Karm Path Par - 80 books and stories free download online pdf in Hindi

कर्म पथ पर - 80



कर्म पथ पर
Chapter 80


साधुओं की एक टोली अभी रेल के थर्ड क्लास कंपार्टमेंट से उतरी। उनकी संख्या दस के करीब थी।‌ सभी रामेश्वरम से आ रहे थे। इनमें से दो साधु जय और मदन थे।
अपने पापा के घर से जय मदान के साथ दिल्ली गया। वहाँ कुछ दिन रुक कर वह दोनों कुरुक्षेत्र चले गए। कुरुक्षेत्र में वह दोनों हरिद्वार चले गए। हरिद्वार में दोनों करीब तीन महीने तक ठहरे। इस दौरान वह कुछ साधुओं के संपर्क में आ गए। उन्होंने अपनी वेशभूषा त्याग कर साधुओं की तरह रहना शुरू कर दिया। साधुओं का दल जहाँ जाता वह दोनों भी उनके साथ ही चल देते।
कई दिनों की पैदल यात्रा के बाद वह महाकालेश्वर के दर्शन करने उज्जैन पहुँचे। इस यात्रा के दौरान साधुओं का दल कभी किसी नगर में पड़ाव डालता तो कभी गांव में। किसी धर्मशाला या मंदिर में रात गुजारने को मिल जाती तो ठीक नहीं तो खुले में ही सो जाते। कभी कोई सह्रदय व्यक्ति उन लोगों को अच्छा भोजन करा देता था। अन्यथा जो मिलता उसी से काम चला सकते थे। कभी कभी भूखा ही सोना पड़ता था।
रास्ते में अनेक प्रकार के अनुभव हुए। भांति भांति के लोगों से मिलना हुआ। कुछ दुष्ट प्रकृति के लोग भी थे। जिन्होंने पानी पिलाने की बात पर भी झिड़क दिया। पर अधिकांश ऐसे लोग मिले जो अपने पास जो भी रूखा सूखा था उसे भी बांटने के लिए तैयार हो गए। एक बात इस यात्रा के दौरान उन्हें समझ आई कि इस देश के लोगों में बहुत धैर्य है। विकट परिस्थितियों में भी उम्मीद बनाए रखते हैं। खुशियां मनाने के अवसर को हाथ से नहीं जाने देते। छोटी-छोटी खुशियों का भी जश्न मनाते हैं।
यात्रा में जय और मदन को अनेक ऐसे कष्ट हुए जिनके बारे में उन्होंने पहले कभी सोचा भी नहीं था। कई बार स्वास्थ्य बिगड़ा। तेज बुखार में भी खुले आसमान के नीचे सोना पड़ा। लेकिन हर कष्ट को उन्होंने धैर्य पूर्वक सह लिया। इस पूरे सफर में मदन और जय ने एक दूसरे का खूब साथ निभाया। जब भी किसी को ज्वर होता तो दूसरा उसके सर पर ठंडे पानी की पट्टियां रखता। उसकी तीमारदारी करता।
इन सारे अनुभवों ने जय और मदन को पूरी तरह से बदल दिया था। दोनों एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझने लगे थे। उनकी दोस्ती अब और भी अधिक प्रगाढ़ हो गई थी।
महाकालेश्वर के दर्शन करने के बाद साधुओं की टोली ने दक्षिण में रामेश्वरम जाने का निश्चय किया। रास्ते में दान में कुछ पैसे मिले थे। उससे ट्रेन के टिकट खरीद कर वह सब रामेश्वरम पहुँचे। अब वह घर रामेश्वरम से लौट रहा था। अभी उनका पड़ाव बिहार में था। यहाँ बोधगया के दर्शन करने के बाद उनकी योजना पहले काशी विश्वनाथ जाने और फिर वहाँ से वापस हरिद्वार जाने की थी।
रेलवे स्टेशन से निकल कर साधुओं की टोली पास की एक धर्मशाला में जाकर ठहर गई। वहाँ जलपान करने के बाद सब लोग कुछ देर आराम करने लगे।
जय और मदन भी आराम कर रहे थे। लेकिन जय के मन में कुछ और चल रहा था। वह सोच रहा था कि अब उन्हें देश में भ्रमण करते बहुत दिन हो गए। आप कहीं एक जगह है ठहर कर उन्हें वह काम करना चाहिए जो करना चाहते हैं। जय ने मदन से कहा,
"मेरे मन में एक विचार आया है।"
"कैसा विचार ?"
