Three sisters books and stories free download online pdf in Hindi

तीन बहनें

तीन बहनें


[ कहानी - जी.शिवशंकर ]


[ 1 ]

हरिद्वार के बाहरी इलाके मे रिटायर्ड ब्रिगेडियर जामवाल ने सबसे पहले एक बड़े प्लॉट पर बड़ा सा मकान बनाया था जिसके बाद ही यहां बसावट शुरु हुई थी इसलिये इस कॉलोनी का नाम ब्रिगेडियर कॉलोनी पड़ गया था । हरिद्वार शहर एक लम्बे गलियारेनुमा आकार में बसा है जिसकी सीमाएं एक तरफ गंगा नदी और दूसरी तरफ शिवालिक की पहाड़ी से सटकर जाती हुई रेलवे लाइन तय करती हैं । हरिद्वार के बीचो-बीच नेशनल हाइवे नम्बर 58 गुजरती है जो दिल्ली से रुड़की और हरिद्वार होते हुए ऋषिकेश की ओर जाती है । हरिद्वार में पहले रेलवे स्टेशन पड़ता है और थोड़ा दूर चलने पर मनसा देवी के मन्दिर जाने के लिये बांये हाथ को एक सड़क ढलान पर उतरती है और रेलवे अंडरपास के नीचे से निकल कर पहाड़ी के साथ-साथ दाहिनी और मुड़ जाती है । ब्रिगेडियर कॉलोनी मनसा देवी मंदिर को जाने वाली इसी सड़क के किनारे बांयी ओर पहाड़ी पर बेतरतीब बसी है । कॉलोनी ज्यादा पुरानी नहीं थी और मकानों के बीच बीच मे अब भी जगह खाली पड़ी थीं जहां मकान बन सकते थे । तरलेजा साहब ने इसी कॉलोनी में प्लॉट लेकर मकान बनाया था । वो सरकारी विभाग में इंस्पैक्टर के पद पर थे । तरलेजा साहब के इस मकान तक पहुंचने के लिये चालिस पचास स्टैप्स चढ़ कर जाना पड़ता था । मकान पहाड़ी को काट काट कर समतल छोटे छोटे प्लॉट बनाकर एक दूसरे से ऊंचाई पर बने हुए थे । सड़क से तरलेजा साहब के मकान तक पहुंचने के दो रास्ते थे । दोनों एक जैसे ही थे । चढ़ते हुए जो दाहिनी तरफ का रास्ता था वही ज्यादा इस्तेमाल होता था क्योंकि ये रास्ता तरलेजा साहब के मकान के बराबर से होता हुआ आगे ऊपर दूसरे घरों की तरफ बढ़ जाता था । जब बस्ती खत्म हो जाती तो ये रास्ता आगे पहाड़ी पर उगी झाड़ियों के बीच से होता चोटी तक जाता था । दूसरा रास्ता भी सड़क से ही शुरू होता था जो पहले रास्ते के बायीं तरफ था । नीचे से शुरू होकर ये तरलेजा साहब के मकान तक जाकर खत्म हो जाता था । जिन्हें आगे ओर ऊपर जाना होता था वो तरलेजा साहब के मकान के दालान से होकर दाहिने रास्ते पर पहुंच जाते थे । ऊपर जाने वाले लोग कभी कभार ही इस रास्ते से आते और दालान के रास्ते दाये वाले रास्ते को पकड़ते थे । इस मकान के ऊपर कुछ ज्यादा मकान नहीं थे । उसके बाद झाड़ियां शुरू हो जाती थीं । पहाड़ी पर पेड़ बिल्कुल नहीं थे । नीचे मनसा देवी रोड पर नीचे जहां मेन सड़क थी उस के किनारे बहुत से बड़े पेड़ थे । खासकर बरगद का फैला हुआ एक पुराना पेड़ जिसके साथ ही ऊपर चढ़ने का दायां रास्ता शुरू होता था ।


तरलेजा साहब की तीन लड़कियों में सबसे बड़ी सन्तोष थी । सन्तोष कुछ मैच्यौर हो रही थी और उसने शादी ना करने का फैसला किया हुआ था । उसकी सोच उसके चेहरे पर झलकती थी । वो कुछ शांत रहती थी और जब चलती थी तो उसका चेहरा झुका होता था । उसमे उत्साह का अभाव था । ऐसा लगता था जैसे आने वाले कल मे कुछ देखने, कुछ करने के लिये उसके पास कुछ नहीं रह गया था । संसार से विरक्त हो गयी लगती थी । परन्तु ऐसा क्यों था और उसके शादी ना करने के फैसले के पीछे क्या कारण थे ये पता नहीं चलता था । सन्तोष ने अध्यात्म का रास्ता अपना लिया था और छोटी पहाड़ी पर अपने घर से कुछ नीचे स्थित स्वामी अभयानन्द के आश्रम से खुद को जोड़ लिया था । आश्रम मे स्वामी जी अध्यात्म पर प्रवचन देते थे जिसे सन्तोष प्रतिदिन सुनने जाती थी ।


तरलेजा साहब ने हरिद्वार की ब्रिगेडियर कॉलोनी ये मकान आठ दस साल पहले बनाया था । उनकी पत्नी का सालों पहले देहांत हो चुका था । वो दूर ऊँचाई पर किसी छोटे टाउन में तैनात थे और दूर होने के कारण वो महीने दो महीने में ही एक बार चक्कर लगा पाते थे । पीछे लड़कियों की चिंता लगी रहती थी । अबकी बार जब घर आये तो उनके एक पड़ोसी ने उन्हें बताया बीच की लड़की लक्ष्मी उनके किरायेदार के लड़के से इश्क करने लगी थी । हालांकि ये मामूली सा नोंक झोंक वाला रोमांस था परन्तु पड़ोसी ने इसे बड़ा चढ़ाकर स्कैंडल का रूप दे दिया था । तरलेजा साहब घबरा गये । आनन फानन में लड़का ढूंढ कर देहरादून मे लक्ष्मी की शादी तय कर दी । लक्ष्मी की उम्र मुश्किल से अठारह की थी और वो 11वीं क्लास में पढ़ रही थी और आगे पढ़ना चाहती थी । इन सब बातों को तरलेजा साहब ने दरकिनार कर दिया था । उन्होंने लड़के वालों की सहमति से देहरादून में ही आकर शादी करना तय कर लिया । कुछ पड़ोसी, रिश्तेदार और ऑफिस के संगी साथियों को देहरादून बुला कर लक्ष्मी की शादी कर दी । अब घर में तरलेजा साहब की दो बेटियां ही रह गयीं थीं । बड़ी सन्तोष और सबसे छोटी मीनू ।


सन्तोष जिस आश्रम में जाती थी वहां के स्वामीजी अभयानन्द गोरे चिट्टे, हट्टे कट्टे, खूबसूरत और सदैव मुस्कुराते रहने वाले थे । स्वामी जी की उम्र ज्यादा नहीं थी यही होगी कोई पैंतिस-चालीस के आस पास । स्वामी जी गेरुए वस्त्र धारण किये रहते थे जो करीने से धुल कर प्रैस किये होते थे । स्वामी जी के आश्रम मे एक प्रवचन हॉल बना हुआ था जहां वो नित्यप्रति प्रवचन देते थे । हॉल के साथ ही किचन थी और खाने वालों के लिये कमरा बना था । उसके बगल मे आश्रम के रसोईयों और दूसरे देख रेख करने वालों के कमरे थे ।


आश्रम दो मंजिला था और स्वामी जी ऊपर बने कमरों मे से एक बड़े कमरे मे रहते थे । बाकी कमरे उन श्रद्धालुओं के लिये थे जो दूर दराज़ के शहरों से गंगा स्नान को आते थे और आश्रम को निरन्तर दान देते रहते थे । उन्हें रहने खाने आदि की पूरी सुविधा थी ।


राधेश्याम नाम का सेवक स्वामी जी की देखभाल करता था । स्वामी जी के खाने, साफ सफाई, कपड़े और उनसे मिलने आने वालों को अटैंड करना जैसे सभी काम उसके जिम्मे थे । कई साल से ड्यूटी निभा रहा था तो अभ्यस्त हो गया था । स्वामी जी भी राधेश्याम की सेवा के अभ्यस्त हो चुके थे । स्वामी जी कई बार सरदर्द से परेशान होते तो सर मे तेल की मालिश भी कर देता था और कनपटियों को अगूँठों से बड़े स्टाइल से दबाकर फौरी राहत दिलाने मे माहिर हो गया था । ये मालिश का सिलसिला यदा कदा होता रहता था ।


राधेश्याम को अध्यात्म और प्रवचन से कुछ लेना देना नहीं था । वो पीछे गांव राजगढ़ी, जिला दतिया, मध्यप्रदेश का रहने वाला था । गांव में परिवार के साथ राधेश्याम गरीबी और भुखमरी का शिकार रहा था । नौकरी कोई थी नहीं और आमदनी का कुछ अन्य साधन भी नहीं था । आखिर एक दिन बीवी, दो बच्चे और बूढ़ी मां को छोड़कर अपने गांव से भाग कर हरिद्वार आ गया । इत्तेफाक से स्वामी जी से मुलाकात हो गयी । बस तब से स्वामी जी की सेवा मे लग गया । यहां आश्रम मे रहना खाना सब मुफ्त हो जाता था और महीने पर कुछ पैसे भी मिल जाते थे । उसने अपने हरिद्वार मे होने की खबर अपने परिवार को कर दी थी। आश्रम से मिले नकद पैसे वो घर मनीआर्डर कर देता था । गांव से चिट्ठी आती रहती थी और हाल चाल पता चलता रहता था । स्वामी जी को राधेश्याम की सेवा की ऐसी आदत हो गयी थी कि उसके बिना एक पल भी चलना मुश्किल था । इसीलिये उसे घर भी नहीं जाने देते थे ।


