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एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 4

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 4

4 आज के परिवेश में गंगा मैया


हमारे देश में एक जनश्रुति प्रचलित है कि यदि प्राणी के अन्तिम समय में प्राण निकलते समय गंगाजल की एक बूँद उसके कण्ठ में पहुँच जाये तो निश्चय ही उसका कल्याण होजाता है। मैं इसी सोच में था कि वर्ष अगस्त 1996 ई0 के श्रावण मास में बद्रीनाथ धाम की तीर्थ यात्रा करने की योजना बनाने लगा। वर्षात के मौसम में हिमालय की यात्रा करने की सभी एक स्वर से मना कर रहे थे किन्तु मुझे चैन नहीं आ रहा था। लग रहा था कैसे उड़कर इन तीर्थें में पहुँच जाउँ। दिन-रात बद्रीनाथ धाम की यात्रा चित्त में हिलोरें लेने लगी। पिताजी से यात्रा पर चलने का निवेदन किया। वे बोले-‘मेरा स्वाथ्य चलने लायक नहीं है। मेरे घुटने बहुत दर्द करते हैं। अपनी माँ को ही लिये जाओ।’

पिता जी की यह बात मुझे यात्रा की दृष्टि से ठीक लगी। अतः मैं अपनी माँ जी कलावती तिवारी, पत्नी एवं पत्नी की बड़ी बहन रामदेवी पटसारिया के साथ यात्रा के लिये उत्कल एक्सप्रेस से रवाना हो गया। मुझे बंधकर यात्रा करना रास नहीं आ रहा थ। मैं यात्रा अपनी तरह से करना चाहता था। ट्रेन से उतर कर रात कालीकमली वालों की धर्मशाला में जाकर ठहर गयेे। सुवह ही हरि की पौड़ी पर स्नान किया फिर हरिद्वार भ्रमण क लियेे निकल पड़े। एक ओटो से दिन भर में सारा हरिद्वार घूम लिये। हर रोज शाम को खाना बनाने की योजना घर से ही बना कर चले थे इसीलिये एक स्टोव साथ ले लिया था। मिटटी के तेल की व्यवस्था घर्मशाल के पास में ही हो गई। आराम से खाना बना। खा-पी कर सो गये। दूसरे दिन ऋषिकेश के लिये निकल पड़े। किसी दुकान पर सामान रखकर दोपहर तक ऋषिकेश घूम लिये। दोपहर बाद नील कंठेष्वर के लिये निकल गये। मौसम ऐसा था कि भीड़ का नाम नहीं था। आराम से नील कंठेष्वर के दर्शन कर आये। यमनोत्री के लिये सुवह ही बस थी अतः बस पकडने की द्रष्टि से बस स्अेन्ड के आसपास ठहरने की जगह तलाशी, नहीं जमी। इसलिये शाम एक होटल में खाना खाया और बस स्अेन्ड के रेस्ट हाऊस में ही अपनी-अपनी दरीं विछाकर लेट गये। हम चारों में से एक जागता रहा। यों रात व्यतीत की। सुवह ही बस लग गई। टिकिट शाम को ही ले लिया था। अतः आगे की सीटें मिल गई थी। ठीक समय पर बस ने प्रस्थान किया। पमुनोत्री ऋषिकेश से 248 किलोमीटर दूर है। पहाड़ की चढ़ाई यहीं से शुरू हो गई। सवारी बैठात-छोड़ते हुये करीव बारह बजे धारसू पर बस जाकर रुकी। यह स्थल ऋषिकेश से 99 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ चाय-पानी की दृष्टि से बस से नीचे उतर गये। चाय नास्ते के बाद आकर पुनः अपनी सीट पर बैठ गये। बस चल दी। प्रकृति का आनन्द लेते हुये आगे बढते रहे। इस दैनिक बस से यह लाभ रहा कि यहाँ के जन-जीवन के साक्षत दर्शन होते चल रहे थे। बस ने शाम के छह बजे हनुमान चटटी पर उतारा। उन दिनों बसें यही तक जाती थीं। उस