Kamnao ke Nasheman - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

कामनाओं के नशेमन - 5

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

5

अमल इस बार मोहिनी की ओर देख कर हँस कर बोले- ‘‘तुम्हारे पास आना जैसे मेरी एक मजबूरी थी, उसी तरह जाना भी मेरी एक आंतरिक मजबूरी है। अब वापस लौट जाने दो मुझे।...रात तुम्हारे साथ बिताए पल जैसे मेरी एक पूरी यात्रा थी। मैं बहुत थक हार कर तुम्हारे पास आया था। तुमने मेरी रीती सी पुरूष लालसाओं में जो रंग भर दिया उसके लिए मैं तुम्हारा ऋणी रहूँगा। ‘‘

‘‘कैसा ऋण?‘‘ उसने कुछ गंभीर स्वर में पूछा। फिर उसने सहसा अपने में वही रंग लाते हुए मुस्कुरा कर कहा- ‘‘स्त्री और पुरूष में बस यही एक नाता होता है जहाँ कोई किसी का ऋणी नहीं बनता है और न तो उसमें से कोई कुछ खोता ही है। सिर्फ पाना ही पाना रहता है। उठिए और चलिए मेरे साथ।‘‘

अमल ने फिर एक मर्म के साथ पूछा- ‘‘तुम्हारी मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र... वहाँ से मेरे आने के बाद आज सुबह यह सबकुछ सहसा हो गया क्या?‘‘

‘‘नहीं तो...‘‘ मोहिनी बहुत ही सपाट ढंग से मुस्कुरा कर बोली- ‘‘यह तो सारा कुछ विवाहित दिखाने का एक संकेत मात्र है जिससे कोई अन्य पुरूष उस पर अधिकार पाने की कल्पना न करे...सुबह एहसास हुआ कि सचमुच एक प्रतिबंधित स्त्री हूँ।...लेकिन यह एहसास भी मेरे लिए बहुत मरा हुआ सा था। ...वैसे, इसे देख कर मन में कुछ सहम गया है क्या?‘‘

‘‘वह तुम्हारे पति थे क्या?‘‘ अमल ने अस्फुट लहजे में कहा- ‘‘तुमने अब तक मुझे इस बात की जानकारी नहीं दी थी। रात के लिए बहुत एब्सर्ड सा मुझे अभी महसूस हो रहा है।....सॉरी हनी‘‘

इस बार मोहिनी किसी विक्षिप्त की तरह हँस पड़ी- ‘‘एक नैतिकता तुम्हें हिला गई। मेरे पति शिखर को भी कुछ ऐसी ही नैतिकता बुरी तरह झकझोर गई थी। वे अपनी पशुता पर उतर आना चाहते थे इसी नैतिकता के लिए। मुझे उन पर बहुत दया आई। वे मेरे सम्मुख बहुत निरीह से लगे थे। एक बहुत ही निरीह पुरूष।...उनके पास मुझे बांधने के लिए कुछ भी तो नहीं था। बस उनकी निरीहता ही आज मुझे बांध गई...पहली बार। यह सिंदूर और मंगलसूत्र वही फांस है, उनकी निरीहता की।‘‘

मोहिनी की इन अबूझी सी बातों में कहीं कोई गहरी पीड़ा थी जिसे वह दार्शनिकता से भरे शब्दों में ढांकना चाह रही थी। तब अमल ने शायद मोहिनी की पीड़ा से अपरिचित रहना चाह कर मुस्कुरा कर कहा था- ‘‘निरीहता की कोई एक ही जात नहीं होती। क्या तुम्हें नहीं लगता कि मैं भी कहीं निरीह हूँ‘....शायद मेरी निरीहता तुम्हें नहीं बांध सकती।‘‘

‘‘शायद तुम्हारी उसी निरीहता को पहचान कर ही तुम्हें लेने आई हूँ।‘‘ मोहिनी ने हँस कर कहा- ‘‘चलो अब, उठो। अंदर से बहुत थकी हूँ। चलो घर पर ही चल कर ढेर सारी बात करेंगे।....बड़ी राहत मिलेगी तुमसे।‘‘

‘‘शिखर साहब तो होंगे ही न बात करने के लिए।‘‘ फिर अमल ने एक शंकालु पुरूष की तरह कहा- ‘‘अब मैं शिखर को फेस नहीं कर पाऊँगा। उनका सामना करने का मुझमें साहस नहीं रह गया है।‘‘