सन्तोष का आश्रम मे आना जाना लगा रहता था और वो बिना नागा स्वामी जी का प्रवचन सुनती थी । ऐसा लगता था कि सामान्य जीवन से ध्यान हटा कर उसने अपने आपको अध्यात्म की ओर मोड़ लिया था ।


[ 2 ]


ये दैवीय संयोग ही है कि देश के विभिन्न प्रदेशों के लोग एक जगह आकर आश्रम में एक दूसरे से बंध गये थे । स्वामी अभयानन्द जिनका असली नाम सात्यकि बोस था, बंगाल के रहने वाले थे । उन्होंने 15-16 साल की युवा अवस्था मे ही घर छोड़ दिया था । तब से लेकर बीस साल तक देशाटन करते रहे । कहीं मन्दिर या आश्रम मे ठहर जाते और विद्वानों के प्रवचन सुनने का अवसर कभी नहीं गंवाते थे । धर्म से सम्बन्धित पुस्तकों का उन्होंने खूब अध्ययन किया था । अन्त मे हरिद्वार मे आकर सैटल हो गये । पांच साल पहले तक अपने गुरू वेद व्यास जी महाराज के आश्रम मे रहते थे उनसे उन्होंने दीक्षा और गुरू मंत्र लिया था । हरिद्वार मे रहते हुए बहुत सारे बंगाली श्रद्धालुओं से उनका परिचय हो गया था । बंगाल से हर की पौड़ी पर स्नान करने वाले बहुत लोग जत्थों मे सारे साल आते रहते हैं । वैसे भी बंगाली लोगों की प्रजाति घुमक्कड़ लोगों की है और हरिद्वार मे गंगा स्नान उनका बड़ा प्रिय धार्मिक उपक्रम है । इन्हीं श्रद्धालुओं मे से कुछ स्वामी अभयानन्द से प्रभावित होकर उनके स्थायी शिष्य बन गये थे । स्वामी जी सैंकड़ों लोगों को गुरू मंत्र दे चुके थे जिनमें ज्यादा संख्या बंगालियों की ही थी । स्वामी जी धारा प्रवाह बांग्ला बोलते थे क्योंकि ये उनकी मातृ भाषा थी । बंगाली शिष्य अपने राज्य से सैंकड़ों मील दूर आकर किसी अपने बंगाली के सान्निध्य मे ऐसा महसूस करते थे जैसे घर से दूर अपने ही घर मे आ गये हों । इसी लगाव के कारण वो बढ़ चढ़ कर आश्रम को दान भी देते थे । इन्ही सब शिष्यों के सौजन्य से स्वामी जी ने जवाहर कॉलोनी मे इतनी बड़ी जमीन खरीदी और भव्य आश्रम का निर्माण किया । पिछले पांच सालों मे आश्रम मे हर तरह का लग्ज़री सामान जुटा लिया गया था । मार्बल के सफेद पक्के फर्श, पक्की छतें, बढ़िया सागवान की लकड़ी की चोखटें, दरवाजे और खिड़कियां, सारे कमरों और प्रवचन हॉल मे बिजली, पंखे, किचन मे एग्जोह्स्ट फैन आदि और न जाने क्या क्या ।


सन्तोष के पिता तरलेजा साहब जब भी महीने दो महीने मे हरिद्वार आते तो आश्रम मे एक दो चक्कर जरूर लगाते थे । तरलेजा साहब स्वामी जी के चरण स्पर्श करते थे । और स्वामी जी भी आशीर्वाद देने की मुद्रा मे उनके सर पर हाथ रख दिया करते थे ।


राधेश्याम जो स्वामी जी का व्यक्तिगत तौर पर खयाल रखता था उसके गांव से चिट्ठी आयी कि मां बीमार है । तुरन्त आने को लिखा था । स्वामी जी की तो सारी दिनचर्या अपसैट हो जाती अगर राधेश्याम को छुट्टी दे देते तो । पर बात मां की बीमारी की थी तो ना कहना इतना आसान नहीं था । पिछले चार पांच साल मे राधेश्याम ने कभी भी छुट्टी नहीं की थी । स्वामी जी जानते थे कि राधेश्याम बहुत स्वामी भक्त है । बिना बात गांव जाने वाला नहीं है । पर इस बार लगता था जैसे मां बस परलोक सिधारने वाली है । सवाल खड़ा हुआ कि स्वामी जी की चौबिस घंटे देखभाल कौन करेगा । राधेश्याम स्वामी जी के निजी कमरे मे यही बात कर रहा था । बगल मे ही स्वामीजी ने उसे कमरा दिया हुआ था । दोनों कमरों के बीच एक दरवाजा भी था जो रात बिरात सुभीते के लिये रखा गया था । स्वामीजी को यदा कदा सरदर्द हो जाता था और एमरजेंसी मे सेवा मालिश की जरूरत होती तो राधेश्याम तुरन्त हाजिर हो जाता था । तब ही सन्तोष स्वामीजी के कमरे मे दाखिल हुई । सन्तोष चूकि बारहों महीने आश्रम मे रहती थी तो पूरे आश्रम मे वो कहीं भी बेखटके चली जाती थी । कुछ लोग स्वामीजी से मिलने आये थे जिनके विषय मे वो स्वामीजी से बात करने आयी थी । स्वामीजी ने सन्तोष को बैठने का इशारा किया तो वह कुर्सी पर बैठ गयी । स्वामी जी अपने तख्त पर बैठे थे जो गद्दे चादरों से लैस होकर लग्ज़री बिस्तर जैसा हो गया था । स्वामीजी ने समस्या का बखान कर सन्तोष को अवगत कराया और राधेश्याम को छुट्टी देने की मजबूरी जताई। सन्तोष ने कहा:


“अगर बात दस पन्द्रह दिनों की है तो मै आपकी सेवा करूँगी गुरु जी ।” सन्तोष के चेहरे पर सेवा का भाव था ।


“सन्तोष बेटा! बात सिर्फ पन्द्रह दिनों की नहीं है ये काम थोड़ा मुश्किल है । दिन रात की सेवा है । राधेश्याम को तो आदत हो गयी थी । यहां बगल के कमरे मे सोता था । एक आवाज़ पर उठ जाता था । सरदर्द कभी बड़ा भयंकर होता है । मालिश भी कर देता है । दिन मे बंगाल से आने वाले यात्रियों को भी संभालता था । सबको ऐसा जान गया है कि कभी कोई परेशानी नहीं हुई ।” - स्वामीजी धारा-प्रवाह बोलते जा रहे थे जैसे उन्हें सन्तोष या राधेश्याम की उपस्थिति का भान ही न रहा हो ।


“मै सब कर लूंगी गुरू जी । आप बिल्कुल चिंता ना करें । मै यहीं राधेश्याम वाले कमरे मे नीचे बिस्तर लगा लूंगी । मुझे आपकी सेवा करने मे खुशी होगी ।” सन्तोष ने बैठे बैठे ही गुरु जी को हाथ जोड़कर प्रार्थना वाले स्वर मे कहा । गुरू की सेवा भगवान की सेवा है उसने ही सीखा था । आज अवसर मिला है तो पीछे हटने का प्रश्न ही नहीं था ।


स्वामी जी असमंजस मे थे । उन्हें दुनिया का सन्तोष से कहीं ज्यादा तजुर्बा था । वो जानते थे कि स्त्री का संसर्ग जो न करा दे वही कम है । पर ये बातें सन्तोष को कैसे समझाते और वो भी राधेश्याम के सामने । दूसरे अन्य कोई उपाय भी सूझता नहीं था । यही सोचकर उन्होंने राधेश्याम को गांव जाने की आज्ञा दे दी । उसे जल्द से जल्द आने को भी कहा । वो नहीं चाहते थे कि सन्तोष ज्यादा दिन सेवा मे रहे । राधेश्याम ने कहा:


“आज रात की गाड़ी से चला जाऊँगा महाराज । कुछ पैसे चाहिये होंगें । आने जाने और मां के इलाज के लिये । वो आप दिलवा देना ।” - राधेश्याम ने हाथ जोड़कर स्वामीजी से प्रार्थना की ।


“ठीक है । जाने से पहले ले लेना ।” - स्वामी जी ने कहा ।


“वो तीन आदमी बंगाल से आये हैं । आपसे मिलना चाहते हैं । मैने उन्हें नीचे हॉल मे आराम करने को बोल दिया है । वहीं पर हैं अभी ।” - सन्तोष ने स्वामीजी को बताया ।


“उनको बोल देना कि मै शाम पांच बजे उनसे मिलूंगा । उनका नाम रजिस्टर मे लिखकर कमरा दे देना अगर वो एक दो दिन रुकना चाहें तो ।”


“ठीक है गुरू जी ।” - कह कर सन्तोष बाहर निकल गयी । राधेश्याम सामने ही खड़ा था तो उससे कहने लगी:

“जरा कमरा दिखा दे अपना । जगह है कहीं बिस्तर लगाने को ।”


