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शम्बूक - 11

उपन्यास : शम्बूक 11

रामगोपाल भावुक

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8. श्रम विभाजन की प्रक्रिया

सुमत के चित्त में वेदों के अध्ध्ययन के पश्चात् कुछ विचार पल्लवित हो उठे -आदिमानव के विकास के साथ ही मातृसत्ता समाज में पल्लवित हो उठी थी। घर की मुखिया माँ ही होती थी। सारे कार्य कलाप उसी के निर्देशन में चलते थे। धीरे- धीरे वर्ण व्यवस्था ने अपने पैर पसारे तो पितृसत्ता हावी हो उठी। मातृसात्ता का नाश होना स्त्री की पराजय थी। घर के अन्दर भी पुरुष ने अपना अधिपत्य जमा लिया। नारी पद्धति नष्ट कर दी गई। उसे मात्र संतान उत्पन्न करने का एक साधन मान लिया गया।

भारद्वाज ऋषि ने एक प्रसंग बस भृगु ऋषि से पूछा-‘एक वर्ण और दूसरे वर्ण में क्या अन्तर है। व्यक्ति के रंगों के अन्तर से तो उनमें भेद किया जा सकता है। किन्तु रंगों को वर्णों का सूचक मान लिया जाये तो सब वर्ण मिले जुले ही ज्ञात होते हैं। किन्तु मनोवृतियों के आधार पर भी उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता है। ये विकार तो विश्व के हर मानव देह में देखे जा सकते हैं। फिर वर्ण भेद कैसे शुरू हुआ होगा?’

भृगु ने उत्तर दिया-‘पहले सब ब्राह्मण थे। बाद में अपने कर्म के आधार पर उनसे बाहर निकलकर अलग वर्ण के कहे जाने लगे।’ आवश्यकता आविष्कार की जननी है। वर्णों का विभाजन निश्चय ही ऐतिहासिक प्रगति है। उनके जन्म का आधार परिश्रम की योग्यता और उत्पादन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

आर्यों के संघों में सबसे पहले श्रम विभाजन शुरू हुआ। शुरू-शुरू में श्रम विभाजन एक सामान्य प्रक्रिया थी। आवश्यकता से अधिक उत्पादन होने से विनिमय प्रणाली का जन्म हो गया। सामूहिकता का आधार सीमित होने लगा। इस तरह श्रम विभाजन ने आर्यों के संधों में वर्णों को जन्म देना शुरू कर दिया। घर का प्रमुख ऋषि हो गया। उससे गौत्रों का उदय हुआ। श्रम विभाजन में योग्यतानुसार कार्य अलग- अलग होते चले गये किन्तु गौत्र एक ही बने रहे। अब एक गौत्र का परिवार विभाजित हुआ तो चारों भाइयों के कार्य अलग- अलग होने पर भी गौत्र एक ही बने रहे। श्रम विभाजन से गौत्रों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा। गौत्र के उल्लेख पर किसी तरह का प्रतिबन्ध नहीं लग सका।

सुन्दरलाल त्रिवेदी ने सुमत योगी का दरवाजा खटखटाया। योगी की पत्नी उमादेवी ने दरवाजा खोला। एक सम्भ्रान्त व्यक्तित्व को सामने देखकर उन्हें प्रणाम करते हुए बोलीं-‘ महानुभाव, विराजिये, योगी जी अपने दैनिक नित्यकर्म से निर्वत होकर आते हैं जब तक आप पीठासन पर विश्राम करले।’

यह सुनकर वे पीठासन पर बैठ गये। उन्हें आसन देकर वे अन्दर चलीं गईं। वे सोचने लगे- सुना है उनकी पत्नी भी ज्योतिष की प्रकाण्ड विदुषी हैं। जो बात कह देतीं है, सच ही निकलती है। निश्चय ही इनकी जिव्हा पर सारस्वती विराजमान है। ऐसे ही सुना है योगी जी भी परम योगी है। कम ही बोलते हैं। जो कह देते हैं बात सच ही निकलती है। इसी लिये मेरी पत्नी वार वार मुझे इनके यहाँ आने की कह रहीं थी। यह सोचते हुये उन्होंने अपनी थैली में से अपने सबसे छोटे पुत्र सुशील की जन्म कुण्डली निकाल ली। इसी समय कक्ष में सुमत योगी जी ने प्रवेश किया। उन्हें देखकर बोले-‘ अरे! त्रिवेदी जी आप! मुझे सूचना भेज देते, आप जैसे महानुभाव के यहाँ जाने पर मैं अपना सौभाग्या समझता। कहें, कैसे आगमन हुआ?