‘‘वह ही कह गए हैं कि अमल को अपने बंगले पर वापस बुला लेना। बस..., यहीं शिखर बहुत महान पुरूष बन गए हैं। जिन अशलील सी स्थितियों में तुम्हें मेरे बेडरूम में पाया था, तुम्हारी या मेरी हत्या कर सकते थे। एक पति में यह एकाधिकार की भावना बहुत प्रबल और जानवर बनने तक की होती है।...खैर, वह बहुत कुछ सोंच समझ कर वापस चले गए हैं।‘‘

‘‘वापस चले गए?‘‘ अमल ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘हाँ, वापस‘‘ फिर उसने एक फीकी मुस्कान के साथ अमल का चेहरा निहारते हुए कहा- ‘‘जाते-जाते एक प्रश्न चुपचाप मेरे लिए छोड़ कर गए हैं कि मैं कहाँ-कहाँ से वापस होऊँ, यहाँ पचमढ़ी से या फिर तुम्हारे पास से या फिर उस निःस्पृह मोती के पास से....। मेरे पास ढेर सारी वापसियां हैं।....तुम किसी भी वापसी का तो उत्तर मुझे तलाश करने दो।‘‘ इतना कह कर मोहिनी अमल की बांह पकड़ कर उठाने लगी। अमल फिर चुपचाप बंधे से मोहिनी के साथ सामान लेकर चले गए हैं।

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मोहिनी अमल के साथ गेस्टहाउस से लौट रही थी तभी रास्ते मे एक छोटा सा लेकिन खूबसूरत सा मकान पड़ा। एक सुंदर सी स्त्री मकान के फाटक के बाहर खड़ी थी। शायद उसने इन दोनों को आते देख लिया था। मोहिनी ने भी उस स्त्री को देखा था। उसने अमल से उसकी ओर इशारा करते हुए धीरे से कहा- ‘‘यही वह औरत नैना है जिससे मोती का मुकदमा चल रहा है।....देख रहे हैं, कितनी सौम्य और गंभीर सी औरत दिखाई पड़ रही है। लेकिन इस औरत ने मोती को बिगाड़ कर रख दिया। इसने बहुत ही शोषण किया बेचारे का, और जब एक रात उसका पति परदेस से आ गया और मोती के साथ देख लिया तो इस औरत ने उल्टे ही मोती पर इल्जाम लगा दिया कि वह उसके साथ जबरदस्ती कर रहा था, बेचारा मोती बलात्कार के केस में फंस गया। मुकदमा क़ायम हो गया।‘‘

इतनी सी बात करते-करते उसका मकान पास आ गया। वह मोहिनी को देख कर मुस्कुराई और अमल की ओर एक कुटिल दृष्टि से निहारते हुए उसने पूछा- ‘‘ये कौन हैं?...रात सुना तुम्हारे पति आए थे, क्या यही हैं?‘‘

मोहिनी ने अमल की ओर देखा और फिर जैसे उससे तत्काल नयना के इस मारक प्रश्न का उत्तर देते नहीं बन पड़ा। वह अमल के साथ नैना के पास ठिठक गई और मुस्कुराते हुए बोली- ‘‘नहीं,...यह मेरे मित्र हैं।‘‘

‘‘आईए अंदर आप लोग‘‘ नैना ने औपचारिकतावश ऐसा कहा था या फिर उसका बहुत कुछ जान लेने का इरादा था। यह एहसास नहीं हो पा रहा था।

‘‘नहीं, फिर कभी आऊँगी।‘‘ मोहिनी मुस्कुरा कर आगे बढ़ने लगी।

‘‘एक-एक कप चाय पीते जाएं आप लोग।‘‘ नैना ने जोर देकर रोकना चाहा।

‘‘नहीं फिर कभी।‘‘ मोहिनी ने चलने की उतावली दिखाई।

‘‘कब आएंगी आप। आपसे कुछ जरूरी बात करनी थी। मोती के मुकदमें के बारे में।‘‘ नैना जैसे यह बताने के लिए विवश हुई थी।

इस बात पर मोहिनी ठहर गई थी। उसने नैना के चेहरे पर एक प्रायश्चित सा भाव देखा। फिर मोहिनी ने एक अर्थ को छूते हुए कहा- ‘‘मोती के बारे में क्या बात कर सकती हूँ...‘‘...आपका मामला है। आप खुद मोती से बात कर लें।‘‘

‘’मोती की तरफ से आप ही पैरवी कर रही हैं।‘‘ नैना ने एक अजीब भाव में निहारते हुए कहा- ‘‘फिर वह आपके पास ही रह रहा है।। उससे मैं क्या कह सकती हूँ। वह तो कुछ समझेगा भी नहीं।‘‘

