Ek Samundar mere andar - 21 books and stories free download online pdf in Hindi

इक समंदर मेरे अंदर - 21

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(21)

....रोज़ रोज़ देर रात तक घर के बाहर रहते हो। आज सो जाओ। लक्ष्‍मण मुआ कौन सा सच में बेहोस हुआ है। वह घर भी चला गया होगा।‘ यह सुनकर सब खूब हंसे थे। धोबी तलाव पर सबसे अच्‍छी रामलीला होती थी, जिसे मारवाड़ी संस्थाएं करवाया करती थीं और लोगों के बैठने के लिये नीचे गद्दे बिछाये जाते थे।

वहां अमीर लोग जाते थे और वह रामलीला रामचरित मानस पर आधारित होती थी। वह रामलीला कामना ने तब देखी थी, जब वे लोग अनंतवाड़ी में रहते थे। तब मामा जी लेकर गये थे। उनके अच्‍छे संपर्क थे। एक रामलीला शब्‍द से कितनी रामलीलाएं याद आ गई थीं।

सोम और कामना को ज्‍यादा छुट्टियां नहीं मिल पाई थीं। इसलिये दोनों ने मुंबई आने के लिये टिकट बुक करवा ली थीं। वह तो अच्‍छा था कि सोम को अपने संस्थान की ओर से रहने के लिये फर्निश्‍ड बैचलर फ्लैट मिला हुआ था।

विवाहित जीवन का अध्याय शुरू हो चुका था। साथ ही मेहमानों का आना जाना, जिनमें अधिकतर मेहमान दिल्‍ली से ही आते थे। इसके पहले सोम गेस्‍ट हाउस में रहते थे तो वहां के दोस्‍त आये थे और शाम को रिसेप्शन ससुराल वालों की ओर से था।

कामना के परिवार से सिर्फ़ दस लोग आये थे और सोम का परिवार बड़ा था, तो उनके रिश्‍तेदार, दोस्‍त बहुत संख्‍या में आये थे। कुछ लोग रिसेप्‍शन की अंतिम पूड़ी और मिठाई खाकर ही जाना चाह रहे थे।

यह वह समय था, जब प्रेम विवाह करना दुस्साहस का काम था और यह कदम कामना ने उठाया था और उसे कर दिखाया था, नहीं तो वह रीना बंसल, जो कश्‍मीरी युवक से प्‍यार करती थी और उनका प्‍यार मुंबई युनिवर्सिटी के लॉन में परवान चढ़ा था, कामना उसकी गवाह थी।

अपनी आंखों से देखा करती थी। रीना की वह बहुत अच्‍छी सहेली थी। पर शादी के समय रीना का ब्‍याह दिल्‍ली निवासी एक मारवाड़ी डॉक्‍टर से कर दिया गया था। यदि वह उस कश्‍मीरी लड़के के साथ शादी कर लेती तो वेनीपाग में रह रही होती, जो कश्मीर का हिस्‍सा है।

जब शादी के बाद कामना दिल्‍ली अपनी ससुराल पहुंची तो स्‍वागत तो बहुत ढंग से किया गया था। जो रिश्‍तेदार आने से अचकचाते थे। वे जाने का नाम नहीं ले रहे थे। अब मेहमानों को रहने का ठीया और खाना मिलने के लिये सोम का घर मिल गया था।

उन्‍हें इस बात की बिल्‍कुल चिंता नहीं थी कि एक कमरे में वे कैसे रहेंगे और सोम और कामना कहां सोयेंगे। वे तो गुदगुदा पलंग हथिया लेते थे और वे दोनों बाल्‍कनी में सोते थे और वह भी देर रात को सोने जाते थे, ताकि कोई देख न ले।

उसने कभी किसी को मना नहीं किया था। जो भी आते थे, वह सबका सम्‍मान करती थी। ननद का रिश्‍ता तय हो गया था और वह सगाई की शॉपिंग करने के लिये मुंबई आई थी। कामना के पास उन दिनों नौकरी नहीं थी और उसने अपनी ननद को पूरी मुंबई घुमाई थी।

