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नकटी - भाग-6

जोगी कानदास टाँग सहलाते हुए वर्तमान में आया और बोला
"केदार, विक्रम नवल तो ये मान बैठे थे कि हरसी अब नहीं बचेगी।"
कानदास और संजय की आँखों से आँसू नहीं रुक रहे थे गुस्से में आंखे लाल हो गई थी। संजय ने मुट्ठी में मिट्टी भर कर कहा
कहा
"मेरी माँ ने इतने दुःख सहे इसका कभी जिक्र तक नहीं किया। मैं लापरवाह कभी उसके चेहरे और शरीर के निशानों से अंदाज़ा नहीं लगा सका। कभी पूछा भी तो माँ ने टाल दिया। जोगी जी माँ ने ऐसा क्यों किया।"
"वह अपने बसंत की निशानी के एक खरोंच भी नहीं लगने देना चाहती थी संजू।"
"अब तो उसके हर जख्म का हिसाब होगा जोगी जी।"

"मैं तो अब भी यही कहूँगा संजू लौट जाओ। शहर शहर है और गाँव गाँव है, बहुत फर्क है दोनों में । बड़े खतरनाक लोग हैं ये लोग। ये कितनी भी नीच हरकत कर सकते हैं।" कानदास ने समझाया
"अब जाने को और क्या बाकी रह गया है जोगी जी। अब जान भी जाए तो कोई परवाह नहीं लेकिन बदला जरूरी है। कहाँ है वे लोग केदार, विक्रम, बिमला और नवल।"
"नवल को तो तुमने अभी देख ही लिया। केदार अब गाँव का सरपंच बन गया है। विक्रम ने देशी शराब की भट्टियाँ लगा रखी हैं।"
"पुलिस कार्यवाही नहीं करती?"
"नेता जी से केदार की बड़ी नज़दीकी है। वोटों का सवाल है, वे भी सरपंच को खुश रखना चाहते हैं।"
"हमारा घर भी तो होगा इस गाँव में?"
" हाँ है ना, अब भी उस पर बसंत कुंज लिखा है। आजकल उसमें नवल रहता है ।"
“ठीक है मैं जाता हूँ गाँव में। आप यहीं रहिये।"
संजय गाँव में गया। उसने बरगद का पेड़ व चबूतरा भी देखा। कानदास की सुनाई एक एक कहानी उसकी नज़रों के सामने घूमने लगी। वह एक एक मकान को गौर से देखता हुआ जा रहा था। एक मकान पर बसंत कुंज देखकर उसके पैर रुक गये। नवल उसके आगे खाट डालकर बैठा था। तपने के लिए उसने आग सुलगा रखी थी। संजय को देखते ही वह उठ कर बैठ गया।
"लड़के तू यहाँ भी आ गया।"
"लड़का नहीं मेरा नाम संजय है। तेरा नाम बसंत है क्या?”
नवल सकपका गया और बोला
"तुझसे मतलब।"
" इस मकान पर बसंत कुञ्ज लिखा है बस इसलिए पूछ रहा हूँ।"
"कौन बसंत?"
"मेरा बाप और कौन?"
"कौन हो भाई लेकिन हरसी तो मर गयी थी।"
"चलो तुम्हें याद है। तुमने कसर तो नहीं छोड़ी थी लेकिन मारने से बचाने वाला महान है। मकान खाली कर देना। मैं माँ के साथ वापस आ रहा हूँ।"
"वाह भई वाह ऐसे कैसे खाली कर दें। कैसे पता तुम बसंत के बेटे हो?"
"तुम खुद का तो पता करो असली हो?"
"बदतमीज़ ये कानदास की झोंपडी नहीं है।" कहकर नवल एक लट्ठ उठा लाया।
तपती आग देखकर संजय के आगेवह दृश्य घूमने लगा जिसमें नवल ने उसकी माँ को जलती लकड़ी से मारा था।
संजय ने जलती लकड़ी उठा ली और नवल को बुरी तरह मारा। नवल गिड़गिड़ाने लगा
"छोड़ दे भतीजे मैं कल ही मकान खाली कर दूँगा।"
संजय ने ये कहते हुए नवल को छोड़ दिया
"मैं शहर जाकर माँ को लेकर आ रहा हूँ। मकान खाली मिलना चाहिए। तुम्हारे गुनाहों की सजा वही देगी।" केदार विक्रम को नवल की पिटाई की खबर मिली तो वे दौड़ते हुए आये लेकिन तब तक संजय जा चुका था।
