Nashtar Khamoshiyo ke - 5 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

नश्तर खामोशियों के - 5 - अंतिम भाग

नश्तर खामोशियों के

शैलेंद्र शर्मा

5.

उस साल एम.एस. सर्जरी के इम्तिहान दो महीने देरी से हुए थे. अना जुटा हुआ था.उसका कॉलेज में दिखना लगभग बंद हो गया था. घर पर भी बहुत कम आता था. जब भी आता, मेरा अंतर मचल उठता. उसकी तैयारी में, उसके साधनों में, उसके खाने-पीने में कोई कमी तो नहीं...जानने को मैं मचलने लगती.

इम्तिहान के दिनों में उसकी भूख बिल्कुल गायब हो जाती थी. मैं लगभग रोज़ ही उसकी मनपसंद कोई-न-कोई चीज़ बना कर टिफ़िन, होस्टल भिजवा देती, शम्भू के हाथों. बदले में आते छोटे-छोटे चार-पांच लाइनों के पुर्जे...कॉपियों से फाड़े गए पन्नों पर, जिन पर लाड़ करती हुई उसकी आंखें, उसके होंठ, उसकी अंगुलियां चिपकी होतीं. मंगलवार को पापा के साथ मंदिर जाना पड़ता, हमेशा की तरह, और तब वे अंगुलियां मेरे जुड़े हुए हाथों से आकर जुड़ जातीं.

इतनी उत्तेजना और घबराहट मन में भरी रहती थी कि जैसे खुद ही परीक्षा-भवन में बैठी हुई हूँ.इम्तिहान के दिन दोपहर से ही इंतज़ार होने लगा था, कि कब पांच बजें और अना इम्तिहान देकर घर आये. आठ बजे थका-हारा आया था, मगर बहुत खुश, बहुत प्रफुल्लित. उसके केस और वायवा, बहुत अच्छे गए थे, खासकर बाहरी परीक्षक वाले. मैंने उस रात उससे खूब बातें कीं, इतने दिनों की इकट्ठी जो हो रही थीं! वह आरामकुर्सी पर सुनता-सुनता सो गया था.

दूसरे दिन शाम को खबर उड़ी हुई थी, कि सर्जरी के इम्तिहान में कोई भी पास नहीं हुआ है. मन काँप उठा था...अना के होस्टल शम्भू को भी भेजा, मगर कमरे पर ताला पड़ा था. दूसरे दिन सुबह सर्जरी विभाग में मिला था वह, बुरी तरह बुझा हुआ.

"कुछ पता चला क्या?"

उसने 'नहीं' में सिर हिला दिया.

"अना, कैसे संभव है यह? एक भी कैंडिडेट नहीं..."

"एक भी कैसे नहीं? खन्ना साहब तो पास हैं!" उसने मुस्कुराने की कोशिश की थी, मगर उससे उसकी तड़प और उजागर हो उठी थी.

आश्चर्य, क्षोभ, और विवशता से तिलमिलाते हुए मेरी आँखें छलछला उठी थीं, "चलो, घर चलो."

"नहीं, यूनिवर्सिटी जा रहे हैं हम लोग. रिजल्ट वहाँ पंहुच चुका है. यहां तो साले कुछ कन्फर्म करके बताते ही नहीं. शायद वहाँ से सही पता चल सके. वैसे पता क्या चलना है..." उसने फिर हंसने की कोशिश की थी.

शाम को भी नहीं आया था वह. अगले दिन बाकायदे रिजल्ट आ गया था. अना सही कह रहा था, सिर्फ खन्ना ही पास हुआ था. अब अना से मिलना बहुत ज़रूरी हो गया था. सर्जरी विभागाध्यक्ष सबको बता रहे थे, "एक्सटर्नल तो सबको लुढ़का गया था, मगर हम लोगों ने खन्ना को पास कर दिया. आफ्टर ऑल, ही वाज़ द ओनली डेसर्विंग कैंडिडेट."

