Kamnao ke Nasheman - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

कामनाओं के नशेमन - 10

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

10

‘‘भारत से एक सांस्कृतिक मंडल अमेरिका जा रहा है अगले दिसम्बर में। सितारवादन के लिए अमल को उस मंडल में शामिल किया गया है। सांस्कृतिक विभाग ने अमल से स्वीकृति मांगी है।‘‘ केशव नाथ जी ने बहुत ही उल्लासित लहजे में बताया। फिर बोले- ‘‘अमल को अपनी प्रतिभा दर्शाने के लिए यह बहुत ही सुनहरा मौका है। मुझे अमल पर पूरा विश्वास है कि वह विदेशों में भी अपनी धूम मचा देगा।‘‘

बेला एक भावातिरेक से केशव नाथ का चेहरा तकने लगी। उसकी आँखें ख़ुशी से भर आई थीं। फिर वह भरे गले से बोली थी- ‘‘मुझे याद पड़ता है कि शादी के बाद मैने अमल के सथ एक बडे ज्योतिष को अपना हाथ दिखाया था उसने कहा था तुम्हारे हाथों में विदेश जाने की रेखा है। तब मैने हँस कर कहा था कि पहले मैं पूरा भारत तो घूम लूं। वही बहुत होगा मेरे लिए। तब अमल ने टोकते हुए कहा था ‘‘यह भविष्वाणी सच भी हो सकती है। क्या पता कभी सितारवादन के लिए मुझे विदेश भी जाना पड़े। तब तुम भी तो साथ जाओगी।‘‘ फिर बेला ने थोड़ा उदास होते हुए कहा था- ‘‘लगता है वह विदेश जाने की रेखाएं मेरे हाथ से कट गई हैं। लेकिन में उनकी ही आँखों से विदेश देख लूंगी।‘‘

बेड पर पड़ी बेला में एक हताशा और खुशी साथ-साथ केशव नाथ जी ने महसूस की। वह फिर मुस्कुरा कर बोले-‘‘वह रेखाएं कहाँ कटी हैं। तू भी साथ जाएगी। वहाँ की दो लड़कियां मेरे यहाँ आई थीं। ये दोनों ने मुझे अमेरिका वापस जाते वक्त वहाँ आने के लिए आमंत्रित कर गई थीं। बड़ा अच्छा मौका हैं। तुम साथ चली जाओ और उनके पास ठहर जाना। वहाँ तुम्हारा इलाज भी अच्छी तरह हो जाएगा। वे सब तुम्हारा बहुत ख्याल रखेंगी।‘‘

तभी अमल चाय लेकर आ गए। सामने चाय की ट्रे रख कर बोले- ‘‘किसके बारे में कह रहे हैं?‘‘

‘‘ला, पहले तेरा हाथ इधर बढ़ा‘‘ केशव नाथ जी ने उसका हाथ पकड़ कर चूमते हुए कहा- ‘‘तेरी इन उंगलियों में ढेर सरा आशीर्वाद भरा पड़ा है। कुछ तेरी माँ का, कुछ मेरा और ढेर सारा बेला का।‘‘

‘‘मेरा क्या है बाबू जी, मेरा तो बस अभिशाप है। केवल अभिशाप।...मैं तो पत्थर की तरह इनके भविष्य से बंध गई हूँ।...इसे ही ढोने के लिए ये विवश हैं।‘‘

अमल बेला के पास आ कर उसके बेड पर उसके लिए चाय लाकर मुस्कुराते हुए बोले- ‘‘तुम अपने आप को पत्थर की तरह महसूस करती हो मैंने तो तुम्हें बेला के फूलों की तरह गमकते हुए पाया है। लो पहले मेरे हाथ की बनायी चाय पी लो। फिर हमेशा मेरे ही हाथ की चाय पियोगी‘‘ बेला अमल का चेहरा तकने लगी और फिर और फिर उसने शायद इस बात से उबरने के लिए अमल से कहा था- ‘‘पहले जा कर माला को चाय दे दो, वह आप ही की तरफ तक रही है।‘‘

