Aakha teez ka byaah - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

आखा तीज का ब्याह - 10

आखा तीज का ब्याह

(10)

श्वेता का अंदाज़ा गलत नहीं था तिलक सच में बहुत परेशान था| उसने अवसादग्रस्त होकर खुदको पूरी तरह शराब में डूबा दिया था| कोई काम नहीं होता था उसके पास बस पूरा दिन वह और उसकी बोतल| तिलक की इस मानसिक प्रताड़ना के उस दौर में वह खुद अपने साथ जाने क्या कर बैठता अगर श्वेता ना होती| उसने अपनी ज़िन्दगी मरुस्थल की तरह बना ली थी बिल्कुल उजाड़, पर एक दिन कहीं से सावन की बदली सी श्वेता आ गयी| श्वेता थी तो वासंती की दोस्त पर दोस्ती मगर वक्त ने उसे तिलक की किस्मत संवारने उसके ही दरवाज़े पर पहुंचा दिया।

एमबीबीएस के आखिरी साल में इंटर्नशिप के लिए श्वेता को रामपुर के हॉस्पिटल में नियुक्ति मिली। वह रामपुर में किसी को नहीं जानती थी तो रहने की व्यवस्था मुश्किल थी। बड़ी उम्मीद लेकर वह वासंती के घर गई थी मगर वहां उसे प्रताड़ना और अपमान ही मिला। अब उसके पास तिलक का द्वार खटखटाने के अलावा और कोई चारा नहीं था।

देर रात घर का दरवाजा बजा तो माँ ने तिलक से उठ कर बाहर झांकने को कहा| वह अनमना सा बाहर आया तो श्वेता को खड़े देख हैरान रह गया, उस समय उसकी अपनी हालत भी कुछ ठीक नहीं थी| बढ़ी दाढ़ी और लड़खड़ाई चाल, उसके मुंह से ही नहीं कपड़ों से भी शराब की बू आ रही थी| श्वेता की हिम्मत ही नहीं हुई अन्दर आने की, उसने तिलक को कभी ऐसे देखा ही नहीं था|

“क्या है? क्या चाहिए? क्यों आई हो? देखने आई हो मैं जी रहा हूँ या मर गया? तुम्हारी उस सहेली ने भेजा है क्या तुम्हें मेरी जासूसी करने?” श्वेता को देख कर तिलक भड़क गया| वासंती को लेकर उसके मन में जो भी आक्रोश था उसने श्वेता पर निकाल दिया| उसे चिल्लाता देख श्वेता सहम गयी, ना उसके मुंह से बोल फूटे और ना ही उसके कदम आगे बढे| वह तो माँ आ गईं और उन्होंने तिलक को डांट दिया वरना वह श्वेता और भी जाने क्या क्या सुना देता| तिलक की माँ ने श्वेता को भीतर आने को कहा तो तिलक कुछ देर उसे खा जाने वाली नज़रों से घूरता रहा और फिर हिकारत से मुंह फेर कर अन्दर चला गया|

अगले दिन सुबह, सुबह तो क्या दोपहर ही कहो जब तिलक सो कर उठा तो छत पर श्वेता को देख कर चौंक गया| “माँ आ अब तांई अठे ही है? गई कोनी?”

“ तीन महीना अठे ही रहसी| के ठा के कोर्स करण आई है, बतायो तो हो मन्ने समझ कोनी आई| तू पूछ ले| गाँव में रहण ने घर पूछे ही तेरा बापूजी बोल्या छोरी जात कठे फिरेगी कुसुम गो कमरो दियो है रहण ने|”

“बापूजी भी के ठा कठे कठे गी मुसीबत घर में राख ले है| जद कुसुम बाई सासरे ऊँ मिलण आसी फेर के करांगा|”

“अभी तो आवे कोनी कुसुम| जद आसी देख लेस्यां|”

“ऐ सहर गी छोरियां हैं माँ, आने कोई डर कोनी लागे| थे बेकार फिकर करता फिरो|”

“इयां ना कह, चोखी छोरी है, सहर गी छोरियां जीसी बिगड़ेड़ी कोनी| तेरो गुस्सो देखगे डरगी रात, रोण लागगी। अब तू मिलिया जागे, अर पूछ लेई कोई परेसानी तो कोनी आई रात ने|”

