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मंथन 7

मंथन 7

सात

सरकार ने चुनाव कराने की घोशणा कर दी। आपातकाल में जो लोग जेल भेज दिये गये थे, वे राजनैतिक बन्दी रिहा किए जाने लगे। सम्पूर्ण देश में तानाशाही के खिलाफ विद्रोह फैल गया। सत्ता परिवर्तन की संभावनाएं स्पश्ट दृश्टिगोचर होने लगीं।

यह हवा तत्काल सारे गाँव में भी फैल गई कि बशीर साहब भी आने वाले हैं। डा0 रवि और रश्मि उनकी प्रतीक्षा में थे।

बशीर साहब गाँव में आये कि सीधे डा0 रवि के यहाँ पहंुचे। रवि और रश्मि ने बशीर साहब की अगवानी करते हुए स्वागत किया। गाँव के सभी लोग आ गए। सभी उनसे जेल के हाल-चाल पूछना चाहते थे। वे अपने जेलीय अनुभव बताते हुए बोले, ‘हम भारतीय एक लम्बे समय तक गुलाम रहे। शासन का भय हमारे ऊपर छाया रहाँ हम स्वतन्त्र हो गये तो शासन का भय समाप्त हो गया। हम सोचने लगे कि शासन हमारा है, हमें सुविधाएं देने के लिए है। लेकिन आपातकाल में हम फिर शासन से भयभीत हो गये। अब चुनाव आ गये हैं। एक नई पार्टी बन गई है।‘

बात काटते हुए रंगाराम बोले, ‘अरे अपने जेल के हाल तो सुनाओ बशीर मियां ?‘

‘देख पटेल साहब, जेल तो जेल है। अन्तर इतना ही है कि वहाँ बन्धन में रहना पड़ता है, हमें उस दायरे में जीना पड़ता है।‘

‘खाने-पीने के लिए कैसा मिलता चाचा जी वहां।‘ रश्मि ने पूछा।

‘बेटी, जैसा घर खाता था वैसा वहाँ मिल जाता था। घर पर अपने हाथों के बने टिक्कर खाता हूँ, वहाँ बने-बनाये मिल जाते थे।‘

रवि हंसते हुए बोला, ‘वाह ! साहब, तब तो आप इस दुनिया से ठीक थे।‘

‘ठीक थे ! अरे भोजन ही सब कुछ नहीं है। बन्धन से सभी भयभीत रहते हैं।‘ अब रश्मि ने उनके सामने नाश्ते की प्लेट रख दी और बोली-‘पहले आप कुछ खा लो फिर बातें होंगी।‘

बशीर साहब खाने लगे तो लोग एक-एक करके खिसकँूने लगे।

बशीर साहब नाश्ता करते जा रहे थे और बातें भी कर रहे थे। रश्मि से कह रहे थे-‘वाह भई, बड़ा परिवर्तन देख रहा हूँ। विद्रोही बनकर बाहर निकल आई हो, लेकिन कुछ करके दिखना पड़ेगा।‘

‘क्यों नहीं, आप रास्ता बतलाएं। मैं उस पर चलकर बताऊंगी।‘

‘अरे वाह ! आत्मबल भी अर्जित कर लिया है।‘

रवि बोला-‘हम तो अपकी प्रतीक्षा में थे। आप आये और हम ं ं ं।‘

‘शाबाश ! अब तुम राजनीति में सफल होकर ही रहोगे।‘ कहते हुए वह उठ खड़े हुए, ‘अच्छा रवि चलता हूँ। अभी घर भी नहीं पहुँचा हूँ।‘ रवि और रश्मि उनके घर तक उन्हें छोड़ने गये।

एक दिन शाम को अस्पताल पर बैठक जीम थी। बैठक में बशीर साहब, रवि, रश्मि तथा अन्य दो ग्रामीणों से बातें चल रही थीं। रवि कह रहा था-

‘कामरेड आप कुछ भी कहें चुनाव में टिकट तो आपको ही मिलना चाहिए था।‘

‘बरखुरदार, मैं ऐसी बातें नहीं सोचता। नई पार्टी बनी है। हमें अपने त्याग से उस पार्टी को चलाना है।‘

‘‘हाँ साहब, यह तो घोर अन्याय हुआ है। आप जैसा नेता दूसरा इस क्षेत्र में नहीं है, फिर भी घटकवाद में आपको चुनाव लड़ने का टिकट नहीं दिया गया।‘