उसने दिल खोलकर खर्च किया था, ताकि कल को कोई यह न कहे कि कामना खुद तो कुछ लाई नहीं और सोम को भी कुछ खर्च नहीं करने देती। उसने ससुराल में लेन-देन को लेकर कभी कोताही नहीं की थी।

साथ ही वह अपने मायके का भी ध्‍यान रखती थी। यदि सोम का परिवार था, तो उसका भी तो परिवार था और छोटा परिवार था। यह संबंध दो परिवारों के बीच था, न कि दो इंसानों के बीच। इस बात को कामना और सोम भलीभांति तरह समझते थे।

सरकारी नौकरी के बारे में तो वह भूल ही चुकी थी। ठेके वाली नौकरी पुन: शुरू कर दी थी, लेकिन परेशानी तो होती थी। चकाला से स्‍टेशन दूर था और फिर वहां से चर्चगेट...वहां से वीटी तक पैदल ऑफिस तक जाना होता था।

नौकरी करना ज़रूरी था। आदर्श विवाह किया था तो घर भी बसाना ही था। एक दिन जब वह घर आयी तो उसे सरकारी नौकरी के ऑफिस की ओर से कॉल लैटर मिला। शाम को जब सोम आये तो उसने बड़ी खुशी से यह बात बतायी।

इंटरव्‍यू की तारीख देखी तो दूसरे ही दिन की तारीख थी। सोम की आदत है कि वे अपने चेहरे पर कोई खुशी की लहर आने ही नहीं देते। एक तटस्थता हमेशा उनके चेहरे और व्‍यक्‍तित्‍व में देखी थी उसने। शादी के पहले तो ठीक लगता था, पर अब?

और वह भी शुरुआती दिनों में....उसे अजीब तो लगता था, पर कभी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया था कभी। सभी तो उसकी तरह खिलंदड़े और हंसने वाले नहीं होते न .....अगर वह इस तरह के स्‍वभाव की न होती, तो न जाने कब की ख़त्‍म हो गई होती।

सोम ने कहा – ‘ठीक है। कल मैं तुम्‍हें वहां छोड़ दूंगा और फिर अपने ऑफिस चला जाऊंगा। एक बात याद रखना....नौकरी तुम अपनी मर्जी से कर रही हो। जब कर ही रही हो, तो पूरे मन से करना। सुबह साढ़े सात बजे तैयार हो जाना। नई जगह है, मैंने भी नहीं देखी है। समय लगेगा।‘

दूसरे दिन साढ़े सात बजे तैयार होकर निकल पड़े थे। ऑटो किया और वहां पहुंचे थे। घर से समय से निकलने की वजह से कुछ खाया नहीं था। यह एक प्रतिष्ठित संस्थान था। इंजीनियरिंग कॉलेज था। दूर तक फैला जंगल। चारों ओर हरे-भरे पेड़। बीच में पगडंडी। कुछ कुछ गांव का प्रतिबिंब था।

पहाड़ियों व पेड़ों के झुरमुट में बसे और शहर से दूर शान्त जगह में बने थे छात्रावास। प्रतिष्ठान के बाहरी क्षेत्र में आसपास छोटी छोटी झुग्गी झोपड़ियां थीं। छोटा सा बाज़ार था...जहां पतरे के शेड की दुकानें थीं। दोनों ने वहां वडा सांभर खाया था। दुकानदार ने बड़ी ही तत्परता से दोनों को खिलाया था और साथ ही कहता जा रहा था - बंडू, साहेबची काळजी घे।

मुंबई में एक अनजान व्‍यक्‍ति इतनी इज्‍ज़त दे, यह बहुत बड़ी बात थी। वे दोनों वहां से निकले और पैदल ही संस्थान के लिये चल दिये। संस्थान में घुसने के पहले एक छोटा सा खोका था जहां छात्रों के ज़रूरत की चीज़ें, मसलन...सिगरेट, कोल्‍ड ड्रिंक, पान, कॉफी के सैशे, साबुन, वगैरह मिल जाते थे।

छात्रावास की बिल्‍डिंगों के बीच में एक तालाब था। संस्थान पहाड़ी पर बनाया गया था। वह रास्‍ता मसूरी के रास्‍ते का आभास देता था... दोनों ओर घने पेड़ और बीच में बल खाती सड़क। वह तो इस प्राकृतिक सुंदरता को देखकर रोमांटिक हुई जा रही थी।