केशव नाथ उठते हुए बोले- ‘‘मैं माला को चाय देता हूँ‘‘। माला उठते हुए बोली- ‘‘मैं वहीं आ रही हूँ। इतनी बीमार नहीं हूँ कि आप चाय मेरे लिए यहाँ लाएं।‘‘ इस बात पर अचानक बेला बोल पड़ी- ‘‘अरे ईश्वर न करे तू मेरी तरह बेकार हो जाए। खाट से लगी रहे। आ मेरे पास, यहाँ बैठ कर चाय पी।‘‘ माला शायद बेला के इस मर्म से कहीं अंदर ही अंदर आहत हुई थी या फिर जैसे उससे अनजाने में कहीं कहने में भूल हो गई थी। इस एहसास से वह एकाएक चुप लगा गई थी। वह पास आ कर बेला का चेहरा निहारती खड़ी रही एक निष्कलुष अभियुक्त की तरह। अमल ने माला की तरफ चाय की प्याली बढ़ाते हुए कहा- ‘‘यहीं, सिरहाने बैठ कर चाय पी तभी तेरी माँ को सुकून मिलेगा।‘‘ फिर माला कुछ नहीं बोली और चुपचाप प्याली लेकर वहीं बेला के सिरहाने बैठ गई। चाय पीते-पीते केशव नाथ जी ने अमल से कहा- ‘‘इस पत्र का उत्तर कल ही भेज दो। उन लोगों को स्वीकृति मिलेगी तभी वहाँ जाने के लिए वीसा तैयार होने में जल्दी हो पाएगी। शायद तुम्हें दिल्ली भी एक दो बार जाना पड़े। वहाँ यह भी पता करना कि क्या अपनी पत्नी को साथ ले जाने की अनुमति मिलेगी? यदि ऐसा होगा तो बेला भी तेरे साथ जाएगी। वहाँ इसका अच्छा इलाज भी हो जएगा। मेरी दो शिष्याएं वहीं की हैं। उनका पता ढूंढ़ कर उनको पत्र लिखता हूँ, वे पूरा इंतजाम करवा देंगी।‘‘

अमल केशव नाथ जी के उत्साहित चेहरे को देखते हुए बहुत दबे स्वर में बोले- ‘‘अभी जाने के बारे में कुछ नहीं सोचा है बाबू जी।‘‘

‘‘क्यों, साथ में मुझे ढोना पड़ेगा वहाँ इसीलिए मन नहीं बना पा रहे हो?‘‘ बेला ने एक फीकी मुस्कुराहट के साथ पूछा। इस बात पर अमल चीख पड़े और बोले- ‘‘तुम्हें हमेशा यह क्यों लगता रहता है कि मैं तुम्हें ढो रहा हूँ। तुम्हारे इस तरह बार-बार कहने से मेरे समर्पित मन को कितनी ठेस लगती है। कभी तुमने इसका एहसास किया?‘‘

‘‘तुम्हारे समर्पित मन का एहसास ही मुझे हमेशा तोड़ता रहता है। तुम मुझे सिर्फ देते ही रहते हो...मुझसे पाते क्या हो? तुम्हे कुछ न दे पाने की मेरी असमर्थता की पीड़ा को तुम समझते हो?...न दे पाने की असर्मथता एक स्त्री को अंदर तक तोड़ जाती है। उसे बहुत ही असहाय बना डालती है।‘‘ कहते हुए वह रो पड़ी। केशव नाथ चाय की प्याली को छोड़ कर बेला के पास सिरहाने बैठते हुए बोले- ‘‘इन संबंधों में देने और पाने का सवाल ही कहाँ उठता है बेला। यहाँ तो पूरी ईमानदारी से जिया जाता है। बेकार ही तुम अपने आपको देने और पाने के सवाल से दुःखी हो रही हो।‘‘

‘‘तो इन्होंने क्यों कहा कि अभी जाने के बारे में सोचा नहीं है।‘‘ बेला ने सिंसकते हुए कहा। केशव नाथ जी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए हँस कर कहा- ‘‘तू निरीह बच्ची है। अमल के कहने से क्या होता है। मैं भेजूंगा इसे।‘‘