“मैं कोनी जाऊं, मैं के नौकर बैठ्यो हूँ|” तिलक श्वेता से दूर रहने की भरसक कोशिश करता| अगर गलती से उससे सामना हो भी गया तो भी मुंह घुमा कर चला जाता| श्वेता भी उससे दूर ही रहती थी, इस बार पहले की तरह खुल कर बात नहीं करती थी| इसका कारण खुद तिलक का दुर्व्यवहार ही था| एक दिन श्वेता माँ से मिलने आई थी तो भूलवश उससे तिलक की बोतल टूट गयी थी| यूं तो सो ढेढ़ सो रूपये का नुकसान कोई बहुत भारी नुकसान नहीं था और ना ही कोई ऐसी दुर्लभ चीज़ ही थी जो फिर मिल नहीं सकती थी पर फिर भी तिलक उसपर बहुत चिल्लाया| वासंती को लेकर उसके मन में जो भी कड़वाहट थी उसने फिर श्वेता पर निकल दी| आँखों में आंसू लिए श्वेता वापस अपने कमरे में चली गयी| उसे रोते देख पहले तो तिलक को सुकून मिला, उस समय तो उसे लगा जैसे उसने बसंती से अपने अपमान का बदला ले लिया पर बाद में उसे अपने व्यवहार का पछतावा भी हुआ| आखिर उसके और बसंती के बीच जो भी हुआ उसमें श्वेता की तो कोई गलती नहीं थी फिर भी वह उस पर चिल्लाया|

एक दिन शाम को वह अपना गम भुलाने को बोतल ले कर बैठा ही था कि श्वेता बाहर से आ गई, उस दिन तिलक के माँ-बापूजी उसके मामा के घर गए थे और देर रात ही आने वाले थे| श्वेता उसे ऐसी हालत में देख कर सकपका गयी| बड़ी अजीब स्थिति में फंस गई थी बेचारी वह ना तो घर के भीतर जा सकती थी और ना ही वापस बाहर ही जा सकती थी| उसे घबराया देख तिलक ने भी “आ जाओ जी,” कहते हुए बोतल हटा दी|

“मै अपने लिए चाय बना रही हूँ आप लेंगे?”

“ना, मेरा मन नहीं है|”

“ले लीजिये ना थोड़ी सी, मुझे अकेले चाय पीने की आदत नहीं है|” श्वेता ने विनती की|

“ठीक है|” तिलक ने रुखेपन से कहा।

श्वेता को चाय लाने में देर होते देख तिलक खुद ही रसोई में चला गया| वहां श्वेता को आलू प्याज के साथ उलझा देख हैरान रह गया| “क्या कर रहे हो?” तिलक को रसोई में आया देख श्वेता घबरा गयी उसे लगा यह फिर से गुस्सा हो जायेगा|

“ बहुत जोर से भूख भी लगी है, पकौड़े बना रही थी|”

“आते हैं पकौड़े बनाने?”

“मम्मा को देखा है बनाते हुए|”

श्वेता का जवाब सुनकर तिलक हंसने लगा, “वाह रे म्हारी शेफ़ पकौड़ा बणाण चाली है, ‘मम्मा को देखा था बनाते हुए,’ ठीक है आज मैं भी देखूं कैसे पकोड़े बनते हैं मम्मा को देख के|”

थोड़ी देर लगी पर आखिर श्वेता चाय पकौड़े ले कर आ गई| “खा कर देखिये कैसे बने हैं?”

“खा तो लूं पर ये बता दो खाने लायक हैं भी या नहीं| कहीं बीमार हो कर आपके ही अस्पताल में भर्ती तो नहीं होना पड़ जाएगा” तिलक प्लेट की ओर देख कर मज़ाकिया लहज़े में बोला|

“स्वाद के बारे में तो आप ही बता सकते हैं| हाँ आपके स्वास्थ्य की गारंटी में लेने को मैं तैयार हूँ|” आज श्वेता भी कुछ खुल गयी थी|

आखिर तिलक ने एक पकौड़ा उठा ही लिया| चाहे से पकौड़े थोड़े जल गए थे और नमक मिर्च भी थोड़ा ऊपर नीचे ही था पर पहली बार के लिहाज़ से ठीक ठाक थे। पर तिलक जाहिर नहीं होने दे रहा था, बस नाक भौं सिकोड़ कर तरह तरह के मुंह बना रहा था। उसे भी श्वेता को चिड़ाने में मज़ा आ रहा था|

“कैसा लगा?” तिलक की मुखमुद्रा से घबरा कर श्वेता ने पूछा|

“ठीक है| रजवाड़ा में एक रसोइए की जरुरत है, नौकरी करोगी?”

