Chhoona hai Aasman - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

छूना है आसमान - 4

छूना है आसमान

अध्याय 4

रोनित के पूछने पर चेतना ने बताया, ‘‘कल वह पार्क में खेल रहे बच्चों को देखकर उनमें इस कदर खो गयी कि उसे इस बात का जरा भी अहसास नहीं रहा कि वह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती है और न ही चल-फिर सकती है। पार्क में काॅलोनी के बच्चों को खेलते हुए देखकर, वह ऐसा महसूस करने लगी, जैसे वह उन्हीं के साथ खेल रही हो। वह उनके साथ खूब तेज-तेज दौड़ रही हो......काॅलोनी के सारे बच्चे उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग रहे हों। वह कभी इस तरफ भाग रही थी, तो कभी उस तरफ भाग रही थी, लेकिन बच्चों के हाथ नहीं आ पा रही थी। यही सब करते-करते पता नहीं वह कब कुर्सी से नीचे गिर गयी। गिरते समय उसका हाथ मेज पर रखे काँच के गिलास से टकरा गया और वो जमीन पर गिरकर टूट गया......गिलास टूटने और उसके गिरने का शोर सुनकर मम्मी-पापा और अलका भागते हुए उसके कमरे में आ गये। मम्मी ने उससे पूछा कि गिलास कैसे टूटा तो उसने उन्हें बताया कि वह कैसे गिरी और कैसे उसके हाथ से गिलास टूट गया......बस इसी बात को लेकर मम्मी उस पर बरस पड़ीं। पापा ने तो उन्हें समझाया और कहा भी कि गलती किसी से भी हो सकती है, लेकिन मम्मी ने उनकी एक नहीं सुनी और यह खिड़की बंद करके बोलीं, ‘‘अगर अब इस खिड़की को खुला हुआ देख लिया, तो समझ लेना, उनसे बुरा कोई नहीं होगा।’’ यह सब रोनित सर को बताते-बताते चेतना एकदम सिसक कर रो पड़ी।

चेतना को इस तरह रोता हुआ देखकर रोनित की भी आँखों में आँसू भर आये। उसको बहुत अफसोस हुआ। वह मन में सोचने लगा कि काष! चेतना अपने पैरों पर खड़ी हो पाती। चल-फिर पाती, अपने पैरों पर दौड़-भाग पाती, तो कितना अच्छा होता। कम-से-कम उसे इस तरह पिंजड़े के पंछी की तरह इस अकेले कमरे में तो न छटपटाना पड़ता। छोटी-छोटी बातों पर उसकी मम्मी से उसे उल्टा-सीधा तो न सुनना पड़ता। वैसे भी बालक मन को कोई एक जगह नहीं रोक पाया है। बालक मन चलायमान होता है। पल में यहाँ, पल में वहाँ, और पल में न जाने कहाँ ? वह भ्रमण करता ही रहता है। इस तरह एक कमरे में पड़े-पड़े तो अच्छा खासा इंसान भी ऊब जायेगा, फिर चेतना तो अभी नौ-दस साल की छोटी, मासूम बच्ची है। अगर यह अपने पैरों से स्वस्थ होती तो और बच्चों की तरह यह भी बाहर की दुनिया में घूमती और बच्चों के साथ खेलती-कूदती, दौड़ती-भागती, स्कूल जाती। इसके भी अपने दोस्त होते।

रोनित को खामोष और खयालों में खोया हुआ देखकर चेतना ने धीरे से कहा, ‘‘क्या हुआ

सर......? अब आप क्या सोचने लगे......?’’

चेतना की आवाज से रोनित की विचार शृंखला टूट गयी। वह कुछ देर यूँ ही चुपचाप बैठा चेतना के उदास और मायूस चेहरे को पढ़ता रहा, फिर उससे बोला, ‘‘चेतना, मैं तुम्हारे मन को अच्छी तरह समझ सकता हूँ......मैं महसूस कर सकता हूँ कि तुम्हारा मन भी आजाद पंछी बन आकाष में उड़ना चाहता होगा......तुम्हें भी ऐसा लगता होगा कि और बच्चों की तरह तुम भी घर से बाहर घूमने जाओ......काॅलोनी के बच्चों के साथ पार्क में खेलो, उनके साथ दौड़ो-भागो......?’’

रोनित की बात सुनकर चेतना गंभीर होते हुए बोली, सर, मेरा मन तो बहुत कुछ करने को करता है, लेकिन मेरे चाहने से क्या होता है, क्योंकि भगवान् ने ही मुझे इस योग्य नहीं बनाया कि मैं चाहकर भी कुछ न कर सकूं......मैं हमेषा दूसरों के ऊपर निर्भर रहूं।’’

’’चेतना, किसने कह दिया कि तुम दूसरों पर निर्भर हो......? ......किसने कह दिया कि तुम कुछ नहीं कर सकती हो......? ......चेतना, तुम तो बहुत कुछ कर सकती हो। रोनित ने उसे उत्साहित करते हुए कहा।

रोनित की बात पर चेतना उलाहना देती हुई कहती है, ‘‘रहने दीजिए सर, और लोगों की तरह आप भी मुझे बहला रहे हैं। ......अच्छा आप ही बताइये, जो खुद अपने पैरों के ऊपर खड़ा नहीं हो सकता, वह भला क्या कर सकता है......?’’

