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अपने-अपने कारागृह - 3

अपने-अपने कारागृह-2

अजय का देवघर स्थानांतरण हुआ तो अजय ने अपने मां -पापा को बाबा बैजनाथ के दर्शन के लिए बुला लिया । बुलाया तो अजय ने उसके मम्मी- डैडी को भी था पर वह अपनी व्यावसायिक व्यस्तता के कारण नहीं आ पाए थे ।

बाबा बैजनाथ धाम की बड़ी मान्यता है । बैजनाथ धाम द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है । सावन के महीने में देश और प्रदेश के हर कोने से लगभग पाँच मिलियन लोग केसरिया कपड़े धारण कर, आस्था का जल अर्पित कर, बाबा बैजनाथ के दर्शन कर स्वयं को भाग्यशाली समझते हैं ।

कहते हैं अगर कोई व्यक्ति यहां आकर कोई कामना करे तो उसकी कामना अवश्य पूर्ण होती है । जिनकी कामना पूरी हो जाती है वह सुल्तानगंज से गंगा जल एवं कांवड़ लेकर ,केसरिया कपड़े धारण कर ,लगभग 108 किलोमीटर की नंगे पांव यात्रा कर , बम- बम भोले का नाद करते हुए ,बाबा भोलेनाथ के दर्शन कर ,उनको गंगा जल अर्पण कर स्वयं को धन्य मानते हैं । कुछ लोग तो बिना रुके अपनी इस यात्रा को पूरा करते हैं । शासन की ओर से इन कांवड़ियों को हर सुविधा प्रदान की जाती है । जगह-जगह पर इन कावड़ियों के लिए चाय पानी के साथ खाने-पीने की भी व्यवस्था होती है ।

उषा को इन भक्तों की श्रद्धा पर आश्चर्य होता था । भला नंगे पांव पैदल चलकर दर्शन करने वालों को क्या भगवान का अधिक आशीर्वाद मिलेगा ? वह मम्मी जी और पापा जी के साथ मंदिर दर्शन के लिए गई तो थी पर बेमन से । उसे मंदिर मंदिर भटकना व्यर्थ लगता था । उसे लगता था अगर पूजा ही करनी है तो घर में ही कर लो पर अजय को पूजा पाठ में कुछ अधिक ही विश्वास था इसलिए उसने अपने मम्मी -पापा को दर्शन करने के लिए बुला लिया था । अजय की वजह से बाबा भोलेनाथ के दर्शन अच्छी तरह से हो गए थे । कम से कम ऐसे स्थलों में रहने वाली भीड़ से भी बचाव हो गया था । मम्मी -पापा भी बाबा भोलेनाथ के दर्शन कर बेहद प्रसन्न थे ।

मम्मी -पापा लगभग एक महीने उनके साथ रहे थे । पदम और रिया उनसे बेहद हिल गए थे । दो वर्षीय रिया मम्मी जी के हाथ से ही खाना खाना चाहती थी , उन्हीं के साथ सोना चाहती थी वहीं चार वर्षीय पदम जब तक अपने दादा- दादी जी के साथ पार्क नहीं घूम लेता, उन्हें छोड़ता ही नहीं था और सब तो ठीक था पर उषा को लगने लगा था कि दोनों बच्चे जिद्दी होते जा रहे हैं । उसकी कोई भी बात नहीं सुनते हैं अगर वह कुछ कहती तो मम्मी जी तुरंत टोक देतीं ,' अरे बच्चे हैं । बच्चे अभी शैतानी नहीं करेंगे तो कब करेंगे ? वैसे भी यही उम्र है खेलने कूदने की । जहां एक बार स्कूल के बैग का बोझ कंधों पर आया, सारी शैतानियां धरी की धरी रह जाएंगी ।'

पदम ने प्ले स्कूल में जाना प्रारंभ कर दिया था पर उसे लगता था जैसी शिक्षा वह बच्चों को देना चाहती है वह इन छोटी जगह में दिलवाना संभव नहीं है पर इतने छोटे बच्चों का को कहीं भेजना भी संभव नहीं है । अनिश्चय की स्थिति में उसने अजय से कहा तो उसने कहा ,' स्कूल सभी अच्छे होते हैं । बच्चे के मानसिक विकास में जहां परवरिश का योगदान होता है वहीं पढ़ाई बच्चों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है । अगर फिर भी तुम बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान नहीं चाहती तो बच्चों को लखनऊ लेकर चली जाओ । मम्मी -पापा के साथ रहकर पढ़ाओ । मैं आता जाता रहूँगा ।'

उषा को अजय से अलग रहना मंजूर नहीं था । वैसे भी अजय के साथ रहते उसे जो सुख सुविधाएं मिल रही थीं वह उन्हें छोड़ना नहीं चाहती थी इसलिए कभी दूरी तो कभी व्यस्तता का बहाना बनाकर वह तीज त्योहारों पर नाते -रिश्तेदारी मैं भी जाने से बचती रही थी । इन सबके कारण उसकी मायके और ससुराल वालों से तो दूरी बढ़ी ही , अपने बच्चों पदम और रिया की फीलिंग की भी वह परवाह नहीं कर पाई । वह उन्हें शांति के पास छोड़ कर अपने सामाजिक कार्यक्रमों में व्यस्त रहा करती थी । अपनी व्यस्तता एवं बार-बार स्थानांतरण का हवाला देकर उसने अजय के विरोध के बावजूद बच्चों की बेहतर शिक्षा की दुहाई देकर छोटी उम्र में ही उन्हें देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया था ।