"ना! ये रिस्क नहीं लूँगी, मुझे आपके ग्राहक नहीं भगाने|” श्वेता का जवाब सुन कर तिलक हंसते हंसते लोटपोट हो गया| उसे ऐसे हंसते देख श्वेता भी मुस्कुरा दी, कई दिनों बाद तिलक को ऐसे हंसते देखा था|

"उस दिन मैं आप पर गुस्सा हुआ, मुझसे गलती हो गयी मुझे माफ़ कर दो, आगे से ध्यान रखूँगा की दोबारा ऐसी गलती ना हो|” तिलक ने कुछ झिझकते हुए कहा।

“तिलकराज जी और माफ़ी, भाई ये तो कुछ अलग ही बात हुई आज, कहीं ये हमारे पकौड़ों का असर तो नहीं|”श्वेता शरारत से पकौड़े दिखाती हुई बोल उठी।

“आप रोये थे उस दिन मुझे अच्छा नहीं लगा|”

“अच्छा नहीं लगा तो रुलाया ही क्यों था?”

“बोला ना आगे से ध्यान रखूँगा|” तिलक मुंह फुला कर बैठ गया| उसे ऐसे बच्चों की तरह नाराज़ होते देख श्वेता को हंसी आ गयी|

“अच्छा ये बताओ आप यहाँ कैसे आये?”तिलक ने पूछा।

“वो हमें किसी हॉस्पिटल में नौ महीने की ट्रेनिंग करनी पड़ती है तभी एम.बी.बी.एस. की डिग्री मिलती है| मेरी बाकी ट्रेंनिंग तो हो चुकी अब तीन महीने किसी गाँव में करनी है तो वो यहाँ होगी|” श्वेता ने अपने आने का कारण बताया।

“पर यहाँ तो कोई हॉस्पिटल है ही नहीं|”

“नहीं, नहीं, यहाँ नहीं बीस किलोमीटर दूर रामपुर कस्बे में मेरी ड्यूटी लगी है| वहां मैं किसी को भी नहीं जानती इसलिए यहाँ से अप-डाउन कर लेती हूँ| आपको मेरे यहाँ रहने से कोई समस्या तो नहीं है ना?”

“अब तो आ ही गए, मुझे परेशानी हो या ना हो किसी को क्या फर्क पड़ता है?" तिलक का स्वर अचानक कुछ रूखा सा हो गया तो श्वेता सहम गई। "ना मुझे कोई समस्या नहीं है, आप ही का घर है, जब तक चाहो यहाँ आराम से रह सकते हो।” तिलक ने कुछ संभल कर कहा, उसके इस अपनत्व भरे व्यवहार ने श्वेता को आश्वस्त कर दिया। उस दिन श्वेता और तिलक के बीच दोस्ती का टूटा धागा फिर जुड़ गया| दोनों काफ़ी देर तक बातें करते रहे|

एक रोज़ तिलक आँगन में बैठा था कि श्वेता ने उसके सामने आइना रख दिया| उस आईने में अपनी शक्ल देख कर तिलक खुद हैरान रह गया| जाने कब से उसने दाढ़ी नहीं बनाई थी, बाल भी बढ़ कर झाड़-झंखाड़ से हो रहे थे| ऊपर से श्वेता अजीब अजीब शक्लें बना कर उसे देख रही थी| वह झेंप गया| श्वेता ने बापूजी की दाढ़ी बनाने आये नाई के सामने उसे भी बैठा दिया और उसे फोन में तस्वीर दिखा कर तिलक के बाल काटने को कहा| अब तो गाँव का नाई भी पूरे जोश में आ गया और दोनों ने मिलकर उसका जो रूप बनाया उसे देख कर माँ बापू दोनों निहाल हो गए|

तिलक को आज अपनी ही शक्ल बदली बदली सी लग रही थी। वह सच में अच्छा लग रहा था, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में स्मार्ट| उसे आईने में बार बार खुदको निहारते देख श्वेता और माँ मुंह दबा कर हंस रही थी| “छोरा आज लाग्यो है तू आदमी सो, नहीं तो तू घर में फिरतो भालू सो लागतो|” बापूजी के इतना कहते ही श्वेता पेट पकड़ कर हंसने लगी और तिलक झेंप कर अपने कमरे में चला गया|