‘‘मैं तुम्हें बहला नहीं रहा हूँ चेतना, बल्कि तुम्हें वो सच्चाई बता रहा हूँ, जिसके बारे में तुम नहीं जानती हो। ......चेतना, तुम तो सिर्फ पैरों से बेकार हो, तुम्हारा बाकी का शरीर और दिमाग तो बिल्कुल ठीक-ठाक है......? ......जरा उन लोगों के बारे में सोचो, जिनके हाथ और पैर दोनों ही नहीं होते हैं, फिर भी वो अपने आपको किसी से कमजोर या कम नहीं समझते हैं, और न ही किसी के ऊपर बोझ बनते हैं, तो तुम ऐसा क्यों सोचती हो, कि तुम बेकार हो, कुछ कर नहीं पाओगी......?

......चेतना, इंसान के अन्दर कुछ कर दिखाने का हौंसला होना चाहिए। इच्छाषक्ति से इंसान क्या नहीं कर सकता है ? वह असंभव को संभव कर सकता है। इसी तरह तुम भी क्या नहीं कर सकती हो ? चेतना, तुम जो चाहो वो कर सकती हो।

चेतना, मैं तुम्हें ऐसे कई लोगों के बारे में बता सकता हूँ, जिनको कुदरत ने हाथ और पैर दोनों नहीं दिये, लेकिन उनकी इच्छाषक्ति इतनी मजबूत है कि उन्होंने हालात से कभी हार नहीं मानी और हालात से लड़कर जीना सीखा है। उनके पास अगर हाथ और पैर नहीं हैं तो क्या हुआ, उनके पास हौंसला तो है। वह अपने दिल और दिमाग से तो काम ले सकते हैं।

चेतना, दो साल पहले मुझे मुम्बई घूमने जाने का अवसर मिला था। उसी समय मैं मुम्बई के चैपाटी पर भी घूमने गया। मैंने वहाँ समुद्र के किनारे एक ऐसी लड़की को देखा, जो उम्र में तुमसे ज्यादा बड़ी नहीं थी। लेकिन उसके हाथ और पांव दोनों नहीं थे। वह अपने मुँह से समुद्र के गीले रेत पर एक महिला की आकृति बना रही थी। उसकी इस अद्भुत और अनोखी कला को देखकर मैं ही नहीं वहाँ खड़े सैकड़ों लोग हतप्रभ रह गये। मैं तो उसकी उस कला से इतना प्रभावित हो गया कि मैंने अपने मोबाइल फोन में उसकी पूरी फिल्म ही बना डाली। तुम कहो तो मैं तुम्हें वो फिल्म अभी इसी वक्त दिखा भी सकता हूँ......?’’

‘‘हाँ सर, मैं जरूर देखना चाहूँगी, प्लीज मुझे दिखाइये न।’’ चेतना ने उत्साहित होते हुए कहा।

चेतना के कहते ही रोनित ने अपनी पैंट की जेब से अपना मोबाइल फोन निकाला और उसमें उसी लड़की की, जिसके बारे में वह चेतना को बता रहा था, फिल्म स्टार्ट करके चेतना को दिखायी।

चेतना फिल्म को देखने लगी। एक लड़की जिसकी उम्र उसकी उम्र से करीब चार-पाँच ज्यादा थी। उसके दोनों हाथ-पांव नहीं थे। उसने समुद्र के गीले रेत पर लेटकर पहले तो अपने शरीर से वहाँ रेत इकट्ठा किया। उसके बाद उसने एक चाकूनुमा छोटी-सी छड़ी को अपने मुँह से दबाया और उसके सहारे रेत पर एक भारतीय महिला नृत्यांगना की पूरी मूर्तिनुमा आकृति बनायी। फिर उसी छड़ से उसने उसका शृंगार किया। थोड़ी देर में उस रेत पर एक खूबसूरत महिला नृत्यांगना की आकृति तैयार हो गयी, जिसे देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे म्यूजिक की थाप पर वह नृत्य कर रही हो और साथ में वहाँ खड़े लोगों से कुछ बोल रही

हो......उनसे बातचीत कर रही हो।

उसके द्वारा बनायी गई जीवंत कलाकृति से प्रभावति होकर वहाँ खड़े एक आदमी ने सौ का नोट अपनी जेब से निकालकर उसके सामने फेंका, तो उस लड़की ने विन्रमतापूर्वक उस आदमी से आग्रह करके कहा, ‘‘अंकल, मैं आपसे भीख नहीं माँग रही हूँ......मैंने तो मेहनत की है और ऐसी मेहनत, जो हर कोई नहीं कर सकता। आपने भी मेरी कलाकृति और मेरी मेहनत से प्रभावित होकर ही मुझे पुरस्कार के रूप में यह पैसे दिये हैं, लेकिन आपको यह पैसे इस तरह नहीं देना चाहिए थे, क्योंकि आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि मैं इन पैसों को उठा नहीं सकती। इसलिए अगर आपको मुझे कुछ देना ही है, तो प्लीज मेरे इस थैले में आकर रख दीजिए प्लीज, वरना फेंक कर पैसे न दें।’’ उस लड़की ने अपने थैले की तरफ ईषारा करते हुए कहा।

उसके इतना कहते ही वहाँ खड़े लगभग सभी लोगों ने अपनी-अपनी जेब से पैसे निकाले और जाकर उसके थैले में रख दिये। इस तरह देखते-ही-देखते उस लड़की के थैले में बहुत सारे रुपये हो गये। उन रुपयों को देखकर उस लड़की का चेहरा फूल की तरह खिल गया।

क्रमशः ...........

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बाल उपन्यास: गुडविन मसीह