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मंथन 1

मंथन

रचनाकाल- 1977 ई.

उपन्यास

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

एक

सूर्य की सुखद किरणें धरती का आलिंगन करने के लिए धरती की ओर दौड़ती आ रही थीं। घर के सभी लोग यह सोचते हुए उठ गए थे कि आज रवि की बरात लौट रही है। सुबह की गाड़ी से आ जाएगी।

जब बरात लौटने को होती है तो दहेज के बारे में जानने की उत्कंठा लोगों के मन में सवार हो जाती है। आज गाँव भर में यही चर्चा थी। दूल्हे की मां और ताई में यह विवाद छिड़ा हुआ था कि दहेज में क्या मिलेगा ? दूल्हे की ताई का कहना था, ‘जब कुछ मांगो नाने तो मिलवे बारो सोऊ नानें।’

‘न मिले कुन किस्मत चली जाएगी। कहा करें रवि डॉक्टर, कहा बनिगओ है, जाने कहा सोचतो।‘

‘अरे बीस हजार नकद मिलते पर भगवान ने बुद्धि पलट दई।‘

‘चलो तुम्हारें पढ़ी-लिखी बहू तो आ रही है।‘

‘पढ़वे से कहा हमें नौकरी करवानो है।‘ ताई ने जवाब दिया।

‘तोऊ कहा है जीजी, आखिर रवि डॉक्टर बनिगओ है सो।‘

‘हाँ वाय चाहिए तो मेंम ही, तईसे ज व्याह करिवे तैयार हो गओ।‘

‘कछू कहो, मांग तो मांगनी ही चाहिए थी।‘ ताई ने कहा

‘रवि की माया तो हमाये समझ में नहीं आती।‘

‘व मेम सेबा करिबे बारी तो नानें। न आड़ मरजाद रहेगी, दोऊ कुटुर-कुटुुर बातें करेंगे।‘

‘ऐन करें जमानों बदल गओ, फिर मोड़ा और बहू पढ़े-लिखे हैं तो बातें काये न करेंगे?‘

‘ये तेई इच्छा है तो मोय कहा! सब गाँव कहि रहो ह,ै मांग काहे न मांगी। मोड़ा डॉक्टर हो गओ है बीस-पच्चीस हजार से कम न मिलतये।‘

‘हम कहा करें जीजी, वानें नहीं काहुए पूछी। अपयें मन से करी है।‘

‘पढ़ावे से मोडा़-मोड़ी ही बिगड़ जातयें।‘

‘बिगड़ी गये।

‘चल ठीक ह,ै अब पछिताय होत कहा, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।‘

‘तईसे तो मैं कह रही हों जो होनो हती सो हो गई।‘

‘तो बरात तो लौटिये बारी है।‘

‘हाँ जीजी है तो।‘

‘जल्दी से कामधाम निबटा लेऊ। आज बार अच्छो है, संझा को देव-धमानन की पूजा आज ही करबा लियो।‘

‘मैं करबा लऊं।‘

‘मैं तो कह रही हों लड़का बच्चा सयाने हैं।‘

‘तो चली जईयो सो पूजा करवा लईयो।‘

‘नेक सिदौसे निकर जईयो।‘

‘ठीक है, मैं नाइन यें टेर जाऊं।‘

‘जमानों बदल गओ है, पहलें बिना टेरे आजाती अब ं ं ं!‘

रवि की मां यह कहते हुए घर से नाइन को बुलाने चली गईं।

बरात सुबह के नौ बजे लौट आई थी। सभी को खाना-पीना खा चुकने में तीन बज गए। सभी औरतें देवपूजन की तैयारी में लग गई। इस क्षेत्र में एक परंपरा चल रहा है कि नव वर-वधू को सारे गाँव की परिक्रमा करनी पड़ती है। साथ ही साथ देवस्थलों पर रुक कर पूजा भी करनी पड़ती है।