‘‘हाँ बाबू जी, इन्हें जाना ही होगा। इनके न जाने से मेरी अस्मिता डूब जाएगी। मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाऊँगी।‘‘ वह संयत होते हुए बोली। फिर अमल ने हँस कर बेला को ढांढ़स देने की गरज से कहा- ‘‘मैंने ये तो नहीं कहा कि मैं नहीं जाऊँगा। सिर्फ इतना ही तो कहा था कि अभी सोचा नहीं है।‘‘

‘‘मैं तुम्हारे मन को खूब समझती हूँ। अगर मैं पूरी तरह ठीक होती तो पहले यही लिफाफा मेरे हाथ में थमाते हुए कहते कि बेला अमेरिका जा रहा हूँ तुम्हें लेकर।‘‘ अमल एक अभियुक्त की तरह बेला का चेहरा तकते भर रह गए हैं। फिर तभी केशव नाथ जी ने बेला के मर्म की यथार्थता को जैसे महसूस करते हुए अमल से कहा- ‘‘बेला बिल्कुल ठीक कह रही है। जा लिफाफा लेकर आ और उसे प्यार से देते हुए बोल कि मैं अमेरिका जा रहा हूँ...‘‘

‘‘शब्द और स्वर में तालमेल बैठा के कैसे बोल पाएंगे मुझे लिफाफा देते हुए कि अमेरिका जा रहा हूँ।‘‘ फिर वह केशव नाथ जी की तरफ देखते हुए बोली- ‘‘बच्चों की तरह मुझे मत बहलाओ बाबू जी...। मेरी इस मजबूरी को स्वीकारिए...न तो मैं इनके एहसास को काट पऊँगी और न ही अपने एहसास को.....।‘‘

फिर अमल ने निरूत्तर हँसते हुए कहा- ‘‘चाय पी लो पहले बहुत मन से बना कर लया हूँ...ठंडी हो जाएगी।‘‘

‘‘लाओ...‘‘ बेला ने हँस कर कहा- ‘‘कभी-कभी चाय जैसे छोटे मूल्य भी बड़े मूल्यों को काट पाने में सफल हो जाते हैं।‘‘ फिर एक अजीब सा सन्नाटा तन आया था। जैसे ढेर सारे शब्द रहते हुए भी चुके से लग रहे थे। ऐसी स्थिति बेहद विस्फोटक सी महसूस होती है। तभी माला शायद इन सब अर्थों से अनजान सी बोल पड़ी- ‘‘छोटे बाबू जी मुझे भी अमेरिका ले चलिए मैं भी घूम आऊँगी।‘‘

‘‘तू कहाँ जाएगी रे मुझे छोड़ कर।‘‘ बेला ने भी जैसे बातों की दिशा बदलते हुए कहा- ‘‘इस घर की तू एक वह सांस है जिसे लेकर यह घर जीवित है। तू ही वह ओस की बूंद है जिसे न तो तेरे छोटे बाबू ही छोड़ पाएंगे और न मैं ही...‘‘

‘‘अरे बेला मुझे भी इस लिस्ट में शामिल कर लो।‘‘ केशव नाथ जी ने इस हल्की सी बात को गंभीरता से लेते हुए हँस कर कहा। फिर बोले- ‘‘यही तो एक छोटी सी दीवार है जो हम सबको टिकाए हुए है।

/////////

दूसरे दिन बहुत ही सुबह-सुबह ही माला चाय बना कर ले आई। अभी सब सो ही रहे थे। उसने पहले जाकर केशव नाथ जी को जगाया फिर अमल और बेला को। बेला ने सामने चाय की ट्रे देख कर खीझते हुए कहा- ‘‘दो एक दिन आराम कर लेती। फिर तो तेरे हाथ की चाय पीनी ही थी।‘‘