‘‘नहीं, वह औरत को खूब समझने लगा है।‘‘ मोहिनी ने मुस्कुरा कर एक तीखे अंदाज में कहा- ‘‘वह बहुत डरा हुआ है कि उसे जेल हो जाएगी एक औरत के खातिर।‘‘

‘‘मैं यही नहीं चाहती हूँ कि उसे जेल हो या अदालत सजा दे।‘‘ नैना ने शायद अमल के सामने कुछ और नहीं कहना चाहा था फिर उसने बहुत ही गिड़गिड़ाते से स्वरों में धीरे से कहा था- ‘‘मैं आपसे फिर बात करूंगी। मेरी कुछ मजबूरियां थीं उसे मुकदमें में लाने के लिए।‘‘

‘‘यह बात आप मोती से कहें।‘‘ मोहिनी ने नैना के चेहरे पर झांकती एक इमानदार ग्लानि को महसूस करते हुए कहा।

‘‘वह बहुत ही मासूम है, उसे मैं कुछ भी नहीं समझा पाऊँगी...और न तो वह मेरी मजबूरियां ही समझ पाएगा। अब तो वह मुझे देखता है तो डर से रास्ता बदल कर निकल जाता है।‘‘ फिर नैना ने मोहिनी की ओर एक गहरे मर्म के साथ निहार कर कहा था-‘‘आप भी एक औरत हैं। मेरी मजबूरियों को जितना आप महसूस कर पाएंगी ...शायद दूसरा नहीं।‘‘

मोहिनी नैना की आँखों में जैसे किसी औरत के दबे रहस्य को महसूस करती वहीं से आगे बढ़ते हुए बहुत ही सहानुभूति के स्वर में कहा था- ‘‘आप किसी दिन आएं...बातें हो जाएंगी।‘‘

इतना कह कर मोहिनी अमल के साथ आगे बढ़ गई। तभी कुछ सोचते हुए अमल ने चलते-चलते पूछा- ‘‘नैना को शायद बहुत ग्लानि है मोती को मुकदमें में फंसाने के लिए। फिर उसने साहस कर के अपने पति से क्यों नहीं कह दिया कि सारी बातों की वह खुद जिम्मेदार थी‘‘

मोहिनी ने मुड़ कर अमल की ओर देखा और फिर हंस कर बोली- ‘‘बहुत मुश्किल होता है एक औरत के लिए यह सच कह पाना।‘‘ फिर उसके होंठों पर जैसे यह कहते-कहते अंदर से कुछ कांच की किरचें बाहर आ कर धंसने लगीं-‘‘ऐसा लगा, जैसे वह मेरे अंदर बिल्कुल बगल में आ खड़ी हुई हो और मेरे ही प्रश्नों को अपने शब्द देने लगी हो। ....मैं सोचती हूँ स्त्री की जवान उद्दाम लालसाएं कहीं उसकी ग्लानि से बड़ी होती हैं। मर्यादाओं को लांघ कर जब वह कुछ पाती है तो उस मर्यादा के टूटने का पाश्चाताप बिल्कुल खोखला मालूम पड़ता है। बिल्कुल अर्थहीन। जैसे पाश्चाताप करना मात्र ही एक औपचारिकता रह जाती है।‘‘

अमल ने चलती हुई मोहिनी की ओर देखा जैसे वही पश्चाताप उसके चेहरे पर अभी मात्र औपचारिकता की तरह झलक रहा था। वह अभी किसे लेकर अचानक भर आई थी। अपने पति को लेकर या फिर कल रात उसके साथ उन्हीं लालसाओं के लिए, जिए हुए मांसल पलों को लेकर या फिर मोती से अनकहे अपने संबंधों को लेकर। वह चुपचाप चलते रहे।

फिर मोहिनी ने एक फीकी हंसी के साथ कहा- ‘‘नैना के गले में रूद्राक्ष की माला और मेरे गले में आज सुबह से पड़े मंगलसूत्र में कहीं से कोई फर्क नहीं मालूम पड़ रहा। सुना है नैना का पति कहीं बाहर नौकरी करता है और किसी दूसरी औरत को रख लिया है। कभी कभार यहाँ उसके पास आता है, यह जताने कि वह उसका पति है। एक पूरे अधिकार वाला पति। जैसे मेरे पति शिखर। एक पुरी तौर पर अधिकार रखने वाले पति। मैं दोनों के अधिकारों में बहुत खोखलापन महसूस करती हूँ.....‘‘

