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शम्बूक - 5

उपन्यास : शम्बूक -5

रामगोपाल भावुक

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3 शम्बूक और तंत्र साधना भाग 1

3 शम्बूक और तंत्र साधना -

जब-जब बुआ जी हमारे यहाँ अयोध्या आतीं हैं घर का वातावरण सुवासित हो जाता है। जब भी घर में कोई बिशेष कार्य हो अथवा कोई तीज- त्यौहार हो तो मेरी बुआजी का अक्सर हमारे यहाँ आना-जाना लगा रहता है। रक्षाबन्धन के त्यौहार पर तो बुआ का हमारे यहाँ आना हो ही जाता है।

इस वर्ष रक्षाबन्धन के अवसर पर सतेन्द्र भी अपनी माँ के साथ मुझ से मिलने हमारे यहाँ आया था। जैसे ही हम एकान्त में मिले, उसने अपने पिताजी की तरह मित्र शम्बूक के बारे में किस्सा कहना शुरू किया ,बोला- सुमत हमारा मित्र शम्बूक गुरु की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकता फिर रहा है। उसने पता किया आस-पास के क्षेत्र में ऋषि- मुनियों के कौन -कौन से आश्रम हैं। उसने सोचा एक वार किसी आश्रम में जाकर तो देखूं। सम्भव है किसी गुरु के मन में पात्र देखकर ज्ञान देने की भावना उत्पन्न हो जाये। गुरु बड़े दयालू होतेे हैं। कहते हैं खोजने से अप्राप्त वस्तु भी मिल जाती है। कोई न कोई उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर ही लेगा। इसी खोज में एक दिन वह घने जंगलों के मध्य स्थित एक तंत्र साधना वाले आश्रम में जा पहुँचा। बबूल के पेड़ के झाड़-झकरों से बनी घनी बागड़, उस पर चढ़ी विभिन्न प्रकार की बेलों के पार झाँकना सम्भव नहीं था। वह ऐसे स्थान पर पहुँच गया जहाँ प्रवेश द्वार था। उसे भी कांटों का टटा(फाटक) बनाकर बन्द कर दिया गया। सतेन्द बोला-‘ यह किस्सा शम्बूक ने ही मुझे सुनाया था- उसने कहा था ,आश्रम में क्या हो रहा है? यह अन्दर जाकर ही पता चल पायेगा। उसने डरते- डरते जोर के स्वर में आवाज दी-‘ओम नमो नारायण.......।’ उसके स्वर को सुनकर एक लम्बी दाड़ी वाले व्यक्ति ने उस टटा रूपी फाटक को खोला और पूछा-‘ आप कौन? किस हेतु आपका आगमन हुआ है।’

‘मैं गुरुदेव के दर्शन की इच्छा से, उनसे ज्ञान प्राप्त करने आया हूँ।’

‘वे इस समय साधना में हैं, आपको प्रतीक्षा करना पडेगी। चाहें तो आश्रम के मध्य स्थित वटवृक्ष की छाया में प्रतीक्षा कर सकते हैं।’ शम्बूक उस वट वृक्ष की छाया में उनकी प्रतीक्षा करने लगा। आश्रम के अन्दर पूर्ण शान्ति व्याप्त थी। वह सोचने लगा-‘ यहाँ इस समय सूनसान का कारण सम्भव है सभी शिष्य गुरुदेव के साथ साधना में रत होंगे। लम्बी प्रतीक्षा के बाद उसी व्यक्ति ने आकर सूचना दी-‘ ‘गुरुदेव अपने कक्ष में पधार चुके हैं। आप उनके दर्शन कर सकते हैं।’

शम्बूक अपना आत्म विश्वास बटोरते हुये उठा। उसके आगे-आगे वह व्यक्ति था ,उसके पीछे-पीछे चलकर कुछ ही क्षणों में वह उनके कक्ष में पहुँच गया। गुरुदेव मृगचर्म के आवरण से सुसज्जित अपने आसन पर विराजमान थे। अभी- अभी इनके शिष्य ने उनसे मिलाने से पहले उसे समझाया था कि गुरुजी से मिलते समय सम्पूर्ण समर्पण अनिवार्य है। शम्बूक को इन गुरुओं से मिलते समय की परम्परा पूर्व से ज्ञात थी। उसे सम्पूर्ण समर्पण व्यक्त करने के लिये, साष्टांग दण्डवत करके उनका अभिवादन किया। उनके सामने कक्ष में आगन्तुको के लिए कुछ मृगछालायें विछीं थी, गुरुदेव का संकेत पाकर वह एक मृगछाला पर बैठ गया। अपनी अन्टी में खुरसी एक मुद्रा निकालकर कुछ पुष्पों के साथ उनके चरणों में ‘ओम नमो नारायण गुरुदेव’ कह कर अर्पित कर दी। यह देखकर गुरुदेव के चेहरे की प्रशन्नता द्विगुणित हो गई। बोले-‘ वत्स किस उदेश्य से आपका आगमन हुआ है। ’