‘मैं तो केवल एक बात सोच रहा हूँ। इतने संघर्शों के बाद देश में दूसरी सशक्त पार्टी बना पाए हैं। तीस वर्शों के बाद देश में सही प्रजातन्त्र आने वाला है।‘

‘कुछ भी कहो अंकल ! ये लोग आपस में सत्ता पाते ही सत्ता की छीना-झपटी करंेगे।‘

‘बेटी, हाल में तो यह नहीं जान पड़ रहा है।‘

‘प्रत्येक लोकप्रिय नेता अपने अनुसार अपना अलग अखाड़ा बनाता आया है।‘

‘इस असफलता को सभी महसूस कर चुके हैं। शायद अब यह पुनरावृत्ति नहीं होगी। अब पार्टी का संगठन व्यक्ति के आधार पर नहीं, पार्टी के सिद्धांतों के आधार पर होगा।‘

‘लेकिन अंकल, पार्टी के सिद्धांत तो रखे रह जाते हैं।’

‘कुछ भी कहो रश्मि, लेकिन हमें इन लोगों को मौका तो देना ही चाहिए। चाहे इस मौके के बदले हमें कितनी ही बड़ी हानि क्यों न उठानी पड़े।‘

अब रवि बोला- ‘आप कहते हैं तो हम लोग नई पार्टी का ही प्रचार करेंगे।‘

‘हाँ रवि, इससे एक पार्टी का राजतन्त्र देश में कायम नहीं होगा।‘

‘कुछ भी कहो साहब, आपातकाल में एक-दो बातें तो ठीक ही हुई हैं।‘ बात सुनकर बशीर साहब क्रोध में आते हुए बोले-‘क्या ठीक हुई हैं ? मैं भी सुनूं बरखुरदार ।‘

रवि बोला-‘परिवार नियोजन और हरिजन ऋण निवारण !‘

अब बशीर साहब पुनः बोले-‘देश की शक्ति छीनकर उसके बदले कुछ देना, देना नहीं कहा जा सकता है।‘

‘अब समझा, देश में एक ऐसी व्यवस्था कायम करने जा रहे हैं जिससे हमारी स्वतन्त्रता अब कभी समाप्त न हो सकेगी।‘

सभी विचार विमर्श के वाद अपने-अपने घर चले गये। रवि और रश्मि अस्पताल बन्द करके घर पहुँचे। दोनों ही दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर बेडरूम में पहंुच गये। रश्मि कहने लगी- ‘मैं एक निवेदन करना चाही हूँ।‘

‘निवेदन या आदेश !‘

‘नहीं निवेदन।‘

‘निवेदन तो दूसरों से किया जाता है। मैडम, मैं तुम्हारे दर्शन से हार जाता हूँ। घर को घर रहने दिया जाए, इसे दर्शन की पाठशाला न बनाया जाये।‘

‘ठीक है, मान लेती हूँ, पर राजनीति में विचारों का मंथन करके ही बढ़ सकते हैं। और तभी आने गाँव की उन्नति सम्भव है। मैं ं ं ं ।‘

‘कहो कहो, रूक क्यों गईं।‘

‘एक बात कहना चाहती थी।‘

‘कहो !‘

‘बात कहने की नहीं है, छिपाने की है।‘

‘कहकर भी बात छिपी रहेगी।‘

‘आप मेरे लिए इतना कर रहे हैं। और मैं ं ं ं!‘

‘क्या कर रहा हूँ मैं ? ं ं !‘

‘आप मुझे स्वतन्त्र छोड़ते जा रहे हो, कहीं मैं भटक न जाऊं।‘

‘मुझे पूरा विश्वास है कि तुम भटक नहीं सकतीं बल्कि भटकने वाले को रास्ता दिखा सकती हो।‘

‘इतना अगाध विश्वास मुझ पर ं ं ं! और मैं अपने जीवन के राज भी आपको न बता पाई।‘

‘पहली रात की शंका और मूल्यांकन न कर सकँूने पर पश्चाताप। यही ! पर मैडम मुझे हमारे मिलन से पूर्व की बातों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है।‘

‘डरती हूँ कोई घटना हममें दरार पैदा न कर दे।‘

इसके बाद भी कोई दरार पैदा होगी ? जब छिपाव नहीं है, दोनों ओर आकर्शण है। हमारे इस महल की नींव बहुत मजबूत है।‘

