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भगवान पे उजाला

प्रश्न : क्या सच में, उस दिन, मैंने भगवान पे उजाला कर दिया था ??

हमारे शहर ग्वालियर और गुना के बीच एक जिला और पड़ता है, जिसे शिवपुरी के नाम से जानते हैं, शिवपुरी में प्रसिद्ध माधव राष्ट्रीय उद्यान है, जो बहुत फेमस है और इसका जंगली एरिया बहुत बड़ा है..ग्वालियर से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पे शिवपुरी से पहले, जंगलों में कुछ अंदर जाकर एक सीताराम जी का मंदिर है..अपने यायावर जीवन में एक दिन जिज्ञासावश, मैं, मैन रोड से कुछ किलोमीटर अंदर एक मंदिर का बोर्ड देखकर उन जंगलों में घुस गया..पहुँचा तो मैन रोड से लगभग 12 किलोमीटर अंदर घोर जंगल में एक छोटा सा मंदिर था..मैं गाड़ी टिकाकर अंदर गया, तो तीन साधु थे और एक वृद्ध जो कुछ रोटी जैसे पिंड ( जिसे चंबल रीजन में टिक्कर बोलते हैं ) बना रहा था..

कुल चार लोग, छोटा सा मंदिर और बहुत से एरिया में एक पत्थरों की बागड़ थी, जिससे मंदिर परिसर घिरा हुआ था, मैंने जाकर भगवान के दर्शन किये, मंदिर एक पत्थरों के ऊँचे से टीले पे बनाया हुआ था..
मैंने दर्शन के बाद साधुओं से बात करनी चाही, सो मैंने उनमें से एक साधु से पूछा कि बाबा आप यहाँ जंगल में सिर्फ चार लोग रहते हो, यहाँ तो बहुत से जंगली जानवर भी रहते होंगे तो बोले तो तुम कौन सी जन्नत में रहते हो, यदि सच में रह रहे होते, तो क्या यहाँ कभी आते ??

उनके इस प्रश्न से मैं थोड़ा चेतना में आया, लगा कि, साधु ज्ञानी हैं, पर फिर तभी एक दूसरा साधु बोला, जा चला जा यहाँ से अब, अघोरी आता होगा..उन साधु की भेषभूषा बड़ी अजीब थी, और शरीर बड़ा बलिष्ठ लगता था, मुझे डर भी लगा कि ये चार लोग हैं और मैं अकेला, मुझे अब यहाँ से चलना चाहिए सो मैंने उन सभी को प्रणाम किया और जल्दी से गाड़ी स्टार्ट करके वापस मैन रोड पे पहुँचने की भगवान से प्रार्थना करने लगा, कि मुझे वापस सकुशल पहुँचा दो..

मैन रोड पे पहुँचा, तो साँस में साँस आयी, फिर लगा कि मुझे उस साधु से डरना नहीं था, ये अघोरी कौन था, जिसका उस साधु ने कहा था और वो ज्ञानी जैसा प्रतीत होने वाला साधु जिसने कहा था कि जन्नत तो वहाँ भी नहीं जहाँ से तू आया है, दिमाग में बहुत सारे विचार चलते-चलते उस दिन वापस घर पहुँचा..

फिर कुछ भूल सा गया ये घटना, पर एक दिन पुनः बाइक से जाना हुआ, गुना की ओर तो उसी मोड़ पे आके दिल ने कहा, आज फिर क्यों ना मंदिर चला जाये, मन ने कहा क्यों पंगे ले रहा है, पर मैं अक्सर दिल की सुनता हूँ क्योंकि मैं मानता हूँ, वहाँ 'खुदा' रहता है, सो मोड़ दी गाड़ी उस वीराने की ओर.. पहुँचा मंदिर तक, तो देखा सन्नाटा पड़ा है, मंदिर के पट बंद हैं, जो टीले पे ऊंचाई के कारण दिख रहे थे, और कोई भी साधु भी वहाँ नहीं था, हाँ बस वो वृद्ध था, जो उस दिन रोटी या टिक्कर बना रहा था..

वो एक पेड़ के नीचे सो रहा था, उन दिनों ज़ीटीवी पे जी हॉरर शो और सोनी चैनल पे आहट..नाम के भूतों के प्रोग्राम देखा करता था सो चारों तरफ सन्नाटा और उसे यूँ निश्चिंत सोते देखकर डर तो बहुत लगा, पर पागलपन भी मुझमें हद से ज्यादा ही रहा है, जो मुझे चेतना की अवस्था में मुझमें, अक्सर महसूस होता है, सो मैंने जाकर उस वृद्ध को जगाया, पहले तो वो बोला नहीं फिर बड़ी देर बाद थोड़ा सा जगा, बोला कौन हो तुम ??
मैंने कहा, बाबा याद है, मैं उस दिन गाड़ी से आया था तो बोले हाँ याद आया, फिर मुझसे बोले, अब क्यों आये हो ??