दिन में कई बार शम्भू को होस्टल भेजा, मगर अना नहीं मिला. शाम को वह खुद ही आया था.उसका सांवला रंग और भी काला हो उठा था.

सुबह समाचार आग की तरह फैल गया था. मैं और पापा बदहवास से होस्टल पँहुचे थे. बहुत भीड़ थी. स्टाफ के भी कई लोग थे. नीचे दालान में उसकी लाश पड़ी थी, जो पंखे से उतार ली जा चुकी थी. रात भर लटकने के कारण गर्दन थोड़ी खिंच गयी थी, जिसमें रस्सी कसी हुई थी. जीभ फूल कर बाहर निकल आयी थी. आंखें, बाहर निकल आयी थीं. लार और खून के कतरे, मुँह के कोनों से चिपके हुए थे.

मैं इतनी बदहवास थी कि आंसू भी नहीं निकले. तभी मैंने महसूस किया कि लोग अना की देह की तरह ही मुझे भी घूर रहे हैं. तरस खाती हुई, वेधती आंखें!

उसके दोस्त कमरे में, उसके लिखे हुए कागज़ की तलाश कर रहे थे, कि शायद जाने से पहले कुछ कहना चाहा हो उसने; हालांकि सब-कुछ साफ-साफ था, शीशे जैसा. उसकी मौत का कारण हर तरफ लिखा हुआ था, जिसे सब पढ़ सकते थे...पढ़ रहे थे.

कागज़ तो तीसरे दिन मुझे मिला था, जो उसने मौत से पहले डाक में डाला था, मेरे नाम. मेरा मन दहल उठा था! उसने अपने पूरे पिछले सात-आठ वर्ष उसमें निचोड़ दिए थे...अपनी विवशता, अपना मर चुका उत्साह कुछ करने का, अपनी मर चुकी उमंग जीने की...सब-कुछ फैला दिया था उसने उस कागज़ पर. साथ में थी, मेरे लिए बरसती उसकी चिंता, और उसका नैराश्य.

सिर्फ ईमानदार परिश्रम के आधार पर, उसने पर्यावरण के ज़हर से मुकाबला करना चाहा था...उसकी अठ्ठाइस साल की ज़िंदगी जिसका प्रमाण थी. उस ज़िन्दगी में उसने जाने कितनी बार मौत झेली थी, और हर बार की मौत उसे लाश बनाती चली गयी थी, कि आखिर में उसने खुद ही अपने को मरा कर दिया था, ताकि लोग उसे मिट्टी बना सकें.

मेरे सारे गणित, शून्य पर जा कर खत्म हो गए थे. साँस लेने, और दिल के धड़कने में कोई अर्थ शेष नहीं रह गया था. पिछले तीन-चार सालों से,अना के अलावा किसी भी सत्य को मानने से मन इनकार कर चुका था. उसके बाद मुझे उन्हीं झूठों को सच करना था. अना को मौत से मुक्ति मिली या नहीं, यह तो नहीं पता, मगर मेरी मुक्ति के सारे दरवाज़े अवश्य बन्द हो गए थे.

अंदर हहराते हुए सन्नाटे थे, और बाहर थीं लोगों की टुकड़े-टुकड़े करती नज़रें...मेरी ओर हर तरफ से एक सहानुभूति उमड़ी पड़ती थी--'च-च-च... बेचारी!' कैरियर, शादी, भविष्य, ऐसी चर्चाएं मुझे छोड़ कर हर एक को छूती थीं...और मैं अपने चारों ओर एक जाली बुनती जा रही थी, लोहे की…

प्रोफेसर साहब के बड़े भाई, पापा के परिचित थे, और इस नाते वह बहुत पहले से घर आते थे. अना से परिचय होने और मेडिकल कॉलेज में प्रवेश से भी बहुत पहले से.उन दिनों नए-नए रीडर बने थे ये. मैं महसूस करने लगीं थीं कि उनकी आंखें, परिचित से ज़्यादा कुछ और होती चली जा रही हैं.