समय में तो यहाँ से पैदल और घोड़े से ही विकल्प था, अब तो यहाँ से पाँच-छह किलोमीटर जीपें चलने लगीं हैं। उन दिनों हमें हनुमान चटटी पर कमरा किराये पर लेना पड़ था। रात का खाना बनाने की व्यवस्था हो गई तो खाना खा-पी कर रात आराम से सोये। सुवह ही पैदल जानकी चटटी के लिये निकल पड़े। वर्षात का मौसम था, यमुना अपने तीव्र बहाव पर थी। एक स्थान पर सड़क ऐसी कट गई कि हम यमुना में गिरने के डर से एक दूसरे का हाथ पकड़कर कठिनता से निकल पाये। ग्यारह बजे तक जानकी चटटी पहुँच पाये। यहाँ से चढ़ाई शुरू होना थी। तत्काल चड़ाई शुरू कर दी। छह-सात किलोमीटर की दूरी पार करने में माताजी के साथ चार घन्टे लग गये। यों तीन बजे हम यमनोत्री पहुँच गये। पहले गर्म कुण्ड में स्नान किया। साथ ले गये बाँटने के लिये चावल वहाँ से निकल रहे अधिक गर्मजल में पकाये। इसके बाद यमनोत्री मैया के भक्ति भाव से दर्शन किये और लौट पड़े। नाचे आने में दो ही घन्टे लगे। दिन अस्त हो गया। थक भी गये थे। रात के समय खराव रास्ता होने के कारण हनुमान चटटी तक पहुँचना सम्भव नहीं था। इसलिये जानकी चटटी पर ही एक होटल में कमरा बुक कर लिया। वही होटल में खाना खाया। थके थे, इसलिये गहरी नींद में सोये। भोर होते ही निवृत होकर चल दिये। उस कटाव को पुनः राम राम कह कर पार कर पाये। आठ बजे हनुमान चटटी पहुँच गये। पता चला बस शीध्र जाने वाली है अतः होटल से सामान उठाया और गंगोत्री के लिये बस पकड़ ली। बस ने धारसू होते हुये रात होने से पहले उत्तर काशी पहुँचा दिया। वहाँ एक होटल में रुकना पड़ा। सुवह ही उसी बस से दोपहर तक गंगोत्री पहुँच गये। यहाँ तीन-चार दिन का पड़ाव डाल लिया। सुवह-शाम गंगोत्री मैया के दर्शन रात की आरती का आनन्द लेकर माता जी को तृप्त करने का प्रयास करने लगा। वहाँ से गौमुख जाकर गंगाजल भरकर लाने की धुन सबार होगई। परमहंस गौरीशंकर बाबा के भरोसे दिन उगने से पहले गौमुख के लिये निकल पड़ा। साथ में पत्नी की बड़ी बहन रामदेवी भी चल पड़ीं। रास्ते में उत्तरकाशी के कुछ लड़के और मिल गये। वे भी उत्तरकाशी के काशी विश्वनाथ का अभिषेक करने गंगाजल लेने गोमुख जारहे थे। दिन के एक बजे हम गोमुख पहुँच गये। गोमुख पर स्नान के बाद परमहंस गौरीशंकर बाबा से गंगाजल भरने की प्रार्थना की। यों गंगाजल का पात्र परमहंस गौरीशंकर बाबा के नाम से भरकर रात्रि आठ बजे तक गंगोत्री मैया की आरती में आकर सम्मिलित होगये। अड़तीस किलो मीटर की कठिन यात्रा के बाद गंगामैया की कृपा से मैं अपने को हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था।

इसके सुवह वहाँ से चलने की तैयारी करली। एक बार गंगोत्री मैया के दर्शन और कर लिये जावे। मुझे मुख्य गेट के पहले एक होटल से कुछ लड़के सिर पर पटअी बाँधे आवाज देने लगे-‘ अंकल-अंकल।’

मैंने सोचा यहाँ मुझे आवाज देने वाला कौन हो सकता है! इसलिये आगे बढ़ गया। कल गोमुख साथ गये लडके सामने आ गये। बोले -‘अंकल भूल गये।’ मैं उन्हें पहचान गया । मैंने कहा -‘तुम सबके ये पटिटयाँ कैसे बंधी हैं?’

