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एक दुनिया अजनबी - 12

एक दुनिया अजनबी

12 -

मृदुला को विभा तबसे जानती है जब से प्रखर का जन्म हुआ था | उन दिनों शर्मा-परिवार किराए पर रहता था | प्रखर के जन्म पर वह उससे एक हज़ार रूपये व सिल्क की ज़री के बॉर्डर की खूबसूरत साड़ी लेकर गई थी | उन दिनों हज़ार रूपये बड़ी बात मानी जाती थी | पूरी सोसाइटी में लोग नाराज़ हो गए थे कि वह इन लोगों के लिए रेट का सत्यानास कर रही है | इनका पेट भरने का और क्या साधन था ? लोगों की ख़ुशी में ख़ुश होना और उनके लिए दुआएँ करना और समाज का इन्हें दुर-दुर करना, दुखी हो उठती थी विभा !हममें इतनी भी इंसानियत नहीं कि हम हाड़-माँस से बने प्राणी के प्रति सहज व्यवहार कर सकें | वैसे हम पशु-पक्षियों को खिलाने , मंदिर में घण्टे बजाने और पैसे चढ़ाने के दम भरते हैं ! हाड़-माँस के प्राणी को समझने की हमारी औक़ात नहीं है !

ख़ैर, इतने पैसे तो उसकी सास ने ही दिए थे, उनका पहला पोता जो हुआ था | उनका बस चलता तो वो मुहरें वारतीं, वो तो थीं नहीं इसीलिए | कुछ दिनों बाद माँ जी तो रही नहीं थीं लेकिन मृदुला जब भी उधर से गुज़रती बिभा के पास दुआ-सलाम करने ज़रूर आती |

धीरे-धीरे मृदुला से न जाने विभा का कौनसे जन्म का संबंध जुड़ गया, अगर वह किसी त्यौहार पर न आती विभा को बेचैनी होने लगती | सब हँसते थे, जब वह आती प्रखर के पिता कहते ;

"लो, आ गई तुम्हारी सहेली ---"

यदि सिटिंग रूम खुला होता और वहाँ कोई न होता, वह आकर सोफ़े पर दोनों पाँव ऊपर करके बैठ जाती और बड़े आराम से चाय और नाश्ते की माँग करती| प्रखर उसके देखते-देखते ही बड़ा हुआ था | बचपन में तो फिर भी उसकी थोड़ी-बहुत बात का उत्तर दे देता किन्तु बड़ा होने पर उसके मन में मृदुला के प्रति जाने क्यों हिक़ारत सी पैदा हो गई | उसकी शादी में भी वह अपने पूरे साजो-सामान व अपने टोले के साथ आई थी, प्रखर को अच्छा नहीं लगा| मृदुला ने उसके टोले को खूब सारा सामान व पैसा दिया था, वे खुश होकर दुआएं देते हुए गए थे | रही-सही कसर प्रखर की पत्नी के आने पर पूरी हो गई जिसे मृदुला का आना एक आँख न भाता |

विभा ने अपनी पोतियों के होने पर भी इन सबको खूब दिया था जबकि सबका कहना था कि बेटियों के जन्म पर कौन इन्हें बुलाता और इतना लुटाता है ! पड़ौसी कानाफूसी करते;

" अजीब औरत हैं ---"

"हाँ जी, प्रोफ़ेसर है न, ज़्यादा ही सींग लगे हैं ---"

"समाज की भी कोई परवाह है कि नहीं ---!"

विभा और शर्मा जी के कानों में बातें पड़तीं, वो मुस्कुराकर रह जाते | दीवारों से सर मारने से आख़िर लाभ भी क्या था ?

एक दिन तो कमाल हो गया | मृदुला आई, सोफ़े पर बैठकर उसने एक लंबी साँस ली | उसको देखते ही विभा पानी लेकर आ जाती थी जैसे उसकी ही राह तकती रहती हो |

ठंडा पानी पीकर उसने हर बार की तरह विभा से चाय व नाश्ते की माँग की |

विभा उसके लिए चाय बनाने चल ही दी थी कि उसके एक और प्रेमी ने गेट पर गुहार लगाई |

"लीजिए माँ, आपके दूसरे पक्के दोस्त भी पधार गए ---"प्रखर अपनी मोटरसाइकिल स्टैंड पर खड़ी कर ही रहा था कि गेरुए वस्त्रधारी ने गेट पर लगी घंटी दबा दी |

प्रखर ने उन महानुभाव की ओर देखा तक नहीं, गेट खोलकर अंदर आकर मृदुला पर दृष्टि डाली और माँ की ओर एक अजीब सी नज़र से देखा जैसे कह रहा हो ;

'बस--ये ही दोस्त मिलते हैं आपको ---!'उपरोक्त वाक्य आँखों से बोलकर वह ऊपर अपने कमरे में चला गया जहाँ उसकी पत्नी और बच्चे बाहर जाने के लिए तैयार हो रहे थे |

"विभा दीदी, ये फिर आ गया ? " कई बार मृदुला के सामने ही वह गेरुआधारी पधारा था |

"क्या करूँ मृदुला इसका? बहुत खुंदक चढ़ती है इसे देखकर | एक बार प्रखर के पापा ने इसे खाना क्या खिलवा दिया, यह हम सबको अपना भक्त समझने लगा | ऐसा रौब जमाता है कि पीटने को दिल करता है ---" विभा बड़बड़ाई |

"भक्तन! हम तो तीन महीने में आते हैं ----" वह हर बार रिरियाकर ऐसे बोलता कि विभा का चेहरा तमतमाने लगता पर किसीको कुछ कहने का सऊर उसे कभी भी नहीं आया था |कोई बात पसंद न हो तो डाँटना भी पड़ता है और वो कोई ससुराल का रिश्तेदार तो था नहीं, पर ज़ोर देकर कुछ नहीं कह पाती थी विभा |