अमल कुछ नहीं बोले थे। मोहिनी जैसे अभी अंदर से पूरी तरह रिसने लगी थी। मोहिनी का बंगला आ गया था। मोती शायद बाहर खड़ा इन लोगों के आने का इंतजार कर रहा था। उसने लपक कर अमल के हाथों से ट्राली बैग और मोहिनी के हाथ से बैग ले लिया। ऐसा करते वक्त वह बहुत ही समर्पित दास लगा है या फिर दूसरी आंतरिकता से जुड़ा हुआ व्यक्ति, मोहिनी के तृप्त होती कामनाओं का एक साझीदार और साक्षी। शायद मोहिनी अभी तक उसके लिए ही भरी-भरी थी। उसने उसके माथे पे लटक आए बालों की लटों को ऊपर करते हुए मुस्कुरा कर कहा- ‘‘पता नहीं, तू मेरे लिए इस प्रतीक्षा का अर्थ समझता भी या नहीं। बस यूंही एक दास की तरह सहम लिए हुए मेरी प्रतीक्षा करने के लिए ही तेरी मजबूरी रहती है।‘‘

मोती ने मुड़ कर मोहिनी की ओर देखा भर है। शायद वह उनकी बातों का अर्थ कुछ भी नहीं समझ पाया था। मात्र सहानुभूति जैसी कोई चीज से भरी एक छुअन सी। मोती के आगे बढ़ते ही मोहिनी उससे बोली- ‘‘वह तेरी पुरानी वाली मालकिन नैना मेमसाब मिली थीं। वह तुझे जेल नहीं करवाएंगी। तू सजा से बच जाएगा।‘‘

मोती ने मोहिनी की ओर घूम कर देखा और बहुत ही उल्लास के साथ बोला-‘‘सच मेमसाब, मुझे जेल नहीं होगी? वह कह रही थीं क्या? वह नैना मेमसाब बहुत अच्छी थी लेकिन पता नहीं क्यों उस दिन अपने साहब के सामने थाने में झूठ बोल गयीं। मैं उनके अदब में कुछ बोल न पाया। फिर उन्होंने ही मुझे अकेले में मौका निकाल कर कहा था-‘‘मोती, मैं तेरे लिए यहाँ थाने में बहुत झूठ बोल रही हूँ। मेरे सामने बहुत मजबूरी है तुझे जेल भिजवाने में।‘‘ वह रोने लगी थी। मुझे दया आ गई थी उन पर। दरोगा से वह जो बोलीं मैं चुपचाप उसे मानता चला गया।‘‘

मोहिनी मोती के उस भोलेपन से जैसे कहीं अंदर तक खुद एक ग्लानि से भरने लगी है। उस क्षण मोती एक देव पुरूष सा महसूस हुआ था। चुपचाप दूसरों के खातिर आरोपों को स्वीकार करता हुआ या फिर शायद वह उन आरोपों के अर्थ को ही पूरी तरह न समझने वाला एक मासूम बच्चे की तरह अनगढ़ पुरूष।

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मोहिनी ड्रेसिंग टेबिल के सामने खड़ी होकर पूरी तरह सिंगार कर रही थी। उसने आज बनारसी साड़ी पहन रखी थी। पीछे अमल खड़े चुपचाप मोहिनी के इस सिंगार के नये बोध को जैसे पढ़ना चाह रहे थे। मोहिनी अभी बहुत सहजता से मांग में सिंदूर भर रही थी। मांग में सिंदूर भरने का भी एक सटीक सलीका होता है स्त्रियों में। शायद मोहिनी उस सलीके से कुछ हट कर लगी है। उससे मांग में सिंदूर उस सलीके से भरा ही नहीं जा रहा था। वह एक अजीब मुस्कुराहट के साथ बोली- ‘‘पाँच साल ब्याह के हो गए...और अभी तक मुझे मांग में सलीके से सिंदूर भरना नहीं आया। बड़ा नया-नया सा सब लग रहा है।‘‘

‘‘क्यों, सिंदूर क्यों नहीं भरती थीं...‘‘ अमल ने एक गहरे अर्थ के साथ पूछा।

‘‘सिंदूर के गहरे अर्थ से मैं कभी जुड़ नहीं पाई थी...यह मुझे कोरी औपचारिकता भर महसूस होती रही हमेशा।‘‘ फिर माथे पे बिखर आए सिंदूर को रूमाल से पोंछते हुए बोली- ‘‘इन पाँच सालों में एकाध बार ही सिंदूर लगाने का प्रयास किया तो जैसे लगा किसी विषैले बिच्छू की तरह शिखर इस मांग में आ कर बैठ गए थे। बुरी तरह दंशित होती रही...‘‘

‘‘मुझे तो शिखर बहुत ही भले आदमी लगे। विषैले कहाँ से हो गए, इसे तुम जानो।‘‘ फिर वह कुछ सोंचते हुए बोले-‘‘उनके साथ रिश्तों में कुछ कटुता आ गई है क्या?‘‘