एक बोला-‘कल दिन अस्त होने को था। हम लोग चाय पीने बैठ गये। आप से कह दिया , आप लोग चलें, हम जल्दी चल लेंगे और आपको आ लेगें। आप लोग चले आये। हम ने चाय पी और बीस मिनिट बाद ही बहाँ से चल पड़े। हम आगे बढ़े कि एक सूखा पहाड़ खिसका। उसके पत्थरों से हम लोग बुरी तरह घायल हो गये। हम जहाँ चाय पी रहे थे। वही लौट गाये। ये मल्लम पटटी कराईं। रात वही ठहरे रहे। सुवह अभी अभी चले आ रहे हैं तो आप दिख गये।’

मैंने मन ही मन कहा कि वाह प्रभु हमें बचाना था तो हम जल्दी-जल्दी चल कर चलते चले आये। और गंगोत्री मैया की आरती में आकर सम्मिलित हो गये। बड़ी देर तक वे लड़के बातें करते रहे। उसके बाद हम गंगोत्री मैया के दर्शन करके लौट आये। होटल से सामान उठाया और केदारनाथ के लिये चलने वाली दैनिक बस पकड ली। बस सवारी बैठाते-उतारते धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही। इस पूरे क्षेत्र की यह विशेषता है कि रात में बसें इत्यादि नहीं चलतीं। दिन डूबने के बाद बस श्री नगर बस्ती में आकर ठहर गई।

कन्डेक्टर ने सभी यात्रियों को एक हाल में ठहरा दिया। उसने सुवह अपने चलने का समय भी बतला दिया। खाना बनाने की व्यवस्था हमारे साथ ही थी। सभी यात्री खाना बनाने की तैयारी में जुट गये। रामदेवा बहनजी एवं माता जी के सहयोग से श्रीमती जी ने भी खाना बना लिया। दिन भर के भूखे थे। खा-पीकर वही आराम से सो गये। सुवह उसी बस से फिर यात्रा शुरू हो गई। दिन ढ़ले तक उसने हमें गौरी कुण्ड पहुँचा दिया। ठहरने की व्यवस्था तो कर ली किन्तु कमरा अच्छा नहीं मिला। साफ-सफाई भी ठीक नहीं थी। इस तरह पूरी यात्रा में यहाँ रहने की अच्छी व्यवस्था नहीं हो पाई। खाना बनाने का क्रम चलता रहा। दूसरे दिन भोर ही पैदल केदारनाथ के लिये निकल पड़े। थोड़ा आगे बढ़े कि माता जी चढ़ाई से हार मान गईं। मुझे उनके लिये घोड़े की व्यवस्था करना पड़ी। घोड़े वाला हमारे साथ ही उन्हें लेकर चलने लगा। वह कुछ आगे निकल जाता तो आगे रुक जाता। हम भी स्वास फुल जाती तो बैठकर रह जाते। इस तरह हम कठिन चड़ाई चढ़ कर केदारनाथ पहुँच गये। ग्वालियर के पण्डा जी के यहाँ जाकर ठहर गये। सर्दी से बचने उन्होंने रजाई- गददे दे दीं

। चाय आ गई। पण्डा जी साथ जाकर केदारनाथ के दर्शन करा लाये। रात्री के समय केदारनाथ की आरती का आनन्द लिया। रात्री का भोजन भी पण्डा जी ने ही कराया। सुवह चाय के बाद स्नान करने गर्म पानी की व्यवस्था करदी। इस तरह पण्डा जी की सेवा भावना को हम जीवन भर नहीं भूल पायेंगे।

सुवह ही वहाँ से बापस निकल पड़े। उतार पर फिसलन के डर से माता जी को मैं पकड़े रहा। इस तरह दोपहर तक हम गौरी कुण्ड लौट आये। हारे-थके थे इसलिये आराम करते रहे। दूसरे दिन त्रियुगी नारायण के दर्शन की योजना बनी। माताजी के कारण पत्नी का जाना सम्भव नहीं हुआ। मैं और रामदेवी बहन जी बस से त्रियुगी नारायण के लिये चल दिये। बस ने पहाड़ से नीचे उतार दिया। वहाँ से पैदल ही हम लोग त्रियुगी नारायण पहुँच गये।

