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पिता, पुत्र और मतभेद

बचपन, कितना प्यारा होता है ये हम सब जानते है कोई चिंता नही होती, बस एक हट कि ये चाहिए वो चाहिए और एक अलग ही दुनिया मे काल्पनिकता के बीच मस्ती में गुज़रता चला जाता है।
ये कहानी एक पिता और पुत्र के बीच हुए मतभेदों की है जिसमे पिता अपने जीवन के अनुभवों को अपने पुत्र के आने वाले भविष्य के लिए बाँटना चाहता है पर पुत्र में हट होंंने के कारण दोनों में मतभेद और फिर मनमुटाव शुरू होने लगता है। पिता पुत्र को समझाने की कोशिश में उसको डांटना और मारना, इसी बीच अपने पुत्र को भावनाओं समझना भूल जाता है यहाँ दूरियां बढ़ने लगती है हर रोज कोई न कोई बात पुत्र, पिता से डांट खाता है और मायूस होकर खुद को अनुचितता की ओर ले जाना शुरू कर देता है अब पुत्र अपने पिता को साबित करना चहता हैै कि वो भी वो सब कर सकता है पिता उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे इसी झड़प के बीच पुत्र अपने स्नातक के पहले साल में अनुत्तीर्ण हो जाता है पुत्र के बीच मन मे एक डर कि पिता अब उसे मारेंगे या डांटेंगे।
अब आपको ले चलते है स्नातक के अनुत्तीर्ण होने के पीछे क्या कारण था तो चलिए बताते है कि पुत्र अपने सपनों की दुनिया मे एक IPS Officer बनना चाहता है तो स्नातक में वो आर्ट विषय के साथ आगे तैयारी को बढ़ाना चाहता है यहाँ पिता की पुत्र से मनमानी रहती है कि तुम गणित विषय के साथ स्नातक करोगे पुत्र को झुकना पड़ता है पिता के आगे और वो बिना मन से पढ़ने के कारण अनुत्तीर्ण हो जाता है।
अब यहाँ से पुत्र का संघर्ष शुरू हो जाता है वो पिता के डर से अपना घर छोड़ कर चला जाता है इन दोनों की झड़प में एक माँ का दिल बार बार आहत हो जाता है कि आखिर उसको कोई क्यो नही समझ रहा माँ न पिता से कुछ कह पाती है ना पुत्र से, तो जब पुत्र घर छोड़ कर चला जााता
है और अपने पिता के कहे हुए शब्दों को "कि बाहर जाओगे तो आंटा डाल का भाव पता चल जाएगा"
इन बातो को पूरा करने के लिए पुत्र संघर्षमय जीवन की ओर चला जाता है गाज़ियाबाद जैसे शहर में अपने बुआ और फूफा की मदद से वो एक अस्पताल की नोकरी के लिए तैयार हो जाता है हॉस्पिटल में उसे एक वार्डबॉय बनने के लिए बोला जाता है और वो पुत्र उसे स्वीकार कर लेता है पर उसकी किस्मत में कुछ और ही था तो उसे MRD यानी मेडिकल रिकॉर्ड डिपार्टमेंट में असिस्टेंट का पद मिल जाता है वो वहाँ से अपने संघर्ष को शुरू करता है वहाँ एक लाइन "बिन पैसे कौन है भाई हम तेरे" बुआ फूफा के घर और अस्पताल के बीच की दूरी लगभग 6 किलोमीटर थी उसका रोज पदयात्रा करते हुए जाना और आना होता था हालांकि फूफा उसे किराया देते थे पर उसे वो बचाने की कोशिश करता है ये सिलसिला दो महीने चलता है उसके बाद पुत्र की नाव चलने लगती है पुत्र खुद पर गर्व महसूस करने लगता है और सोचता है कि पिता को अपनी गलती का अहसास हो जाएगा कि मैं भी कुछ कर सकता हूँ या नही, पर अभी हुआ ही क्या था ये तो शुरुआत थी पुत्र दोबारा स्नातक में गणित विषय ले