मैंने कहा, बाबा वो साधु कहाँ हैं ? जो उस दिन थे, और ये अघोरी कौन था, जिसके बारे में उस दिन उन साधु ने मुझसे कहा था.. तो वे वृद्ध बाबा बोले, बेटा, बहुत से साधु यहॉं आते जाते रहते हैं, कहते हैं सीतारामजी उन साधुओं से उस टीले पे बने पत्थर के छोटे से मंदिर में बात किया करते हैं, कोई भी साधु यहाँ कभी हमेशा नहीं रहता, मैं सुनकर दंग रह गया कि भगवान बात करते हैं, मैंने जल्दी ही उत्सुकतावश उनसे पूछा कि क्या सच में भगवान उन साधुओं से बात करते हैं ? तो बोले बेटा ये मंदिर में जो प्रतिमा है, पता नहीं किसने बनवाई थी, बहुत प्राचीन है 40 से ज्यादा वर्ष तो मुझे ही हो गए, उससे पहले जो यहाँ रहते थे, वे भी इसे बहुत प्राचीन बताते थे, रही बात, भगवान से बात करने की तो मुझे नहीं पता, पर रात में कई बार कुछ साधु यहाँ आकर मंदिर में जाकर कुछ बात करते हैं, जैसे कोई उत्तर दे रहा हो, और वे कुछ बोल रहे हों, जब ये बात होती है तो मैंने भी कभी-कभी थोड़ी बहुत आवाजें सुनी हैं, उसी आधार पे तुमसे कहा, तो मैंने उनसे तुरंत ही पूछा कि कभी आपने बात करने की कोशिस नहीं की, तो बोले मैं सीताराम भजता हूँ और कई साधु मुझसे कहके गए हैं, कि जब तुम्हारे प्रश्न परिपक्व हो जाएंगे तो सीतारामजी तुमसे खुद ही बात करेंगे..

तो मैंने उनसे पूछा कि और ये पता कैसे चलेगा कि आपके प्रश्न परिपक्व हो गए हैं ? तो बोले, बेटा एक साधु ने मुझे एक दीपक दिया था, काली मिट्टी का और कहा था, रोज शाम को इसे लगाना, जिस दिन ये दीपक स्वतः जलते हुए गिरकर टूट जाये, समझ जाना कि समय आ गया है, सीतारामजी से बात करने का..
मेरा मन बैचेन हो गया था बहुत, ये सब सुनकर, मैंने कहा, बाबा मुझे वो दीपक देखना है, आप कितने भी पैसे ले लो, आप कुछ और चाहो तो माँग लो, पर वो दीपक मुझे दिखा दो..
तो वो वृद्ध बाबा बोले बड़े ही साधारण अंदाज में बोले, कि जा टीले पे, मंदिर के पट खोल लेना, वहीं भगवान की प्रतिमा के सामने पड़ा होगा, घोर काला है, अलग ही दिख जाएगा..मैं जल्दी से दौड़ के गया और टीले पे भाग के चढ़ा, जल्दी से पट खोले और देखा कि दीपक सामने ही रखा है, बड़ा सा दीपक था, काली मिट्टी का, जो मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा था, छूने की इच्छा हुई तो उसे उठाकर भी देख लिया, कुछ अजीब सी ठंडक थी उसमें..काफी मजबूत सा लगता था..

मैंने दीपक को देखकर वापस उसी जगह रख दिया और वापस नीचे आया..मुझे वो वृद्ध बाबा कुछ भूखे और उदास से लग रहे थे, मैंने उनसे यूँ ही पूछा कि बाबा इतने उदास क्यों हो ? मैंने आपका दीपक देखकर वहीं रख दिया है, तो बोले बेटा चार-पाँच दिन से यहाँ कोई साधु नहीं आया है, सो कुछ खाने नहीं है, साधु आते हैं तो कुछ लेकर ही आते हैं, पर अभी कोई नहीं आया कुछ दिनों से, सो मैंने उनसे कुछ नहीं कहा, सीधा अपना बैग खोला और खाने का टिफिन और माँ ने कुछ लड्डू, नमकीन और खस्ता ( मेंदा से बने नमकीन ) भी रखे थे, सो सब निकालकर उन वृद्ध बाबा को दे दिए, और कहा बाबा खाना तो इतना ही है, पर ये लड्डू और ये सब आपको कुछ दिन को हो जाएगा, और जैसा आपने कहा कि यहाँ साधु आते रहते हैं, तो कोई ना कोई फिर आ ही जायेगा जल्दी..तो उन्होंने पहली बार मुझे बड़े ही ध्यान से देखा और देखते ही रहे, मैंने उनसे कहा कि, बाबा क्या हुआ ?