“आज आपको रामपुर मैं ले कर चलूँगा|”

“अरे नहीं इसकी कोई जरुरत नहीं है, मैं चली जाउंगी|”

“ना छोरी ऐकली कियां जासी, आज बसां गी हड़ताल है, तिलक रामपुर जावे ही है तू भी सागे चली जा|” तिलक के बापूजी ने भी तिलक का समर्थन किया|

“जी काकाजी|” हालाँकि श्वेता को मालूम था आज बसों की हड़ताल है तो वह सोच ही रही थी की पता नहीं आज वक्त से हॉस्पिटल पर पहुँच पायेगी या नहीं पर उसे तिलक से कहने में संकोच हो रहा था पर तिलक और काकाजी ने उसकी यह समस्या हल कर दी|

“आप को तकलीफ़ करने की क्या जरुरत थी मैं मैनेज कर लेती|”

"कोई बात नहीं जी जीप रोक देता हूँ, अब कर लो मैनेज, बस यहाँ से पन्द्रह किलोमीटर पैदल जाणा पड़ेगा और ज्यादा कुछ नहीं|”

“अजीब आदमी हो, मैं आपको धन्यवाद बोल रही हूँ और आप मुझे डांट रहे हो|”

“धन्यवाद! ऐसे!” तिलक ने आश्चर्य से कहा तो श्वेता ने मुंह दूसरी तरफ़ कर लिया, तिलक समझ गया था कि श्वेता को बुरा लग गया, वह शांति से जीप चलाता रहा| कुछ देर के अनबोले के बाद वही बोला, “नाराज़ हो गए क्या? देखो जी मैं गाँव का सीधा साधा आदमी हूँ ये गोल गोल बातें समझ ना आती म्हारे को| अच्छा अब माफ़ कर दो आगे से ध्यान रखूंगा|” तिलक ने कहा तो श्वेता गुस्सा छोड़ कर मुस्कुरा दी और तिलक ने राहत की साँस ली। पता नहीं क्या बात थी कि जब भी वह श्वेता पर गुस्सा करता या वह उससे नाराज़ हो जाती थी तो उसे अच्छा नहीं लगता था| एक बैचेनी सी होने लगाती थी| जबकि बसंती के साथ ऐसा कुछ नहीं था उस पर तो वह रोज़ चिल्लाता था| बसंती उससे बराबर झगड़ती भी थी और जिद भी बहुत करती थी और जब वह किसी बात की जिद करती थी तो उसे और ज्यादा गुस्सा चढ़ता पर श्वेता तो कभी जिद करती ही नहीं थी बस उदास हो जाती, ज्यादा होता तो रो देती जो तिलक से देखा नहीं जाता|

“शाम को अगर मैनेज करने का इरादा ना हो तो यहीं इंतजार करना, मैं अपना काम ख़त्म करके आपको लेने यहीं आ जाऊँगा|” तिलक ने हॉस्पिटल के सामने गाड़ी रोकते हुए कहा| श्वेता उसे घूंसा दिखाते हुए उतर गई और तिलक ने हंसते हुए गाड़ी आगे बढ़ा दी|

इसके बाद तो तिलक ने कभी श्वेता को बस से हॉस्पिटल जाने ही नहीं दिया, रोज़ वही उसे ले जाने लगा| एक दो बार श्वेता ने मना करने की कोशिश भी की पर वह बोला, “मुझे काम होता है रामपुर मंडी, सिर्फ़ तुझे छोड़ने नहीं जाता, और अगर तू साथ जाएगी तो भी जीप का तेल उतना ही जलेगा ज्यादा नहीं|” तिलक श्वेता के साथ कब आप से तू पर आ गया था श्वेता को आश्चर्य हुआ पर वह कुछ नहीं बोली| उसे यह देख कर अच्छा लगा कि अब तिलक बसंती से तलाक के दुःख से बाहर आ रहा था, अब वह खुद में ही सिमटा नहीं रहता था बल्कि खुलने लगा था और अपने कामकाज पर भी फिर से ध्यान देने लगा था|

एक दिन शाम को भी तिलक समय से श्वेता को लेने पहुंचा तो श्वेता उसे कुछ उदास सी थोड़ी खोई खोई सी लगी। "क्या बात है? मुंह क्यों सुजा रखा है?" तिलक ने उससे मजाकिया लहजे में पूछा।

"मम्मा का फ़ोन आया था। पापा की तबीयत खराब होने। आज उन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करवाया है।" श्वेता की बड़ी बड़ी आंखों में आंसू आ गए।

"क्या हुआ काकाजी को?"