माला ने बड़ी खूबसुरती से बातों को घुमाते हुए हँस कर कहा- ‘‘माँ जी, दो तीन दिनों से चाय मुझे अच्छी नहीं मिली। मुझे अपने ही हाथों की बनी चाय पसंद है।‘‘ माला में जो एक सेवा भाव छिपा पड़ा था, वह अभी जैसे फूट पड़ा है। जिस सेवा में गहरी अंतरिकता भी भरी होती है वह मन को चुंबक की तरह बांध लेती है। उसका बस इतना स्वार्थ था कि वह बिना माँ-बाप की बेटी थी इसलिए उसे अपनत्व चाहिए था। वो उसे यहाँ भरपूर मिल रहा था। पिछले दो वर्षों में जबसे उसे केशव नाथ जी के एक मित्र पहुँचा गए हैं, तबसे वह इस घर का अपरिहार्य अंग बन गई है। यदि वो एक पल भी न रहे तो जैसे इस घर की धड़कनें बंद हो जाएंगी।

केशव नाथ जी भी अमल के कमरे में चाय पीने आ गए हैं। अमल के बेड के पास कुर्सी पर बैठ चाय पीने लगे हैं। माला ने बेला को सहारा देकर उठाया है और तकिए के सहारे टिका कर उसे चाय पिलाने लगी है। चाय की घूंट लेते हुए बेला ने मुस्कुरा कर कहा- ‘‘आज जा कर अच्छी चाय मिली है। बाबू जी और तेरे छोटे बाबू चाय बनाना क्या जानें....।‘‘

‘‘इस पर छोटे बाबू मेरे लिए पचमढ़ी दूल्हा ढूंढ़ने गए थे।....यहाँ से चली जाऊँगी तो सब अच्छी चाय के लिए तरस जाएंगे।‘‘ माला ने एक मासूम गर्व से कहा। बेला ने उसकी आँखों में मासूम से गर्व को जिसमें बहुत अपनत्व भरा हुआ था, उसमें झांकते हुए कातर स्वरों में कहा- ‘‘आज न सही, लेकिन तुझे एक न एक दिन तो जाना ही पड़ेगा इस घर से दूल्हे के साथ हम लोगों को छोड़ कर। कभी-कभी तेरे इस अभाव की कल्पना से ही मन कांप उठता है। तू इस तरह मेरा हाथ-पांव बन गई है कि तुझे छोड़ने के ख्याल से ही मैं खुद को पूरी तरह अपंग महसूस करने लगती हूँ।‘‘

‘‘मुझे जब आप लोग घर से निकालेंगे तभी इस घर से आपको छोड़ कर जाऊँगी।‘‘ माला ने कुछ ताने के लहजे में कहा। तभी बाहर लान में लूसी जोरों से भौंकने लगा। हठात् सबके सब चुप हो गए। बेला ने माला से कहा ‘‘जा बाहर देख, इतनी सुबह कौन आ गया।‘‘

माला चाय छोड़ कर बाहर चली गई। थोड़ी देर बाद आई तो बहुत ही चहकती आवाज में बोली- ‘‘गांव से मेरे चाचा आए हैं। कहते हैं बहुत मुश्किल से उन्हें मेरा पता मिला।‘‘

अमल कुछ देर चुप रहे फिर बोले- ‘‘आज दो साल बाद तेरे चाचा आए हैं इतने दिनों से तो कोई नहीं आया था।‘‘

‘‘क्या मलूम..., जब मेरे बापू मरे थे तब आए थे माँ को गांव ले जा रहे थे लेकिन वह नहीं गई। फिर उनके मरने के बाद कोई नहीं आया था। पता चला होगा हाल चाल लेने आए होंगे।‘‘ माला ने बहुत ही सहज भाव से कहा। सभी के चेहरे पर एक अजीब सी सहम जैसे तिर आई थी। वे सारे मासूम माला के चेहरे पर चाचा के गांव से आने की चहक देखने लगे थे। बेला ने उसी सहम से माला से लड़खड़ाती आवाज में कहा ‘‘जा, उन्हें चाय बना कर दे आ‘‘

माला चाय बनाने किचेन में चली गई। केशव नाथ जी ने अमल से कहा- ‘‘बाहर जा कर देखो, माला का चाचा यहाँ किस लिए आया है?‘‘