शम्बूक भय मिश्रित प्रसन्नता विखेरते हुये बोला-‘गुरुदेव, अनुकम्पा करके मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर ले और मुझे साधना करने का पथ दिखायें।’

उत्तर में प्रश्न सुनाई पड़ा-‘आप, किस वर्ग से हैं?’

मैं आर्य संस्कृति से हूँ। मेरे पूर्वजों ने सेवा भावना के कारण शूद्र वर्ग स्वीकार किया था।’

वे बोले-‘ अभी तक लोग धन, पुत्र अथवा रोग के उपचार की याचना लेकर मेरे पास आते रहे हैं। इससे उनकी व्याधियों एवं रोगों का निवारण षीघ्र हो जाता है। तुम पहले व्यक्ति हो जो तप-साधना करने का पथ जानने के उदेश्य से यहाँ आये हो।’

‘वत्स, मैं लम्बे समय से यहाँ साधना में रत हूँ और अनेक शिष्यों का पथ प्रदर्शन कर रहा हूँ। नदियाँ चाहे जहाँ से निकलती हों वे सभी पहुँचती सागर में ही हैं। इस आश्रम में केवल तंत्र साधना के पथिक ही साधना में रत हैं। यह साधना कठिन अवश्य है पर इस पथ से प्रभु से साक्षात्कार शीघ्र हो जाता है। इसे ही अपना लें। जो पथ मिले उसी से आगे का पथ खोजने का प्रयास करें। चलते- चलते स्वतः पथ मिलता जायेगा। बस चलते रहें।’

शम्बूक समझ गया, इन्हें तप- साधना कराने का तांत्रिक पथ ज्ञात है। ये तंत्र के माध्यम से मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मैं इनके बतलाये पथ पर चलने का प्रयास करुँगा।

उसी समय मांस पकने की गंघ उसके नथनों को व्यथित करने लगी। अरे! यह क्या? ये आश्रमवासी मांसाहारी ! मेरा यह पथ नहीं है। प्राणियों की हत्या से यदि हमारी क्षुधा शान्त होती है तो क्या इतने बड़े-बड़े ऋषि-मुनि संवेदन हीन प्राणी हैं।

इसी समय गुरुदेव अपने शिष्यों से बोले-‘ इसे आश्रम के नियम समझने में समय लगेगा। यह समझदार जान पड़ता है। सारा खेल श्रद्धा और भक्ति का है। जिसके अन्दर जितनी श्रद्धा और भक्ति दृढ़ होगी वह उतनी ही तीव्र गति से प्रगति कर सकेगा। ’

उसी समय शंख की ध्वनि से आश्रम गूंज उठा। अपने-अपने भोजन पात्र लिये छात्र पाक शाला की ओर जाते हुये दिखाई दिये। मांस की गन्ध उसके नथनों को व्यथित करने लगी। दो बालायें गुरुदेव के समक्ष उपस्थित हुई। गुरुदेव बोले-‘भोजन करने का समय है। भोजन करलें।’ उसने साहस करके डरते-डरते कहा-‘मैं शाकाहारी हूँ। ’यह सुन कर उन कन्याओं के चेहरे बिगड़ गये। गुरुदेव ने आदेश दिया, इन्हें शाकाहारी भोजन करायें। हमारे बन में फलों की कमी नहीं है।’

शम्बूक सोचने लगा-‘इस जंगल के पेड़ फलों से लदे रहते हैं, इसके बाबजूद इनके मुँह से मांस लगा है, यह उचित नहीं है। ये, कैसे सभी में एक परमात्मा की उपस्थिति पाते होगें। जिन प्राणियों की हत्या कर रहे हैं उनमें भी वही परमात्मा विराजमान है। उसे मार कर उससे अपनी क्षुधा शान्त करना न्याय संगत नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में मांसाहार नही होना चाहिये, इधर श्री राम के काल में आश्रमों में शिक्षार्थियों को मांस का भोजन कराया जा रहा है।

‘मुझे यह आवाज उठाना ही पड़ेगी। इस समस्या को लेकर मुझे दण्ड मिलता है तो मुझे वह भी स्वीकार है।’