“हां हां! जरूर! बहुत जगह है ।” - राधेश्याम बोला ।


सन्तोष ने राधेश्याम के कमरे मे जाकर देखा । कमरा अच्छा बड़ा था । एक तरफ तख्त पर उसका बिस्तर लगा था । राधेश्याम बोला:


“बिस्तर बांधकर मै एक तरफ कर दूँगा । सारा सामान इकट्ठा करके अलमारी मे बन्द कर दूँगा । तख्त पर आप अपना बिस्तर लगा लेना । और कुछ सामान हो तो आधी अलमारी खाली रहेगी उसमे रख लेना । कमरे की चाबी मै जाने से पहले आपको दे दूँगा ।"


सन्तोष ने देखा कि एक कुर्सी और मेज भी कमरे मे थी । बिजली पंखा सब चलते थे । गिलास और पानी का जग भी मेज पर रखे हुए थे । बगल की दीवार जो स्वामीजी के कमरे से मिली थी उसमे छोटा दरवाजा लगा था जिसकी कुंडी बन्द थी । कमरे मे पीछे खिड़की थी जो पहाड़ी की तरफ खुलती थी । पर उसमें से सिर्फ कटा हुआ पहाड़ ही नज़र आता जो प्लॉट समतल करने के लिये काटा गया था । इसके बावजूद वो कमरे में खुलेपन का अहसास देती थी ।


सन्तोष कमरा देखकर नीचे उतर गयी । आये हुए यात्रियों से बात करनी थी । यात्रियों के नाम पते रजिस्टर मे दर्ज कर उसने दस्तखत लिये । यात्रियों का कहना था कि वो तीन दिन रुकेंगे । बीच मे ऋषिकेश भी जाने का कार्यक्रम था । पर ये सुबह जाकर शाम तक लौट आने का था । रुक्मिणी ने उन तीनों के लिये एक कमरा बुक कर दिया और उनका सामान ऊपर कमरे मे पहुंचवा दिया । स्वामीजी के प्रवचन का समय शाम के पांच बजे था । उनसे यात्रियों कीै मुलाकात प्रवचन से पहले करवाने को भी बोल दिया । ये बात समझ कर वो तीनों ऊपर कमरे मे चले गये । आश्रम के नौकर श्यामबाबू उर्फ श्यामू ने कमरा नम्बर पांच का ताला खोलकर सामान पहुंचा दिया था । साथ मे कहा कि अगर आश्रम से बाहर जाना हो तो चाबी नीचे सन्तोष मैडम को देकर जाना । शाम की चाय 6 बजे मिलेगी प्रवचन सुनने के बाद और खाना रात आठ बजे मिलेगा । चाय कमरे मे मंगा सकते हैं पर खाना नीचे रसोई के साथ डाइनिंग रूम मे ही खाना होगा । सब कुछ समझा कर श्यामू नीचे चला गया ।


सन्तोष ने श्यामू को कहा कि उसका बिस्तर उसके घर से लाना है और लाकर राधेश्याम वाले कमरे मे रख देना है ।


“जी मैडम ।” - श्यामू कहकर अपने काम मे लग गया ।


उधर राधेश्याम कमरा खाली करने मे लगा था । कलिंगा उत्कल एक्सप्रेस ट्रेन शाम 6:10 बजे जाने वाली की जिसका टिकेट राधेलाल ने बुक करवा लिया था । आश्रम मे रहने वाले और अन्य आने जाने वाले यात्रियों के टिकेट विशाल ट्रैवल्स से ही बुक होते थे । हिसाब होता रहता था और आश्रम के लोग आते जाते रहते थे । महीने पर में इकट्ठा भुगतान हो जाता था । कभी कोई लफड़ा नहीं हुआ । हरिद्वार से दतिया, मध्यप्रदेश एक ही गाड़ी थी जो सीधे वहीं जाती थी । गाड़ी शाम को हरिद्वार से चलकर अगले दिन साढ़े बारह बजे दतिया पहुुंचती थी । आगे एक घंटे का गांव तक बस का रास्ता था । राधेश्याम दो तीन बजे तक अपने घर पहुंच जाने वाला था ।


राधेश्याम ने कमरे का सारा सामान समेट कर अलमारी की दो शैल्फों मे ठूंस दिया । वैसे भी ज्यादा सामान नहीं था । बिस्तर समेटकर एक गोला बनाया और एक कोने मे टिका दिया । राधेश्याम ने पूरा कमरा पानी से धोकर साफ भी कर दिया । उसे अहसास था कि सन्तोष मैडम को किसी ओर के कमरे मे रहने का अहसास नहीं होना चाहिये । सब कुछ ठीक करके बिस्तर को उसने साथ ले जाने के लिये कस कर बांध लिया । अब वो छोटा सा बंडल बन गया था । रास्ते के आराम के लिये बिस्तर जरूरी था क्योंकि वो साधारण क्लास से जाने वाला था । राधेश्याम ने स्वामी जी से चार बजे ही विदा ले ली । स्वामी जी ने उसे दो हजार रुपये दिये ताकि रास्ते के खर्च और मां के इलाज के लिये कुछ मदद हो । साथ मे स्वामी जी ने बोला:


“कुछ ओर जरूरत हो को लिख भेजना । हम भेज देंगे । बाकी गंगा माई सब ठीक करेंगी ।”


राधेश्याम ने पैसे अंटी मे लगाये, स्वामीजी के चरण स्पर्श किये और बिस्तर लेकर नीचे आ गया । राम दयाल, राम कृपाल, देवी सिंह और श्यामू से मिला और उनसे विदा ली । कमरे की चाबी सन्तोष को सौंपकर उनसे भी विदा ली और आश्रम से बाहर आकर स्टेशन जाने को रिक्शा कर लिया ।


[ 3 ]


सन्तोष श्यामू को लेकर अपने मकान पर पहुंची । कमरे मे जाकर उसने अपना बिस्तर तैयार किया और लपेट कर श्यामू को दे दिया और राधेश्याम वाले कमरे मे रख देने को कहा । मीनू घर पर ही थी । कॉलेज से वापस आ चुकी थी । जब सन्तोष ने उसे बताया कि दस पन्द्रह दिन उसे आश्रम में ही रहना पड़ेगा तो उसका चेहरा उतर गया । पहले लक्ष्मी गयी और अब बड़ी दीदी भी जा रही थी । अकेले कैसे रहेगी कुछ समझ नहीं आ रहा था । कभी अकेली जो नहीं रही थी । उसने आश्रम मे भी दीदी के साथ रहने का सोचा पर वहां रहने को उसका मन नहीं मानता था । उसे वहां का वातावरण कुछ अटपटा सा लगता था । दीदी की बात ओर थी । वो तो साधु संतों और आश्रम मे रम चुकी थी । मीनू ने फैसला किया की जैसे भी हो वो अपने घर मे ही रहेगी । वैसे भी ये इलाका बिल्कुल निरापद था और अपराध जैसी कोई वारदात आस पास भी कभी हुई नहीं थी । तो अकेले घर मे रहना कोई बड़ी बात नहीं थी । पड़ोस में धरम को भी मीनू ने बताया कि कैसे उसे अकेले रहना है और दीदी स्वामीजी की सेवा मे आश्रम मे रहेंगी ।


सन्तोष ने स्वामी जी की सेवा का सारा काम संभाल लिया । खाना और चाय आदि तो राम दयाल खुद ही पहुंचा देता था । कपड़े थोने और प्रैस करने का काम नौकर दीनानाथ पर डाल दिया गया । इस तरह सन्तोष पर जिम्मेदारी रह गयी थी आगंतुक यात्रियों को संभालने की और स्वामीजी से मिलने आने वाले श्रद्धालुओं की । वो तो दिन भर में दो चार ही आते थे । ये कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं था और सन्तोष को राहत महसूल हुई कि वो अपनी जिम्मेदारियों को निभाने मे सफल रही थी ।


पहले दो तीन दिन तो आराम से गुजर गये । सन्तोष स्वामीजी के बगल के कमरे मे रात भर निश्चिंत होकर सोती थी । आंख सुबह पांच बजे खुल जाती थी जब स्वामी जी सुबह उठकर गंगा स्नान के लिये जाते थे । पांच बजे जाकर वो साढ़े छ: बजे लौटते थे । पीतल की छोटी सी बालटी उनके हाथ मे होती थी और “जय शिव शंभो”, “जय मां गंगे" और "हर हर गंगे” का उद्घोष करते हुए वो पैदल ही हर की पौड़ी कोई साढ़े पांच बजे पहुंच जाते । नहा धोकर छ: बजे निकलते और 6:30 बजे वापस आश्रम पहुंच जाते थे । राम दयाल स्वामीजी के आते ही चाय रखने आ जाता । चाय रखकर स्वामीजी के चरम स्पर्श कर आशीर्वाद लेकर जाता ।