उस समय उसे न केवल अजय का वरन् अपने मम्मी- डैडी और सास-ससुर के विरोध का भी सामना करना पड़ा था । अजय से तो कई दिनों तक उसकी बोलचाल ही बंद रही पर वह अपने निर्णय पर अडिग रही क्योंकि उसका मानना था कि अच्छे स्कूल में न केवल पढ़ाई अच्छी होती है वरन व्यक्तित्व का भी विकास होता है ।

वर्ष में दो बार वह पदम और रिया के जन्मदिन के अवसर पर उनसे मिलने अवश्य जाती थी जिससे उन्हें दूरी का एहसास ना हो तथा वे इस बात को समझ सकें कि उनकी मां ने जो किया उनकी भलाई के लिए ही किया है । वह पदम के जन्मदिन पर पदम के साथ रिया के लिए तथा इसी तरह रिया के जन्मदिन पर पदम के लिए भी उपहार ले जाती । अच्छे रेस्टोरेंट में उनके मित्रों को ट्रीट देने के साथ रिटर्न गिफ्ट भी देती थी । एक अच्छा समय उनके साथ व्यतीत कर घर वापस आती तो बच्चों के खुशी से भरे चेहरे उसके सारे अपराध बोध को दूर कर देते थे ।

पदम रिया के जाने के पश्चात उषा ने भी उनकी कमी महसूस की थी । खाली घर खाने को दौड़ता था अतः खाली समय को भरने के लिए उषा ने स्वयं को पहले से भी अधिक क्लब ,किटी तथा समाज सेवा में व्यस्त कर लिया था । उसने पढ़ाई के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा केंद्र खोले थे । इस कार्य के लिए उसने विभिन्न स्कूलों के शिक्षकों से भी सहायता मांगी थी । सभी ने उसके इस नेक कार्य की न केवल भूरी भूरी प्रशंसा की वरन अपना योगदान देने का भी प्रयास किया । उन्होंने विद्यार्थियों की योग्यता के अनुसार उन्हें विभिन्न कैटेगरी में विभक्त किया तथा उन्हीं के अनुसार पढ़ाई करवाने की व्यवस्था की ।

शांति को जब इस प्रौढ़ शिक्षा केंद्र के बारे में पता चला तब उसने एक दिन दबी जुबान से कहा, ' मेम साहब, मैंने पांचवीं कक्षा तक पढ़ाई की है आगे भी पढ़ना चाहती हूँ अगर आप आज्ञा दें ।'

उषा को भला क्या आपत्ति हो सकती थी उसकी इच्छा का मान रखते हुए उसने शांति को भी प्रौढ़ शिक्षा केंद्र में भेजना प्रारंभ कर दिया था और सच उसकी सीखने समझने की क्षमता देखकर शिक्षक भी हैरान थे ।

उषा ने शांति की योग्यता देखकर उसे पुस्तकें तथा स्टेशनरी से लेकर सारी सुख सुविधाएं प्रदान की । उसके हर्ष का पारावार न रहा जब एक वर्ष के अंदर ही शांति ने आठवीं की परीक्षा दी तथा उसमें 60% अंकों से पास हुई थी । इस सफलता ने उसे इतना उत्साहित किया कि उसने आगे पढ़ने की ठान ली । उषा के प्रयासों तथा शांति की मेहनत का ही फल था कि उसने धीरे-धीरे दसवीं, बारहवीं तथा ग्रेजुएशन भी कर लिया । यद्यपि इस बीच अजय का तीन चार जगह स्थानांतरण हुआ पर शांति ने अपनी पढ़ाई जारी रखी । ग्रेजुएशन करने के पश्चात अब उसकी इच्छा बी.एड. करने की थी । उसकी इच्छा का मान रखते हुए उषा ने उसका बी .एड.में एडमिशन करा दिया ।

समय के साथ उसकी सामाजिक व्यस्तताएं बढ़ती गईं । अजय चाहते थे जब बच्चे घर आए तब वह अपनी सामाजिक गतिविधियों पर रोक लगा दे । कम से कम उन्हें एहसास तो हो कि उसके माता- पिता उनकी परवाह करते हैं । अपनी इस बात को पूरा करने के लिए वह यथासंभव समय पर घर आने का प्रयास करती पर संयोग ऐसा होता कि जब बच्चे आते उषा की व्यस्तता और बढ़ जाती । कभी उसे किसी कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए जाना होता तो कभी कोई चैरिटेबल संस्था अपने कार्यक्रम उसकी अध्यक्षता में करवाना चाहती तो कभी उसके द्वारा स्थापित प्रौढ़ शिक्षा के लिए चलाए जा रहे केंद्रों में उसे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने होती तो कभी कोई संस्था अनाथालयों में कपड़े और खाने का वितरण करना चाहती थी । वह चाहती थी कि अपनी जगह किसी अन्य को भेज दें पर संस्था के आयोजक उसी से आने का आग्रह करते क्योंकि उन्हें लगता था कि अगर वह उनका उद्घाटन करेगी तो उनको ज्यादा प्रचार और प्रसार मिलेगा ।