अमल चुपचाप एक कुतुहल लिए बाहर चले गए। थोड़ी देर बाद जब वे वापस आए तो उनके चेहरे पर अजीब सा तनाव था। केशव नाथ और बेला सभी जैसे अमल के चेहरे पर आए भावों को चुपचाप पढ़ लेना चाह रहे थे। अमल अपनी कुर्सी पर बैठते हुए एक फीकी हँसी के साथ बाले- ‘‘...पराए लोग पराए ही होते हैं। उन पर अपना अधिकार रखना मन को कभी भी ठेस पहुँचा सकता है। ऐसे अधिकार प्रायः तिनकों की तरह होते हैं।...क्या पता कब टूट जाएं। ‘‘

‘‘क्या बात हुई, उसके चाचा ने क्या कहा?‘‘ बेला ने सहम के साथ पूछा। उसे अब जा कर मालूम हुआ कि माला की माँ मर गई है। दो सालों बाद। वह गांव से उसे लिवाने आया है। कह रहा है माला की चाची मर गई है, घर में कोई गृहस्थी चलाने वाला नहीं है।‘‘ केशव नाथ जी बेला का चेहरा देखते भर रह गए। एक अजीब सी खामोशी पकने लगी थी। ढेर सारे अर्थों को उबालते हुए। बेला ने बहुत अश्वस्त भाव से कहा- ‘‘माला अभी अपने चाचा के गांव से आने से जरूर खुश हुई है। लेकिन वह यहाँ से जाने के लिए तैयार नहीं होगी शायद।...वह हम लोगों को छोड़ नहीं पाएगी।‘‘

जैसे कोई टिकने वाली दीवार ढह रही हो और उसे ढहते हुए देखते रहने के सिवा जैसे कोई और विकल्प न हो सिवाए निरीह आँखों से देखते रह जाने के। तब मन अजीब मनोदशा में डूबने उतराने लगता है। अभी शायद बेला की आँखों में कुछ ऐसे ही डूबने और उतराने के भाव झलकने लगे थे। कुछ क्षणों तक सोचने के बाद केशव नाथ जी ने जैसे किसी निर्णय पर पहुँचते हुए कहा- ‘‘हम माला को जाने से मना नहीं कर पाएंगे। उसका चाचा अगर लिवा ले जाना चाहता है तो लिवा ले जाए। हम लोग कहीं न कहीं अंदर एक स्वार्थ पाले हुए हैं माला को लेकर। भले ही वह बहुत गहरे जुड़ गई हो इस घर से लेकिन इस सच से तो इंकार भी नहीं किया जा सकता।‘‘

सभी अवाक् से केशव नाथ जी का चेहरा तकते रह गए हैं। जैसे उनके अंदर का धुंधला सा स्वार्थ अभी किसी साफ सुथरे शीशे की तरह हठात् चमक आया है। फिर वे दोनों जैसे कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं पहुँच पाए थे। तभी माला चाय लेकर आई। सब उसकी आँखों में भरी चहक को ताकने लगे थे चुपचाप। वह लोगों की चुप्पी पे थोड़ा ठिठकी लेकिन फिर अपनी धुन में वह चाय लेकर बाहर अपने चाचा के पास चली गई। थोड़ी देर में जब वह वापस आई तो बहुत सहज भाव में बोली- ‘‘मेरी चाची मर गई है। एक बार गांव गई थी लेकिन उनकी याद नहीं है।‘‘ केशव नाथ जी ने बहुत कुछ अंदर दबाते हुए मुस्कुरा कर कहा- ‘‘इस मुंम्बई से कहीं प्यारी जगह होती है गांव। जा एक बार और गांव देख आ अपने चाचा के साथ। वहाँ तुझे अच्छा लगेगा।‘‘