‘कभी-कभी कुछ धारणाएं मनुश्य को डराने लग़ती हैं। पहली रात जाने क्या-क्या कह गई थी ? कोई शंकालु होता तो ं ं ं ।‘

‘शंका दाम्पत्य जीवन के महल की नींव को खोखला कर देती है।‘

‘नारी का दोश तो इतना है कि वह विश्वास कर लेती है।

‘और नारी छली जाती ह तो विश्वास में ही।

रवि अपने अन्दर कुछ टटोलते हुए बोला-‘। ‘ छलता पुरूश है तो दोश नारी के मत्थे क्यों ?‘

‘जीवन से इतना परिचय कम नहीं है। यही परिचय मन में शंकाएं नहीं आने देता।‘

‘सच !‘

‘हाँ रश्मि !‘

‘अब कोई दीवार ?‘

‘नहीं !‘

चुनाव के दिनों में रवि, रश्मि और बशीर साहब प्रतिदिन चुनाव के सम्बन्ध में चर्चा करने लगे। कुछ लोगों को नई पार्टी का साथ देना खल रहा था। चुनाव में खड़े होने वाले नेता भी यह जान गये थे क गाँव में डाक्टर रवि व बशीर साहब का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। कई बार इस गढ़ को तोड़ने की कोशिश की गई, लेकिन जब सफलता न मिली तो ं ं ं ।

एक दिन रंगाराम और विशुना के पिता शम्भू पापा जी रवि के घर पहुँचे। कांग्रेस का पक्ष लेकर उल्टी-सीधी बातें करके इन्द्रजीत जी के कान भर दिये।

रात सात बजे रवि और रश्मि जब घर पहुँचे, घर के सभी लोग उनका इंन्तजार कर रहे थे। रवि को आता देख उसके पिताजी इन्द्रजीत जी बोले-

‘रवि हमें जे बातें अच्छी नहीं लगती।‘

‘कौन सी बातें ? पापा जी !‘

‘यही कि अब बहू अस्पताल का काम छोड़िके राजनीति मे घुस रही है। अरे इतैक नये जमाने के बनिबे की जरूरत नानें।‘ बात को रवि की मां ने आगे बढ़ाया।

‘न आड़ न मरजाद तासे भैया तुम अलग हो जाऊं। झें की औरतें मोय खाये जा रही हैं। अभै तो बात यह थी कि पढ़ी-लिखी बहू है। अरे जब अस्पताल सभंल सकते तो तुम्हारे घरें बैठी-बैठी क्या करती।‘

अब झट से रवि ने पूछा-‘‘अब क्या नई बात हो गई।‘

‘ ज, नई बात नानें!‘

‘अब चार जनन में बैठन उठन लगीं और तुम्हाये बाप साहब ज दरवाजे में डरे रहेतैं।‘

‘अरे जमानों बदल गओ तो कहा मर्यादा हू बदल गई।‘

‘मां यदि मर्यादा का प्रश्न है तो कल से रश्मि ं ं ं ।‘

वाक्य रश्मि ने पूरा किया-‘नहीं जायेगी मांजी।‘ और दोनों जल्दी से अन्दर चले गये। दोनों ने अस्पताल के कपड़े बदले और जल्दी में फिर से नीचे आ गये।

रवि बोला, ‘अरे खाना तैयार नहीं हुआ। चलो रश्मि, जल्दी से खाना बनाओ।‘ रश्मि रसोई घर में चली गई। रवि वहीं खड़ा रह गया।

अब पिता श्री इन्द्रजीत बोले-‘लड़ो नही....ं, लड़ो नहीं.... दोनों भाई, जो हो सो बराबर बराबर बाँट लो।‘

‘रवि बोला, ‘बाँट लो, लेकिन किससे !‘

इन्द्रजीत जी बोले, ‘दोनों भाई आपस में बराबर बराबर बाँट लो।‘

‘ पापा जी मैंने कह दिया , कि कल से रश्मि अस्पताल नहीं जाएगी।‘

अब आनन्द बोला, ‘कै तो यार बहू अस्पताल जायेगी नहीं। जायेगी तो ऐसे जायेगी।‘

‘दादा, यदि बशीर मियां का विश्वास न हो तो ं ं ं ।‘

इन्द्रजीत ने उत्तर दिया-‘बशीर मियां का तो विश्वास है। आदमी खरा है। अरे यहाँ ऐसा कोई आदमी ही नहीं है उसकँूे अलावा।‘