सच कभी कभी बाहरी जिम्मेदारियां इंसान को इतना विवश कर देती हैं कि वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता है । कभी-कभी उषा को लगता कि अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के कारण वह घर परिवार पर अधिक ध्यान नहीं दे पा रही है । बाहरी फ्रंट पर वह अवश्य सफल है जबकि बच्चों के प्रति वह अपना दायित्व पूर्णरूपेण नहीं निभा पा रही है तब वह अपराध बोध से भर उठती थी ।

बच्चों से अधिक सामाजिक प्रतिबद्धता को महत्व देते देखकर भी अजय ने उसको न कभी टोका और ना ही रोका । यहां तक कि बच्चों के सामने भी उसकी व्यस्तता को उत्तरदायित्व का जामा पहनाकर उनको संतुष्ट करने का प्रयास करते रहे क्योंकि उन्हें लगता था थोड़े समय के लिए बच्चे आए हैं उनके सामने ऐसा कुछ ना हो जिससे वे यहां की कटु स्मृतियां लेकर जाएं ।

सच तो यह था कि अजय की समझदारी और सहयोग के कारण ही पदम और रिया के मन में उसके लिए कटुता नहीं आई । वैसे वह स्वयं ही ऐसे समय में बच्चों को सॉरी कहते हुए ,उनकी हर इच्छा को पूरा करने के साथ उनके साथ अधिक से अधिक समय गुजारने का प्रयास करती। संतोष था तो सिर्फ इतना कि समय के साथ पदम और रिया उसकी मजबूरी समझने लगे थे तथा उसका मनोबल बढ़ाने के लिए कभी-कभी वे स्वयं ही उससे जाने का आग्रह करते ।

धीरे-धीरे उन्हें अपनी मम्मा की उपलब्धियों पर गर्व होने लगा था । समाज के लिए कुछ करने की उसकी जिजीविषा धीरे-धीरे उसका जुनून बनती गई । यही कारण था कि अगर वह किसी ऐसे शहर में जाती जहां प्रौढ़ शिक्षा जैसे केंद्र नहीं होते तब वह इन केंद्रों को खुलवाती । अनाथ आश्रम जैसी संस्थाओं को 'महिला क्लब' के माध्यम से सहायता दिलवाती । इन सामाजिक गतिविधियों के अतिरिक्त वह महिलाओं के मानसिक विकास के लिए 'महिला दिवस' पर वाद विवाद प्रतियोगिता का खुला आयोजन करवाती जिसमें शहर की कोई भी महिला सम्मिलित हो सकती थी वहीं सावन में 'सावन संध्या 'का आयोजन करके वह महिलाओं के रुझान को सांस्कृतिक कार्यक्रम की ओर मोड़कर उन्हें एक नई पहचान दिलवाने का प्रयास करती ।

आश्चर्य तो उषा को तब होता जब थोड़ी सी ही प्रेक्टिस के पश्चात कुछ महिलाएं इतना अच्छा प्रदर्शन करती कि लगता ही नहीं था कि वे प्रोफेशनल डांसर नहीं हैं । वर्ष में एक बार वह खेल सप्ताह का भी आयोजन करवाती जिसमें महिलाओं के अलावा बच्चों के लिए भी स्पून रेस, कैरम, टेबल टेनिस इत्यादि की प्रतियोगिताएं करवाती । इसके साथ वह हर वर्ष 'महिला क्लब' की ओर से एक जरूरतमंद बच्चों को शिक्षा का प्रबंध करवाती । बच्चा ऐसा चुनती जो पढ़ने में बुद्धिमान हो पर जिसके माता-पिता उसकी पढ़ाई का निर्वहन ना कर पा रहे हों । इसका पता लगाने के लिए वह सरकारी स्कूल के प्रधानाचार्य से संपर्क स्थापित करती तथा उनके द्वारा चयनित बच्चे की छात्रवृत्ति का प्रबंध करवाती । अगर उस बच्चे का पूरे वर्ष का रिकॉर्ड अच्छा रहता तब दूसरे वर्ष भी उसे ही सहायता प्रदान की जाती अन्यथा दूसरा बच्चा चुना जाता । पहले तो वह यह सामाजिक कार्य सिर्फ नाम के लिए किया करती थी पर धीरे-धीरे यह उसकी आदतों में शुमार होते गए । उसे लगता था कि एक उच्च पदस्थ अधिकारी की पत्नी होने के नाते उसका समाज के प्रति भी कुछ कर्तव्य और दायित्व है । वह अपना दायित्व पूरे तन -मन से निभाने का प्रयत्न करने लगी । अपनी इसी विशेषता के कारण वह सबकी चहेती बनती गई ।

सुधा आदेश

क्रमशः