लगभग चार बजे सभी परिक्रमा को निकल पड़े। आगे-आगे रवि चलते हुए सोच रहा था-आज हम परम्पराओं को निभाने में इसलिए विरोध नहीं करते, क्योंकि उनके निभाने से कुछ हानि भी तो नहीं है। कुछ लाभ भी होता है या नहीं, इसकी भी परवाह नहीं करते और परम्पराओं को निभाते चले जाते हैं।

उस उसकी पत्नी साधना उसके पीछे पीछे चल रही थी। उसके उस लोकगीत गाती हुई औरतें चली आ रही थीं। घर से लगभग पचास कदम ही चले होंगे कि हुनमान जी का मन्दिर आ गया। सभी औरतें गाती हुई मन्दिर के नीचे खड़ी रहीं। नव वर-वधू मन्दिर में चले गए। उनके उस ही रवि की बड़ी बहन दुर्गा भी पहुँच गई। पहले वर-वधू ने भगवान की पूजा की। जब पूजा से निबटी तो दुर्गा ने साधना का घूंघट उलट दिया। रवि और साधना के मुँह में लड्डू ठूंस दिये। साधना का लड्डू जरा बड़ा था तो साधना का मुँह फूल गया। दुर्गा बोली, ‘देखा रवि, यह कैसी बहू लाया है जिसके गाल फूले हुए हैं।‘ इतना कहते में तो साधना लड्डू गटक गई। रवि बोला-‘कहाँ ! देखना दीदी अच्छी तो है।‘

यह सुनकर साधना ने लजाकर फिर घूंघट डालना चाहा तो दुर्गा बोली-‘यह क्या करती है साधना, यह घूंघट उलटने के बाद पुनः घूंघट की आवश्यकता नहीं रह जाती। यहाँ से नारी बराबर की हकदार हो जाती है।‘

साधना ने घूंघट हटा दिया और बोली-‘दीदी ?‘

‘हाँ साधना, भारतीय संस्कति की यह परम्परा है ं ं ं !‘

‘पर दीदी अन्य औरतें तो !‘

‘परदा पलटने के बाद पुनः परदा करने लगती हैं, फिर परदा उलटने का क्या महत्व रह जाता है।‘

‘मैं चाहती हूँ तुम ं ं ं !‘

‘ठीक है दीदी, आप कहती हैं तो ं ं ं !‘

‘मैं नहीं कहती, यह परम्परा ही अपनी भाषा बोल रही है।‘

रवि, साधना और दुर्गा तीनों मन्दिर से बाहर निकले। सामने औरतें खड़ी थीं तो साधना ने गर्दन झुका ली, पर परदा नहीं किया। सभी देखती रह गईं।

अब रवि फिर आगे-आगे चलने लगा। साधना उस-उस। दुर्गा पास आगर बोली-‘उस चलने के लिए ही क्या भैया से ब्याह किया है ? भैया इन्हें साथ लेकर चलो न !‘

अब रवि ठिठक गया। साधना बराबर में आ गई। औरतें उस चली ही आ रही थीं। दुर्गा भी उस रह गई।

थोड़ा आगे बढ़े कि रवि ने एक गली में बने घर की ओर इशारा किया-‘यह मेरे ताऊ का घर है, इसमें कैलाश भैया रहते हैं।’

‘साधना बोली नहीं। आंखें उठाकर उधर देखा और रवि के साथ आगे बढ़ गई। थोड़ा और चले तो रवि ने कहा, ‘वह दूर दिख रहा है हमारी बुआ का घर। वैसे ये रहने वाले तो ग्वालियर के पास एक गाँव के हैं, पर यहाँ फूफाजी और बुआजी हम लोगों की वजह से आकर बस गए थे। वहाँ इनके परिवार वाले तंग करते होंगे। इन्हीं का लड़का कान्ती बाबू है।‘

बात सुनकर भी साधना चुप रही। अब रवि फिर बोला, ‘यह अपने गाँव के नाई का घर है।‘ अब सभी और आगे बढ़ गए तो बशीर साहब का घर आ गया। रवि कहना चाहता था पर रुक गया। लम्बी चुप्पी के बाद रवि फिर बोला, ‘यह पटेल रंगाराम जी का घर है और यह रहा श्यामलाल पापा जी का घर।‘ साधना फिर भी चुप रही।