तो बोले अपना ये सब सामान तुम मुझे क्यों दे रहे हो ? ये तुम्हारी माँ ने तुम्हारे लिए बनाया होगा, तो मैंने उनसे कहा कि बाबा मेरे पास पैसे हैं, जाकर मैं कुछ और ले लूँगा पर आप यहाँ कैसे रहोगे भूखे, आप ले लो, तो वे बोले बेटा, मुझसे साधुओं ने मना किया है किसी से कुछ भी लेने को, मैंने उनसे पूछा कि बाबा आपने बताया कि यहाँ साधु आते जाते रहते हैं तो आप किसी एक साधु की आज्ञा क्यों मान रहे हैं, तो वे बोले बेटा वो अघोरी है, वो विद्याएँ जानता है कई तरह की, उसी से मिलने सब साधु आते हैं, हालांकि वो सबसे नहीं मिलता, इस पूरे जंगल में पता नहीं कहाँ रहता है, साधुओं से भी कई बार वो जंगल में ही मिलता है, वो इस मंदिर में बस दीवाली के दिन आता है, एक दीपक लगाने जो वो खुद लाता है और सुबह होते ही चला जाता है.. जब उन वृद्ध बाबा से ये सब सुना तो आश्चर्य में पड़ गया, मैंने उनसे कहा कि, बाबा मैं उस दिन आया था तो एक साधु ने मुझसे कहा था कि चला जा अघोरी आने वाला है, उस दिन तो दीवाली भी नहीं थी, तो बोले यदि वो किसी से मिलने की कह देता है, तो कभी-कभी वो आ भी जाता है, पर मैंने उसे अब तक दीवाली के अलावा यहाँ आते कभी नहीं देखा, मैंने उन वृद्ध बाबा से फिर कहा कि बाबा, मैं ना किसी अघोरी को जानता हूँ और ना उन साधुओं को जो यहाँ आते हैं, मैं तो बस सीतारामजी को जानता हूँ और आपको उनकी ही कसम है कि आप ये सब ले लें, मैं आपका आभारी रहूँगा..

तो कुछ सोच में पड़ गए, फिर बोले जाओ उस मंदिर में रख आओ, सीतारामजी कहेंगे तो मैं खा लूँगा, मुझे उनका ये कहना समझ नहीं आया पर वे लेने को तैयार हुए सो मैंने उनसे कहा कुछ नहीं बस टीले पे जाकर मंदिर में खाने का पूरा बैग रख दिया, जब सामान रख रहा था तो ऐसा लगा कि उस काले दीपक की आँखें हैं जो मुझे देख रहीं हैं, जैसे ही मैंने गौर से देखा, मुझे सब सामान्य सा लगा सो मुझे लगा कि ऐसे सुनसान स्थान और ऐसी बातों का असर है दिमाग पर बस, और कुछ नहीं..सो रखकर वापस आ गया उनके पास, उन्होंने मुझसे मेरा परिचय पूछा, तो मैंने बता दिया, फिर बोले तुम क्योंआये, यहाँ फिर से ?

मैंने कहा, कि पता नहीं बाबा, बस मैं आ गया, तो मुझे थोड़े से गौर से देखकर बोले, उस दीपक को मैंने एक बार तोड़ने की कोशिस भी की थी, अपने हाथ से, पर वो टूटता ही नहीं है, मुझे 34 साल हो गए हैं उस दीपक को लगाते लगाते, पर वो टूटा नहीं है, मैं वृद्ध हो गया हूँ, पता नहीं मेरे जीते जी वो टूटेगा भी या नहीं..
मैं उन्हें बहुत गौर से देख रहा था, कुछ बातें समझ आ रहीं थीं और कुछ पूरी तरह नहीं आ रहीं थीं..फिर वे चुप हो गए और कुछ नहीं बोले, मैं भी थोड़ी देर शांत रहा, फिर पता नहीं मेरे मन में क्या आया, मैंने उनसे कहा, क्या मैं अघोरी से मिल सकता हूँ बाबा, आप मुझे मिलवा सकते हैं, तो उन्होंने मेरी तरफ गौर से देखा और कुछ नहीं बोले..मैं समझ गया कि मैंने ज्यादा ही कह दिया कुछ शायद, तो थोड़ी देर मैं चुप रहा, फिर उनसे कहा कि अच्छा बाबा मैं अब जाता हूँ..दूर मेरी गाड़ी खड़ी थी सो मैं जाने लगा तभी, पीछे से उनकी आवाज आई बोले, दीवाली को सूर्यास्त के बाद जब अंधेरा होने लगे तब आना, मिल लेना अघोरी से अगर वो आया तो, फिर बोले संभलकर जाना, यहाँ बहुत से जंगली जानवर रहते हैं, जय सियाराम..मैं भी बाबा से जय सियाराम कहके अपने घर पहुँचा..

