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गूंगे नहीं हैं शब्द हमारे-संपादन- सुभाष नीरव, डॉ. नीरज सुघांशु

पुरुषसत्तात्मक समाज होने के कारण आमतौर पर हमारे देश मे स्त्रियों की बात को..उनके विचारों..उनके जज़्बातों को..कभी अहमियत नहीं दी गयी। एक तरफ पुरुष को जहाँ स्वछंद प्रवृति का आज़ाद परिंदा मान खुली छूट दे दी गयी। तो वहीं दूसरी तरफ नैतिकता..सहनशीलता..त्याग एवं लाज के बंधनों में बाँध महिलाओं का मुँह बन्द करने के हर तरफ से सतत प्रयास किए गए। उनका हँसना बोलना..मुखर हो कर तर्कसंगत ढंग से अपनी बात रखना तथाकथित मर्दों को कभी रास नहीं आया।

मगर आज जब हमारे देश..समाज की महिलाएँ, पुरुषों के मुकाबले हर क्षेत्र..हर काम में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हुए बराबर का या फिर कई बार पुरुषों से भी ज़्यादा बेहतर काम कर रही हैं। तो ऐसे में उनसे, चुप्पी लगाते हुए, पुरुषों से दब कर रहने की उम्मीद करना बेमानी होने के साथ साथ न्यायसंगत भी प्रतीत नहीं होता है।

दोस्तों...आज मैं बात करने जा रहा हूँ 'गूंगे नहीं शब्द हमारे' नामक कहानी संकलन की। जिसका नाम ही उसकी कहानियों के तेवरों से हमें अवगत कराने में पूरी तरह सक्षम है। इस कहानी संकलन का संपादन किया है प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाष नीरव जी और सुश्री. डॉ. नीरज सुघांशु जी ने। इस संकलन में वरिष्ठ एवं समकालीन लेखिकाओं की कुल पंद्रह कहानियाँ का समावेश है और हर कहानी किसी ना किसी रूप में सशक्त होती स्त्रियों की दास्तान कहती है।

इस संकलन की किसी कहानी में जहाँ शक्की दामाद के ख़िलाफ़ अपने घर की बेटी के मान की रक्षा के लिए जब परिवार की एक दबंग महिला अपनी चुप्पी तोड़, अपनी पोती के साथ देने का फैसला करती है तो घर के सभी सदस्य उसके समर्थन में एकजुट हो जाते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ किसी कहानी में गांव की भोली गंगा अपने से उम्र में तीन गुणा बड़े पुरुष से यह कह कर ब्याह दी जाती है कि..."आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता"।

इस संकलन की एक अन्य कहानी में अनसुलझे रिश्तों के मोहजाल में फँसी एक युवती के रिश्तों के धागों को एक एक कर के सुलझाने की बात है। तो वहीं एक कहानी पूरी तरह से प्रोफेशनलिज़्म के रंग में रच बस चुकी एक महिला एक्सिक्यूटिव की बात करती है कि किस तरह से वह किसी के प्रेम में भीतर तक डूबी होने के बावजूद संकोचवश उस शख्स से अपने दिल की बात कह नहीं पाती और यही हाल उस शख्स का भी है।

इस संकलन की एक अन्य कहानी में पढ़ाई में अव्वल रहने वाली एक लड़की के तमाम विरोधों के बावजूद भी उसके माता पिता द्वारा, पढ़ाई बीच में ही छुड़वा, जबरन उसकी एक ऐसे युवक से शादी कर दी जाती है जो नशेड़ी होने के साथ साथ दुनिया भर के ऐबों से भी ग्रस्त है। लड़की के लाख रोने गिड़गिड़ाने के बावजूद भी अपनी थोथी इज़्ज़त बचाने के नाम पर उसे कभी मायके तो कभो ससुराल वालों द्वारा उसी घर के उन्हीं हालातों में रहने को मजबूर किया जाता है। तो वहीं एक कहानी में एक प्रेम कहानी महज़ इस वजह से अधूरी रह जाती है कि लड़का संकोचवश अपने दिल की बात नहीं कह पाता कि जिस लड़की से वह प्रेम करता है, वह उसके एक ऐसे दोस्त की बहन है जिसके घर उसका रोज़ का उठना बैठना है।

एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ एक माँ अपनी बेटी को सभी अपरिचितों से दूर रहने..उनसे बात ना करने के लिए समझाती रहती है कि ज़माना ठीक नहीं है। मगर क्या बच्चियों को सिर्फ अपरिचितों से ही ख़तरा है? तो वहीं दूसरी तरफ एक कहानी में बचपन से ही भाई के मुकाबले अपने माता पिता का दोयम दर्जे का व्यवहार झेलती बच्ची जब बड़ी हो कर ब्याही जाती है तो भी उसके स्वभाव में वही दब्बूपन बचा रह जाता है। मगर अपने बच्चों की परवरिश वो इस ढंग से करती है कि दोनों भाई बहन में बराबरी का एहसास हो। उनके बड़े हो..सैटल हो जाने के बाद पति पत्नी में आपसी समझ उत्पन्न होती है और उसके बाद दोनों एक दूसरे के मित्र हो..पुरानी ग़लतियों को अब सुधारने में जुट जाते हैं।

पढ़ाई में अव्वल रहने वाली लड़की इश्क के चक्कर में फँस एक पहले से शादीशुदा आदमी के साथ घर छोड़ कर भाग जाती है और बाद में एक के बाद एक कर के तीन बच्चों को जन्म देती है। उसका पति बाद में चल कर एक अन्य स्त्री के चक्कर में फँस जाता है। ऐसे में विक्षिप्तता की हालत में उसे पुरुषों से ही नफरत हो जाती है। बाद में स्थायी नौकरी पाने के बाद उत्पन्न हुई आत्मनिर्भरता की स्थिति से वह धीरे धीरे सामान्य होने लगती है।

हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच आपसी संबंधों को ले कर लिखी गयी एक कहानी में कोई कट्टर हिंदू मुस्लिमों के मोहल्ले में अपनी सोच से ठीक उलट होते देखता है तो उसके मन मस्तिष्क पर सालों से लगा ग्रंथियों एवं भ्रांतियों का जाला साफ़ होता है।

इसी संकलन की एक कहानी हमें बताती है कि नियति कैसे किसी के शांत शख़्सियत भरे जीवन में अशांति का कोलाहल भर...तूफान मचा दे...कहा नहीं जा सकता। इस कहानी में एक शांतचित्त लड़की का ब्याह परदेस के एक ऐसे घर में कर दिया जाता है जहाँ उसे बात बात में प्रताड़ित..अपमानित किया जाता है और अंत में इस सबकी परिणति उसकी मौत के रूप में होती है जिसे आत्महत्या का रूप दे दिया जाता है।

इसी संकलन में कहीं कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि कई बार कुछ निश्छल.. भोले किरदार हमारे जीवन...हमारे मन मस्तिष्क में इस प्रकार अपनी सुदृढ़..टिकाऊ एवं भरोसेमंद पैठ बना लेते हैं कि उनके सामने मौजूद होने ..ना होने पर भी हम उनके मोहपाश से बच नहीं पाते।

प्रेम विवाह के बाद भी जब एक युवक अपने शक के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता तो ऐसे में काफी सालों तक उसके ताने..लांछन एवं प्रताड़ना झेलने के बाद युवती अपने बड़े हो रहे बेटे के भविष्य की खातिर अपने पति से अलग होने का फैसला करती है और उसे अपने दम पर काबिल बना विदेश में सैटल करती है। ऐसे में उम्र के इस पड़ाव में एकाकी जीवन जीते हुए उसे किसी अन्य व्यक्ति का साथ जब भाने लगता है। तो इस बाबत वह अपने बेटे को बताती है मगर उसका बेटा अपने अनुवांशिक गुणों/अवगुणों के चलते क्या अपनी पुरुषसत्तात्मक सोच के दायरे से बाहर निकल पाता है?

