती रहे।‘’

‘’मतलब?’’

‘’मतलब!’’ बृजेशजी खड़े हो गये, ‘’यह कि इस रिश्‍ते के गठबन्‍धन में दहेज को प्रधानता दी जा रही है। हमारी भावनाओं और प्रेम को नहीं। यदि बगैर दहेज के किसी की शादी नहीं हो सकती, तो मेरे विचार में दहेज सहित की गई शादी में वह घनिष्‍ठ प्‍यार भी नहीं हो सकता जो.......’’

‘’नालायक!’’ उनके पिताजी उनकी तरफ गर्जे और बढ़े, ‘’समझ गया, जादूगरनी अभी गयी है ना, दुम दबाकर उसी ने इसके ऊपर जादू कर दिया है।‘’

‘’जादूगरनी!’’ मॉंजी की महीन मगर क्षीर्ण आवाज आई, ‘’वह तो सोना है। बड़ी अच्‍छी लड़की है।‘’

‘’बड़ी अच्‍छी लड़की है।‘’ उनके पिताजी झ़ुंझलाये, ‘’ये राधु पोस्‍टमेन की लड़की है।‘’

‘’अच्‍छा!’’ मॉंजी का स्‍वर पुन: सुनाया, वही राधु जिन्‍हें तुमने बृजेशकी सगाई की बात करने बुलवाया था।‘’

उनके पिताजी की ‘’हॉं’’ सुनकर मॉंजी ने बड़े शॉंत भाव से कहा, ‘’वह तो बड़े अच्‍छे आदमी हैं।‘’

‘’क्‍या खाक अच्‍छे आदमी हैं।‘’ उनके पिताजी कठोर आवाज में जैसे गर्जे हों, ‘’पॉंच बच्‍चे! खाने का ठिकाना नहीं और बेटी के लिये......’’

इससे पूर्व कि आवेश में आकर मैं कुछ बोलती, वहॉं से घर लौट आई।

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‘’आइए, आइए सेठजी आइए।‘’ बाबूजी का अत्‍यन्‍त विनम्र स्‍वर सुनाई पड़ा, यानि वे लोग आ गये। मैंने परदे के पीछे से देखा, यह क्‍या केवल उनके पिताजी ही आये हैं। अवश्‍य दाल में कुछ काला है।

बैठते हुये वे बोले, ‘’आप चाहते तो मेरा अनादर करके मुझे भगा सकते थे। क्‍योंकि मेरी वजह से आपको दो वर्ष पूर्व मेरे घर पर अपमानित होना पड़ा था, मगर आप महान हैं।‘’

‘’सेठजी, कैसी बातें करते हैं। वह भी कोई अपमान था।‘’ बाबूजी का पुन: विनम्र और मन्‍द स्‍वर है। बाबूजी ने आदेश दिया, ‘’अरे, सोना सेठजी को चाय नहीं पिलाओगी।‘’

‘’अभी लाई बाबूजी।‘’ कहते हुये मेरे कदम बढ़े ही है कि उनके पिताजी बोले, ‘’बस’’ चाय की आवश्‍यकता नहीं, मैं तो जरा सी बात करने आया था।‘’

‘’जरा सी बात?’’ बाबूजी के साथ मुझे भी आश्‍चर्य हुआ।

‘’हॉं!’’ उन्‍होंने बताया, ‘’आपकी बेटी के बगैर बृजेशकिसी से शादी नहीं करेगा। इस बात को लेकर हमारे घर की शान्ति खत्‍म हो गई है। इसे आप ही जीवित कर सकते हैं या तो मेरा बेटा मुझे वापस कर दो या.....आपने अपनी बेटी को देने कुछ तो रख छोड़ा होगा। बगैर दहेज के हम सहन नहीं कर सकेंगे कि लोग तरह-तरह के विचार उठायें और हो सकता है, कोई-कोई तो कहे, यह शादी किसी भी स्थिति में करना जरूरी थी, क्‍योंकि लड़की ने कुँवारे में......’’

‘’भगवान के लिये आगे कुछ मत कहिए।‘’ बाबूजी चीख उठे, ‘’मेरे पास कुछ नहीं है। यह शादी ना हो तो ना सही।‘’

वे चले गये।

घर में मनहूसियत सी छा गई। मैंने भूल की जो अभी तक उन्‍हें दिल बॉंटती रही, पर ये भूल नहीं है। मुझे अब भी विश्‍वास है बृजेशजी सब कुछ छोड़कर अवश्‍य मेरे पास आयेंगे, दहेज की दौलत, दिल की दौलत से बड़ी कैसे हो सकती है?

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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