यह सुनकर सुन्दर लाल त्रिवेदी ने अपने छोटे पुत्र की कुण्डली उनकी ओर बढ़ा दी। वे उस कुण्डली को खोलकर देखने लगे। बोले- श्रीमान आपका यह पुत्र प्रखर बुद्धि का नहीं हैं किन्तु यह सेवाभावी है। यह जिस कार्य को करेगा उसमें वह पूर्ण कुशल होगा। आप इसके विवाह को लेकर चिन्तित हैं। आप चिन्ता नहीं करें। षीघ्र ही इसका विवाह का योग बन रहा है। मैं देख रहा हूँ, आपके यहाँ आर्य संस्कृति पूरी तरह फलफूल रही है। आपके सभी पुत्र अलग-अलग कार्यों में रत हैं किन्तु आज की तिथि तक सभी एक साथ प्रेम से रह रहे हैं।’

उत्तर में वे बोले-‘यह सब आप जैसे माहानुभावों की कृपा है।’

मैंने त्रिवेदी जी से अपने मन में उमड़ रहा प्रश्न रखा-‘ त्रिवेदी जी आप वर्ण व्यवस्था के वारे में किस तरह सोचते हैं।’

वे बोले-‘पहले चारों वेदों के साथ एक- एक वर्ण जोड़ते चले गये। प्रत्येक वर्ण के साथ एक देवता भी जोड़ा गया। प्रत्येक वर्ण के साथ एक एक पशु भी जोडे गये। ब्राह्मण को बकरी, क्षत्रियों को भेड़, वैश्यों को गाय एवं शूद्रों को अश्व प्रदान किया गया। आर्यों के समाज में पहले तीन वर्णें का उल्ललेख मिलता है। बाद में सेवा भाव रखने वाले चौथे वर्ण का उदय हो गया। युद्धों में जीते गये लोगों को वे अपने संघ में सम्मिलित करने लगे। जो बुद्धिमान होते उन्हें ब्राह्मणों में मिला लिया जाता था। जो अपनी वीरता के लिये जाने जाते वे क्षत्रिय बन जाते। व्यापार एवं कृषि एवं शिल्पकारी का कार्य करते वे वैश्य बन जाते। इन सब से जो प्रथक बचे रहते उन्हें अपने शूदों भाइयों के साथ मिला दिया जाता। बाद में तो अधिकाशं जीते गये लोगों से सेवा लेने के उदेश्य से, चौथे वर्ण शूद्र के साथ समाहित करते चले गये। उत्पादन में सामूहिकता आदमी के स्वार्थ के कारण व्यक्ति के नियन्त्रण में आती चली गयी।’

उनके विदा होते ही सुमत योगी पुनः सोचने लगा-‘ऋग्वेद में कहा है- क्या ईश्वर के हाथों से मनुष्य के लिये अकेला दण्ड भूख है? अगर देवता की यह इच्छा है कि दरिद्र लोग भूख से मरें तो धनी लोग अमर क्यों नहीं हैं। धनी के पास में भोजन का जमा होना किसी की भलाई नहीं करता। वह सिर्फ अपने आप ही खाता है। अपने परिजानों को भी भोजन नहीं देता। लोग उसकी बुराई करते हैं।

इस स्थिति में विनिमय बाजार का जन्म हो गया। पण के रूप में मुद्रा का चलन शुरू हो गया। यही से सभी जन घन के पीछे भागने लगे। बस्तु विनिमय तक धन का संग्रह सीमित था। मुद्रा के चलन के साथ मानव के विकारों में बढ़ोतरी होती चली गई। घन ब्राह्मणें एवं क्षत्रियों के कव्जे में रहने लगा। वैश्य वर्ग कम चतुर नहीं था। उसने व्यापार के माध्यम से घन को अपने पास संग्रह करना शुरू कर दिया। मानवीय विकार भी इसी क्रम में पैर पसारते चले गये।

धीरे-धीरे उत्पादन की विभिन्नता का विकाश हुआ अब श्रम विभाजन अथवा वर्णों का उदय हुआ। हर वर्ण के अपने कर्तव्य निर्धारित हो चुके थे पर प्रत्येक उत्पादन और उपभोग सामाजिक होता था। सम्पत्ति के विशेष अधिकार किसी के पास नहीं थे। वर्ण केवल किसी श्रम में विशेष निपुणता प्राप्त करते थे। इस तरह उत्पादन के गुणों में वृद्धि तथा सामाजिक संगठन के रूपों में उन्नत करते थे। किन्तु जब विनिमय, व्यापार, निजी सम्पति और अधिकारों का निर्माण कर लिया। वे समाज में आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली वर्ण हो गये। प्रभुत्वशाली बाह्मण और क्षत्रिय वर्ण में जो दरिद्र थे उनको शूद्र वर्ण में भेज दिया जाता था। इसी तरह जो व्यक्ति शूद्र बर्ण में सम्पन्नता अर्जित कर लेता था उसे प्रभुत्वशाली वर्ण में उसकी योग्यता के अनुसार भेज दिया जाता था। शुरू-शुरू में कटटरता नाम की कोई बात सामने नहीं थी। इसका अर्थ हुआ कि उसे सम्पत्ति और योग्यता के अनुसार वर्ण परिवर्तन करने की स्वतंत्रता थी।