मुंबई के एक कोने में इतनी खूबसूरत जगह भी हो सकती है, सोच भी नहीं सकती थी वह। ऑफिस तक पहुंचने के लिये उन्‍हें एक सौ सोलह सीढ़ियां चढ़ना पड़ा था। बाप रे...यदि यहां नौकरी मिल गई तो इतनी सीढ़ियां चढ़ना पड़ेगा? खैर, वे लोग ऊपर पहुंचे।

पूछते पूछते प्रशासन अनुभाग में गये और वहां बैठी एक महिला कर्मचारी ने हंसकर स्‍वागत किया – ‘आइये मैडम, अपने सारे ओरिजिनल प्रमाणपत्र दिखाइये।‘ और इसी के कामना ने अपना फोल्‍डर उनके सामने कर दिया था।

उन्‍होंने सारे प्रमाणपत्र देखे और जेरॉक्स प्रतियां अपने पास रखकर मूल पेपर वापिस कर दिये थे। सारी प्रक्रिया होने के बाद उस महिला ने कहा – ‘आपको ढेर सारी शुभ कामनाएं। आपको यदि यहां नौकरी मिलेगी तो हमें अच्‍छा लगेगा।‘

इस पर कामना ने हंसकर कहा था – ‘आपकी शुभ कामनाएं ज़रूर काम आयेंगी।‘ इसके साथ ही चपरासी उसे उस कमरे में ले गया, जहां और भी लोग साक्षात्कार देने आये थे। वहां सोम की पहचान के भी एक-दो लोग मिले और सोम निश्चिंत होकर अपने ऑफिस के लिये निकल गये।

कामना की वहां उपस्‍थित लोगों से बात हुई और पता चला कि अधिकतर आवेदन कर्ता अनुभवी थे और कई तो पीएचडी भी थे। उनके सामने तो कामना कुछ भी नहीं थी। सिर्फ़ एमए पास थी और अनुभव भी टेलीफोन ऑपरेटर, टाइपिस्ट का था। ख़ैर, जो होना होगा, हो जायेगा।

पहले लिखित परीक्षा ली गई। अंग्रेज़ी का एक पैराग्राफ था। उसे अनुवाद करने में आधा घंटा लगा। यह पहला अनुभव था अनुवाद करने का। इसके बाद पुन: प्रतीक्षा करना था। दोपहर दो बजे साक्षात्कार शुरू हुए थे।

उसने देखा कि वहां साक्षात्कार लेने के लिये संस्थान के रजिस्ट्रार, प्रशासन अनुभाग के अधिकारी, फैकल्‍टी और भारत सरकार की एक प्रतिनिधि उपस्‍थित थीं।

सबसे पहले उससे संस्थान के नाम का हिंदी अनुवाद पूछा गया था और वह पूरी तैयारी के साथ आई थी इसलिये बता दिया था। इसके बाद प्रशासन अधिकारी ने पूछा – ‘कवयित्री महादेवी वर्मा को कौन सा पुरस्कार मिला था?’

कामना ने इस सवाल का उत्तर देने में अपनी अनभिज्ञता ज़ाहिर कर दी थी। बाकी उत्तर उसने पूरे विश्‍वास के साथ दिये। कामना का साक्षात्कार क़रीब पैंतालीस मिनट चला था। दो महीने बाद उसे संस्थान की ओर से नियुक्त पत्र मिला था। उसका चयन हो गया था।

उस समय वह अपनी ननद की सगाई के सिलसिले में दिल्‍ली गई थी। सोम ने तार किया कि उसे जल्‍दी आकर ऑफिस जॉइन करना है। दो दिन बाद कामना मुंबई पहुंची थी और ऑफिस जॉइन कर लिया था।

साथ ही फिर से दिल्‍ली जाना था, ननद की शादी अप्रैल में थी। वह प्रशासनिक अधिकारी के पास गई और कहा – ‘सर, मुझे एक बार और दिल्‍ली जाना होगा। ननद की शादी में जाना ज़रूरी है। आप ही बतायें कि क्‍या करना चाहिये।‘