किसी कहानी में नायिका जब अपने स्पष्टवादी पति की दोटूक दबंगता..उद्दंडता तथा अपने प्रति उदासीनता को सहन नहीं कर पाती तो उसका बॉस अपने फायदे के लिए उसे अपने पति से तलाक लेने के लिए बार बार उकसाता है। तलाक के बाद अपने बॉस से गर्भवती हो चुकी वह महसूस करती है कि उसी स्थिति कमोबेश वैसी की वैसी याने के पहले जैसी ही है। ऐसे में इस सबसे निजात पाने के लिए वह अपने पेट में पल रहे आजन्मे बच्चे को गिराने का फ़ैसला कर लेती है।

यूँ तो 'गूंगे नहीं शब्द हमारे' शीर्षक के हिसाब से ये होना चाहिए था कि हर कहानी में नायिका समाज में चल रही रूढ़ियों..ग़लत बातों का विरोध करती दिखाई देती लेकिन कुछ कहानियों में हालात के साथ वह समझौता करते हुए भी नायिका दिखाई दी। शायद इस शीर्षक को कुछ लेखिकाओं ने अपने ऊपर निजी तौर पर इस तरह पर्सनली ले लिया कि...

गूंगे नहीं हैं शब्द हमारे...हम भी अच्छा एवं उम्दा लिख सकती हैं।

एक आध कहानी में क्लिष्ट क्षेत्रीय शब्दों के प्रयोग ने उसे पढ़ना तथा समझना थोड़ा दुष्कर कर दिया और उसे एक से ज़्यादा बार पढ़ कर समझने का प्रयास करना पड़ा। इसके अलावा एक दो कहानियों में जहाँ अपवाद स्वरूप बुद्धिजीविता जबरन थोपी हुई लगी तो वहीं एक अन्य कहानी ने शुरुआती कुछ पैराग्राफ़स में जेट की सी ऊँचाई और स्पीड पकड़ी मगर उसके बाद उसने औंधे मुँह धड़ाम गिरते हुए धरती का मुँह चूमने का मन बनाने से भी गुरेज़ नहीं किया।

जहाँ एक तरफ क्षेत्रीय भाषा के शब्द रचना में मधुरता एवं क्षेत्रीय विश्वसनीयता पैदा करते हैं वहीं दूसरी तरफ उस भाषा से पूरी तरह से अनजान लोगों के लिए उसे पढ़ना एवं समझ पाना दूभर भी बनाते हैं। भाषायी शब्दों से सुसज्जित वाक्यों के अगर सरल हिंदी अनुवाद भी साथ में दिए जाएँ तो सोने पे सुहागा वाली बात होगी।

यूँ तो पठनीयता के हिसाब से पूरी किताब बढ़िया लगी मगर फिर भी कुछ कहानियाँ मुझे बहुत बढ़िया लगीं जिनके नाम इस प्रकार हैं:
• अंतिम प्रश्न- कविता वर्मा
• युग्म- नीलम कुलश्रेष्ठ
• मौसमों की करवट- प्रज्ञा
• घोंसला...जो बन ना सका
• स्ट्रेंजर्स- प्रतिभा
• एकांत के फूल- रजनी मोरवाल
• अज़ीयत,मुसीबत,मलालत...तिरे इश्क- सपना सिंह
• नीम की निबौरी- विनीता राहुरीकर
• उजास और कालिमा के आर पार- उर्मिला शुक्ल
• अन्धे मोड़ से आगे- राजी सेठ

बतौर लेखक और एक सजग पाठक के नाते मैं सभी लिखने वालों को एक सलाह अवश्य देना चाहूँगा कि अपनी रचना को फाइनल करने से पहले कम से कम वे खुद दर्जनों बार उसका स्वय मूल्यांकन करें कि अगर उसे किसी और ने लिखा होता तो वे खुद उसमें क्या क्या कमी निकाल सकते थे?

बढ़िया क्वालिटी के इस 184 पृष्ठीय कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है वनिका पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹400/- जो कि आम पाठक की नज़र से देखें तो थोड़ा ज़्यादा है। पायरेसी से बचने एवं अधिकतम पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि किताबों के वाजिब दामों पर पेपरबैक संस्करण भी उपलब्ध कराए जाएँ।

आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए संपादक द्वय तथा सभी लेखिकाओं को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।