चाय पीकर स्वामी जी वेद पुराण आदि पर विद्वानों की लिखी पुस्तकों का गहन अध्ययन करते । जब तक वो अध्ययन करते किसी को भी उनके कक्ष मे आने की अनुमति नहीं थी । इस तरह के अध्ययन से ही दिन प्रतिदिन प्रवचन देने के लिये बुद्धि को शार्प करते । ये कुछ इस तरह समझना होगा कि वक्ता की बुद्धिमता ही वो औजार है जो प्रवचन मे कही गयी बात को श्रोता के मन मे उतार देती है । अगर औज़ार की धार खूब तेज हो तो श्रोता के मन मे प्रवचन सुनने से बिजली सी कौंध जाती है । अचानक जैसे ज्ञान चक्षु खुलते चले जाते हैं । यही कारण है कि लोग तीर्थ स्थलों मे विद्वान संतों को सुनने आते हैं । रोजाना के जीवन की जोड़ तोड़ और समस्याओं मे उलझे लोगों के लिये ये अपने उलझनों से भरे दिमाग़ की स्लेट को क्लीन करके आगे इस्तेमाल के लिये ताजा करने जैसा है । दूसरों के लिये ये ज्ञान उनके ज्ञान कोष मे वृद्धि करने जैसा है । पश्चिम की भौतिकवादी जीवन शैली से ऊबे हजारों विदेशी लोग सुदूर यूरोप और अमेरिका से आकर भी वेद पुराणों के ज्ञान और इसकी विभिन्न तरह से की गयी व्याख्या से प्रभावित होते हैं । बहुत बड़ी संख्या मे ये विदेशी श्रद्धालु अपनी कम उम्र मे ही यहीं के होकर रह जाते हैं । हरिद्वार के सैंकड़ों आश्रम और दूसरे तीर्थ स्थलों के ऐसे धार्मिक संस्थानों में सैंकड़ों ऐसे विदेशी श्रद्धालु भरे पड़े हैं । स्वामीजी प्रतिदिन तीन चार घंटे स्वाध्याय करते और शाम को एक घंटा प्रवचन देते । आश्रम मे ठहरने वाले यात्री, आस पास के बुजर्ग, पुरुष और महिलाएं तथा मनसा देवी मन्दिर जाने वाले यात्री भी रुक कर स्वामीजी का प्रवचन सुनते और लाभान्वित होते । सन्तोष ने भी अपने जीवन को इन्हीं अध्यात्म की बातों से जोड़ लिया था । स्वामी जी प्रवचन के दौरान ज्ञान रूपी रोशनी देने वाले सूर्य स्वरूप बन जाते थे और वो स्वयं सूर्यमुखी का पुष्प जिसका जीवन ही सूर्य की किरणों से है । संतोष को जैसे अथाह संसार सागर के झंझावतों से भागकर अध्यात्म के शांत संसार मे प्रश्रय मिल गया था ।


स्वामीजी का स्वाध्याय तकरीबन 11 बजे पूरा हुआ । सन्तोष स्वामीजी के कमरे मे गयी और स्वामीजी के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया ।


"आज्ञा गुरू जी!" - कहकर सन्तोष खड़ी हो गयी ।


“नहीं ! कुछ नहीं बस श्यामू को बोलना चाय के बरतन उठा लेगा । आज के अखबार दे जायेगा । जो डाक आयी है वो भी दे जाये ।” - स्वामीजी ने सन्तोष से कहा ।


“कोई नया यात्री आया क्या? पहले वालों मे से कोई गया क्या? जरा रजिस्टर लाकर दिखा देना । कल का दान रजिस्टर मे चढ़ा दिया होगा तो पैसे चैस्ट मे रख देना” - स्वामीजी ने आगे कहा ।


“जी गुरू जी ।” - कहकर सन्तोष हाथ जोड़कर बाहर निकल गयी ।


सन्तोष रजिस्टर और पैसे लेकर वापस आयी । उसने स्वामी जी को रजिस्टर थमाकर आश्रम मे आने वालों और छोड़ने वालों की जानकारी दी । कल मिले दान के कुल पैसे थे 1445/- रुपये जो उसमे स्वामीजी जी की ओर बढ़ा दिये ।


“गुरू जी! ये कल के दान के पैसे 1445/- रुपये हैं ।” - हेमा ने कहा ।


“अलमारी खोलकर चैस्ट मे डाल दो ।” - गुरू जी बोले और अलमारी की चाबी रुक्मिणी को दे दी ।


“गिन तो लीजिये गुरु जी ।” - रुक्मिणी बोली ।


“नहीं! ऐसे ही रख दो । तुमने गिने मैने गिने एक ही बात है ।” - कहते हुए गुरू जी ने हाथ का इशारा कर अलमारी मे रखने के लिये कहा ।


सन्तोष ने अलमारी का दरवाजा खोला है चैस्ट खोलकर पैसे उसमे डाल दिये । अलमारी का ताला बन्द कर चाबी गुरू जी को लौटा दी । सन्तोष नीचे जाकर दूसरे कामों मे व्यस्त हो गयी । शाम को पांच बजे प्रवचन के समय तीस चालीस लोग जमा हो गये थे । स्वामी जी लगभग 40-45 मिनट प्रवचन करते थे और 15-20 मिनट के करीब श्रोताओं की शंका समाधान करते थे । किये गये प्रवचन या किसी अन्य आध्यात्मिक विषय पर या कोई व्यक्तिगत प्रश्न भी लोग पूछ लेते थे । कई बार कोई कूड़ मग़ज़ भी बीच मे आकर उलूल जुलूस सवाल कर देता था और अपने प्वाइंट को कुतर्क देकर सही ठहराने की हठ भी करता था । वैसे तो ऐसे लोगों से वाद विवाद से बचने की सलाह दी जाती है परन्तु स्वामी जी परिस्थिति वश ऐसा नहीं कर सकते थे । उन्हें तो जवाब देना ही होता था । आज भी ऐसा ही दिन था जब एक श्रद्धालु ने शंका जताई और फिर कुतर्क भी करने लगा । स्वामी जी स्थिति संभाल रहे थे अपने तर्कों से पर कुतर्की श्रद्धालु तो जैसे ठान कर आया था कि स्वामी जी को हरा कर ही मानेगा । अन्त मे स्वामी जी ने उसे सलाह दी कि एक वर्ष उनके सान्निध्य मे रहकर स्वाध्याय करे और उसकी शंकाओं का समाधान स्वयं ही हो जायेगा । तब जाकर विवाद का अन्त हुआ । पर स्वामी जी अपसेट हो गये थे । इसी लिये प्रवचन के बाद की चाय पीकर आश्रम मे निकल कर गंगा तट की ओर चल दिये । गंगा किनारे बैठकर बहती हुई नदी की लहरों को देखने से दिमाग को शांति, सुकून और आराम मिलता है । गंगा तट पर बैठने के बाद स्वामीजी लौट कर आये तो आठ बज चुके थे और रात्रि भोज का समय हो चुका था । रामदयाल ने खाना कमरे मे लगा दिया । स्वामीजी 8:45 पर भोजन से निवृत हो गये । फिर आधा घंटा आंगन मे टहल कर स्वामी जी के रात के विश्राम का समय हो गया ।


[ 4 ]


बिस्तर पर जाकर लेटे तो दिमाग मे वही वाद विवाद घूमने लगा । नींद नहीं आ रही थी और सरदर्द ने स्वामीजी को घेर लिया । स्वामी जी सन्तोष को रात्रि मे कष्ट देना नहीं चाहते थे । पर धीरे धीरे दर्द बढ़ने लगा और ऐसा लगा कि सर फट जायेगा । कुतर्क वाली बात दिमाग मे घूमते घूमते बवंडर बन चुकी थी । तब मजबूर होकर स्वामीजी ने उठकर बीच वाला दरवाजा खटखटाया । सन्तोष दरवाजे की खटखट सुनकर तुरन्त उठी और स्वयं को संयत किया । दरवाजा खोल कर स्वामी जी के कमरे मे प्रवेश किया ।


“क्या हुआ गुरू जी? “ - सन्तोष ने पूछा ।


“सन्तोष ! अलमारी से भृंगराज तेल की शीशी निकाल लो ।” - स्वामीजी ने सन्तोष से कहा । अलमारी की चाबी निकाल कर उसको दी ।