यहाँ ही शंकर पार्वती जी का विवाह हुआ था। प्रमाण के लिये तभी से वहाँ सतत धूनी जल रही है। वहाँ भी हमारे पण्ड़ा जी मिल गये। उन्होंने त्रियुगी नारायण के दर्शन के बाद हमारे पिताजी के बाबा श्री हरप्रसाद तिवारी के आने के प्रमाण दिखाये। मैंने पण्डा जी के कहने से उस धूनी में पत्रं पुष्पम् अर्पित करके समिधायें अर्पित की। अपने घर के सभी के नाम उन्हें नोट कराये। उन्हें दक्षिणा देकर संन्तुष्ट किया। पहाड़ से नीचे उतरे और बस पकड़ कर गौरी कुण्ड लौट आये। इस तरह चौथे दिन सुवह ही दिन उगने से पहले बस से बद्रीनाथ धाम के लिये निकल पड़े। वर्षात हो ही रही थी। जब जब पहाड़ से पत्थर गिरते , हम सहम जाते। कभी कभी तो बस के लिये रास्ता बनाने के लिये पत्थरों को सड़क से हम सब बस के यात्रियों को हटाना पड़ता तब कहीं बस निकल पाती। ऐसी कठिन परिस्थितियों में यात्रा चलती रही। दोपहर जोशीमठ के दर्शन किये। यहाँ सर्दी के मौसम में बद्रीश भगवान विश्राम करने के लिये आ आते हैं। हम सिखों का पवित्र तीर्थ हेमकुण्ड साहब के निकट से निकलकर उसी दिन बद्रीनाथ धाम पहुँच गये। पण्डा जी का आदमी बस स्टेन्ड पर ही मिल गया। इससे उनको तलाश ने में परेशानी नहीं हुई। आराम से जाकर उन्हीं के यहाँ ठहर गये। जाकर बर्द्रीश के दर्शन करने पहुँच गये।

अब हम समुद्रतल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर खड़े थे। यहाँ की उपस्थिति अलग ही अहसास करा रही थी। प्रभु ने प्रकृतिक सुन्दरता मुक्त हाथों से विखेरी है। इतनी ऊंचाई पर यह मन्दिर भारतीय संस्कृति की जड़ें मजबूती से पकडें हैं। कुछ मित्र यहाँ स्थित मूर्ति को भगवान वुद्ध की मानते हैं। मैं देख रहा था भगवान वुद्ध की मुर्ति चार भुजाओं वाली, कल्पना से परै लगी। यह तो निश्चय ही विष्णु भगवान की प्रतिमा है। यह पद्मासन में है। इसी मन्दिर में बद्रीनाथ की दाहिनी ओर गणेश जी ,कुबेर की मूर्ति है। उनके दाई तरफ नारायण एवं नर की मूर्तियाँ है। उनके सामने उद्धव जी की मूर्ति है। बद्रीनारायण के सामने चरण पादुका हैं। उनके बाईं ओर गरुण जी खड़े हैं। मन्दिर में ही उत्सव मूर्ति है जो शीतकाल में जोशीमठ ले जाई जाती है। उन्हें तपस्वी वेश में देखकर सोचने लगा। ये सभी देव किस की तपस्या कर रहे हैं। इसका अर्थ है ये जिसकी तपस्या कर रहे हैं वह इनका इष्ट है। हम भी उसी इष्ट की आराधना करना चाहिए। एक ब्रह्म की कल्पना साकार हो गई। नर नारायण अर्थात् कृष्ण और अर्जुन भी यहाँ उसी परबह्म की आराधना की है। भगवान शंकर भी किसी अन्य की आराधना करते हैं। कौन है वह जिसकी वे आराधना करते हैं। यानी कोई दूसरा ही है। कौन देव है वह? निश्चय ही कण- कण में व्याप्त जो जड-़ चेतन में समाया है हमारे सभी देव उसी की आराधना करते हैं। हम इधर -उधर क्यों भाग रहे हैं हमें भी उन्हीं का स्मरण करना चाहिए। इन्हीं विचारों को आत्मसात करते हुए मुझे अपने उद्गम स्थल परब्रह्म की याद करके रोना आगया। मुझे उनके दर्शन करते समय जाने क्यों रोना आता रहा। उनसे पुनः बुलाने का आग्रह करने लगा।