मैं खत्म हो चुकी थी, फिर भी कॉलेज जाती थी. कक्षाओं में कॉपियों पर लिखती भी थी, मेडिसिन में बाह्य विभाग में मरीजों का परीक्षण और चिकित्सा भी देखती थी, सर्जरी में आपरेशन थिएटर भी जाती थी, मगर दिमाग के चारों ओर लोहे की जाली कुछ और घनी हो गयी थी.

और ऐसे में वह दोपहर आई. सुबह से ही मन बहुत खराब था. कोई छुट्टी थी उस दिन. पापा दौरे पर गए हुए थे. मैं पापा वाले कमरे में पलंग पर अधलेटी-सी सहारे से बैठी थी और प्रोफेसर साहब सामने बेंत वाली कुर्सी पर बैठे बातें कर रहे थे. बात मेडिकल जीवन के कमरतोड़ परिश्रम से होती हुई, यहां फैली हुई कुंठाओं और संत्रास पर उतर आई थी. तभी एक विषय ने धीरे से हमारी बातों के बीच सिर उठाया. वह था, आत्महत्या!

वे बोलते जा रहे थे,और मैं कहीं बहुत नीचे, बहुत अंधेरे में झांक रही थी, जहां से धुआं आ रहा था, और आंखों में जलन होने लगी थी.मेरा चेहरा अजीब-सा हो आया देख कर प्रोफेसर साहब ने बोलना बन्द कर दिया था. फिर कुछ क्षण रुक कर बोले थे, "वंदना, क्या तुम डॉ.वर्धन से बहुत प्यार करती थीं?"

उनके इस वाक्य से मेरा बांध टूट गया था. इतने दिनों बाद किसी ने अना के बारे में मुझसे कोई बात की थी. एक तेज हिचकी के साथ मेरी रुलाई फूट पड़ी थी और मैं, घुटनों में मुँह देकर बुरी तरह सिसकने लगी थी. प्रोफेसर साहब कुछ अस्फुट-सा बोल कर पास आ गए थे, और सांत्वना देते हुए कंधे थपथपाने लगे थे. मेरी रुलाई बढ़ती ही जा रही थी. उन्होंने पीठ सहलाना शुरू कर दिया था, और मैंने रोते हुए उनकी बाँह पर सिर रख दिया था.

झूठ नहीं कहूंगी कि उनकी बाँहों में, मुझे अना की बाँहें नज़र आई थीं. मुझे साफ-साफ पता था, कि मुझे बाँहों में भरता यह शख्स, अना नहीं है. मेरी दहलीज पर उनके कदम बढ़ते आ रहे थे, और मेरी क्लांत हथेलियाँ, उनकी सहानुभूति और प्यार को रोकने में असमर्थ होती चली जा रही थीं. सीधी-सी बात तो यह है, कि मैं बहुत थक गई थी...सबसे,अपने आप से भी.

पापा अक्सर इनकी तारीफ करने लगे थे...इतना ज़हीन, इतना काबिल लड़का! इतनी कम उम्र में रीडर बन गया. बस प्रोफेसर साहब रिटायर हों, अबकी इसका ही नंबर है. इतने छोटे कैरियर में इतनी रिसर्च, इतने पेपर. इतना मिलनसार, इतना सुदर्शन...

*****

"डॉ.साहब, पांच बज गए." चपरासी सामने खड़ा था.

"ठीक है." मैंने कहा.

खिड़की से गैलरी के बाहर का दृश्य दिख रहा था.

अब वहां कोई नहीं था. कमरे की खिड़की चूंकि बहुत छोटी थी, इसलिए शाम के वक़्त कमरे में धुंधला-धुंधला सा हो रहा था.

प्रोफेसर साहब की मेज पर रोटरी क्लब वाली ट्रॉफी रखी थी,जो इन्हें 'आउटस्टैंडिंग रिसर्च' की वजह से प्रदान की गई थी. वह रिसर्च कितनी झूठी, बेईमानी से की गई, और गलत थी; इसे इनके दो-एक सहायकों, और मेरे अलावा शायद कम ही लोग जानते थे. और कैसे जान-पहचान, और पैसे के ज़ोर पर उस पर पुरस्कार दिलवाए गए थे, यह भी मुझे पता था.