सन्तोष ने तेल की शीशी जो सामने ही रखी थी निकाल कर मेज पर रख दी ।


“सर की मालिश करो सन्तोष ! दर्द से मरा जा रहा हूँ ।” - स्वामीजी बोले ।


सुविधा के लिये सन्तोष ने अपने कमरे की तरफ वाला दरवाजा बंद कर वहां कुर्सी लगा ली ताकि आराम से बैठ कर तेल लगा सके और मालिश के लिये दम भी लगा सके । कुर्सी पर सैटल होकर सन्तोष ने शीशी से थोड़ा सा तेल हथेली पर उड़ेल लिया और सर और माथे की मालिश करने लगी । स्वामी जी ने आँखें बन्द कर लीं । सोच रहे थे अब थोड़ी देर मे आराम आ जायेगा । स्वामी जी ने सन्तोष को कनपटी पर अंगूठा रखकर दबाते हुए गोल गोल घुमाने को कहा । सन्तोष ने वैसा ही किया । पर जैसा स्वामी जी चाह रहे थे वैसा हुआ नहीं । सन्तोष के हाथों मे वो दम तो नहीं था जो राधेश्याम के हाथों मे था । दूसरे राधेश्याम जिस ट्रिक से कनपटियों को दबाता था वो आर्ट उसने अपने तजुर्बे से विकसित की थी । सन्तोष अपनी तरफ से भरसक प्रयास कर रही थी ताकि स्वामीजी को दर्द से निजात मिले । इससे ज्यादा वो कुछ कर नहीं सकती थी । स्वामी जी को कुछ आराम तो आया था पर वो चाहते थे कि थोड़ा जोर लगे तो पूर्ण आराम आ जाये । कुछ देर स्वामीजी देखते रहे फिर उन्होंने सन्तोष के हाथ के ऊपर अपने हाथ रखकर दबाव बढ़ाने का प्रयास किया । सन्तोष के अंगूठे पर अपना अंगूठा रखकर कनपटियों पर दबाव बनाया । दबाव बढ़ा भी जो महसूस भी हुआ । सन्तोष के हाथों का स्पर्श जो सर और कनपटी दबाने से हुआ था वो कुछ दूर लगता था । परन्तु स्वामी जी के हाथ पर हाथ और अंगूठे पर अंगूठा रखने से स्पर्श नज़दीक आ गया था । बदन मे सनसनी सी होने लगी । स्त्री के संसर्ग से दूर रहने वाले स्वामीजी फंस गये थे । हाथ पर हाथ रखने का सुखद अहसास भी हो रहा था । दर्द से ध्यान हट गया था । पर स्वामी जी सन्तोष के हाथों पर से हाथ उठा नहीं रहे थे । सन्तोष को गुरू जी का हाथ अपने हाथ के ऊपर अटपटा लग रहा था पर वो कोई ऐसी बात महसूस नहीं कर रही थी कि उसका विरोध करे । अचानक स्वामी जी को भान हुआ कि उनका स्त्री के शरीर मे आनन्द खोजना एक गलत कदम था । शायद उनके अन्दर का सात्यकि बोस जाग गया था जो आध्यात्मिक तौर पर जागरूक स्वामी अभयानन्द को साइड मे करके आनन्द ले रहा था । आखिर तो इस स्वामी ने उसे बीस साल से जीवन भोगने से वंचित रखा था । अन्तत: स्वामी जी को कुछ आराम लगा तो उन्होंने हाथ वापस खींच लिये । वैसे भी शाम के प्रवचनों मे हुए कुतर्कों ने दिमाग मे घुसकर जो बिलोना शुरू किया उससे दूर होने का ये सही उपाय रहा । स्त्री संसर्ग का आनन्द और स्वामी जी के अपने दो रूपों के बीच के टकराव की आँधी कुछ ऐसे चली कि कुतर्क वाली छोटी समस्या काफूर हो गयी । सन्तोष चली गयी । स्वामी जी को आराम आ गया था और वो सो गये थे ।


सुबह उठकर स्वामी जी गंगा स्नान को पांच बजे निकले । हर की पौड़ी पर डुबकी लगाकर चंदन टीका कराकर साढ़े छै बजे आश्रम पहुंचे । चाय पीकर ढाई तीन घंटा स्वाध्याय मे लगाया । श्यामू दिन के दो अखबार, चिट्ठी पत्रियों का बंडल और पुस्तक का एक पार्सल ट्रे मे डाल कर रख गया । सन्तोष आगंतुकों का रजिस्टर और चंदे के हिसाब किताब का रजिस्टर ले आयी । स्वामी जी के सामने रखकर उसने अलमारी की चाबी मांगी ताकि कल की दान राशि को चैस्ट मे रख सके ।


“कल के कितने रुपये हैं दान के ।” - स्वामीजी ने पूछा ।


“एक हजार दो सौ पचास हैं गुरू जी ।” - सन्तोष ने स्वामी जी को देखकर बताया । स्वामी जी ने सन्तोष की आंखों मे देखा तो उन्हें उनमे हमेशा की तरह रहने वाला सेवा भाव ही दिखा । ये देखकर उन्हें बड़ी राहत महसूस हुई ।


दो चार दिन और गुजर गये और सब कुछ रुटीन मे चलता रहा । एक दिन रात में फिर सरदर्द हो गया और बढ़ते बढ़ते काबू से बाहर हो गया तो स्वामीजी ने सन्तोष का दरवाजा खटखटा दिया । आकर अपने तख्त पर लेट गये । सन्तोष बिस्तर से उठी और मुंह पर पानी के छपाके मारकर तौलिये से पोंछा और बालों मे कंघी की । दरवाजा खोलकर वो स्वामी जी के कमरे मे गयी । स्वामी जी ने बिना कुछ कहे अलमारी की चाबी सन्तोष को पकड़ा दी । सन्तोष ने तेल की शीशी निकाल कर मेज पर रख दी और कुर्सी उठाकर स्वामी जी के सिरहाने रख दी । तेल हथेली मे उड़ेल कर दोनों हथेलियों मे लगा कर सर और माथे की मालिश शुरू कर दी । सन्तोष अपने स्टाइल से तेल मालिश कर रही थी हालांकि स्वाजी जी चाहते थे कनपटी पर जरा तगड़ा रगड़ा लगा दे । स्वामीजी ने सन्तोष का हाथ पकड़ कर उठाया और माथे पर रख दिया । साथ ही साथ संतोष के अंगूठे कनपटी पर रख दिये और उनपर अपने अंगूठे रखकर दबाकर संदेश दिया कि यहां दबाओ और अपने हाध वापस खींच लिये । सन्तोष को जैसा गुरू जी ने कहा वो वैसे ही कर रही थी । अचानक स्वामी जी ने अपने हाथ सन्तोष के हाथों पर रख दिये और अंगूठों पर अपने अंगूठे रखकर जोर से दबाने का उपक्रम किया । हालांकि स्वामीजी का ध्यान दर्द से हट कर अब सन्तोष के हाथों पर केन्द्रित हो गया था । स्वामी जी ने अध्यात्म के अपने ज्ञान को जागृत करना चाहा पर वो जाग नहीं रहा था । सात्यकि बोस जाग चुका था । वो सन्तोष के स्त्रियोचित हाथों की नैसर्गिक मुलायम त्वचा का आनन्द ले रहा था । स्वामी जी ने कोशिश तो बहुत की अपने हाथ वापस खींचने की पर सिर्फ इतना कर सके कि सन्तोष को ये अहसास ना हो कि कुछ गलत हो रहा है । पर स्वामीजी के हाथ सन्तोष के हाथों को ढके हुए थे हालांकि उनको वहां रखने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया था । ना तो वो दबाव बनाने मे मदद कर रहे थे और ना ही कनपटी पर सर्कुलेशन मोशन मे घुमा रहे थे । स्वामी जी का ध्यान दर्द से दूर जा चुका था । स्वामीजी के अध्यात्म के चोले के अन्दर सात्यकि बोस मुखर होने लगा था । सन्तोष के टच का आनन्द ले रहा था । अब स्वामीजी ने सन्तोष के हाथों को अपने हाथों से पकड़ लिया । सन्तोष को अचानक हुए इस कृत्य से धक्का सा तो लगा पर ऐसे मे वो चुप लगा गयी । स्वामी जी ने अब सन्तोष के हाथों को अपने हाथों मे जकड़ लिया था । सात्यकि इतने दिनों से अध्यात्म के पिंजरे मे कैद था । सन्तोष असमंजस मे थी कि क्या करे । स्वामी जी उसके गुरू जी थे बस यही वो जानती थी । स्वामीजी हाथ छोड़ नहीं रहे थे । सन्तोष ने किसी तरह मालिश करते करते अपना हाथ छुड़ाये और तेल की शीशी अलमारी मे रखकर ताला लगा दिया । चाबी उसने स्वामी जी के बैड पर रख दी । कुर्सी बीच से हटाकर उसने दरवाजा खोला और अपने कमरे मे जाकर अन्दर से बन्द कर लिया ।


स्वामीजी के लिये सात्यकि बोस ने नयी समस्या खड़ी कर दी थी । वो धोड़ा घबराये हुए थे । पता नहीं सुबह सन्तोष किस तरह से रियेक्ट करे । सारी रात इसी बात को सोचकर बेचैनी रही । न जाने कितने बजे नींद आयी ।


उधर सन्तोष का भी सोच सोच कर बुरा हाल था । उसने अपने आदरणीय गुरू जी का अपमान जो कर दिया था । उसे लगा कि उसे शायद हर चीज मे बिना बात गलत बातें नज़र आती हैं । गुरु जी बस अपने हाथों से थोड़ा ज्यादा जोर ही तो लगाना चाह रहे थे । उन्होंने कुछ गलत किया हो अब सोचने पर ऐसा नहीं लगता था । उसे अपने व्यवहार पर आत्मग्लानि हो रही थी । धिक्कार है कि उसने गुरू जी के लिये ऐसा कैसे सोच लिया । सोचते सोचते न जाने कब उसे नींद आ गयी ।


स्वामीजी सुबह 5 बजे उठकर गंगा स्नान करने को चले गये । आज “शिव शम्भो शिव शम्भो” और “हर हर गंगे” मे मन नहीं लग रहा था । सन्तोष का सामना कैसे होगा यही सोचकर दिल दहल रहा था । वापस पहुंचे तो राम दयाल कमरे मे चाय दे गया । चाय पीकर स्वामीजी स्वाध्याय का स्वांग करने लगे । मन तो एकटक “सन्तोष क्या कहेगी? सन्तोष क्या करेगी?” की उलझनों मे ही फंसा हुआ था । अगर कुछ कहेगी तो साफ मुकर जाऊंगा कि मैने ऐसा कुछ नहीं किया है । मैने तो सर को दबाने के लिये हाथ के ऊपर हाथ रखकर प्रैशर ही तो बढ़ाया था । तुम्हें कुछ गलतफहमी हो गयी है जैसे तर्क कल्पना मे विचरण कर रहे थे । जैसे जैसे समय पास आ रहा था टैंशन भी बढ़ती जा रही थी । जैसे ही 11 बजे स्वामीजी एलर्ट हो गये । बस सन्तोष आती ही होगी । दिल की धड़कन तेज हो गयी और चेहरे पर हवाइंया उडने लगी । जैसे तैसे स्वामीजी ने खुद को संभाल रखा था । तब ही सन्तोष ने दरवाजा खोलकर अन्दर प्रवेश किया और स्वामी जी के चरण स्पर्श किये और कहा:


“गुरू जी प्रणाम!”