दूसरे दिन व्यास गुफा और गणेश गुफा के दर्शन कर आये। तीसरे दिन दर्शन करके बापस लौट पड़े। रुद्र प्रयाग आते आते शाम हो गई तो रुद्र प्रयाग के एक होटल में रुक गये। उस दिन श्रीमती जी ने ऐसी स्वादिष्ट खिचड़ी बनाई कि उसे आज तक नहीं भूल पा रहा हूँ। सुवह ही उसी बस से आगे बढ़े। करीब दस-बारह किलोमीटर आगे जाने पर पहाड़ गिरने से मार्ग अवरुद्ध हो गया। बस बाले ने उनके नियमानुसार हमारा शेष किराया बापस कर दिया। हम उस स्थान को कैसे भी पार करने की सोचने लगे। एक गाइड़ मिल गया। उसने भू स्खलन के पार पहुँचाने का जुम्मा ले लिया। उसने हमारा सामान सहित पार कराने के 250 रुपये मांगे। मैं तैयार हो गया। उसने हमारे बैग ले लिये। कुछ सामान अपने सिर पर रख लिया। हम उसके पीछे-पीछे चल दिये। वह पहले सड़क से नीचे उतरा। वह नदी के किनारे किनारे दो किलोमीटर तक वढ़ता गया। जब भूस्खलन की जगह पार हो गई । वह अपने पहचाने मार्ग से ऊपर चढ़कर हमें सड़क पर पहुँचा दिया। यदि हम उसका सहारा न लेते तो तीन दिन तक वहीं डला रहना पड़ता।

हमने पार पहुँच कर राहत की सांस ली। उधर की बसें उधर ही लौट पड़ीं थीं। हम एक बस में सवार हो गये। आठ बजे के करीव बस ने हमें ऋषिकेश उतारा। रात के समय बमुष्किल एक मन्दिर में ठहरने की जगह मिली।

इस तरह दूसरे दिन हरिद्वार से ट्रेन पकड़कर विन्द्रावन की यात्रा करते हुये इक्कीस दिन में घर लौट आये। उसी दिन पुत्र राजेन्द्र ने कहा‘ पापा जी आपकी यात्रा अधूरी रही।’

मैंने आत्मविष्वास व्यक्त करते हुये कहा-‘ ऐसे कैसे कहते हो, मैं गौमुख से जल लेकर आया हूँ। सभी जगह के दर्शन किये हैं फिर मेरी यात्रा अधूरी कैसे रही।’

वह बोला-‘आपको बाबा को भी साथ ले जाना चाहिये था।’

मैंने कहा-‘ उनसे चला नहीं जाता।’

वह बोला-‘ उन्हंे कार से ले जाते तो वे चले जाते। अब आप पुनाः इन्हें कार से लेकर जाये तभी आपकी यह यात्रा पूरी होगी।’

मैंने पिताजी की ओर प्रश्न भरी निगाह से देखा। वे बोले-‘राजू ठीक कह रहा है लेकिन इतना खर्च पुनाः!’

राजेन्द्र झट से बोला-‘ अबकी वार का खर्च मैं दूंगा। आप तो योजना बना लें और चले जायें।’

मैं पुनाः जाने की योजना बनाने लगा। साथ इस नगर के बरिष्ठ कवि नरेन्द्र उत्सुक, उनकी पत्नी तथा डॉ. स्वतंत्र कुमार सक्सेना जी की मौसी के साथ पत्नी रामश्री को सेवा के लिये पुनः ले जाना अनिवार्य था। इस तरह हम छह लोग ठीक बीसवे दिन बाद सितम्वर 1996 र्इ्र0 को पुनाः बद्रीनाथ घाम की यात्रा पर निकल पड़े। उत्कल एक्सप्रेस से हरिद्वार तक रिजर्वेशन करा लिये थे। उसी दिन हरिद्वार पहुँच गये। काली कमली वाली धर्मशाला में जाकर रुक गये। सुवह ही जाकर हरि की पौड़ी पर स्नान किया। ओटो से कनखल इत्यादि के दर्शन कर आये।