"इस गाँव में किसने तुम्हें मारने की किसकी हिम्मत हो गई ।" विक्रम ने पूछा।
"संजय।"
"संजय तो इस गाँव में कोई नहीं है।"
"निशानी"
"क्या कह रहे हो कुछ समझ नहीं आ रहा।"
"निशानी बड़ी हो गई है भाई जी। संजू हरसी का बेटा है।"
सुनकर केदार विक्रम दोनों को होश उड़ गये।
"हरसी जिंदा है।" केदार ने कहा।
"हाँ और निशानी भी अब बड़ी हो गई है। आपको कितनी बार कहा 'सरपंच हो, इस मकान का पट्टा तो मेरे नाम कर दो। लेकिन आप तो जमीन कब्जाने में लगे रहे।"
"चुप कर। तू भी कितना निकम्मा है इस मकान से बसंत कुंज नहीं मिटवा सकता था?”
"अब छोड़ो इन बातों को। आगे की सोचो।" विक्रम ने बीच में टोका।
"सबसे बड़ा खतरा तुम्हें ही है। नकटी तुम्ही ने बनाया है हरसी को।" नवल ने कहा
"आने दे, शहर का लड़का है दारू तो पीता ही होगा। चेला बना लूँगा कुछ ही दिनों में।"
"फिजूल की बातें बंद कर कुछ काम की बात सोचो। ये बसंत जैसा भोला नहीं है। शहर का लड़का है। कुछ भी कर सकता है सतर्क हो जाओ।" केदार ने कहा
"आप चिंता न करें भैया। पिछली बार निशानी बच गई थी। इस बार कोई निशान बाकी नहीं रहेगी।"
केदार और विक्रम चलने लगे।
"भैया मैं यहाँ नहीं रहूँगा। मुझे साथ ले चलो।" नवल ने हाथ जोड़कर कहा।
"चल, डरपोक कहीं का।"
तीनों केदार के घर की तरफ चले गये।
****
संजू वापस शहर आ गया और माँ से लिपट गया और बोला
" माँ मैं देवीपुरा जाकर आया हूँ। तुमने मेरी खातिर इतने जुल्म सहे। मुझे कभी बताना भी जरूरी नहीं समझा।"
"संजू, कभी कोई कोई जिंदगी में इतना अहम हो हो जाता है उसके लिए हर जुल्म उठाने में ज़रा सा भी कष्ट नहीं होता।"
"हम देवीपुरा चलेंगे माँ।"
"नहीं संजू। मैं तेरे पिता को खो चुकी हूँ अब और जोखिम नहीं उठाना चाहती।"
"मत चल। यहाँ रहूँगा तो मैं रोज मरूँगा।"
"बेटा तुम्हारे लिए तो हर जुल्म सहे।"
"तो चल माँ, तुम्हे तुम्हारे हर जख्म की कसम है। उन जल्लादों को हर जुल्म का हिसाब देना बाकी है।"
हरसी तैयार हो गई।
फिर संजय कंचन के पास गया और बोला
"कंचन मैं गाँव जा रहा हूँ।"
"अच्छा तुमने कभी बताया नहीं,अपने गाँव के बारे में।"
"मुझे भी अभी पता चला। वहाँ हमारी जमीन है, मकान है, लेकिन किसी के कब्जे में है। उन्होंने मेरे बाप को मारा। मेरी माँ को भी खत्म करने का प्रयास किया लेकिन ईश्वर कृपा से बच गई। मेरी माँ को लोग नकटी नकटी कहते हैं वो उन्हीं के कुकर्मों का नतीजा है। "
"तो अब तुम जमीन छुड़ाने जा रहे हो।"
"जमीन से ज्यादा माँ पर किये जुल्मों का हिसाब लेना जरूरी है।"
"मैं भी चलूँगी।"
"तुम नहीं, तुम्हारी यहाँ प्रैक्टिस है और वैसे भी वे बहुत खतरनाक लोग हैं।"
"तुम्हारी मर्ज़ी,लेकिन ये याद रखो, एक वकील अपने दिमाग से वो काम कर देता है जो बड़े से बड़ा ताकतवर नहीं कर पाता।"
"लेकिन मैं तुम्हें खतरे में नहीं डाल सकता।"
"सीधे सीधे कहो मुझे छोड़कर जाना चाहते हो।"
"तो चलो फिर ।"