स्वामी जी की धड़कन शांत हो गयी और तुरन्त ही उन्होंने चैन की लम्बी सांस ली ।


“नीचे दो श्रद्धालु हॉवड़ा से आये हैं । आपसे मिलना चाहते हैं । मैने उन्हें नीचे हॉल मे बैठा दिया है । दो तीन दिन रुक कर जायेंगे । आप कहें तो उन्हें कमरा दे दूँ ।” -- सन्तोष ने कहकर स्वामीजी की आंख मे आंख मिलाकर कर कहा । स्वामी जी को सन्तोष की आंखों मे रात की कहानी की हल्की सी झलक दिखी तो सही पर तुरन्त ही गायब हो गयी । बाकि सन्तोष की बॉडी लैंगुएज ऐसी थी कि जैसे सब कुछ सामान्य है ।


“मै उनसे शाम को ही मिलूँगा । उन्हें कमरा नम्बर 3 दे दो । साफ सफाई करा दी है ना ।” - स्वामी जी कुछ संयत होकर बोले ।


“जी गुरू जी! कल दान मे 939 रुपये आये हैं । ये रहा रजिस्टर ।” - कहकर सन्तोष ने रजिस्टर स्वामीजी की तरफ बड़ा दिया । बिना कुछ कहे स्वामी जी ने चाबी सन्तोष की तरफ बढ़ा दी और सन्तोष ने रुपया चैस्ट मे रखकर ताला लगा दिया । चाबी वापस स्वामी जी की तरफ बढ़ा दी । स्वामीजी कुछ देर रजिस्टर देखते रहे फिर उसे सन्तोष को लौटा दिया । उन्होंने सन्तोष की तरफ देखा । सन्तोष ने उनकी आंखों मे रात की कहानी की क्षणिक झलक देखी जो उभरी और तुरन्त गायब हो गयी । स्वामीजी ने स्वयं को संभाल लिया । सन्तोष ने देख कर अपनी आंखें झुका लीं और रजिस्टर लेकर बाहर निकल गयी ।


सारा दिन का कर्यक्रम रुटीन से चला और प्रवचन के बाद चाय पानी हुई । रात आठ बजे खाना स्वामी जी के पास राम दयाल ने पहुंचाया । सन्तोष किचन से खाना लेकर मीनू के पास लेकर गयी । उसने स्वयं भी मीनू के साथ बैठकर खाना खाया । खाना खाकर वो वापस आश्रम अपने कमरे मे पहुंच गयी । पिछली रात की बात पर उसे अफसोस जरूर था । वो सोचती थी कि स्वामी जी की सेवा मे किसी तरह कोई व्यवधान ना हो ये देखना उसका धर्म है । वो चाहती थी कि स्वामीजी इस विषय मे आश्वस्त रहें । इसीलिये वो अपने कमरे से उठकर स्वामी जी के कमरे मे गयी और बोली :


“कोई परेशानी हो गुरू जी तो आवाज़ लगा लेना ।” - कहकर वो बाहर आ गयी और अपने कमरे मे जाकर सो गयी । उसने स्वामीजी के दिमाग मे कोई संकोच अगर था तो उसे दूर कर दिया और अपनी निस्वार्थ सेवा भाव का आश्वासन भी दे दिया था । स्वामी जी आश्वस्त हो गये । अब उन्हें कोई टैंशन नहीं थी ।


[ 5 ]


एक दिन शाम से ही रुक रुक कर बारिश हो रही थी । स्वामीजी को रात को सोते समय फिर नींद नहीं आयी और कुछ सरदर्द भी था । उधर बिजली कड़कती थी और बारिश भी हो रही थी । स्वामीजी सोने की कोशिश करने लगे । पर सात्यकि बोस को तो रात मे सन्तोष के हाथों का स्पर्श याद आने लगा । अंधेरे मे स्वामीजी सोने की कोशिश करते और महिला हाथों का स्पर्श याद करते बदन में सिहरन दौड़ने लगती । जैसे जैसे रात गहरा रही थी स्वामी जी के भीतर छिपा सात्यकि बोस हावी होने लगा । बाहर बारिश लगातार हो रही थी । स्वामी जी ने आखिरकार सोचा कि बात को हाथों के स्पर्श तक ही सीमित रखा जाये । इतने मे सन्तोष भी नाराज़ नहीं होगी और उन्हें चैन भी आ जायेगा । झिझकते हुए वो उठे और करूं या ना करूं के भाव से ग्रस्त होकर सन्तोष का दरवाजा खटखटा दिया । फिर आकर अपने तख्त पर लेट गये । थोड़ी देर बाद सन्तोष कमरे मे आ गयी । बिजली कड़क रही थी और सन्तोष को बिजली से दहशत होती थी ।


“तेल मालिश कर दूं । चाबी दे दीजीये गुरू जी!” - सन्तोष ने सीधे सतभाव से कहा ।


“नहीं तेल की जरूरत नहीं है । वैसे ही बैठकर जरा हाथों से ही दबा दो ।” - स्वामी जी बोलेे ।


“जी गुरू जी!“ - कहकर सन्तोष ने कुर्सी को स्वामी जी के सर के पीछे वाली साइड मे लगा ली ।


सन्तोष ने हाथ से ही माथे पर दबाने का उपक्रम शुरू किया । स्वामी जी ने आंखें बन्द कर लीं और सन्तोष के स्पर्श का आनन्द लेने लगे । दर्द तो वैसे भी नहीं था । सन्तोष ने जब कनपटी पर दोनों अगूंठे रखकर दबाना शुरू किया तो स्वामीजी कुछ देर तो इंतज़ार करते रहे फिर दबाव बढ़ाने का बहाना कर सन्तोष को हाथ के ऊपर हाथ रखकर दबाने लगे । धीरे धीरे दबाव कनपटी पर पड़े ऐसा छोड़कर स्वामी जी ने सन्तोष के हाथों के स्पर्श का ही आनन्द लेना शुरू कर दिया । सन्तोष को एहसास तो हो गया कि स्वामीजी सिर्फ हाथ ही स्पर्श करना चाह रहे हैं पर वो सर दबाने के ही उपक्रम जारी रखे रही । स्वामी जी ने धीरे से सन्तोष की दोनों कलाइयों को पकड़ लिया हालांकि सन्तोष अभी भी सर और कनपटी ही दबा रही थी । बिजली रह रह कर कड़क रही थी और बारिश भी लगातार हो रही थी ।


“सन्तोष ! आगे तख्त पर आकर बैठ जाओ ।” - स्वामी जी ने सन्तोष की एक कलाई छोड़ दी ताकि वो उठ कर आगे आ सके ।


“जी गुरू जी !” - कहकर सन्तोष स्वामी जी के सामने आकर तख्त पर बैठ गयी । सन्तोष ने अब सामने बैठकर ही सर दबाना चालू रखा । दोनों चुप थे । स्वामी जी अपने को रोक नहीं पा रहे थे । उन्होंने सन्तोष के दोनों हाथों को पकड़ कर उसको अपने ऊपर झुका कर अपने करीब ले आये । अब धड़कनें बढ़ने लगी थीं । बिजली अब भी कड़क रही थी और बारिश भी रुक नहीं रही थी । सन्तोष अब अलर्ट हो गयी और स्वामी जी की पकड़ से छूटने का प्रयास करने लगी ।


“गुरू जी! नहीं! ऐसा मत कीजिये ।”


“मैं कुछ नहीं करूंगा । सन्तोष! तुम निश्चिंत रहो । बस जरा सा पास आ जाओ ।” कहकर स्वामीजी ने उसे ओर अपने नज़दीक खींच लिया । स्वामी जी हट्टे कट्टे थे तो आसानी से ऐसा कर पा रहे थे । सन्तोष उलझन मे फंस गयी थी और अपने को छुड़ाने की कोशिश भी पूरी तरह नहीं कर पा रही थी । बारिश हो रही थी और रात मे कुछ बोल भी नहीं सकती थी । और ऐसी बारिश मे सुनता भी कौन । ताकत भी जवाब दे रही थी । स्वामी जी सुन्दरता की प्रतिमूर्ति थे और सन्तोष को अपने ज्ञान और प्रवचनों से सम्मोहित कर चुके थे पर उनका ये स्वरूप सन्तोष के भीतर वितृष्णा पैदा कर रहा था । सन्तोष के जहन मे मात्र अध्यात्म का ही रास्ता था जिसमे यौन क्रीड़ा को निषेध बताया गया था । यौन उसके जहन मे वैसे भी कभी घर नहीं बना पाया था । अब इस अंधेरी रात मे स्वामी जी की हरकतों का जैसे कोई जवाब उसके पास नहीं रह गया था । अध्यात्म अब कहीं नहीं था । अचानक बिजली जोर से कड़की और न चाहते हुए भी सन्तोष ने अपना सर स्वामीजी के सीने पर रख दिया था । फिर बात आगे बढ़ने लगी ।


