Suljhe Ansuljhe - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

सुलझे...अनसुलझे - 3

सुलझे...अनसुलझे

अपने

-------

अपने अस्पताल में काउंसिलर के रूप में काम करते हुए मुझे कई साल हो गए थे। काफी देर तक मरीज़ देखने के बाद, जब थकने लगी तो सोचा एक चक्कर कॉरिडोर का लगा कर आऊँ। बस यही सोचकर चेम्बर से बाहर निकल आई।

तभी आई. सी. यू. के बाहर एक मरीज़ की परिचिता को तेजी अंदर प्रविष्ट होते हुए देखा| जिसके हाथ में छः से आठ माह का बच्चा था और उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ती हुई दिखाई दी। मैं तीन या चार बार उधर से गुजरी| मैंने उसको बदहवास हाल में तीन-चार चक्कर सीढ़ियों से ऊपर-नीचे लगाते हुए देख लिया था। फिर वह हाथों में दवाइयों का बैग पकड़े, ड्यूटी पर उपस्थित नर्सिंग स्टाफ से बात करती हुई नज़र आई| तभी डॉक्टर को सामने पाकर उनसे आग्रह करने लगी...

‘डॉक्टर प्लीज! कुछ भी करिये इनको बचा लीजिये...प्लीज बचा लीजिये।‘...

अपनी बात कहते- कहते उसकी रुलाई भी फूट पड़ी। उसको इस हाल में देख मेरा मन पसीज गया। तेज़ी से उसके पास पहुँचकर मैंने उसको सब ठीक हो जाने का दिलासा दिया| फिर उसे अपने चैम्बर में साथ लेकर आ गई।

‘क्या नाम है तुम्हारा?’ मैंने पूछा।

‘जी मेरा नाम कनिका है| ....चार दिन पहले मेरे पति का मोटर-साईकल पर एक्सीडेंट हो गया ..जैसे-तैसे लोगों ने मोबाइल से मुझे सूचित किया| उन्हीं लोगों ने मेरे पहुँचने पर अस्पताल शिफ्ट करवाने में मदद की|..मेरे पति निखिल आई.सी.यू.में हैं। अब डॉक्टरों का कहना है कि वह सीरियस है....कुछ समझ नही आ रहा क्या करूँ|’

बातचीत के दौरान बच्चे के लगातार रोने से वह और भी झुंझला रही थी। शायद नन्ही-सी जान भूख से बेहाल था| उसको पानी पिला कर मैंने कनिका को तसल्ली से बच्चे को दूध पिलाने को कहा और साथ ही साथ पूछा-

‘अकेले ही रहती हो इस शहर में? निखिल या तुम्हारे परिवार के कोई सदस्य नही रहते साथ में?’

मेरे प्रश्न पूछते ही वह सुबकने लगी थी ...और सुबकते-सुबकते ही बोली..

‘मैम! मैं ही माँ-पापा को कहा करती थी| मुझे ऐसे परिवार में शादी नही करनी ,जहां सास-ससुर की ज़िम्मेवारी हो। मुझे किसी की भी रोक-टोक नही चाहिए। सो बहुत मुश्किल से यह रिश्ता मिला था पापा को| जिसमे लड़के के माँ-पापा साथ न रहते हो। मेरे पति निखिल की एक बहन भी है इसी शहर में।....

मेरी बेवकूफियों की वजह से मैंने उससे भी संपर्क नही रखा...और आज इस मुसीबत के समय में अकेले दौड़ना मेरा अपना ही चयन है। परिवार के दूसरे सदस्य मेरे लिए बंधन थे| तभी आज ये कष्ट भी मेरे अकेले के ही हैं। मेरे परिवार में मां की तबियत काफी खराब है। वह अस्पताल में है| सो उनको बताने का कोई मतलब नही था।‘

‘सूचित किया तुमने निखिल की बहन या मां -पापा को?’

‘जी नहीं| हड़बड़ाहट में अपनी ही सुध खो बैठी हूँ| समझ ही नही आ रहा किसको क्या बोलूं,क्या कहूँ... कुछ भी बोलने या कहने से पहले बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर मुझे ख़ुद को और बाकी लोगों को भी तो देने होंगे।‘....

अक्सर ही अपनी संकीर्ण सोच की वज़ह से हम दूर तक की बातों को सोच ही नही पाते। जिनको हम बंधन मानते हैं वह सिर्फ हमारी सोच के दायरों में गांठ बनकर हमारे सोचने के रास्तों को अवरुद्ध कर देते है| जिनका पछतावा किसी विपत्ति के समय या जरूरत के समय होता है। जो परिवार की महत्ता को नकारते हैं, ऐसी सोच के लोग अच्छे मित्र बनाने में भी उतने सफल नही होते जितने कि रिश्तों की महत्ता समझने वाले लोग होते हैं।

इसके बाद मैंने अपनी बात पुनः जारी रखी...और कनिका को कहा....

‘ठीक कह रही हो तुम कनिका| प्रश्नों के उत्तर तो देने होंगे ही। पर सच कहूं , तुम दिल की उतनी खराब नही हो| बस थोड़ी नादान हो...चाहो तो अभी फ़ोन करके निखिल के माँ-पापा और बहन को सूचित करो क्योंकि निखिल भी किसी का बेटा और भाई है| उनको इस एक्सीडेंट की ख़बर मिलनी ही चाहिए|’..

मेरी बात को सुनकर उसने बग़ैर कुछ अतिरिक्त सोचे, फ़ोन करके सबको सूचित किया और आने का आग्रह भी किया। इन विपरीत परिस्थितियों में शायद उसके नासमझ से दंभ को सिर्फ मेरे कहने के सहारे की जरूरत थी| जिसको तोड़ने के लिए बहुत जल्दी ही उसने स्वयं को स्वीकृति दे, सबसे संपर्क साधने के मानस बना लिया था।

तभी नर्स ने आकर निखिल के होश में आने की सूचना दी|...हम दोनों ही आई. सी.यू.की तरफ दौड़ पड़े। निखिल के आँखें खोलते ही एक उम्मीद की किरण हम दोनों की ही आंखों में नज़र आई। कनिका ने बच्चे को भी दूध पिला दिया था सो वो भी शांत निश्चिंत उसके कांधे पर सिर रख गहरी नींद में सो रहा था। चूंकि निखिल से बात करना और आई. सी. यू. में ज्यादा देर ठहरना संभव नहीं था और कनिका की आँखों में कुछ सुकूं देख मैंने उसे चाय पीने के लिए अपने चेम्बर में बुला लिया।

उसको थोड़ा-सा शांत देखकर 'सब धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा' की सांत्वना देकर मैंने उसे विदा किया| अस्पताल की भागदौड़ में ख़ुद का और बच्चे का भी ख्याल रखने का बोलकर मैं वापस अपने मरीज़ देखने में मशगूल हो गई|

पर बीच में जब भी मुझे समय मिलता एक सोच बराबर बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर करती रही....

परिवार जीवन की अहम इकाई होते हुए भी आज क्यों उपेक्षित हो रहा है? क्या छोटे-छोटे स्वार्थो के लिए इसके महत्व को कम करना विवेकपूर्ण है या इसकी महत्ता को महसूस करने के लिए किसी हादसे को घटित होना चाहिए ?...सोच कर देखिये तो ...यही सोचनीय था कल भी ,आज भी और हमेशा ही रहेगा ....

यही ख्याल बराबर मेरे दिमाग़ पर जाने कब तक चोट करता रहा।....

प्रगति गुप्त