संजय अपनी गैंग के दोस्तों के पास भी गया।

" क्या भाई मूड गरम लग रहा है।" एक ने कहा।

" हाँ, मेरी कहानी सुनोगे तो तुम लोग भी उबल पड़ोगे। "

संजय ने अपनी कहानी सुना दी। एक साथी गुस्से में उछल कर बोला

"हम सालों को ऐसा सबक सिखाएंगे कि ईश्वर से मरने के लिए भी प्रार्थना करेंगे।"

"नहीं भाई, ये मेरी व्यक्तिगत लड़ाई है। इसे मैं खुद लडूंगा।" संजय ने कहा।

" अच्छा तो खुद का ठिकाना मिल गया तो हम गैर हो गए."

" नहीं यारो मैं फिर आऊंगा। तुम लोगों का ही तो सहारा है। लेकिन ये मेरी अपनी लड़ाई है इस बदले में मैं किसी और को शामिल नहीं करना चाहता।“

“फिर भी जरुरत पड़े तो हमें जरूर याद करना भाई।“

संजय सभी से गले मिलकर विदा हुआ
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इसके बाद संजय महेश मामा के पास गया
"मामा मैं देवीपुरा जाकर आ गया हूँ।"
मामा उसके गले से लिपट गया।
"संजू जब से तुम गये थे मुझे बुरे बुरे खयाल आ रहे थे। ऊपर वाले का शुक्र है, तुम सकुशल लौट आये ।"
"सकुशल कहाँ मैं घायल होकर लौटा हूँ।"
"घायल! कहाँ लगी?" मामा ने संजू के चारों ओर घूम कर देखा।
"दिखेगी नहीं मामा, मेरा मन, आत्मा सब घायल है। मैं कानदास से मिल आया हूँ। मुझे मेरी माँ पर हुए जुल्मों की पूरी कहानी मालूम हो गई है। वो तो आप थे मामा जो मैं और माँ ज़िंदा हैं।"
"जो कुछ हुआ मुझे दुःख है लेकिन मुझे तो एक बहन और भांजा मिला।"
"मैं गाँव जा रहा हूँ।"
"मुझे नहीं दिखाओगे गाँव।"
"चलो आप भी चलो।"
संजय हरसी विनोद और महेश मामा देवीपुरा के लिए रवाना हो गये।

हरसी, कंचन, संजय और महेश शाम को घर बसंतकुंज पहुँचे। मकान खाली मिला। चारों ने मिलकर मकान साफ किया।
कुछ सामान लाये थे उसे यथास्थान रख दिया।कानदास भी उनके आने की खबर सुनकर आ गया।कानदास को देखकर महेश और संजय गले मिले। संजय ने कंचन से कहा "आप हैं जोगी कानदास। उस दिन आप नहीं आते तो हम नहीं होते।"
"मैं कौन हूँ करने वाला! करने वाले तो भोलेनाथ है। सब जगह खबर फैल गई है। बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। मैं चलता हूँ किसी चीज़ की जरूरत हो तो बताना।"
"जोगी के पास क्या मिलेगा?"संजय ने मज़ाक किया।
हरसी ने गंभीरता से संजय की ओर देखा। संजय को अपनी गलती का अहसास हुआ वह बोला "आप भी हमारे साथ ही यहीं क्यों नहीं रहते?"
"जोगी कभी परिवार में नहीं रहते।"
सुनकर हरसी ने संजय से कहा " संजू जाओ, जोगी जी को इनकी झोंपडी तक छोड़ आओ। इनका अकेले जाना ठीक नहीं है।"
कानदास और संजय झोंपडी की ओर चल दिये। वे जैसे ही एक मकान के आगे से गुजर रहे थे एक आवाज सुनकर कानदास के पैर ठिठक गये। उसने संजय को चुप रहने के लिए होठों पर उँगली रखकर इशारा किया और दोनों एक आड़ में छुप गये। कानदास ने एक मकान की ओर इशारा किया