अब गाँव की परिक्रमा करते हुए, गाँव के देवतपाओं, कुल-देवताओं की पूजा करते हुए सभी बड़े मन्दिर पर जा पहुँचे।

प्रवेश द्वार का टूटा-फूटा दरवाजा। सभी ने उस में प्रवेश किया। पुजारी आ गया। दो चौक पार कर मन्दिर के गर्भग्रह में जा पहुँचे। औरतें बाहर रह गईं।

राम लक्ष्मण की सुन्दर मूर्तियों को देखकर साधना ने हाथ जोड़ दिए। पूजन करने के बाद परिक्रमा करने निकले। ‘मन्दिर बहुत ही आलीशान है।‘

साधना ने कहा, ‘हाँ महन्त साहब तो शहर में रहते हैं, उन्होंने अपना पुजारी यहाँ मन्दिर की सेवा पूजा के लिए रखा है।‘

‘इस मन्दिर से तो जमीन-जायदाद लगी होगी।‘ शहर

‘हाँ, दो सौ बीघा रकबा इस मन्दिर से लगा है।‘

‘इतनी बड़ी प्रोपर्टी और मन्दिर की यह दुर्दशा ?‘

‘यहाँ जो कुछ था, सारा का सारा वह शहर में ढोकर ले गया।‘

‘किसी दिन मुर्तियाही न ले जाए।‘

‘ले ही जाएगा।‘

‘और विदेशों में बेच देगा।‘ साधना ने कहा तो रवि झट से बोला, ‘हमें ऐसी बातें सोचने में भी संकोच लगता है।‘

यह बात करते वे अपनी परिक्रमा पूरी कर चुके। अब मन्दिर के सामने जहाँ सारी औरतें थीं, आ गये।

अब सभी लोग अपने गाँव की ओर लौट पड़े। शाम होने को थी। नाला पार किया। हरी-हरी दूब और घने पेड़ की छाया देखकर दुर्गा बराबर में आई और बोली, ‘भाभी, जब भइया गाँव में रहते थे तब इसी पेड़ के नीचे आकर बैठा करते थे।‘ यह सुनकर साधना ठिठक गई। सभी औरतें साथ आ गईं। अब धीरे-धीरे सभी घर की ओर चल दिये। औरतें अभी भी लोकगीत गाती आ रही थीं।

नोनी दुलहिया, लटकारी दुलहिया।

फुनना सी दुलहिया !

क्रम गुन मिल गई नोनी दुलहिया।।

माथे रे बैंदा जुड़ाओ को शोभै।

झूमरि ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

नक चुनी नक पेसरि शोभै।

नथुली ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

कान मनिहारे तरकुला शोभे।

झुमकिन ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

हंस हबेला गुदी खगवारो।

हरवा ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

पतरी सी कमर करधोनी शोभै।

गुच्छा ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

छै-छै चुरन विच गजरे शोभै।

कंगन ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

गोरी गोरी विधुरिन कलई की जेहर

घुंघरू ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

दसौ दुगरियन बिछुआ शोभै।

वांकेन ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

दसौ नुगरियन मुंदरी शोभै।

घड़ियन ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

सालू ने ऊपर कसाब को लेंगा।

चदर ऊपर फूली तुरईया।। करम गुन ं ं ं

रात्रि के दस बजा चाहते थे। रविकान्त ने अपने बैड-रूम में आहिस्ता से कदम रखा। साधना के दिल की धड़कनें बढ़ गईं। धड़कनें तो रविकान्त के दिल की भी बढ़ गई थीं। धीरे से कमरे में कदम रखते हुए बोला, ‘क्या नींद आ रही है ?‘