घर आकर काम की व्यस्तता में सब भूल गया, एक दिन मैं लेटा हुआ था और हमारे अंचल क्षेत्र में लाला रामस्वरूप का कैलेंडर चलता है सो दीवार पे टँगा था और पंखा चल रहा था सो पन्ने उसके उड़ रहे थे, मैं सामने ही था तो किसी पन्ने पे मुझे माँ लक्ष्मी का एक चित्र कहीं कैलेंडर के एक कोने में दिख गया, पता नहीं कैसे दिमाग में दीवाली, अघोरी, वो मंदिर, साधु वृद्ध सब घूम गए, मैं एकदम से उठा, कैलेंडर देखा तो दीवाली पूरे तीन महीने चौबीस दिन बाद थी, पर मेरे मन ने कहा, कुछ भी हो अबकी बार दीवाली पे जाऊँगा वहाँ..
समय बीता और दीवाली का दिन आया, मैंने दिन में ही सोच लिया था कि शाम को गाड़ी से निकल लूँगा, सारा परिवार दीवाली की तैयारियों में डूबा था और मैं अपने शहर से कई किलोमीटर दूर किसी जंगल में एक मंदिर पे जाने के लिए निकल गया था, शाम ढल चुकी थी, उस मोड़ पे पहुँचा, जहाँ से मैन रोड से टर्न लेते थे तो शाम का अंधेरा देख के डर भी लगा और मन ने फिर कहा, लौट ले, पंगा मत ले, पर "कुछ-कुछ होता है" मूवी में एक डायलॉग सुन रखा था कि--

( हम एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं, प्यार भी एक ही बार होता है और मेरे हिस्से का मुझे हो चुका..)

सो दिल ने कहा कि, बेटा साल में दीवाली भी एक ही बार आती है, तो मैंने आँखें बंद की और भगवान से प्रार्थना की कि हे राधामाधव अब तुम ही बताओ कि यहॉं तक मैन रोड से आ तो गया हूँ पर इस अंधेरे में जंगल में 12 किलोमीटर दूर गाड़ी डालूँ या नहीं..

तो दिल में कबीरदासजी का ये दोहा आया कि..

( जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ
मैं बाबरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ..)

मतलब पाना है तो डूबने से क्या डर, खोजना है, तो उतर जा पानी में गहरे..

आँखें खोलीं तो अपने राधागोविंद को प्रणाम किया और तेजी से गाड़ी मोड़ी और सीधे मंदिर पे जाके रोकी, 12 किलोमीटर का जो रास्ता था, वो कच्चा था, सो मुझ पर धूल और मिट्टी छा सी गयी और ऊपर से अंधेरा..मंदिर पहुँचकर देखा तो घनघोर सन्नाटा था, सिर्फ शाम को कीड़ों की आवाज आ रही थी..कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था, सच कहूँ तो जीवन में पहली बार डर लगा था, जिससे मेरे हाथ काँप से रहे थे..

तभी मैंने देखा दूर, एक उसी मंदिर के परिसर में कुँआ था, वहीं से कोई आ रहा है, आप यकीन मानिए मेरे आँसू छूट गए थे डर से, कि ना जाने कौन है वो, मैं जड़ हो गया था, जो ना आगे बढ़ सकता था मंदिर में, ना गाड़ी स्टार्ट करके वापस ही भाग सकता था, बस चेतना थी थोड़ी जिससे देख रहा था, कि दूर से कोई आ रहा है, मेरी तरफ..
बहुत पास आया वो, तो अंधेरे में ध्यान से देखा, तो वही वृद्ध बाबा थे, रात के 8 बज चुके थे, मोबाइल उन दिनों ज्यादा नहीं थे, मेरे पास तो कम से कम नहीं था सो एक टॉर्च ले गया था साथ में छोटी सी..

बाबा पास में आये और बोले आ गए, चलो हाथ मुँह धो लो, दीवाली मनाते हैं, उन्होंने ऐसे कहा कि जैसे उन्हें मेरा ही इंतजार था, मैं तो जड़ बनके डर के मारे रोबोट बन चुका था, ऊपर से चारों तरफ के अंधेरे और सन्नाटे ने मुझे भी खामोश ही कर दिया था, मैं बस उन बाबा के पीछे हो लिया, वो मुझे कुएँ के पास ले गए, एक टूटी सी बाल्टी से पानी खींचा और मुझसे कहा, हाथ मुँह धो लो, घबराहट में मैंने अपना सर ही बाल्टी के पानी में दे दिया..जब साँस रुकी तो चेतना लौटी और कुछ होश में आया..
बाबा बोले डरो मत, बिना अघोरी की इच्छा से यहाँ कुछ नहीं होता, तुम मेरे साथ चलो बस..शायद वो मेरी स्थिति समझ गए थे..

