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नकटी - भाग-2


बसंत और हरसी का कानदास पर विशेष अनुग्रह था। जब भी वह मांगने घर आता हरसी उसे रोक लेती और कहती
"जोगी कहाँ कहाँ मांगता फिरेगा ले तेरी झोली मैं भर देती हूँ।"
कानदास को कहीं और मांगने की आवश्यकता ही नहीं रहती। वह भी आशीष देता
" भोले भंडारी तुम्हारी भी झोली भरेंगे।"
हरसी को शादी के छः वर्ष बाद अब वह दिन आया था लेकिन उसके साथ ही सुहाग उजडने की खबर शाम तक आ गई थी। कानदास ने हरसी को ढांढस बंधाया। उसकी सेवा की हमेशा ध्यान रखा। अब वह माँगता नहीं था बल्कि कुछ न कुछ लेकर ही आता था। हरसी मना कर देती
"जोगी तेरा खाकर कहाँ जाऊँगी।"
"ये तो लेना का देना है हरसी।" लेकिन हरसी कुछ नहीं लेती।
पूरा गाँव दुःखी था लेकिन केदार खुश था। उसने विक्रम से कहा अब बसंत की सरपंचाई भी हमारी होगी, जमीन भी हमारी होगी और हरसी भी नवल के नाते बैठ जाएगी। अब बेचारी इस उम्र में कहाँ जाएगी।"
नवल भी खुश था।
हरसी बहुत दुखी थी। कानदास आया तो बोली
"जोगी अब जीने का मन नहीं करता।"
"हरसी तुझे जीना होगा।"
"बसंत के बिना मैं कैसे जीऊँ जोगी।"
"तुम्हारे जिस्म में बसंत की निशानी है। क्या उसको भी अपने साथ समाप्त कर दोगी।"
"नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती।"
"तो जिओ और संघर्ष करो उसके लिये। मुझपर तुम्हारा बड़ा उपकार है। मैं तुम्हारी सेवा में हर समय हाज़िर रहूँगा।"
"जोगी तू किस लिए जिंदा है? तेरा तो कोई नहीं है।"
"मेरी कहानी फिर कभी अभी आप अपनी चिंता करें।"
कानदास चला गया।
धीरे धीरे हरसी खेत के काम में मन लगाने लगी। एक दिन हरसी खेत मे काम कर रही थी तभी नवल भी वहाँ आ गया।
उसने खेत के काम में हाथ बंटाने का प्रयास करते हुए कहा
"लाओ हरसी भैंस को चारा मैं डाल देता हूँ। खेत आदि की जुताई भी मैं कर दूंगा। मेरे रहते हुए किसी प्रकार की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। कैसी भी, कोई भी जरूरत हो बेझिझक कह दिया करो।"
लेकिन हरसी रास्ते को टालते हुए भैंस को चारा डाल आई। नवल ने कहा
"हरसी इतना उदास क्यों रहती हो? बसंत के जाने का दुःख मुझे भी है लेकिन मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जाता।"
हरसी ने मुँह फेर लिया। नवल ने फिर कहा
"उँगलियों से नाखून कभी अलग नहीं होते हरसी। बसंत हमारा था और हम उसके थे। अब उसकी जमीन और तुम्हारा ध्यान रखना हमारी जिम्मेदारी है।"
हरसी अब भी कुछ नहीं बोली। नवल ने आगे कहा "केदार भाई कह रहे थे कि अकेली हरसी कहाँ जाएगी। नवल के नाते बैठा देंगे।"
अब हरसी को गुस्सा आ गया।
"मेरे लिए क्या सही है क्या गलत,मुझे क्या करना है, ये कोई और नहीं, मैं तय करूंगी। मैं अकेली नहीं हूँ। मेरे पेट में बसंत की निशानी है। मुझे उसके बारे में भी सोचना है।"