साधना कुछ नहीं बाली। शरमाते हुए आंचल में गर्दन छुपाने की कोशिश करने लगी। वह समझ गई कि रविकान्त के कदम लड़खड़ा रहे हैं। मित्र मण्डली में पीकर आये हैं। वह सोच रही थी- मेरे जीवन का यह दिन बहुत पहले आ चुका था। आज आना चाहिए था। काश ! उसे लूटा न गया होता तो आज पति के सामने समर्पण में संकोच न करती।

प्राणहीन-सी मूर्ति आत्मचिन्तन में डूबी हुई थी। वह अभी सोचे जा रही थी-पति प्रणय के लिए तैयार हो गए हैं। वह जान गए कि उनकी पत्नी का कभी शील भंग हो चुका है। वह एकदम उठ खड़े होते हैं। मैं उन्हें पकड़ने की कोशिशि करने लगी हूँ। वह कमरे से बाहर चले जाते हैं। इतना ही सोच पाई कि लड़खड़ाते हुए वह और पास आ गए। उनके मुँह से शराब की गन्ध आ रही थी। साधना को लगा वह गिरने ही वाले हैं इसलिए वह झट से उठी और उनकी बांह पकड़कर स्लीपिंग बैड पर बैठाने को हुई तो वह मुँह बनाते हुए बोला-‘बांह पकड़ी है तो अच्छी तरह पकड़ के रखना, छूट गया तो पता नहीं किस खड्डे में जाकर गिरूं, यदि फिर न निकल पाया तो हाथ मलती रह जाओगी।‘

साधना से रहा नहीं गया। वह झट से बोली, ‘काश ! आप अभी तक न गिरे होंगे तो मैं बचाने की कोशिशि ही कर सकती हूँ। बांह तो आपने नहीं मैंने पकड़ी है। पकड़ने वाला पकड़ता रह जाता है और गिरने वाला गिर जाता है। बचना चाहता है तो अपने मनोबल से ही बच सकता है। सहारे की आशा में आई अबला, काश ! सहारा बन सकती।‘

‘तुम तन से ही नहीं, मन से भी सुन्दर जान पड़ रही हो।‘

‘सुन्दरता मन और तन की नहीं दृष्टि से होती है। असुन्दर के प्रति भी सुन्दर विचार रखे जा सकते हैं।‘

बात की गोली कुछ कड़वी लगी। पत्नी को जवाब देना आवश्यक हो गया। ऐसा उसने नशे में महसूस किया और नशा करने पर मन ही मन पश्चाताप करते हुए बोला- ‘सुन्दरता सुन्दरता होती है। सुन्दरता के प्रति सुन्दर विचार होने पर अतिसुन्दर होता है। असुन्दर के प्रति मात्र भाव हो सकते हैं, सुन्दरता नहीं। यह मन की सच्चाई है। वह मन की समझाइश !‘

यह कहते हुए बात आगे न बढ़े, यह सोचते हुए वह पत्नी की सुन्दरता का वर्णन करने लगा। दोनों अतीत को भूल गए। थोड़ी देर में दोनों एक-दूसरे के बाहुपाश में बंधे थे।

वसना की प्यास को कुछ क्षणों के लिए विराम मिला। रविकान्त का नशा तो कुछ हल्का हुआ, पर नशे की खुमारी रंग पर थी। वह स्वर्ग के उस कोने को अपने से दूर नहीं होने देना चाहता था। वह फिर साधना को अपने आलिंगन में लेने की कोशिशि करने लगा। अब तक साधना पूर्ण चेतन अवस्था में आ चुकी थी। उसका मस्तिष्क जल्दी-जल्दी काम करने लगा था। उसे वह दिन याद आया जब उसकँूे साथ नशे की हालत में बलात्कार किया गया। ‘नशे की हालत में मैं अपने आप को बचा न पाई थी। बेहोशी की दवा ने मेरे सतीत्व को नष्ट कर दिया। प्रतिरोध भी न कर सकी। आज पति के नशे ने भंग सतीत्व पर पर्दा डाल दिया। नहीं, यह अच्छा नहीं हुआ। क्यों न मैं इसी वक्त अपनी सारी कहानी बता दूं। नहीं-नहीं, पर्दे के उठने पर यह सहन नहीं कर सकंेगेे। इस धधकती हुई चिनगारी को मुझे अपने सीने में ही छिपाकर रखना चाहिए। ईश्वर ने जब यह मौका ला दिया है तो दो जीवन-कहानियों मे विरोधभाष क्यों उत्पन्न करूं ! पति को खुश रखकर जीवन के उस आनन्द को क्यों न लूटूं जिससे संसार चलता है।‘ यह बात याद आते ही वह स्वयं पति के आलिंगन में आने का प्रयास करने लगी।