पिताजी और उत्सूक जी को पालकी में लादकर, आदमियों के ऊपर बैठकर यमनोत्री और केदारनाथ जाना उचित नहीं लगा। इसीलिये एक टेªवल एजेन्सी से एक टेक्सी कार गंगोत्री और बद्रीनाथ धाम जाने के लिये सात सौ रुपये रोज पर छह दिन के लिये बुक करली।

दूसरे दिन सुवह से ही हमारी यात्रा शुरू हो गई। पिताजी और तीनों महिलायें पीछे की सीट पर आ गये। आगे मैं और उत्सुक जी ने आसन जमा ली। हम पहले दिन यात्रा में सीधे उत्तर काशी पहुँच गये। रात एक होटल में रुक गये। सुवह ही वहाँ गंगा जी में स्नान के बाद काशी विश्वनाथ के दर्शन किये। मैने देखा पिताजी भी भाव विभोर होकर दर्शन कर रहे थे। उसके बाद गंगोत्री की यात्रा शुरू हो गई। हम दोपहर तक गंगोत्री पहुँच गये। पिताजी की दृष्टि में वहाँ ठहरना अनिवार्य था, इसलिये एक होटल में ठहरने की व्यवस्था करली। खा-पी कर दर्शन के लिये निकले। भीड़भाड़ नहीं थी। अतः पिताजी के साथ सभी गंगोत्री मैया के आराम से दर्शन करा सके। रात गंगोत्री मैया की आरती का आनन्द लिया। सुवह ही गंगा मैया में स्नान के बाद वही से गंगाजल भर लिया। पण्डा जी से उनका विधिवत पूजन कराया।

वहाँ के शुभ्रजल की स्मृति आज भी नहीं भूल पा रहा हूँ। वह कल कल प्रवाह आँखो से हट ही नहीं रहा है। वहाँ की प्रकृतिक सुन्दरता का चित्र मन में ऐसा समाया है कि हर पल स्मृति में आता रहता है।

यों दूसरे ही दिन खा-पीकर बद्रीनाथ धाम के लिये निकल पड़े। पुनः उत्तर काशी होते हुये धरासू से टेहरी बाँध सड़क मार्ग से पार करके श्री नगर पहुँच गये। काली कमली वालों की धर्मशाला में जाकर रुक गये। पहले भी यहाँ रुक चुके थे इसलिये व्यवस्था करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। खाना बनाना चाहा किन्तु स्टोव ने काम नहीं दिया। अतः होटल में ही खाना खाने जाना पड़ा।

अगले दिन भोर ही निकल पड़े। दिन अस्त होने से पहले रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुये बद्रीनाथ धाम पहुँच गये। यहाँ दो दिन रुकने की योजना बना ली। पण्डा जी के यहाँ ठहरने की व्यवस्था हो गई। सितम्बर का महिना था, इसलिये भीड़भाड़ नहीं थी। पहले जाकर बद्रीनाथ भगवान के आराम से दर्शन कर आये। खाना बनाने की व्यवस्था पण्डा जी ने करा दी। खा-पी कर आराम से लेट ही पाये कि पिताजी की जोर-जोर से स्वाँस चलने लगी। मैं जाकर एक डाक्टर से दवा ले आया। औसीजन की कमी के कारण उन्हें सारी रात्री पीड़ा रही। मैं उनके पास बैठकर उन्हें सहलाता रहा। उनके शरीर पर हाथ फेरता रहा। यो सारी रात्री मेरा और पत्नी का जागरण हो गया। सुवह तक वे पूरी तरह स्वस्थ्य हो गये। सुबह जाकर पिताजी को गर्म कुण्ड में स्नान करा कर बद्रीनाथ भगवान के पुनाः दर्शन करा लाये। दोपहर के भोजन में पण्डा जी ने बद्रीनाथ भगवान का भरपेट प्रसाद खिलाया। तृप होकर सभी आराम करने लगे। मैं और पत्नी रामश्री उसी अपनी कार से व्यास गुफा एवं गणेश गुफा के लिये निकल पड़े। हमने टेक्सी व्यास गुफा पर छोड़ दी और भीम पुल पार करके वसुधारा की राह पकड़ली। भीम पुल से बसुधारा तीन-चार किलोमीटर ही दूर थी।