इस पर वे बोले – ‘शुरूआत में तो छुट्टी दे ही नहीं सकते लेकिन आपका जाना भी ज़रूरी है ...तो एक काम करते हैं कि मार्च और अप्रैल की दो दो अर्जित छुट्टियां दे सकते हैं और आपको चार दिन के बाद वापिस आना ही होगा।‘

सब सोचकर उसने कहा - ठीक है सर और इसी के साथ वह अप्रैल में एक बार फिर दिल्‍ली चली गई थी। सोम उतना ही सपोर्ट करते थे, जितना ज़रूरी था। बाकी काम तो अपने दम पर ही करना था।

सोम की बड़ी खींचतान रहती। उनके घरवाले उन्‍हें अपनी ओर खींचते थे कि वह कामना का होकर न रह जाये। कामना परिवार में नयी थी। ज्‍य़ादा तो कुछ कह नहीं पाती थी पर सोम से इतना ज़रूर कहती,

‘जब शादी की है तो पहले मेरा ध्‍यान रखा जाये। मैं तुम्‍हारे भरोसे इस घर में आयी हूं और तुम्‍हारी पसंद से आयी हूं।‘ ऐसे हालात में सरकारी नौकरी उसके लिये वरदान साबित हुई थी। जब उसे पहला वेतन मिला था तो वह उन नोटों को काफी देर तक देखती रही थी।

पिताजी द्वारा दिये जानेवाले जेब खर्च के मासिक 40 रुपये, अपनी पहली नौकरी का पहला वेतन 250 रुपये,..उसके बाद 600 रुपये की नौकरी...उसके बाद 1000 रुपये की नौकरी...और अब 2000 रुपये। दो डिजिट...तीन डिजिट

...चार डिजिट और बाद में पांच डिजिट का वेतन पाने में उसे एक लंबी यात्रा तय करनी पड़ी था। उस दिन वह अपना पर्स खोलकर रुपये गिन रही थी। सोम किताब पढ़ रहे थे, तब भी उसने कहा था – ‘सोम, एक समय था कि मैं दस रुपये खर्च करते वक्‍त़ भी सोचती थी

....और एक आज का दिन है, रुपये गिनती ही नहीं हूं। बैंक में भी नहीं गिनती हूं। यदि नौकरी न करती होती तो क्‍या ऐसा कर सकती थी? क्‍या तुम मेरे इतने खर्च बर्दाश्त कर सकते थे?’ एक बार बैंक में कैशियर ने उससे रुपये गिनने के लिये कहा था तो उसने कहा था –

‘सर, आपका गणित अच्‍छा है आपने गिना और मैंने गिना...एक ही बात है।‘ आज तक उसके अकाउन्ट में और ऑफिस के अकाउन्ट में एक रुपये की भी गड़बड़ नहीं हुई थी। बैचलर फ्लैट खाली करने का समय आ रहा था और अब उन्‍हें मुलुंड के लीज फ्लैट में शिफ्ट करना था।

एक और शिफ्टिंग। यह वन बीएचके फ्लैट था। पहले की अपेक्षा ज्‍यादा जगह थी। नया सामान भी खरीदना पड़ा था। यह तो अच्‍छा था कि इस रूट पर भी संस्थान की बसें थीं। वह गांधी नगर पर जाकर बस का इंतज़ार करती थी।

वहां एक सज्जन ऑटो से गुजरा करते थे। वे उसे आंखों से इशारा किया करते थे कि वह चाहे तो ऑटो में लिफ्ट दे सकते थे। अक्‍सर वह अनदेखा कर जाती थी। लेकिन पता नहीं, एक दिन उसे क्‍या सूझा कि उनका ऑटो रुकवाकर उसमें बैठ गई थी।

वे सज्जन बड़े खुश हुए थे। साथ ही बोले थे – ‘यू नो, आई एम वेरी हैप्‍पी। आपको ड्रॉप करना अच्‍छा लग रहा है आज। मेरा कितना मन था, आपके साथ बैठने का।‘ कामना ने भी हंसकर कहा – ‘बिल्‍कुल...मुझे भी लगा कि आज आपकी कंपनी इंजॉय की जाये। बस में तो रोज़ जाती हूं। वैसे आपको कितने बजे ऑफिस पहुंचना होता है?’