एक बार सिलसिला चला तो रोज आगे बढ़ता चला गया । सन्तोष एक ऐसे जाल मे फंस चुकी थी जिससे निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता था । राधेश्याम वापस आया तो स्वामी जी ने उसका बोरिया बिस्तर नीचे के कमरे मे पहुंचवा दिया । परन्तु सन्तोष को धक्का तब लगा जब माहवारी रक्तस्राव की डेट निकल गयी और काफी समय ऊपर हो गया । उसने गुरू जी को बताया तो स्वामीजी सकते मे आ गये । फिर चुपचाप लैब से जांच कराई तो पता लगा कि गर्भ ठहर चुका है । सात्यकि बोस ने जो करना था कर दिया था अब मुसीबत स्वामी अभयानन्द पर आन पड़ी थी । पूरे जीवन मे कमाई हुई पूंजी लुटने का खौफ उन्हें सोने नहीं देता था ।


सन्तोष से तो अब कोई पर्दा रह नहीं गया था । उसके साथ स्वामीजी ने समस्या पर गम्भीरता से विचार किया । कोई चारा नज़र नहीं आ रहा था तो स्वामीजी ने सन्तोष से शादी का प्रस्ताव रखा । किसी भी हालत मे स्वामी जी गर्भ गिराने के पक्षधर नहीं थे । दिन के उजाले मे अगर सात्यकि बोस होता तो गर्भ गिराने की बात करता । पर स्वामी जी अध्यात्म के ज्ञाता और हाई मॉरल करेक्टर वाले थे । सन्तोष भी गर्भ गिराने के बिल्कुल खिलाफ थी पर स्वामी जी से शादी के नाम पर असमंजस मे थी । लेकिन उसे कोई चारा नज़र नहीं आ रहा था । आश्रम वाले, आस पड़ोस वाले और उसके पिता जी क्या सोचेंगे सोचकर ही सिहर जाती थी । राधेश्याम का बोरिया बिस्तर नीचे के कमरे मे पहुंचाने पर ही आश्रम वासियों की नज़रें कुछ सवाल पूछती लगती थी । उन्हें ही झेलना मुश्किल हो रहा था तो शादी की बात पर तो पता नहीं क्या होने वाला था । कुछ चारा नहीं दिखा तो दो चार दिन सोच विचार कर संतोष ने शादी को हां कह दी ।


स्वामी जी ने सन्तोष को बताया कि कानूनन शादी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के यहां रजिस्टर करा कर करेंगे । ये काम कलकत्ता जा कर करना पड़ेगा । दो गवाह भी चाहियें मैरिज ऑफिस मे जिनका प्रबंध बिना भेद खुले यहां हरिद्वार मे करना मुश्किल होगा । 30 दिन के गैप के बाद सर्टिफिकेट मिल जायेगा । उसके बाद मन्दिर मे रीति रिवाज से शादी करेंगें । फिर हरिद्वार लौट आयेंगे । शादी के बाद जो भी थोड़ी बहुमत शर्मिंदगी रहेगी वो समय के साथ दूर हो जायेगी । आखिर लोग समय के साथ सब चीजों को स्वीकार कर ही लेते हैं ।


[ 6 ]


स्वामी जी सन्तोष को लेकर कलकत्ता गये और अपने बचपन के दोस्तों से सम्पर्क किया । फ्लैट जिस सोसायटी मे था वो धर्मतल्ला के एसडीएम ऑफिस और मन्दिर से दूर नहीं था । धर्मतल्ला के एसडीएम के दफ्तर मे जाते ही सब कानूनी कागजात जमा करा कर रजिस्ट्रेशन करा दिया । सात्यकि बोस के स्कूल टाइम के दो दोस्तों सौमित्र बनर्जी और हेमन्त दास ने गवाह के तौर पर दस्तखत किये । अब यहां स्वामीजी, संतोष और स्वामी जी के दोनों दोस्तों को मैरिज सर्टिफिकेट लेने तीस दिनों बाद आना था ।


स्वामी जी के पास शादी की तैयारी करने का अब काफी समय था । स्वामी जी ने सन्तोष को पूरी जिम्मेदारी सौंप दी शादी के लिये कपड़े, गहने और दूसरा साज सिंगार का सामान खरीदारी करने की क्योंकि वो स्वयं तो इस काम से अनजान थे । उन्होंने अपने दोस्तों से आग्रह किया कि भाभियों को इस काम मे सन्तोष की मदद करने को कहें । औरतों को तो वैसे ही शॉपिंग मे बड़ा आनन्द आता है तो दोनों की बीवियां सहर्ष तैयार हो गयीं । सौमित्र बनर्जी और हेमन्त दास की पत्नियों मौसमी बनर्जी और विभा दास संतोष को लेकर बाजार-बाजार घूमी । कभी ये दुकान कभी वो दुकान । कभी ये शोरूम कभी वो शोरूम । दर्जन भर साड़िया, ब्लाउज़ के कपड़े, सोने के गहने, सिंगार का सामान और दुनिया भर का चुटपुट सामान सन्तोष ने खरीद लिया था । विभा दास ने अपने पसंदीदा लेडीज़ टेलर के पास सन्तोष के ब्लाउज सिलने को दिलवाये और टेलर को एक सप्ताह का समय दिया ताकि सिलाई या फिटिंग मे कुछ कमीबेशी हो तो समय से दूर करके तैयार हो जायें ।


उधर स्वामी जी ने भी अपने लिये एक सूट, दो शर्ट, एक सफेद धोती, दो कुर्ते का प्रबंध करने का प्रयोजन किया । सूट, शर्ट और कुर्ते सौमित्र बनर्जी ने एक अच्छे टेलर को सिलने को दिलवाया । बाकी कपड़े लेकर स्वामीजी ने फ्लैट पर जाकर रख दिये ।


30 दिन बस यूं ही गुजर गये । स्वामीजी सन्तोष और उनके दोनों दोस्त एसडीएम ऑफिस पहुंचे । कुछ देर बाहर इंतजार के बाद एसडीएम साहब ने अन्दर बुला लिया । एसडीएम ने रजिस्टर मे स्वामी जी और सन्तोष के दस्तख्त लिये और सीट से खड़े होकर पहले सर्टिफिकेट स्वामीजी को सौंप दिया और फिर दोनों को शादी की बधाई दी ।


कोर्ट से निकले तो ग्यारह बजे थे । धरमतल्ला के दुर्गा मन्दिर मे पहले ही बात हो चुकी की जहां शादी के लिये पंडित जी का सारा सामान रखवा दिया गया था । सन्तोष को स्वामी जी साथ लेकर सीधे ब्यूटी पार्लर पहुंचे जहां मौसमी बनर्जी पहले से ही रुक्मिणी के कपड़े और गहने लेकर उसके आने का इंतजार कर रही थी । पार्लर मे ब्यूटीशियन ने आते ही अपना काम शुरू कर दिया । 12 बज रहे थे और तीन से चार घंटे का काम था ।


पांच बजे का समय तय था जब मन्दिर मे वेद सम्मत मंत्रोच्चारण के बीच पाणिग्रहण संस्कार होना था । स्वामीजी ने अपने बड़ी बहन और उसके परिवार को, कुछ स्कूल के दोस्तों, शहर के कुछ जानने वालों और रिश्तेदारों को भी मन्दिर मे होने वाले सादे समारोह मे बुलाया था । मां बाप तो अब थे नहीं । परिवार मे सिर्फ बड़ी बहन सोमा बिस्वास थी जो अब गुवाहाटी मे सैटल्ड थी । बहनोई जयन्तो बिस्वास गुवाहाटी मे ठेकेदारी का काम करते थे । दो बच्चे थे । एक बेटा एक बेटी । सोमा बिस्वास का अकेला भाई सात्यकि बोस था और वो भी साधू बना गया था । उसे इस बात का हमेशा अफसोस रहता था कि मायके के नाम पर अब कुछ बचा नहीं था । शादी की बात सुनकर उसे इतनी खुशी हुई कि बताया नहीं जा सकता था । इसलिये दोनों बच्चों को लेकर पति के साथ वो बड़ी खुशी से भाई की शादी मे शामिल होने आयी थी ।


शादी समारोह में बस पच्चीस तीस लोग शामिल होने थे जिनके डिनर का बन्दोबस्त मन्दिर के हॉल मे किया गया था । पांच छै घंटे मे पूरा कार्यक्रम निबट जाने वाला था । इस समारोह की पूरी फोटोग्राफी की तैयारी कर ली गयी थी ताकि फोटोज़ की एल्बम बनवा कर भविष्य के लिये यादगार रखी जा सके । सन्तोष की भी चाहत थी की पिता तरलेजा साहब और दोनों बहनों को पूरे समारोह की फोटोज़ दिखा सके । उसे पता था कि शादी की खबर सुनकर उनको धक्का तो लगने वाला था । पर जो कुछ भी हो रहा था वो भी कुछ बुरा नहीं था । थोड़े शॉक के बाद सब निश्चिंत हो जाने वाले थे ।