‘‘कटुता तो कल ही आनी चाहिए थी। तुम्हारे पास संदिग्ध अवस्था में देख कर।‘‘ मोहिनी ने अमल की ओर मुड़ कर देखते हुए मुस्कुरा कर कहा।

अमल ने बहुत ही आहत भाव में मोहिनी की ओर देख कर कहा- ‘‘आज यहाँ से जाने के बाद से मैं बहुत ग्लानि महसूस करता रहा हूँ। तुम्हारे प्रति और अपनी पत्नी बेला के प्रति। जैसे मैं बहुत ही अविश्वास से भरा हुआ एक पुरूष और पति अपने को महसूस करने लगा था। मुझे यहाँ तुम्हारे पास बेला को छोड़ कर नहीं आना चाहिए था।‘‘

‘‘तुम बेला के लिए भले ही ईमानदार न रहे हो लेकिन मेरे लिए ऐसी ईमानदारी की कोई शर्त नहीं थी। मेरी सहज स्वीकृति से ही तुम मुझे छू पाए। शिखर के संबंधों के प्रति ईमान और विश्वसनीयता यदि कहीं टूटी है तो इसकी पूरी जिम्मेदारी मेरी है।....मैने तुममें एक गैरमर्द या परपुरूष का एहसास नहीं किया था। मेरी मांसल इच्छाओं में मुझे केवल एक पुरूष चाहिए था। वहाँ तुम, अमल नहीं थे सिर्फ एक पुरूष भर थे मेरी मांसल कामनाओं की तृप्ति के लिए, मेरी उस प्यास के लिए।‘‘

‘‘ईमान और विश्वसनीयता के इस प्रश्न को इस वक्त छोड़ो।‘‘ अमल ने हँस कर जैसे इस असहज स्थिति से उबरने का प्रयास करते हुए कहा- ‘‘अभी तुम मुझे बहुत ही प्यारी लग रही हो।...काश! शिखर यहाँ होते और तुम्हें इस सिंदूर के आलोक में देखते....‘‘

‘‘वे जब भी रहे मेरे साथ लखनऊ में, मैंने कभी इस तरह सिंगार नहीं किया।‘‘ मोहिनी ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा- ‘‘छोड़ो इन बातों को मेरे जूड़े में यह गुलाब खोंस दो...।‘‘

अमल गुलाब का फूल उसके जूड़े में लगाने के लिए जैसे कुछ अंदर से हिचके। वह हाथ में फूल लिए कुछ सोचते रहे पलों तक। जैसे उनके आग्रही पुरूष का साहस कहीं अंदर से टूटता जा रहा था। मोहिनी ने मुड़ कर अमल की ओर देखा- ‘‘क्या हुआ, हाथ में फूल ले कर क्या सोचने लगे, जल्दी करो, तुम्हारे साथ अभी बाहर घूमने निकलूंगी। तुम्हें एक बहुत ही खूबसूरत झरने के पास ले चलूंगी।‘‘

अमल बिना कुछ सुने जैसे मोहिनी के जूड़े में फूल लगाने लगे। तभी मोहिनी ने एक अर्थ के साथ मुस्कुरा कर कहा- ‘‘अभी तुम्हारी छुअन से मेरे भीतर एक अजीब सा शोर होने लगा है।....शिखर का अनछुआ सा एहसास और तुम्हारी मोहक छुअन का एहसास...दोनों मुझे किसी द्वीप पर जैसे ठहरने नहीं दे रहे। मेरी मुट्ठियों से जैसे सब फिसलता जा रहा है। न तुम्हें पकड़ पा रही हूँ और न शिखर को।‘‘ मोहिनी की मुस्कुराहट जैसे एक अचानक हुए घुप्प अंधेरे में लोप हो गई है। वह इस पल तेज धारा में बहती हुई एक ऐसी निःसहाय नौका सी लगी है जिसके पास ढेर सारे लंगर हों लेकिन सब व्यर्थ हो चुके हों।‘‘

फिर मोहिनी ने कुछ सहज होते हुए कहा- ‘‘चलिए, बाहर निकलिए आज मोती के हाथ का बनाया हुआ खाना तुम्हें खाना पड़ेगा। बहुत कुछ उसे सिखला दिया है।‘‘

मोती को बहुत कुछ सिखला देने वाली बात उसने जैसे ढेर सारे अर्थों में कही हो, और फिर अमल उसके साथ बाहर निकल गए हैं...जैसे मोहिनी को अपने भीतर और बाहर साथ लेकर।

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