फिर वो मुझे ऊपर टीले पे मंदिर पे ले गए और मुझसे कहा कि जाओ और उस काले दीपक में तेल भरके भगवान के सामने जला दो, पास में ही एक बहुत बड़े कटोरे में तेल रखा हुआ था..मेरे हाथ में एक छोटी सी टॉर्च थी जो मैंने उन बाबा को दे दी और फिर मैंने तेल लिया और पास में ही कुछ रुई रखी थी एक बत्ती बनाकर उसे तेल में डुबोकर दीपक में जला दी, मैं दीपक और बत्ती में इतना खो चुका था कि ये भूल गया था कि पीछे वो बाबा हैं नहीं, कहीं चले गए हैं..क्योंकि एकदम से टॉर्च की लाइट बंद हुई..
घुप अंधेरा था, दीपक जलाने से पहले मुझे लगा कि उनकी आज्ञा लेनी चाहिए और सच कहूँ तो उस दिन भगवान के मंदिर में भी उनके सामने डर लगा था, मैंने कुछ आवाजें दीं बाबा, बाबा पर कुछ जबाब नहीं आया, मुझे लगा, हो सकता है कि नीचे कुछ लेने गये हों पर यूँ मुझे अकेला छोड़कर जाने पे गुस्सा भी आया, तभी दिल ने कहा, तू दीपक तो जला, होगी सो देखी जाएगी, मैंने अपने गाँव में बहुत से लोगों से सुना था कि भूत प्रेत आग से डरते हैं और उन दिनों, मैं कहीं भी चला जाता था, जहाँ दिल करता था, सो किसी ने सलाह दी थी कि जेब में आग यानी माचिस रखा करो, बलाओं से दूर रहोगे

सो मेरी पेंट की जेब में उन दिनों हमेशा माचिस रहती थी, सो ख़याल आया, माचिस से उजाला करूँ थोड़ा और दीपक भी जलाऊँ..
मैंने पेंट की जेब में से वो माचिस निकाली और दीपक जला दिया.. दीपक का प्रकाश सीधे प्रतिमा पे पड़ा.. आप यकीन मानिए, भारत बहुत घूमा है, हर स्टेट घूमी है, अंडमान तक घूमा हूँ, कई मंदिर देखें हैं, पर उस अंधेरे में जो प्रतिमा पे प्रकाश के कारण वो प्रतिमा सजीव हो उठी थी, मैंने वैसी प्रतिमा की सजीवता फिर कभी अपनी जिंदगी में महसूस नहीं की..

भगवान रामचंद्रजी माता सीता और भैया लक्ष्मण के साथ चरणों में हनुमानजी के साथ, उनकी आँखों से ऐसे देख रहे थे, मानो वे सजीव होके मेरे समक्ष रामदरबार में बैठे हों.. चारों तरफ घुप अँधेरा था और सामने स्वयं भगवान अपनी नजरें मुझपे गड़ाए थे, मैं उनकी आँखों के तेज और सजीवता से उस प्रतिमा पर अपनी नजरें नहीं ठहरा पा रहा था.. दीपक के पीले प्रकाश में प्रतिमा स्वर्ण जैसी कांति के साथ चमक सी उठी थी.. मैंने आँखें बंद कर लीं और हृदय से कहा, हे राधामाधव, मैं सदा तुम्हारी ही ओट में रहा हूँ, अब आगे तुम्हीं जानो.. और ध्यान में डूब सा गया..और मुँह से राधेगोविंद निकलने लगा, तभी पीछे से किसी ने मेरे कंधे पे हाथ रखा, मैंने आँखें खोलीं तो बाबा थे, मैंने उनसे सीधे ही कहा, आप कहाँ चले गए थे मुझे छोड़कर, तो बोले..

तू उस पर उजाला करेगा तभी तो वो तुझ पे उजाला करेगा, तुझे इन्हीं पर उजाला करने के लिये छोड़ गया था, चलो अब, मेरे शरीर में रोमांच से सिहरन सी आ गयी थी, मैं उठा और उनके साथ चल दिया, नीचे आकर उस घुप अँधेरे में एक पत्थर की शिला पर, वो बाबा बैठ गए, मुझसे भी बैठने को कहा, सो मैं भी बैठ गया, फिर मुझसे बोले कि, घर जाओ अब, सब राह देखते होंगे, दो पल मुझे भी लगा, दुनिया दीवाली की तैयारी अपने अपने घरों में कर रही है और मैं यहाँ अपने शहर से कई किलोमीटर दूर किसी जंगल में एक मंदिर पे एक लगभग अनजान बाबा के पास बैठा हुआ हूँ, तभी वो बोले, तुम्हारे लड्डू बड़े अच्छे थे, मैंने कहा बाबा आज लड्डू नहीं मावे की बर्फी लाया हूँ आपके लिए, दीवाली पे मिठाई खाते हैं सो आते समय आपके लिए ले आया था, तो फिर वही बात बोले जा टीले पे मंदिर में रख आ, जिन्हें खिलाना थी आज पहले, उसे नहीं खिलाई, उस दिन, दिन का समय था सो टीले पे चढ़ गया था अकेले, उजाला भी था, आज बात कुछ दूसरी थी, रात थी, घोर अंधकार, कीड़ों की आवाजें, जंगल का सन्नाटा, पर उनकी आज्ञा और अपने डर को उनसे छुपाकर, उठा और मिठाई का डिब्बा लेकर टीले पे चढ़ा, मंदिर में मिठाई का डिब्बा रख तो दिया पर तभी देखा कि वो काला दीपक जिसे मैंने जलाया था, उसकी लौ कंपित हो रही है, जैसे तेज हवा से होती है..