"उन्हें लीवर कैंसर है। पिछले कुछ दिनों से तबीयत खराब थी मैंने टेस्ट करवाने को बोला था। कैंसर निकला है।" आंखों की बदलियां अब बरसने लगी थीं।

"तो बताया क्यों नहीं?" एकदम चिल्ला पड़ा तिलक तो श्वेता डर गई। "अच्छा कब जा रही हो?" कुछ देर ख़ामोशी के बाद उसने पूछा।

"जाना तो आज ही था पर ट्रेन का रिजर्वेशन नहीं हो रहा।" श्वेता उदास थी।

"ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिल रहा तो कोई बात ना है, अपनी ये शाही सवारी किस दिन काम आवेगी?" तिलक ने जीप की ओर इशारा करते हुए कहा।

"जोधपुर बहुत दूर है तिलक जी। इतनी दूर कैसे जाएंगे?" श्वेता ने आश्चर्य से पूछा।

"चले तो जाएंगे पर अगर आप मेरे साथ ना जाना चाहो तो नहीं जा पाएंगे।" तिलक ने कहा तो इसके बाद श्वेता ने कोई सवाल नहीं किया। घर जाकर सीधे बैग में कपड़े डाले और तिलक के पीछे चल दी। उसका तो खाना खाने का भी मन नहीं था पर तिलक की मां ने जबरदस्ती खिला दिया।

"फिक्र मत करो श्वेता जी हम जल्दी ही पहुंच जाएंगे जोधपुर, और आपके पापा भी जल्दी ही ठीक हो जाएंगे श्वेता को ख़ामोश सा बैठे देख तिलक ने उसका हौसला बढ़ाने की कोशिश की।

"श्वेता जी! आज आप मेरे साथ थोड़ा ज्यादा औपचारिक नहीं हो रहे?" श्वेता ने आश्चर्य से कहा।

"अब तक मैं समझ रहा था हम दोस्त हैं इसलिए तू तड़ाक कर लेता था, आगे से ऐसी गुस्ताख़ी नहीं होगी।" तिलक मुस्कुरा दिया।

"हम दोस्त ही तो हैं।"

"नहीं अगर हम दोस्त होते तो इतना बड़ी परेशानी मुझसे जरूर कहती।" तिलक की आवाज में एक उदासी तारी थी।

"सॉरी! मुझे लगा था मैं संभाल लूंगी।" श्वेता ने कान पकड़ते हुए कहा तो तिलक मुस्कुरा दिया। तिलक को मुस्कुराते देख श्वेता को कुछ राहत मिली, उसने अपना सर सीट की बैक से सटा आंखें बंद कर लीं। फिर तिलक ने भी उसे परेशान करना ठीक नहीं समझा क्योंकि वह श्वेता की मनःस्थिति समझ रहा था। श्वेता की आंखें भले ही बंद थीं मगर नींद उससे कोसों दूर थी। यह रास्ता और अंधेरी रात दोनों ही उसे और भी लंबे लग रहे थे।

"श्वेता!" तिलक ने श्वेता को पुकारा तो श्वेता ने उसकी ओर देखा। "देखो सुबह होने वाली है, नया सूरज नयी उम्मीद के साथ उग रहा है। देखना काकाजी ठीक हो जाएंगे।" तिलक की बात सुन श्वेता धीरे से मुस्कुरा दी। "चलो एक कप चाय पीते हैं। अब हम जोधपुर पहुंचने ही वाले हैं।" श्वेता ने हामी भरी तो तिलक ने एक ढाबे पर जीप रोक दी। जब तक चाय तैयार हुई दोनों इधर उधर टहल कर थकान उतारते रहे। चाय से पीकर फिर अपनी मंजिल की ओर चल पड़े। अब श्वेता से सब्र नहीं हो रहा था वह जल्द से जल्द अपने पापा के पास पहुंचना चाहती थी। श्वेता की फिक्र देख तिलक ने गाड़ी होस्पिटल की ओर मोड़ दी।