मकान के अहाते में तीन लोग बैठे थे
"कौन हैं ये लोग?" संजय ने धीरे से पूछा।
"नवल को तो तुम जानते ही हो। जो बीच में बैठा है वो केदार है और जो बचा वह विक्रम है।"
विक्रम कह रहा था
"हरसी और उसकी निशानी आ गयी है। मकान तो हाथ से गया ही, अब जमीन भी हाथ से निकल जाएगी।”
"मकान तुम्हारी बेवकूफी से गया। लेकिन जमीन नहीं जाएगी। मैंने पटवारी से मिलकर हरसी को मरी हुई दिखा कर जमीन अपने नाम करवा ली है।" केदार ने कहा।
संजय ने गुस्से में उठना चाहा लेकिन कानदास ने पकड़ लिया
"सुना है एक वकील लड़की भी साथ आई है।" नवल ने कहा।
"ऐसी कई छोकरियां आती जाती रहती हैं। पिछली बार हरसी बच गयी थी, इस बार न हरसी बचेगी न कोई निशानी।" केदार ने कहा।
"कानदास नहीं आता तो उसदिन भी नहीं बचती।" विक्रम ने कहा।
"इसबार कानदास का भी पुख्ता इलाज करना पड़ेगा।" विक्रम ने कहा
संजय और कानदास उनकी बातें सुनकर धीरे से निकलकर झोंपडी की ओर चल दिये।
"जोगी जी आपकी जान को खतरा है। हमने यहाँ आकर आपकी जान भी खतरे में डाल दी है।"
"चिंता मत करो संजू। सब भोलेनाथ संभालेगा।"
संजय कानदास को छोड़कर घर वापस आगया और हरसी महेश और कंचन को केदार, विक्रम,नवल की सुनी हुई बातें बतायी। महेश ने चिन्तित होकर कहा "कानदास को बड़ा खतरा लग रहा है। हमें उसे वापस जाकर देखना चाहिए।"
"हाँ। बेटा एक बार वापस जाओ। मुझे कुछ अनिष्ट की आशंका लग रही है" हरसी ने कहा।
संजय और महेश वापस कानदास की झोंपडी की ओर गये। उन्हें दो और लोगों भी झोंपड़ी की ओर जाते हुए दिखाई दिए। वे रुक कर उन्हें देखने लग गए।
उन दो लोगों में एक ने आग जला ली और झोंपडी की ओर बढ़ने लगा तभी संजय ने तुरंत ललकारा
"कौन है वहाँ?"
संजय की आवाज़ सुनकर दोनों वहाँ से दौड़ गये। संजय और महेश दौड़ते हुए झोंपडी में गये और दरवाज़ा खटखटाया
"जोगी जी दरवाजा खोलिये।"
लेकिन वहाँ से न ही कोई जवाब आया न ही किसी ने दरवाजा खोला। संजय ने दुबारा दरवाजा खटखटाया लेकिन फिर भी कोई जवाब नहीं आया। कोई आवाज नहीं आने से दोनों चिंतित हो गए और उन्होंने दरवाजा तोड़ने का मन बना लिया। वे दरवाजे को तोड़ने वाले ही थे तभी पीछे से कानदास की आवाज़ आई "रुको संजय।"
उन्होंने पीछे देखा। कानदास चला आ रहा था।
"हम तो डर ही गये थे। वे लोग तुम्हारी झोंपड़ी को आग लगाने ही वाले थे, वो तो ऐन मौके पर हम आ गये।" महेश ने कहा।
"मैं उनकी हर चाल को पहले ही भाँप लेता हूँ तभी तो अभी तक जिंदा हूँ। तुम दोनों जाओ और मेरी चिंता भोलेनाथ पर छोडिये।"
कानदास को सतर्क रहने के लिए कहकर संजय और महेश घर के लिए रवाना हो गए।
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