जबकि मैंने देखा उस उस छोटे से पत्थर के मंदिर में हवा की कोई गुंजाइश नहीं थी, हवा ज्यादा चल भी नहीं रही थी, मैं थोड़ा डरा पर फिर सोचा भगवान के सामने कैसा डर, सो इस बार बिना सोचे समझे सीधे आगे तक गया और सोचा कि दीपक को उठाकर कहीं दूसरी जगह रख दूँ, जैसे ही मैंने दीपक को उठाया तो पाया, दीपक, आग के जैसा गर्म था, मेरा हाथ चिक ( जल ) गया और मैंने तुरंत ही हाथ हटा लिया और सोचा कि दीपक की लौ अपने आप ही ठीक हो जाएगी, मुझे अब वापस जाना चाहिए, सो मैं उन बाबा के पास वापस पहुँचा सो बोले किसी को उजाला दिखाकर उसे कभी अँधेरा मत दिखाना, तुम दीपक से जल गए केवल यही वजह थी, तो मैं आश्चर्य में पड़ गया कि टीले पे मंदिर में हुई बात इन्हें कैसे पता चली, फिर सोचा कि हो सकता है इन्होंने भी कभी दीपक को छुआ हो, चूंकि मैं जले हाथ की उंगलियों को बार बार हाथ लगा रहा था सो उन्होंने देख लिया हो सो मैंने कहा कि मैं तो बस दीपक को उठाकर दूसरी जगह रखना चाहता था जिससे उसकी लौ ठीक से जलती रहे तो बोले जब किसी को उजाला दिखाओ, तो फिर कभी उसे किसी दूसरी जगह मत रखना क्योंकि जिस अंधकार को उसने प्रकाशवान बना दिया है, जब तुम उस जगह से, उसे हटाते हो तो पुनः उस जगह को अंधकार से भर देते हो, फिर तुम्हारे उसे पहले उजाले दिखाने का क्या फायदा हुआ..

मजा तो तब है कि उसी जगह कुछ ऐसा करो कि वो जगह पुनः कभी अंधकार को प्राप्त ना हो सके, गंभीर विचार था ये, तब मुझे वो दिन याद आया जब मैंने उन्हें रोटी या टिक्कर बनाते देखा था, लगा कि सच्चा ज्ञान वास्तव में किसी एक की धरोहर नहीं, फिर मैंने उनसे पूछा कि आप ये भी बताएं कि फिर मुझे करना क्या चाहिए था, क्योंकि कोई अन्य दीपक वहाँ था नहीं, जिसे जलाकर दूसरी जगह रख देता और फिर लौ तो मुझे उसी दीपक की बचानी थी, तो बोले तुम्हें दीपक के चारों ओर अपने हाथ की ओट कर लेना चाहिए थी, उससे दीपक को हवा नहीं लगती, तो मैं बोला कि ऐसा मैं कब तक किये रहता, मुझे वापस भी तो आना था यहाँ और फिर अपने घर भी तो जाना है, तो बोले, याद रखना किसी को उजाला दिखाना और कब तक दिखाना हम पर ही निर्भर करता है, मैंने कहा, हाँ, पर इसमें नया क्या है, तो बोले ईश्वर भी किसी को उजाला केवल तब तक दिखाता है, जब तक कोई उसके साथ होता है, यदि तुम्हें जाने की जल्दी है कुछ लोगों के लिए, तो ये समस्त ब्रम्हांड तो उसी ईश्वर का ही है, उसे कितनी जल्दी होगी जाने की, कभी सोचा भी है..