जीप रुकते ही श्वेता दौड़ते हुए हॉस्पिटल में प्रवेश कर गई। "जवाहर लाल जी को किस वार्ड में एडमिट किया गया है?" उसने रिसेप्शन पर पूछा। "आईसीयू वार्ड पेशंट नंबर सेवंटी एट!" रिसेप्शनिस्ट ने निर्विकार भाव से कहा। तिलक को उसका लहजा थोड़ा अजीब लगा मगर श्वेता ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी शायद वह जानती थी कि उसके पिता उस रिसेप्शनिस्ट के लिए उस हॉस्पिटल में भर्ती अन्य सैंकड़ों मरीजों की तरह मात्र एक मरीज हैं उनकी पहचान यहां नंबर है उनका नाम नहीं। उससे उलझने के बजाय उसे इस समय पापा के पास जाना ज्यादा उचित लगा। आईसीयू में लेटे पापा को देख श्वेता की आंखें भर आईं। श्वेता की मां भी बेटी के गले लग कर सिसक उठीं। कुछ देर में जब वे सामान्य हुईं तो उनकी नजरों ने तिलक के लिए सवाल था। "तिलक जी!" श्वेता का इतना जवाब काफी था।

"मम्मा आप और तिलक जी दोनों बहुत थक गए। आप दोनों घर जाओ मैं रुकती हूं पापा के पास।" श्वेता ने मां और तिलक दोनों को घर भेज दिया और खुद अपने पापा की तबियत के बारे में अच्छे से जानकारी लेने डॉक्टर के केबिन की ओर चल दी।

घर पहुंच कर श्वेता की मां ने तिलक के ठहरने की व्यवस्था गेस्टरूम में कर दी और खुद नाश्ता बनाने रसोई में आ गई। तिलक भी जल्दी ही नहा धोकर आय तब तक मां टेबल लगा चुकी थीं। "तिलक बेटे आओ नाश्ता कर लो।"

"ना काकीजी आप नाश्ता पैक कर दो, मैं हॉस्पिटल में खा लूंगा।"

"नहीं बेटे आराम से बैठ कर खाओ और श्वेता के लिए टिफिन ले जाना।" मां ने कहा।

"ना काकीजी अगर मैंने यहां खा लिया तो फिर श्वेता को खिलाना मुश्किल रहेगा मेरे लिए।" तिलक मुस्कुरा दिया। मां हैरान सी उसे देखती रही। तिलक नाश्ता पैक करवा कर हॉस्पिटल चला गया। डॉक्टर से क्या बात हुई वह श्वेता से पूछना चाहता था मगर हिम्मत नहीं हुई श्वेता की उदास आंखों ने खुद ही सारी कहानी कह दी।

श्वेता ने अपने पापा की देखभाल में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। तिलक भी बराबर उसका साथ दे रहा था। श्वेता ने अपने भाई को भी फोन कर दिया था, उसके भाई ने जल्दी ही भारत आने के लिए फ्लाइट की टिकट बुक करवा ली थी। तिलक को ऐसे समय में रजत का श्वेता के साथ न होना खल रहा था, मगर वह पूछने में झिझक रहा था। तीन दिन बाद श्वेता के पापा को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया। घर में भी श्वेता उनकी तीमारदारी में रात दिन एक किए हुए थी। उसका भाई भी जर्मनी से आ गया था।

तिलक को जोधपुर आए एक सप्ताह हो गया था, श्वेता की छुट्टियां खत्म हो रही थीं। वह तो वापस जाना ही नहीं चाहती थी पर उसके पापा ने जबरदस्ती उसे तिलक के साथ भेज दिया। वे चाहते थे श्वेता अपनी इंटर्नशिप अच्छे से पूरी करे। वापसी के समय श्वेता अपने पापा के गले लग कर सिसक उठी। "तिलक इसका ख्याल रखना।" पापा श्वेता का सर सहला कर बस इतना ही बोल सके।

श्वेता वापस आ कर भी नहीं आ पाई थी। बस शरीर तिलक के साथ आ गया उसकी आत्मा तो जोधपुर मे पापा के पास ही रह गई थी। वह अनमनी सी रहने लगी थी अब पहले की तरह हंसती खिलखिलाती भी नहीं थी। दिन में कई कई बार फोन पर पापा की तबीयत का हाल पूछने के बाद भी उसे तसल्ली नहीं होती थी। पापा अकेले नहीं थे, भाई था साथ, वह उनका ख्याल भी रखता था पर श्वेता को उनकी फिक्र लगी रहती। तिलक और उसका परिवार श्वेता को खुश रखने की पूरी कोशिश करते मगर उसके होठों पर पहले सी हंसी नहीं ला पाते।