मानव संसार को धोखा दे सकता है पर अपनी आत्मा को नहीं। संसार के किसी प्रायश्चित से बचा जा सकता है, आत्मा के प्रायश्चित से नहीं। हर मानव की आत्मा कभी न कभी, क्षण दो क्षण के लिए अपनी आत्मा की अदालत में अपनी गलतियां स्वीकार करती ही है। उन पर पश्चाताप करती है। दिल ही दिल में एक चिनगारी की तरह जलती रहती है। इसी चिनगारी के कारण मनोभावों में परिवर्तन आते रहते हैं। हर नई चिनगारी पुरानी राख पर पर्दा डालती चलती है।

साधना का अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था। ‘किसी ने बेबस बनाकर सब कुछ लूट लिया और किसी की वेवशी ने उस पर पर्दा डाल दिया, लेकिन हृदय पर पर्दा न डाल सकँूा। मन में एक पश्चाताप बना ही रहेगा। उन्हें क्या दिया ? जिसके बदले उनसे सब कुछ मांगना चाहती हूँ। पर बन्धन, सामाजिक बन्धनों को जितने क्षणों में जोड़ दिया जाता है, क्या उतनी ही जल्दी तोड़ा भी जा सकता है। मैं भी कैसी हूँ जो इन पवित्र बन्धनों को जोड़-तोड़ देना चाहती हूँ। लेकिन बन्धन तो मन से होते हैं तन तो उन्हें साकार रूप देने के लिए एक साधन है।

विचारों के प्रवाह ने सारी रात्री सोने नहीं दिया। सुबह होते-होते आंख लग पाई कि रवि ने जल्दी ही जगा दिया।

‘उठो साधना नही ंतो लोग क्या कहेंगे ?‘

‘रे मैं तो भूल गई कि मैं नये घर में हूँ ! अब तो पुरानी साधना उस छूट गई। जीवन के बहाव में आगे बढ़ना है नई साधना बनकर।‘

‘नई साधना बनकर ?‘

‘हाँ, नई साधना बनकर। यह नया घर, नये लोग, नये नियम, नया अनुशासन, नये के साथ पुराने मन को ढालना है। ढल सकँू और बन सकँू वह सिक्का जो इस देश में चल सकँू। न चल पाया तो कचरे की डलिया में फंेक दिया जाएगा !‘

‘साधना तुम विचारों से बड़ी महान लगती हो !‘

‘इसकँूे अलाबा मैं तुम्हें दे भी क्या करूँगी ?‘

‘विचारों की ऐसी महानता, ऐसा दर्शन, आत्मचिन्तन के बिना सम्भव नहीं।‘

‘दर्शन चिन्तन की ही देन है। मुझे पल-पल इसी चिन्तन न,े जीवन के दर्शन की ओर अग्रेशित किया है। नहीं-नहीं, बल्कि जीवन में इसी चिन्तन से दर्शन देखने की कोशिश की है। मैंने अपने जीवन को निकटता से पहचानने की कोशिश की है।‘

‘अनुभवी बनने का इससे अच्छा तरीका और भी कुछ हो सकता है साधना, मैं नहीं जानता।‘

‘मन की निराशाओं को चिन्तन के उन्माद ने खूब बढ़ा-चढ़ा दिया है। घटनाएं चिन्तन देती हैं और मेरा जीवन पता नहीं कितनी घटनाओं का जोड़ है।‘