रोटरी क्लब वालों ने जब यह ट्रॉफी दी थी, तो इन्होंने मंच पर कितना बड़ा झूठ बोला था, "यदि मैं, आपके सामने उस व्यक्ति का ज़िक्र न करूं, जो इस सबके लिए ज़िम्मेदार है, तो मेरा यह प्रभामंडल कल विस्मृति के गर्त में एकाकी विलीन हो सकता है...उसके ज्ञान, उसकी सहायता, और उसकी अटूट निष्ठा के बगैर, यह काम कभी संभव नहीं हो पाता. इस क्षण, उसकी उपस्थिति कितनी प्रोत्साहनप्रद है मेरे लिए..." शोमैन ने अपने करतब दिखा दिए थे, और मैं सुलग उठी थी...इतना बड़ा झूठ!

मुझे रात को अपने अध्ययन कक्ष से आकर जगाने पर, उनकी नसों में रक्त की जगह बहते लावे को शांत करना भी कोई मदद थी?

वितृष्णा से मैं अंदर तक कट गई थी. सारी बात गंदी सी, मितली जैसी, लिजलिजी सी लगी थी, जहां मैं बिना कुछ किये, इज़्ज़त और तारीफ पा रही थी...तालियों की गड़गड़ाहट के बीच, जब मुझे ट्रॉफी लेते वक्त इनके साथ खड़े होने के लिए मंच पर जाना पड़ा था, तो सहधर्मिणी के अहसास के बजाय लगा था, जैसे मालिक के पीछे जंजीर से बंधी, दुम हिलाती…

सामने कार का हॉर्न बज रहा था. प्रोफेसर साहब थे.मैं कमरे से बाहर निकल आई. इन्होंने अंदर से कार का दरवाजा खोला, "सॉरी स्वीटहार्ट, आज थोड़ी सी देर हो गयी. तुम परेशान तो नहीं हुई न! वैसे, जब परेशान होती हो तो और भी खूबसूरत लगती हो. क्यों, नाराज़ तो नहीं हो न?"

मैने गला साफ करके धीरे से सिर हिलाया.

"नहीं, चेहरे से तो नाराज़ दिख रही हो. अरे डार्लिंग, ऐसी खबर सुनाऊँगा कि खुशी से उछल पड़ोगी. मैंने आज प्रोफेसर सिंघल से बात कर ली है. इस बार फरवरी में तुम्हें एम.डी. में रजिस्ट्रेशन मिल जाएगा, और परेशानी बिल्कुल नहीं होगी. दो साल पहले एक कैंडिडेट, आधी एम.डी.छोड़ कर सर्विस में चला गया था. उसकी रिसर्च थीसिस, लगभग पूरी-की-पूरी, सिंघल साहब के पास पड़ी है. उसी में थोड़ा फेर-बदल कर दिया जाएगा. सिंघल साहब कह देंगे तो दूसरे पी.जी.स्टूडेंट्स भी कुछ मदद कर देंगे. तुम्हें कुछ भी नहीं करना पड़ेगा. घर बैठे एम.डी. की डिग्री मिल जाएगी. अरे भई, अब तो खुश हो जाओ! शाम को सेलिब्रेट करने चलेंगे!"

अपमान और वेदना से मैं तिलमिला उठी. उफ्फ! आनंद के अठ्ठाइस वर्षों ने जिस वर्ग की चौखट पर सिर पटक-पटक कर दम तोड़ दिया था, उस वर्ग के प्रतिनिधि ने मेरे जीने की दिशाएं तक तय कर दी हैं! और वह भी इतनी गलत, इतनी अंधेरी?...डबडबा आयी आंखों से मैंने कार के बाहर देखा, दूसरी ओर पश्चिम में एक बड़ा सा पलाश, तेजी से नीचे गिर रहा था, जिसे नीचे क्षितिज के अंधेरों में खो जाना था.

इनकी कार हवा से बातें करने लगी थी.

।।समाप्त।।