फिर बोले अच्छा अब जाओ, फिर मैं उनकी इस गहरी बात को सोचने और समझने लगा और चिंतन में डूब गया, फिर वे मुझसे बोले क्या अगर सीतारामजी से तुमको बात करना मिले तो क्या पूछोगे उनसे या कहोगे या क्या माँगोगे, मैंने कुछ सोचकर कहा, बाबा मैं उनसे बात नहीं करना चाहता, तो गौर से मेरी तरफ देखा और बोले कुछ नहीं.. फिर बोले अब तुम जाओ तुमने अपना काम कर दिया है, तो मैं बोला बाबा, मैंने कौन सा काम किया है, और मैं अभी अघोरी से तो मिला ही नहीं, अघोरी अभी आया या नहीं..आपने तो कहा था कि वो मंदिर में सूर्यास्त के बाद आ जाता है..तो बाबा बोले, अब अघोरी से तुम्हारे मिलने की जरूरत नहीं रही, पहले संकेत आएगा, क्योंकि
तुमने वो दीपक जलाकर, भगवान पे उजाला कर दिया है, अब उसकी बारी है तुम पर उजाला करने की..
हालांकि एक बात याद रखना तुम उसके ही उजाले में रहते हो, और किसी इंसान में कोई बूता नहीं, जो उस पर उजाला कर सके, पर कभी-कभी वो मौका देता है, ऐसे ही दीपक जलाने का या यूँ समझो, जैसे ऐसे मौके जिनसे वो तुमसे प्रसन्न होके, स्वयं पर उजाला करने का मौका देता है, ऐसे मौके जिंदगी में कभी छोड़ना मत..और उनके अंधकार को उजाले में बदल देना अगर हो सके तो, जैसा आज किया, तुमने..

पर एक बात और याद रखना कि, इस दीपक की तरह ही एक उजाला अपने दिल में भी रखना क्योंकि मान लो--

( अगर किसी पहाड़ी की चोटी पे कोई दीपक जल रहा हो, तो हो सकता है कि वो पूरी दुनिया को उजाला ना दे सके, पर याद रखना, वो पहाड़ी पे जलता हुआ दीपक, सभी को, दिखाई बहुत दूर से दे जाता है..)

फिर कुछ देर शांत रहे वो बाबा, और बोले जयसियाराम, अब जाओ..

मैंने उनसे कहा कि बाबा आपने कहा कि ईश्वर भी आपको छोड़ सकता है, पर ईश्वर तो हर जगह है, मनुष्य उसे छोड़ दे समझ सकता हूँ, पर ईश्वर अपने बनाये मनुष्य को छोड़ दे, ये तो ठीक उसी तरह हुआ जैसे ईश्वर भी अपने किये उजाले को, अँधेरे में बदल रहा हो..
तो बोला तुम बहुत बुद्धिमान हो, ऐसा तुम सोचते हो, परंतु मुझसे पूछो तो तुम नितांत मूर्ख हो, मैं समझा था कि मेरे गूढ़ प्रश्न से बाबा प्रभावित होंगे पर उन्होंने तो मूर्ख ही कह दिया मुझे.. सो सोच में डूब गया, फिर बोले सोचो कि जैसे दीपक जल रहा था, और तुमने उसे उठाकर दूसरी जगह रख दिया होता तो क्या प्रकाश की स्थिति भी बदल गयी होती ? तो मैं बोला नहीं, प्रकाश तो तब भी होता ही, तो बोले, तो क्या तुम्हारी स्थिति बदल गयी होती, तो मैंने कहा, हाँ, मेरे दूसरे जगह पर जाने से मेरी स्थिति तो अवश्य बदल जाती..
तो बोले बेटा, प्रकाश के साथ तो, ईश्वर के केस में भी वैसा ही है, और स्वयं ईश्वर की स्थिति के केस में, चूंकि तुमने जैसे कहा कि ईश्वर हर जगह है, तो उसके अपने स्थान को छोड़ने से भी उसकी अनुपस्थिति नहीं मानी जा सकती, मतलब वो किसी को छोड़के भी कभी नहीं छोड़ता..

ये अद्भुत बात सुनकर मेरे आँसू छूट गए थे, और उस रात्रि में मैं वहीं बैठकर उनके सामने रोने लगा था, वो मेरे पास आये और बोले, बेटा अब जा, और जो सीख गया है, उसे जी और कभी हो सके तो कुछ उजाले करना, कुछ अंधकार मिटाना.. जा खुश रह..
मैंने उनके चरण छू लिए.. और किसी तरह अपने को संभालकर उनसे विदा ली.. रोते हुए गाड़ी, मैंने उस रात चलाई थी, मैं अपने आँसू पोंछते जा रहा था, और गाड़ी चले जा रही थी, आते आते शहर में मुझे लगभग 11 बज गए थे..

घर पहुँचा तो सबने पूछा, कि पूजा के समय कहाँ थे, और भी बहुत कुछ, पर मुझे तो सबके बस मुख चलते हुए दिखाई दे रहे थे, उनके शब्द सुनाई ही नहीं पड़ रहे थे, हाथ मुँह धोखे छत पे चला गया, आसमान में देखा तो पटाखे और आतिशबाजी से पूरा आसमान सा छाया हुआ था..मैंने आँखें बंद कर लीं तो ऐसा लगा, जैसे बाबा ने कहा था कि अब उसकी बारी है तुझ पे उजाला करने की, सो वो मेरे लिए इस आसमान में इतना उजाला कर रहा है, मैं फिर भावुक सा हो गया..और पता नहीं फिर उस दिन कितनी देर छत पे बैठा रहा..और कितने आँसू गिराता रहा..