इसी समय मुझे उन बालाओं द्वारा जेवने घर में ले जाया गया। वहाँ सभी छात्र मांसाहार कर रहे थे। आश्रम की वेषभूषा में सुसज्जित स्त्रियाँ भोजन परोस रहीं थीं। मेरे लिये वहीं पर फलाहार लाकर दे दिया। वे सभी मुझे आश्चर्य की द्रष्टि से देख रहे थे। मुझे उनके साथ बैठकर फलाहार करने में भी कष्ट तो हो रहा था किन्तु मैंने अपनी दृष्टि को उनके भोजन पात्र से हटा ली। इस तरह मैं उस दिन बड़ी ही कठिनता से फलाहार कर पाया। गुरुदेव हमारे पीछे-पीछे चलकर उसी भोजन शाला में आ गये थे। वे टहलते हुये हम सभी का निरीक्षण करने लगे। मेरी ओर टकटकी लगाये दृष्टिपात करते रहे और मुझे भोजन करते देखते रहे। जब मैं भोजन करके निवृत हो गया तो बोले-‘ मैं समझ गया, तुम इस आश्रम के लिए उचित पात्र नहीं हो। तुम यहाँ से जा सकते हो।

उनकी बातें सुनते हुये शम्बूक वहाँ से उठा, उसने आचार्य को पुनः साष्टांग प्रणाम किया और चलने के लिये उठकर खड़ा हो गया। उनके दोनों युवक उसे आश्रम के बाहर तक छोड़ने आये थे। आश्रम से बाहर निकलते ही वह सोचने लगा-‘इन आश्रमों में जो हो रहा है, श्री राम उनमें कितना परिवर्तन कर पाये? आप क्या सोचते है, अकेली अहिल्या के साथ इन्द्र ने जो किया वह घटना तो प्रतीक मात्र है। इस समय अधिकांश आश्रमों में यही सब हो रहा है। राम का आश्रय पाकर ये आचार्य लोग मनमानी करने लगे हैं। आज सबसे तुर्टिपूर्ण कार्य हो रहे हैं तो इन आश्रमो में ही।

इस समय मुझे श्री राम का चरित्र याद आ रहा है। उन्होंने पत्नी के साथ चौदह वर्ष तक बनोवास किया। वे जानते थे यदि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया और बच्चे हो गये तो वे उनके साथ न्याय नहीं कर पायेंगे। इसीलिये युवावस्था में उन्होंने एक नई लकीर खीची। वनोवास के सम्पूर्ण समय में पत्नी के साथ रहते हुये भी वे ब्रह्मचर्य से रहे। जब जैसा समय हो समय के अनुसार न चलने वाले जीवन में असफल ही रहते है। ये सारे आश्रमवासी श्री राम का गुणगान तो करते हैं किन्तु स्वयम् उस आचरण का पालन नहीं करते। जन मानस को शिक्षित करने के नाम पर जनता को भ्रमित करने का काम कर रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि सभी अधिष्ठाता आश्रम व्यवस्था को अपनी तरह से परिभाषित करने में लगे हैं।

यदि उनसे इस बारे में कोई चर्चा की जाये तो ये आश्रम के अधिष्ठाता कहते हैं-‘हम पर किसी शासन का कोई नियम लागू नहीं होता। हम अपने नियम स्वयम् बनाते हैं और उन्हीं का पालन करते हैं। हमारे आश्रम हमारे अनुसार चलते हैं। सभी आश्रम बासियों का यह धर्म है कि उनका आँख बन्द करके पालन करें अथवा आश्रम से अपनी शिक्षा को अधूरी छोड़कर चले जायें।

आदमी शिक्षा के मोह में पड़कर उन गुरूजी की मनमानी भी सहता रहता है। यदि किसी ने गुरुजी की बात का अपने तर्कों से खण्डन भी किया तो वह अपात्र हो गया। आँख बन्द करके शम्बूक इन बातों को सहन नहीं कर पा रहा है, इसलिये उन्होंने उसे शिक्षा देने से इनकार कर दिया हैं। इसके लिये उन्हें बहाना चाहिए तो उसे शूद्र जाति का कह कर आश्रम से निष्कासित कर दिया। उसके मन में आता है कि मैं श्रीराम से जाकर मिलू और उन्हें इस अव्यवस्था से अवगत कराऊँ।

यह वृतान्त सुनकर सुमत बोला-‘ देखना बन्धु सतेन्द्र ,किसी दिन शम्बूक कोई राह खोज ही लेगा।

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