माला केशव नाथ जी का चेहरा और फिर कभी बेला और मानस का चेहरा जैसे किसी नयी घटित आशंका से तकने लगी थी। चुपचाप। फिर धीमे स्वर में कहा था- ‘‘मैं गांव-वांव नहीं जाऊँगी बाबूजी। यहाँ माँ जी के पास कौन रहेगा।‘‘ फिर उसने रूआंसे स्वर में पूछा- ‘‘क्या मुझसे कोई गलती हो गई है या फिर जो दो तीन दिन काम नहीं किया इसलिए नाराज होकर मुझे चाचा के घर भेज रहे हैं...। मैं तो आप लोगों से कोई तन्ख्वाह भी नहीं लेती कभी। बस यह घर बहुत अच्छा लगता था इसलिए यहाँ रहती हूँ अपने मन से ही...।‘‘

तभी बेला ने बहुत ही भरे गले से उसे करीब बुलाते हुए कहा- ‘‘इधर आ मेरे पास‘‘ वह किसी शून्य की तरह आकर डबडबाई आँखों के साथ बेला के बेड के पास खड़ी हो गई- ‘‘बेला ने उसके सिर पे हाथ फेरते हुए कहा- ‘‘जा, गांव हो आ। तेरी चाची मर गई हैं। तुझे जाना चाहिए। फिर तेरे छोटे बाबू खुद जा कर तुझे गांव से ले आएंगे। जब आना होगा फोन कर देना...‘‘ फिर अमल की तरफ देखते हुए बोली- ‘‘इसे अपना मोबाईल नंबर नोट करके दे दो।‘‘ माला कुछ क्षण तक सन्न सी चुपचखप खड़ी रह गई फिर एक विस्फोटक ढंग से चीखती बोली- ‘‘मुझे गांव भेज देंगी तो आपको मालूम पड़ जाएगा। अपने से तो एक काम होता नहीं। हर बात के लिए माला...माला करती रहती हैं। नहीं पास रहूँगी मैं तो एक दिन में ही पता चल जाएगा।‘‘

अभी जिस अधिकार से माला ने यह ताना मारा था, बेला अंदर तक हिल गई थी। वह उसकी निश्छल और मासूम डबडबाई आँखों में तिरे उस अधिकार को जैसे सह नहीं पा रही थी। वह फूट-फूट कर रो पड़ी। फिर वह रोते-रोते बोली- ‘‘सभी तो यहाँ मुझे छूटते से लग रहे हैं। सब अलग-अलग दूर जाते हुए महसूस हो रहे हैं। तू ही चली गई तो इससे मुझमें सहने का अभ्यास तो हो जाएगा। मन को मजबूत बनना तो सीख लूंगी।‘‘

कभी तेज हवाओं में जिस तरह पानी के छोटे-छोटे कण जैसे इधर-उधर बिखरने लगते हैं शायद अभी बेला के अंदर की बहुत ही उष्म छींटें केशव नाथ और अमल पर बिखर कर पड़ने लगी हैं। बेला की इस बात ने एक अजीब सी अभियुक्तता का सा भाव अमल के चेहरे पर उभार दिया था। वह बेला की आँखों में इस तरह की उपजी आशंका को न तो मिटा पाने में अपने को समर्थ पा रहे थे और न तो उसे स्वीकार पा रहे थे। जब कभी ऐसी आशंकाएं बिल्कुल निर्मूल होते हुए भी जड़ बनने लगें तो मन कैसा-कैसा होने लगता है। तभी बेला की तरफ अमल बहुत ही कातर भाव से देखते हुए बोले- ‘‘कोई जरूरी तो नहीं है कि माला गांव जाए ही।‘‘

‘‘नहीं, वह तो जाएगी ही।‘‘ बेला ने एक ठोस निर्णय सुनाते हुए कहा-‘‘ केवल अपने स्वर्थ के लिए हम उसे रोक नहीं सकते। बाबू जी ठीक कह रहे हैं। उसका अपना भी तो एक भविष्य है। गांव में रहेगी तो उसके चाचा उसकी शादी ब्याह की भी बात कहीं कर सकते हैं। कितने दिनों तक हम उसे अपने स्वार्थ से भरे प्यार में बांध कर रख पाएंगे‘‘

//////////