‘जीवन घटनाओं के जोड़ को ही कहा जाता है। ऐसे जीवन में अकर्मण्यता नहीं होती।‘

‘हर जीवन में विचारों का अन्तर, विचारों का अलग प्रकार का अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता है और जीवन कुछ विकासों को छोड़कर ढलता रहता है।‘

‘साधना, तुम कवि तो नहीं !‘

‘कविता मानव-अन्तर्द्वन्द्व से फूटी धारा है। पंक्तियों का जोड़ बाह्य आडम्बर।‘

‘तुमने मनोबिज्ञान विशय मेंु एम0 ए0 हो, लेकिन इसके साथ आपका चिन्तन गहरा है।‘

‘यह मेरे परिवार की देन है। मैं तो सोच रही थी कि आपको क्या दे करूँगी ? पर सन्तोष की सांस ले रही हूँ कि आपको कुछ तो दे सकँूूंगी !‘

‘क्यों नहीं ? क्यों नहीं ?‘ रवि ने कहाँ

साधना फिर सोचने लगी-मेरे मन में एक प्रश्न टकराता रहा है कि उन्हें क्या दूंगी ? पर देख रही हूँ कि देने की धारणा में फर्क करने पर बहुत कुछ दिया जा सकता है और आनन्द से जिया जा सकता है।

अब वह बड़बड़ाते हुए बोली, ‘एक निराशा आशा में बदल गई। तन और धन लेने के बाह्य साधन हैं अंतर की देने का साधन है, मन।‘

‘साधना, मैंने मन को छुआ तक नहीं। बाह्य जगत ही संसार का आधार है। मैं मानता रहा हूँ, पर आज धारणा बदलनी पड़ रही है। दाम्पत्य जीवन का आधार बाह्य जगत नहीं, अन्तःजगत है !‘

‘आप तो मेरी ही बात की पुष्टि कर रहे हैं।‘

‘ साधना, सच्चाई की पुष्टि संसार करता है। एक बात मेरे मन में रात्री से आ रही है‘

‘कौन सी बात ?‘

‘सुहागरात के दिन नशा करने वाले पत्नी के शील का क्या आनन्द ले पाते होंगे ? नशा तो ऐसी स्थिति में किया जाता है जब आनन्द मिलने की सम्भावना न हो ! साधना, मैं बाह्य जगत को ही सब कुछ मानता था !‘

‘ लेकिन शील का सम्बन्ध तो अन्तः जगत से होता है !‘

‘इतना गहरा-कोश ! कल सोचा होता ? लेकिन एक प्रश्न करूं ?‘

‘करिए ना ?‘

‘शील के सम्बन्ध में इस स्थिति का मूल्यांकन न कर सकना मन को उद्विग्न बना रहा है।‘

‘चलो, आप से सीखकर लोग पहली रात पिया तो न करेंगे।‘

‘लगता है विचारशील पत्नी के सामने अचेत रहने में मात हो सकती है।‘

‘पहली मात तो आप खा ही चुके हैं। अब कभी हार का प्रश्न खड़ा ही न होगा।‘

‘मैं समझा नहीं, कौन सी मात ?‘

‘छोड़ो रवि, अधिक बहाव में बहने से खतरा ही रहता है।‘ और तभी मांजी की आवाज कमरे में गूंजी।

‘बेटा रवि, ये कान्ति बाबू आये हैं। तेरी बुआ की तबियत खराब है, उन्हें जाकर देख आ।‘

अब रवि कमरे से निकला, झट से तैयार हुआ और कान्ती बाबू के साथ चल दिया। रास्ते भर ये शब्द उसकँूे मस्तिष्क में गूंजते रहे।

‘पहली मात तो खा ही चुके अब कभी हार का प्रश्न खड़ा ही नहीं होगा।‘

‘छोड़ो रवि, अधिक बहाव में बहने से खतरा ही रहता है !‘

चोट खाया हुआ रवि मन नही मन निर्णय कर रहा था‘-‘अब मैं कभी नशा नहीं करूंगा। इसी नशे ने तो पहली मात दे दी। अब मैं कभी नशा ! अब मैं कभी ं