कहते हैं द्रौपदी वसुधारा पर स्नान के लिये जाया करतीं थीं। सरस्वती नदी को कठिनाई से पार कर पातीं थीं। भीम को उनका कष्ट देखा नहीं गया और उसने एक बड़ी सिला से उस रास्ते को पाट दिया। उसी समय से उस का नाम भीम पुल पड़ गया है। मैं यही सोचते हुये आगे बढ़ता रहा। केटली का पानी समाप्त हो गया था। रास्ते में फिर प्यास लगने लगी तो एक नदी जो अलकनन्दा में जाकर मिल रही थी, उसका जल पिया। जल के कड़वा होने पर भी प्यास के कारण जल के दो-चार घूंट गटक गये। हमें शंका होगई ये क्षेत्र चीन की सीमा के पास है। कहीं किसी ने हमारी नदियों के जल को जहरीला पदार्थ तो नहीं मिला दिया। शंका हो गई कि हम जहरीला जल पी गये हैं। कुछ ही समय के मेहमान हैं। हम दोनों ने हार नहीं मानी आगे बढ़ते रहे। आक्सीजन की कमी एवं प्यास के कारण दम निकल रहा था। उसके बाद भी वसुधारा की ओर बढतो ही जा रहे थे। यह पूरा जन शून्य स्थान था। शुरू में तो माना गाँव की दो औरतें कन्डे बीनते मिलीं थी अब तो किसी के भी दर्शन नहीं हो रहे थे। गौर बाबा का नाम लेते हमें वसुधारा दिखी। वहाँ दो लोग उसकी जल धारा में स्नान कर रहे थे। हम वसुधारा पहुँच गये।

यहाँ पर हजार बारह सौ फीट की उचाई से जल नीचे गिरता है। वर्फ का ठन्डा जल अधिक उचाई से गिरने के कारण फुहार बनकर नीचे गिर रहा था। वहाँ पहुँच कर हमें उस कष्ट की पूरी तरह याद भूल गई। जाकर पहले वसुधारा का जल पिया फिर उसमें स्नान किया। वहाँ एक बाबाजी झोपड़ी में रह रहे थे। हम अपने साथ कुछ खाने को ले गये थे, उसे उन्हें अर्पित कर दिया। भक्ति भाव से पत्नी पूजा करने में लग गईं। एक दो कंकड बहाँ से उठाये, केटली में रास्ते के लिये जल भरा और वापस चल दिये। लौटते में माना गाँव के मन्दिर के दर्शन किये। मिलट्री की छावनी के दो सिपाही दिखे। उनसे बातचीत हुई। वे भिण्ड के थे। हम से मिल कर उन्हें बहुत अच्छा लगा। कुछ देर तक देश की सुरक्षा व्यवस्था पर उनसे बातें करते रहे।

इस तरह हम दोनों अपनी टेक्सी में आकर बैठ गये। पाँच बजे तक हम अपने ठहरने के स्थान पर आ गये। शाम का भण्डारा पण्डा जी ने बद्रीनाथ के प्रसाद से कराया। दूसरे दिन बापस लौट पडे़। श्री नगर तक आते आते रात होगई। कारी कमरी वालों की धर्मशाला में पुनः रूकना पड़ा। सुवह ही वहाँ से चल दिये। दोपहर तक ऋषिकेश आ गये। वहाँ के मन्दिरों के दर्शन किये। शाम होने से पहले हरिद्वार काली कमली वालों की उसी धर्मशाला में रुक गये। रात तीन बजे ही उठ गये। एक बार फिर हरि की पौडी पर स्नान कर आये और समय पर दसवे दिन आकर ट्रेन पकड़ली। ऐसा माना जाता है कि जब तक बाँके विहारी के दर्शन नहीं करें, यात्रा पूरी नहीं मानी जाती, इसलिये रात ट्रेन से हम मथुरा उतर गये। टेम्पू से वृन्द्रावन पहुँच गये। बाके विहारी के मन्दिर के पास की धर्मशाला में रुक गये।

पिता जी का यमनोत्री जाना हो नहीं पाया था इसलिये वृन्द्रावन में यमुना जी में उन्हें स्नान करा लाया। ओटो से वृन्द्रावन के प्रमुख-प्रमुख मन्दिरों के दर्शन करा लाया। अगले दिन सुवह ही वहाँ से डबरा के लिये लौट पड़े।