"अब बहुत समय हो गया है हमें इन साधुओं की टोली के साथ भटकते हुए। हमने इस देश की कई जगहों पर भ्रमण किया। बहुत कुछ जानने और समझने को मिला।‌ पर अब मेरे मन में ख्याल आ रहा है कि हमें इस तरह से भटकना बंद करके किसी एक जगह रुक कर समाज निर्माण के अपने काम की शुरुआत करनी चाहिए।"
मदन ने कहा,
"सच बताऊँ जय इधर कई दिनों से मेरे मन में भी यही बात आ रही थी। तुम सही कह रहे हो। अब हमें इस टोली से अलग होकर वह करना चाहिए जो हमारा उद्देश्य है।"
जय ने सुझाव दिया,
"ऐसा करते हैं कि पहले इनके साथ बोधगया चलते हैं। उसके बाद इनसे विदाई लेकर हम अपनी राह पर आगे बढ़ जाएंगे।"
मदन को उसका सुझाव पसंद आया। दोनों साधुओं की टोली के साथ बोधगया तक गए।‌ उसके बाद उन्होंने उन साधुओं से विदा ले ली। दोनों अपनी राह पर आगे बढ़ गए। जहाँ भी जाते लोग उन्हें साधू समझकर उनका सम्मान करते। उनकी आवभगत करते। दोनों कई गांव में गए। वह एक ऐसा स्थान ढूंढ़ रहे थे जहाँ से अपना काम आसानी से कर सकें।
भटकते हुए उन्हें गंगापुर गांव के बारे में पता चला। वहाँ के जमींदार त्रिलोक सिंह गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे। जय और मदन ने गंगापुर जाने का निश्चय किया। गंगापुर पहुँच कर वह त्रिलोक सिंह से मिले। त्रिलोक सिंह ने भी साधू समझ कर ही उनका सत्कार किया। जय और मदन ने उन्हें बताया कि वह सन्यासी नहीं हैं। देश को जानने और समझने के लिए वह दोनों यात्रा पर निकले थे और साधुओं के दल से मिल गए‌। उनके साथ उन्होंने कई जगहों का भ्रमण किया। परंतु उनका उद्देश्य समाज उत्थान के काम करने का है। वह त्रिलोक सिंह से इस काम के लिए मदद चाहते हैं। उन्होंने त्रिलोक सिंह को बताया कि अपनी यात्रा पर निकलने से पहले वह लोग संयुक्त प्रांत (आज उत्तर प्रदेश) के एक गांव में बच्चों की शिक्षा और गांव वालों के विकास के लिए काम कर रहे थे।
जय और मदन कुछ दिनों तक उनके घर पर रहे।‌ उनके साथ मिलकर इस बात की रूपरेखा बनाते रहे कि उन्हें क्या करना है।‌ उन दोनों ने साधू वेष त्याग कर साधारण वेशभूषा धारण कर ली।

1946 के अंतिम दिन चल रहे थे। इस बात की चर्चा तेज थी कि अंग्रेज़ जल्दी ही भारत को आजाद करके चले जाएंगे। साथ ही इस बात की चर्चा थी कि देश का विभाजन हो जाएगा। भारत से अलग होकर एक नया देश पाकिस्तान बनेगा। इससे देश में उथल पुथल मची थी। इसी के बीच गंगापुर में वृंदा पाठशाला का आरंभ हुआ। इसमें एक पाठशाला कन्याओं के लिए और दूसरी लड़कों के लिए थी।
पंद्रह अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली। ‌ साथ ही विभाजन का दंश भी झेलना पड़ा। ना जाने कितने लोगों को अपना घर बार छोड़कर यहाँ से पाकिस्तान और पाकिस्तान से यहाँ आना पड़ा। इस कठिन दौर में त्रिलोक सिंह के साथ मिलकर जय और मदन ने लोगों की बहुत मदद की।‌