लेता है पता नही क्यो और लेकर नोकरी के साथ पढ़ना शुरू कर देता है इसी संघरमय जीवन के बीच पुत्र को अपनी गलतियों का अहसास होने लगता है कि पिता सही थे और मैं अपने हट में खुद को सही समझ रहा था, कि जब जब वो ऑफिस के काम से बैंक या किसी दफ्तर में जाता तो वहाँ या तो लाइन में खड़ा होना पड़ता या इंतज़ार करना पड़ता तो अहसास होता कि यार मैं पिता के लिए राशन की दुकान पर आज तक लाइन में नही लगा और यहाँ लगना पड़ रहा है धीरे धीरे उसकी खुद को लेकर उम्मीदे बिखरने लगती है कि मैं गलत था और पिता सही थे उनका अनुभव मुझसे कहीं ज्यादा बड़ा है मैंने अपने पिता का अपमान किया है उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाया है क्यो की पिता से तो हम मुँह खोल कर सब मांग लेते है पर जब हम खुद कमाते है तो यकीनन अपने लिए कुछ नही ले पाते तब पिता का वो अहसास समझ आता है कि हमारे लिए वो फटे हुए पेंट को रफू करके पहनता है और हम उन्हें दुख के सिवाय कुछ नही देते ये सब देखते देखते पुत्र अपना स्नातक गणित से पूरा कर लेता है और घर वापस जाने का निर्णय लेता है लेकिन उसे अभी बहुत कुछ सीखना था जब वो घर पहुंचता है तब फिर से उसके और उसके पिता के बीच मतभेद होने लगते है "इसमें माँ का दिल बार बार ये ही कहता है कि कब सही होगा सब"
पुत्र वापस गाज़ियाबाद चला जाता है फिर से नई नोकरी करता है और अनुभवों एवं पिता के सम्मान में वृद्धि कर देता है उसी बीच उसकी छोटी बहन की शादी आ जाती है जिसमे पुत्र पिता के साथ खड़ा हो जाता है और बहन की शादी का सारा कार्यभार संभाल लेता है पिता ये देखकर पुत्र पर भरोसा करने लगता है कि अब पुत्र बाकई में समझदार हो गया है और बहन की शादी अच्छे से हो जाती और पुत्र और उसके पिता के बीच के मतभेद मिटने लगते है।
जीवन का यही सार है पिता से बड़ा अनुभव दुनिया मे शायद ही किसी के पास हो पिता अपनी उम्र लुटा देता है बच्चो के खातिर और माँ अपने शौक भूल जाती है बच्चो की खातिर, और हम क्या देते है सिवाय दुख के, उन्हें घर से बाहर कर देते है उनको सताते है हम उनको उतना भी वापस नही करते जितना उन्होंने दिया है मैं आज जब पीछे जाकर सोचता हूं तो मैं ही गलत था क्यो कि श्रवणकुमार भी एक पुत्र थे और एक मैं था आज मैं अपने पिता के साथ खड़ा होना चाहता हूँ अपने सपनो को पूरा करना चाहता हूँ उनकी आने वाले समय मे देखभाल करना चाहता हूँ मेरे पिता मेरे ईश्वर से कम नही।
आप सबसे यही कहना चाहता हूँ अपने माता पिता को समझिए जन्मदाता है आपसे बेहतर जानते है और खुद को उनका ऋणी समझिये।
ये जीवन का कुछ सार आपको दे रहा हूँ ये मैं ही हूँ और अब मैं प्रयागराज में तैयारी कर रहा हूं IPS बनने के लिये जल्दी ही वर्दी में दिखूंगा
एक छाव है तेरे ऊपर ए पुत्र
उस छाव को पानी देना तेरा कर्तव्य है

मेरे शब्दों या कहानी में कोई त्रुटि हो तो क्षमा चाहता हूँ मेरा भाव सिर्फ एक पिता को ना समझने से समझने तक का सफर है 🙏
आपने हमे पढ़ा और भाव को समझा, शुक्रिया आप सभी का जल्दी ही नया अनुभव लाऊंगा और आप सब को बताऊंगा 🙏