नवल को लगा जैसे किसी ने उसपर सैकड़ों घड़े ठंडा पानी उंडेल दिया हो। वह झुँझला कर बोला
"छः साल में बच्चा नहीं हुआ। उसके जाते ही निशानी आ गई। मैं सब समझ रहा हूँ हरसी।"
नवल दौड़ता हुआ केदार के पास गया
" भाई जी आप तो कह रहे थे हरसी से शादी करवा देंगे। उसके पेट में बसंत की निशानी है।"
"कहाँ से आ गई निशानी? अब तो न जमीन मिलेगी न जोरू मिलेगी।" केदार ने चिंतित होकर कहा।
"भाई जी निशानी साफ भी तो हो जाती है।" विक्रम ने सुझाया।
"विक्रम तुम्हें लोग मूर्ख समझते हैं लेकिन कई बार तुम भी पते की बात कर जाते हो। शाम को हरसी के घर चलते हैं।"
शाम को हरसी रसोई में काम कर रही थी। हरसी का कुत्ता मोती भोंकने लगा। किसी ने घर का दरवाजा खटखटाया। हरसी ने झाँक कर देखा केदार, विक्रम, विक्रम की पत्नी बिमला और नवल दरवाजे पर खड़े थे। उसने दरवाजा खोल दिया। बिमला ने कहा
"हरसी मैं हाथ बटाऊँ रसोई में ?"
"एक जने की कैसी रसोई? वैसे भी आप बड़ी हैं।"
सब चौक में अलग अलग जगह बैठ गये। केदार बोला
" हरसी बसंत मेरे लिए चचेरा नहीं सगे भाई से भी ज्यादा था और वह भी हमें भी ऐसे ही समझता था।हम तो उस मनहूस घड़ी को कोसते हैं। उस दिन भी वह हमारा हाथ बँटाने आया था और वह हादसा हो गया।"
"हरसी देखो, अब हम तुम्हारे हैं और तुम हमारी हो। बसंत की कमी तो हमेशा रहेगी लेकिन नवल भी उसी उम्र का है। तुम्हारी शादी इससे हो जाये तो दोनों का घर बस जाएगा। तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है? इस उम्र में कहाँ जाओगी।" बिमला ने कहा।
"नवल को मैंने सब बता दिया है।" हरसी ने सबकी तरफ पीठ कर कहा।
"हाँ हाँ पता है बसंत की निशानी है। निशानी कौनसी अभी इतनी बड़ी हुई है,सब सफाई हो जाएगी।" विक्रम ने कहा।
"निशानी बड़ी छोटी नहीं होती और एक दिन ये निशानी भी बड़ी हो जाएगी।"
"सोच लो हरसी गाँव मे अकेले रहना बहुत मुश्किल है और तुम्हारे सामने जिंदगी पडी है।" बिमला ने कहा।
"मैं सोच कर ही कह रही हूँ। आप अब जाएँ तो मैं खाना बना लूं।" हरसी ने रूखे अंदाज़ में कहा।
"हम भूखे रहें और तुम पकवान बनाओ। ये नहीं होगा।" नवल चिल्लाया।
"तुम्हें पकवान मिल जाएँ कुछ ऐसा काम तो करो। हमेशा तो गंदगी में चोंच मारते रहते हो।"
"बहुत हो गया हरसी। हम तुम्हें अभी प्यार से समझा रहे हैं नहीं हमें और तरीके भी आते हैं।" केदार ने गुस्सा दिखाते हुए कहा।
"मैंने कह दिया मैं नहीं कर सकती तो नहीं कर सकती।" हरसी गुस्से में सामने हो गई थी।
केदार ने विक्रम को इशारा किया। विक्रम ने हरसी के गाल पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया और बोला
"बड़ों से ज़बान लड़ाती है।"