‘तो पापा जी और कहाँ चार जने में बैठते उठते।‘

‘झूठ मति बोले रवि ?‘

‘आप गलत समझ रहे हैं। जब किसी में आगे बढ़ने का साहस है तो फिर हम उसकँूा रास्ता क्यों रोकें।‘ अब घर के लोगों ने समझा कि रवि और रश्मि में मन मुटाव होगया है।‘ रवि कुछ रूक कर बोला, ‘ये सब बातें कहना ही होतीं तो बशीर मियां ही हमसे कह देते।‘

अब इन्द्रजीत बोले- ‘अरे ऐसे हू नानें बशीर मियां। विनेहूँ दो आदमी की जरूरत पत्ते, नेता हैं, जेल से आये हैं तई सिकँूका जमायें चाहतैं।‘

अब रवि बोला-‘ उनसे कुछ सीखने ही मिलेगा कि लोग कैसे रास्ते पर चलते हैं।‘

अब आनन्द बोला- ‘जो तुम कत्त धत्त रहतौ। जामें कछू सार हू निकलेगो या नहीं।‘

‘सार निकालने का प्रयास चल रहा है। यानी ट्रेनिंग चल रही है, ट्रनिंग !‘

आनन्द फिर बोला, ‘देखियो बड़ो सभ्ंाल केें चलनों पड़ेगो। बहू-बेटी है तुम्हें ध्यान राखनों पडत्रेगों। भईया तुम तो अपनी बुद्धी से काम लयें जाऊ।‘

अब रवि यह सुनता हुआ अन्दर रसोई घर में चला गया और पत्नी को काम में मदद करने लगा।

दोनों का प्यार देखकर सभी चकित थे। अपने आपको मन ही मन कोस रहे थे कि सारा घर ऐसे चले तो ।

रवि का मन शंका कर रहा था। पत्नी से यही सोचकर बोला,

‘खाना बना जाता है। बस सभी खाना खालें, कल से थोड़ी सी मेहनत बढ़ सकँूती है।‘

‘बढ़ने दो ! उस मुड़ना मेरे लिए असह्य हो जाएगा। हाँ, आप अपनी ही अदालत में फैसला कर दो तो मैं रूक जाती हूँ ?‘

रवि बोला, ‘रूकने की जरूरत नहीं है सभी ने इजाजत दे दी है।‘

‘दे दी है - कैसे ?‘

‘हम सही चल रहे हैं, इसकँूा विश्वास लेकर !‘

‘उन्हें विश्वास कैसे हुआ ?‘

‘बशीर मियां के कारण।‘

‘मैं समझी नहीं।‘

‘बशीर मियां का उज्जवल चरित्र और ईमानदारी ं ं ं। इन्हें क्या उस आदमी का विश्वास तो गाँव के हर आदमी को है।‘

अब आनन्द की पत्नी व रवि की मां भी रसोई घर में हाथ बटाने आ पहुँचीं तो रवि वहाँ से चला आया।

आज रश्मि जल्दी उठकर अस्पताल नहीं गई। घर के काम-काज को निपटान में लग गई। अस्पताल जाने की बात आनन्द की पत्नी ने भी कही, लेकिन वह नहीं गई। उसी के साथ काम में लगी रही। दिन के आठ बज गये तो रवि की मां रश्मि से बोली-

‘बहू तुमने तो ज काम पकरिलओ है, झें के काजे तो हम ही बहुत हैं।‘

‘मां जी एक बात कहूँ ?‘

‘कह कह, मोसे नहीं कहेगी तो कौन से कहेगी ?‘

‘यही कि मुझे घर का काम करना अच्छा लगता है।‘

‘काये तनक दिनन में ही भें के काम से पेट भरि गओ।’

‘ठीक है मांजी, आप कहतीं हैं तो मैं अस्पताल चली जाती हूँ।‘

‘जल्दी चली जाऊ। आज अस्पताल में भीड़ सोउू है। मरीज ज्यादा आये है।‘

‘बात सुनकर रश्मि का घर का काम छोड़कर अस्पताल जाने के लिए तैयार होने चली गई।