इस पर वे बोले – ‘नौ बजे तक। आपको मैं पाइप लाइन पर छोड़ दूंगा। मुझे आगे जाना होगा न।‘ वह चुप रही। पहली बार में कोई कितनी बात करेगा? न उसने पूछा और कामना ने बताया कि वह शादीशुदा है या नहीं। वह तो चेहरे से ही विवाहित लग रहा था।

जैसे ही पाइप लाइन आई और उसने ऑटो रुकवाया तो कामना बोली – ‘बॉस, आपने मेरी बस छुड़वाई। आपको क्‍या लगता है कि मैं इधर से पैदल जाऊंगी या ऑटो करूंगी? आप मुझे ऑफिस के उस कॉर्नर पर उतारेंगे, जहां बस उतारती है।‘

उसने घड़ी देखी तो नौ बजने में पांच मिनट बाकी थे। मरता...क्‍या न करता? उनको कामना को ऑफिस तक छोड़ना ही पड़ा था और दूसरे दिन से वे सज्जन अपने ऑटो सहित नहीं दिखे थे।

मुलुंड में एक ही साल रह पाये थे कि सोम के संस्थान ने मालाड में नियमित फ्लैट आबंटित कर दिया। इसी बीच उसे नोशिया सा होने लगा था। बार-बार उल्टी आने लगी थी। वह समझ गई कि अब डॉक्‍टर को दिखाना होगा। कामना की उल्‍टियां बढ़ती जा रही थीं।

हारकर वह मालाड की प्रसिद्ध महिला विशेषज्ञ डॉक्‍टर के यहां गई और चेकअप करवाया। वह गर्भवती थी। अभी तो घर संवारना बाकी था। सोम पर जिम्मेदारियां थीं। स्वाभाविक भी था क्‍योंकि वे सबसे अच्‍छा पैसा कमाते थे

...तो उम्‍मीदें भी सबको उनसे ही ज्‍य़ादा थीं। वे अपने परिवार की उम्मीदों पर सदा खरे उतरे थे। इस गर्भ को दोनों ही नहीं चाहते थे। कामना तो कतई नहीं चाहती थी कि जो गरीबी के दिन उसने देखे थे, वे उसके बच्‍चे भी देखें। इससे तो अच्‍छा था कि वह क्‍लीनिंग ही करवा ले।

साथ ही यह शर्त भी थी कि वह बिना एनेस्‍थेशिया लिये यह काम करायेगी ताकि उस अजन्मे बच्‍चे की चीख सुन सके और उसने वैसा ही किया भी। डॉक्‍टर ने गर्भ गिरवाने पर उसके पुन: मां न बनने की आशंका जताई थी। वह शुरू से बहुत ज़िद्दी रही थी, बोलेगी कुछ नहीं, पर कर गुजरेगी।

सोम ने उसको हंसते ही देखा था और आज भी वह हंसती ही रहती है। सोम शायद उसे और उसके मन को समझ नहीं पाये थे। एक दिन उसने कहा – ‘सोम, मैं तो शादी के समय और विदा के समय रोई भी नहीं। भला क्‍यों रोती? अपना घर बसाने जा रही थी और वह भी वैध तरीके से।‘

इस पर सोम ने कहा था – ‘रोना तो हम लोगों को था।‘ भले ही यह बात हंसते हुए कही गई थी लेकिन उस वाक्‍य का मर्म और दुख वह अच्‍छी तरह समझ गई थी। सोम का पासा उल्टा पड़ा था।

उस समय भी उसने हंसकर कहा था – ‘इसमें मैं क्‍या कर सकती हूं। आप लोगों का नसीब।‘ बात आई गई हो गई थी। मन के अवचेतन मन में यह बात बैठ ज़रूर गई थी, पर कभी जुबान पर नहीं लाई थी उस बात को।

छ: महीने बाद वह पुन: गर्भवती हुई थी और डॉक्‍टर की आशंका दूर हुई कि वह मां नहीं बन सकती थी। अब जिस शिशु को उसकी कोख में पलना था तो पलना ही था। अब घर भी थोड़ा संवर गया था और अच्‍छा लगा था कि बच्‍चा अपने घर में जन्‍म लेगा।