धीरे धीरे माहौल शांत हुआ। नया नया आजाद हुआ देश अब एक नए रास्ते पर बढ़ रहा था। कई मामलों में उसे अपने आप को स्वावलंबी बनाना था। देश में जहाँ खुद का राज स्थापित हो जाने का उत्साह था वहीं लोगों को यह बात भी बतानी थी कि इतने वर्षों के संघर्ष और बलिदानों के बाद जो आजादी हमें मिली है उसे बचाए रखने के लिए हमारे क्या दायित्व हैं। जय और मदन ने यही काम किया। ना सिर्फ गंगापुर बल्कि आसपास के कई गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य और मूलभूत सुविधाओं के विकास के लिए लोगों को जागरूक किया।
वृंदा पाठशाला की कीर्ति दूर गांवों तक फैली हुई थी। अब उसका विस्तार हो गया था। गंगापुर के अलावा दो और गांव में उसकी शाखाएं खोली जा चुकी थीं। जिसका पढ़ने की इच्छुक विद्यार्थियों को मिल रहा था।
गंगापुर और उसके आसपास के गांव में जय और मदन की बहुत इज्जत थी। दोनों जहाँ भी जाते लोग उनका सम्मान करते थे।
मदन का विवाह गंगापुर की लड़की रश्मी से हो गया था। रश्मी पढ़ी लिखी थी। वह मदन और जय के साथ मिलकर वृंदा पाठशाला का काम देखती थी।
देखते ही देखते सात साल बीत गए। भारत में गणतंत्र बन चुका था। उसका अपना एक संविधान था। जो सबको समान अधिकार देता था। लिंग जाति या धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करता था।
पंद्रह अगस्त नजदीकी था। आजादी कई वर्षगांठ का जश्न मनाने की तैयारियां बहुत जोर से चल रही थीं। वृंदा पाठशाला में भी कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी हो रही थी। इस तैयारी का मुख्य दायित्व रश्मी के कंधों पर था। उसने लड़कियों की शिक्षा पर जोर देने वाला एक नाटक तैयार किया था। ‌ वह बच्चों को उसी का अभ्यास कराती थी।
जय संतुष्ट तो था‌। पर कई दिनों से उसके मन में एक बात आ रही थी। उसे फिर लगने लगा था कि अब उसे इस जगह और अधिक नहीं ठहरना चाहिए। मदन और उसकी पत्नी ने वृंदा पाठशाला का काम अच्छी तरह से संभाल रखा है। अब उसे दोबारा अपने कर्म पथ पर चल देना चाहिए। यह देखना चाहिए कि भारत के संविधान ने गरीब और पिछड़े लोगों को जो अधिकार प्रदान किए हैं वह उन्हें सही प्रकार से दिए जा रहे हैं या नहीं।
कई वर्षों से जय ने सुबह टहलने जाने की आदत बना ली थी। टहल कर लौटने के बाद वह अखबार पढ़ता था। आज जब लौटकर आया तो अखबार में एक खबर पढ़कर उसे बहुत अच्छा लगा। खबर माधुरी के बारे में थी। खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश के गांव अनवरपुर में डॉ माधुरी क्लार्क गांव वालों की सेवा के लिए एक अस्पताल चला रही हैं। अस्पताल उनके स्वर्गीय पति स्टीफन क्लार्क के नाम पर था। अखबार की लेख में माधुरी के काम की बड़ी प्रशंसा की गई थी।
जय ने अपना मन बना लिया। अपने निश्चय की सूचना देने के लिए वह अपने दोस्त मदन के पास गया।