साधु-संतों में श्रद्धा और विश्वास आर्यों क्रे समाज में आदि परम्परा रही है। आर्यों के अलग- अलग गण सम्पूर्ण देश में विचरण कर रहे थे। जिस-जिस गण को जिन-जिन साधु-संतों का सानिध्य मिला, वे उनके हो गये। उन्हीं के नाम से वे पहचाने जाने लगे। कुछ साधु-संतों के परिजन, कुछ उनमें श्रद्धा -विश्वास रखने वाले, कुछ भीड़ देखकर नाम की लालसा से जुड़ते चलक गये होंगे। इस तरह सभी आर्य अपने को उन ऋषियों की संतान कहने लगे। एक गौत्र में सभी भाई बहिन होते हैं इसलिये विवाह के लिये दूसरे गौत्र की परम्परा ने जन्म ले लिया, इस तरह एक गाँव से दूसरे गाँव में विवाह होने लगे।

यहाँ भी कर्म के आधार पर गौत्रों का निर्माण शुरू हो गया। मुझे ही ले लें- मेरे ऋषि भारद्वाज हैं किन्तु मेरी योगी गौत्र से पहचान है। इसी तरह कुछ लोगों की पहचान उनके पूर्वज तपस्या करते होगें इसीलिये वे तपस्वी बन गये। पठन- पाठन कराने वाले पाठक, चारों वेदों के जानकार चतुर्वेदी, तीन वेदों में रुचि रखने वाले त्रिवेदी, दो वेदों में पारंगत द्ववेदी हो गये हैं। इस तरह तो कर्म के आधार पर ही गौत्र निर्मित हुए हैं।

श्रीराम जी के समय में एक घटना घटी है। ब्राह्मण जिस जिस गाँव कस्वे में बसे थे, अपनी नई पहचान उस गाँव से व्यक्त करने लगे। इस तरह श्री राम के काल में सभी ब्राह्मणों ने उन गाँवों के नाम के गौत्र धारण कर लिये। यों गौत्रों की एक नई परम्परा विकसित हो गई। वे उन्हीं गौत्रों के नाम से पहचाने जाने लगे। अब शादी-व्याह दूसरे गाँव के गौत्र में होने लगे। इस तरह सभी गण एक दूसरे से जुड़े रहे।

नदियों एवं क्षेत्र के आधार पर भी गौत्रों का निर्माण हुआ है। जैसे नदियों में सरयूपारी एवं स्थान में कान्यकुब्ज आदि का चलन प्रचीन काल से ही रहा है। कुछ लोग अपने पूर्वजों के नाम से भी गौत्र स्वीकार कर लेते थे। इस तरह से गौत्र धारण की परम्परा हमारे समाज में प्राचीनकाल से चली आ रही है।

हमारे श्रीराम के काल तक ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अपनी योग्याता के अनुसार अपना वर्ण परिवर्तन कर लेते हैं किन्तु शूद्रों को योग्यता होने पर भी वर्ण परिवर्तन कें लिये कठिन परिक्षा देना पड़ती है, उसके वाद भी वे अपना वर्ण परिवर्तन नहीं कर पा रहे हैं। वे वीर होने पर क्षत्रिय एवं कार्य कुशलता के आधार पर वैश्य वर्ण में समाहित हो सकते हैं। ब्राह्मण बनने के लिये विश्वा मित्र जैसे ऋषि को कितनी सारी परिक्षायें देना पड़ीं हैं। उसके बाद भी कठिनता से वे बा्रह्मण वर्ण में प्रवेश कर पाये हैं।

मुद्रा के चलन से अमीर- गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। अर्थ के कारण मानव विकार बढ़ने लगे हैं। इन्हीं विकारों के कारण वर्णों में कटटरता आती चली जा रही है। ऊँच- नीच की भावना पनपने लगी है।

ऋषियों के गौत्र श्रम विभाजन के कारण विभाजित सभी वर्णों के बने रहे। इस बात पर किसी का प्रतिबन्ध न रहा। जब वर्णों में ऊँच- नीच की भावना आ गई तो ऊँचे बर्णों को यह बात खटकने लगी। उन्होंने अपने भाइयों के गौत्रों को लोक कहन के नाम से जोड़कर नये रूप में प्रस्तुत कर दिया। जिससे वे अपने मूल परिजानों से अलग लगने लगे किन्तु भाव वही बना रहा जो आज भी यह प्रमाणित करने में समर्थ है कि आर्य एक ही थे। श्रम विभाजन की प्रक्रिया के कारण यह सब परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।

श्रम विभाजन की प्रक्रिया में विकार उस समय आया जब वह जन्मना पद्धति से जुड़ गया। उसमें जड़ता आने लगी। यही बात मेरे सोच का विषय है।

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