हरसी गिर पड़ी। नवल चूल्हे से एक जलती लकड़ी उठा लाया और उससे हरसी को पीठ और हाथ पर दाग दिया। बिमला हरसी के पेट पर बैठ गई और ये चिल्लाते हुए कूदने लगी
"अभी निकालती हूँ इसकी निशानी।"
उसने हरसी का पूरा चेहरा नाख़ून से खरोंच लिया।
हरसी को मारता देख हरसी की भैंस ठान में बेचैन होकर इधर उधर चक्कर लगाने लगी आखिर में उसने खूँटा उखाड़ लिया और हरसी को छुड़ाने प्रयास करने लगी। विक्रम ने बिमला से कहा "इसके सब गहने अपने है उतार लो सबको।"
बिमला हरसी के गहने उतारने लगी। उसने सभी गहने उतार लिए लेकिन कान की बाली और नथ नहीं खुले। उसको परेशान कर विक्रम आगे बढ़ा
"इतना टाइम नहीं है।" कह कर विक्रम ने झटके से एक एक कर नथ और बालियाँ खींच ली। हरसी का नाक और कान फट गये। उसका पूरा चेहरा लहूलुहान हो गया। हरसी को मारते देख हरसी का कुत्ता मोती दौड़कर कानदास की झोंपडी में पहुंच गया। कानदास समझ गया हरसी संकट में है वह दौड़ता हुआ आया। हरसी बदहवाश हालत में थी।
विक्रम की पत्नी बोल रही थी मिर्ची लाओ। ऐसे नहीं मानेगी।"
"अर्धनारीश्वर को क्या मुँह दिखाओगी बिमला।" कानदास हाथ मे लट्ठ लिए खड़ा था।
"जोगी ये हमारे परिवार का मामला है तुम बीच में मत पड़ो नहीं तो अच्छा नहीं होगा।"
"अजीब हालात है! परिवार वाले जुल्म ढा रहे हैं, पड़ोसी दुबके हुए हैं और जोगी को पीड़ा हो रही है।"
"तू बड़ा इसका यार बनता है।" कहते हुए नवल फिर एक जलती लकड़ी लेकर जोगी की तरफ बढ़ा
"मैं इसका नहीं इसके पति बसंत का यार था जिससे तुम लोगों ने धोखे से मार दिया है।"
"जोगी बहुत बदमाश है।"विक्रम चिल्लाया।
फिर तो आपस में लड़ाई छिड़ गई। एक तरफ जोगी, कुत्ता और भैंस और दूसरी ओर केदार,विक्रम,नवल और बिमला। केदार विक्रम और नवल ने कानदास के पैरों ही पैरों पर लठ्ठ मारे इससे उसकी एक टांग में फ्रैक्चर हो गया फिर भी वह लंगड़ाते लंगड़ाते लड़ता रहा। अंत में जोगी गैंग विजयी रही। कानदास ने हरसी को सम्हाला वह मूर्छित हो गई थी। कानदास ने हरसी के चेहरे पर पानी छिड़का। घावों को मलहम लगाई।
कानदास ने बसंत के लैंडलाइन फोन से एक फोन मिलाया और कहा
"भाई जीप लेकर आओ तुरंत।"
कानदास ने दूसरा फोन मिलाया
"महेश, मैं कानदास बोल रहा हूँ। तुम्हारे पास एक बहन भेज रहा हूँ। कौन है, क्या है, ये मत पूछना। बस तुम्हारी बहन है ये समझ लेना।"
थोड़ी देर में एक जीप आ गई थी। जीप ड्राइवर को पता देते हुए कानदास बोला
"हरसी को इस पते पर पहुँचा देना और उसे कहाँ छोड़ा है ये किसी को मत बताना।"
ड्राइवर और कानदास ने बहुत परिश्रम से मूर्च्छित हरसी को जीप में सुलाया। ड्राइवर ने कानदास से कहा
"तुम भी चलो शहर। तुम्हारी टाँग टूट गई है।"
"नहीं मैं यहीं रहूँगा। मैं गया तो कई गलत अर्थ निकलेंगे।"