पंडित जी आ चुके थे । वेदी सज गयी थी । हवन सामग्री सब आ चुकी थी । डैकोरेशन का काम पूरा था । स्वामीजी के यार दोस्त आ गये थे और कुछ आने वाले थे । बड़ी दीदी सोमा बिस्वास सपरिवार आ चुकीं थी । सौमित्र बनर्जी और हेमन्त दास पंडित जी के साथ सक्रिय मदद करा रहे थे । ठीक पांच बजे सन्तोष को लेकर विभा दास पहुंच गयी । दीदी सोमा बिस्वास, उनकी बेटी सौम्या, मौसमी बनर्जी और अन्य उपस्थित महिलाएं सन्तोष को मन्दिर के बराबर के दरवाजे से संभालकर अन्दर ले आयीं और हॉल के साथ लगे कमरे मे लाकर बैठा दिया । स्टेज पर लगी दो शाही कुर्सियों मे से एक पर स्वामीजी बैठ गये । सन्तोष को महिलाएं और लड़कियां लेकर आयीं और दूसरी कुर्सी पर बैठा दिया । वरमाला के लिये दोनों उठे और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच दोनों ने एक दूसरे को वरमाला पहनाईं । स्वामी जी ने सन्तोष की तरफ देखा तो उन्हें उसके चेहरे पर कोई उत्साह या चमक नहीं देखी । सारे गहनों और कपड़ो और मेकअप के बाद भी उसके चेहरे का बासीपन छिप नहीं रहा था । हालांकि वो जबरदस्ती मुस्कुराहट लाने की कोशिश करती दिखाई दी । फोटोग्राफर फोटो लेते रहे और बार बार मुस्कुराने के लिये बोल रहे थे ।


तत्पश्चात स्वामीजी एवं सन्तोष को हवन वेदी पर बैठाकर मंत्रोच्चारण के बीच पाणिग्रहण संस्कार पूरा कराया गया । कन्यादान जयन्तो बिस्वास ने किया और सात फेरों की रस्म के साथ विवाह संस्कार पूर्ण हुआ । सौमित्र बनर्जी और हेमन्त दास तुरन्त मन्दिर के बाहर निकलकर सिगरेट पीने चले गये । हॉल में बारी-बारी से लोग दूल्हा दुल्हन के साथ फोटो भी खिंचा रहे थे । उसके बाद मेहमान डिनर मे मशगूल हो गये । करीब ग्यारह बजे स्वामीजी दुल्हन सन्तोष को लेकर वापस फ्लैट पर पहुंचे । दीदी सोमा बिस्वास ने भाभी की फ्लैट के दरवाजे पर रस्म पूरी करके एन्ट्री करवाई । कुछ देर गप शप के बाद दीदी सपरिवार अपने होटल चली गयीं । स्वामी जी भी सन्तोष के साथ आराम करने चले गये । सुहागरात का तो कोई चार्म था नहीं । अगले दिन दिल्ली की ट्रेन पकड़नी थी । वहां से हरिद्वार ।


[ 7 ]


ट्रेन से जब हरिद्वार पहुंचे तो सन्तोष तो दुल्हन के वेष मे थी परन्तु स्वामी जी अपने वही गेरुए वस्त्रों मे थे । आश्रम पहुंचे तो स्वागत तो हुआ पर बड़ी खुसर पुसर होने लगी । पर वो “क्या कहेंगे लोग” के डर से बाहर आ चुके थे । उधर लोग हैरान थे आखिर स्वामी जी को हुआ क्या है? अड़ोस पड़ोस मे खबर पहुंची तो वहां भी गप शप होने लगी । स्वामी जी ने समझदारी से काम लिया और सभी आश्रम वासियों को हॉल मे इकट्ठा करके पूरा वाकया डिटेल मे बता दिया । तरह तरह की बेबुनियाद बातों पर विश्राम लगाना है तो सच बता देना ही बेहतर है । स्वामी जी अपनी पत्नी सन्तोष के साथ शान से आश्रम मे लौट कर आये थे । वैसे समाज मे विचित्र से विचित्र घटनाएं होती रहती हैं और कुछ दिनों की चर्चा के बाद इतिहास की रद्दी टोकरी मे पहुंच जाती हैं । दिलेर लोग फैसले करते हैं और किसी की परवाह नहीं करते हैं । दिन के अन्त मे देखा जाये तो उनका कुछ बिगड़ता भी नहीं है ।


बात फैली तो तरलेजा साहब तक भी पहुंची । शादी की खबर सुनकर वो बेचैन हो गये । पहला मौका मिलते ही हरिद्वार पहुंचे । घर पर सामान टिकाकर सीधे स्वामीजी के आश्रम पहुंचे । सन्तोष सामने हॉल मे ही थी और स्वामी जी कुछ श्रद्धालुओं से बात कर रहे थे । दोनों ने तरलेजा साहब को देखा तो तुरन्त ही उनके पास पहुंचे । सन्तोष और स्वामी जी ने तरलेजा साहब के चरण छुए । आश्रम के कारिंदे एक दूसरे को कनखियों से देख कर चहक रहे थे कि जो तरलेजा साहब हमेशा से स्वामी जी के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते थे वो चरण स्पर्श कराकर स्वामी जी को आशीर्वाद दे रहे थे ।


सन्तोष आश्रम का काम बदस्तूर करती रही और बाकायदा स्वामी जी के साथ पत्नी बन कर रहने लगी पर अब वो प्रवचन मे नहीं बैठती थी । पेट मे बच्चा पल रहा था तो खान पान का विशेष खयाल रखती और डॉक्टर की नियमित जांच के लिये जाती थी । कालान्तर मे नर्सिंग होम में उसने बेटे को जन्म दिया । एक्सपर्ट डॉक्टर्स ने स्वयं डिलीवरी करायी थी । डिलीवरी के बाद मुहल्ले पड़ोस की पहाड़ी औरतों ने मोर्चा संभाला और मेवा डले गोंद का पौष्टिक आहार जो जच्चा को देने का चलन था बनाकर खाने को दिया । डिलीवरी के बाद कहते हैं कि औरत का दूसरा जन्म होता है । सन्तोष के साथ तो यही होने लगा था । सन्तोष की दुनिया बदल गयी थी । ममता के भाव उसके चेहरे पर उमड़ने लगे । बेटे को देखकर उसका शरीर पुलकित हो जाता और चेहरे पर चमक और खुशी छा जाती । बच्चे ने संसार से निराश हुई सन्तोष को संसार के सारे सुखों से जैसे नवाज दिया था । वो जीवन्त हो उठी । नयी उमंगें अब अगड़ाई लेती महसूस होती थी । उसके शरीर से अनावश्यक फैट गायब हो चला था और चेहरे पर नयी मिली खुशी और पौष्टिक आहार से रंगत आ गयी थी । बुझी बुझी सी रहने वाली सन्तोष अब चेहरे पर ताजगी लिये खिली खिली रहने लगी । उसका रंग भी निखर गया था । अब वो मुंह उठाकर चलती थी । ये काम तो स्वामी जी के प्रवचन और अध्यात्म का ज्ञान भी नहीं कर पाया था । सन्तोष को भी इस बात का एहसास हो चला था ।


स्वामी जी हैरान थे । कैसे एक बोझिल कदमों से चलने वाली संतोष अब स्लिम और ट्रिम होकर फूल से कदमों से चलने लगी थी । शादी के जोड़े में शादी वाले दिन भी जो बासी और उदास लगी थी वो अब साधारण घरेलू कपड़ों मे भी खूबसूरत दिखाई देने लगी थी । दिल की प्रफुल्लता का फव्वारा फूटकर उसके चेहरे और शरीर को अजब सुन्दरता प्रदान कर रहा था । स्वामी जी अब सन्तोष को देखते तो देखते ही रह जाते । वो अनुभव कर रहे थे की जिस सन्तोष का उनकी अध्यात्म की शिक्षा जीर्णोद्धार न कर पायी थी कैसे प्रकृति की प्रजनन क्रिया ने संभव कर दिखाया था । सच ही कहा है कि प्रकृति सर्वोच्च है । स्वामीजी की स्वयं की दिनचर्या भी बच्चे के आने के बाद बदल गयी थी । उसे गोद मे खिलाना अब दिनचर्या मे शामिल हो गया था । वो घंटों बच्चे को गोद में लेकर खिलाते । बच्चा खिलखिलाता तो वो आनंद से विभोर हो जाते । अपनी दिनचर्या के विभिन्न कार्यकलापों से समय निकाल कर उन्होंने बच्चे के साथ खेलने खिलाने के लिये रख दिया था । प्रवचन तो अभी एक घंटा ही देते थे परन्तु स्वाध्याय का सुबह का समय तीन चार घंटे से घटाकर दो घंटे से भी कम कर दिया था । वो भी बच्चा यदि सोता रहे तब । पर इतना तो वो कर ही लेते थे कि शाम के प्रवचन के लिये मसाला तैयार हो जाये । श्रद्धालुओं के आड़े टेढ़े प्रश्न अब उनको विचलित नहीं करते थे । कोई कुतर्क करने वाला अगर कभी आ भी जाये तो उसे सहजता से डील कर विवाद का अंत मुस्कुरा कर संपन्न कर देते । बच्चे से उन्हें जो प्रफुल्लता मिलती थी वो अध्यात्म से नहीं मिली थी बल्कि वो प्रफुल्लता अब जीवन को बेहतर बनाने के काम आ रही थी । सर दर्द तो गुजरे जमाने की बात हो चली थी । अब अध्यात्म से ध्यान हटकर गृहस्थ जीवन की ओर मुड़ने लगा था और अध्यात्म उनका व्यवसाय मात्र रह गया था ।



समाप्त