फिर जिंदगी की आपाधापी में मैं इतना व्यस्त हुआ कि सालों वहाँ जा नहीं पाया, और बाइक से ग्वालियर से गुना की दूरी लगभग 220 किलोमीटर है, सो घरवाले भी मुझे बाइक से जाने से मना करने लगे, ट्रेनों का कल्चर हमारे यहॉं बढ़ गया था, और सच कहूँ तो लाइफ में Genius🙎🏻‍♀️, आ गयी थी.. सो सब भूल ही गया, पर कुछ जहाँ तक मुझे याद है लगभग 7 साल बाद मेरा एक बार पुनः बाइक से गुना जाना हुआ सो मैन रोड के उस कच्चे मोड़ से कुछ पहले मुझे सब याद आ गया, बिना किसी द्वंद और भय के अबकी बार गाड़ी उस मोड़ पे आकर मैंने, कच्चे रास्ते से उस मंदिर की तरफ मोड़ दी, मंदिर पहुँचा तो सालों बाद, बहुत कुछ ज्यादा सा बदला नजर आ रहा था.. कुछ 5 या 6 साधु थे, जो अपने अपने काम कर रहे थे, कोई धुनि रमाये था, तो कोई वृक्ष के नीचे बैठा था, मैंने चारों तरफ उन वृद्ध बाबा को ढूंढा, वो मुझे नहीं दिखे तो मैं सीधा टीले पे उस मंदिर में चला गया, दर्शन किये तो ध्यान दिया, वो दीपक अब प्रतिमा के सामने नहीं है, उसकी जगह कुछ और साधारण मिट्टी के कुछ दीपक रखे थे, मैंने उस छोटे से पत्थर से बने कोठरी जैसे मंदिर में इधर उधर उस दीपक को ढूंढा भी, पर वो दीपक मुझे नहीं दिखा, जल्दी से नीचे आया तो एक साधु से पूछा कि बाबा, यहॉं एक वृद्ध से बाबा रहते हैं, क्या आप उन्हें जानते हैं ? तो वो साधु बोला, हम यहॉं पिछली साल आये थे, तब यहाँ कोई नहीं था, और आज भी हमें यहाँ कोई नहीं मिला, मैं सोच में डूब गया, फिर उनसे पूछा कि आपने उस मंदिर में एक काली मिट्टी का दीपक देखा था तो बोले नहीं वहाँ कुछ साधारण मिट्टी के दीपक जरूर देखें हैं..

मैं सोच में डूब गया था, और कुछ कदम बढ़ाते बढ़ाते उसी पत्थर की शिला तक आ गया था जहाँ उन वृद्ध बाबा से अंतिम भेंट हुई थी, मन में आया कि उस दीपक का क्या हुआ, क्या वो टूट गया, क्या सीताराम जी से बाबा ने बात की होगी, स्वयं वो वृद्ध बाबा कहाँ हैं, अघोरी कौन था, उसका क्या हुआ होगा, क्या वो आज भी आता होगा ? बहुत प्रश्न मन में आये, खुद को बहुत कोसा भी, कि सालों में मुझे कभी खुद को उनसे मिलने का होश क्यों नहीं आया, ऐसी ही सोच में डूब गया फिर कुछ सोचकर उस कुँए पे गया, बाल्टी भी वो नहीं थी, जो उस दीवाली की रात बाबा ने पानी खींचने के लिए उपयोग की थी, मैंने पानी खींचकर पानी निकाला और पता नहीं क्यों उस बाल्टी के पानी में फिर से अपना सर दे मारा, जब साँस रुकी तो बाहर निकला, तो लगा, एक युग बीत गया है, मैं कुछ देर वहाँ बैठा और मंदिर से निकल आया..

ये घटना फिर यादों में रह गयी, जी तो किया कि कभी फिर जाऊँ या सीधा दीवाली की रात में ही जाऊँ, पर उन वृद्ध बाबा ने कहा था, किसी और जगह उजाला करने में इंसान की स्थिति बदल जाती है, बात तब है, जब वहीं रहकर उस उजाले को साधा जाए, और ईश्वर तो हर जगह है ही, उसके उजाले तो उसी पर छोड़ दो..सो फिर कभी वहाँ नहीं गया..

यूँ तो जिंदगी में बड़ी दीवालियाँ गुजरीं हैं, कुछ याद हैं, कुछ की याद धुँधली हो गयी है पर वो दीवाली जेहन में कुछ ऐसे याद है कि--
( जैसे उस दिन मैंने भगवान पे उजाला कर दिया था..)..

---- मनोज शर्मा