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व्यथा

लक्ष्मी को समझ नही आ रहा था कि वो हंसे या रोये। उसकी सहेलियां उसको बार बार एहसास दिल रही थीं कि उस से ज़्यादा भाग्यशाली कोई लड़की नही गाँव मे क्योंकि उसको ठाकुर साहब ने पसन्द किया था पत्नी के गुज़र जाने के बाद, दूसरा विवाह करने के लिए।

लक्ष्मी का आज ही रिजल्ट निकल था जिसमे उसने जिले में टॉप किया था।उसका मन आगे पढ़ाई करने का था। पर लक्ष्मी के पिता ने ठाकुर साहब को एक बार में ही हाँ कह दी थी।


ठाकुर भानुप्ताप की हवेली आज दुल्हन जैसे सजी थी,ठाकुर साहब की दूसरी शादी जो थी।लक्ष्मी रूप-रंग और गुणों मे बहुत खुबसूरत थी,पिता गरीब थे और वह सात भाई-बहनों मे सबसे बडी थी, इसलिए अपने सपनों की आहुति तो उसको देनी ही थी।

पूरा कुनबा यही कह रहा था कि लक्ष्मी के भाग्य खुल गये जो ऐसा धन-धान्य से भरा घर-परिवार मिला।राज करेंगी राज,धन्नो बुऑ ने लक्ष्मी का चेहरा देखकर नेग देते हुयें कहा।रम्मो काकी बोल पड़ी--राज करेंगी ये,कि ईसके मायकेवाले राजसी ठाठ से रहेंगे,धन्नो बुऑ। ठाकुर साहब तो बडे दिलदार है, इनके मायके के दिन फेर देवेंगे।

लक्ष्मी का चेहरा रोऑसा होने लगा।

बाबूजी का हाथ थामे वह जब गली से निकलती,और चाट-पकौड़े, आइसक्रीम खाकर आतीं तो वह अपने को राजकुमारी से कम ना समझती।बाबूजी को लकवा न मारता तो वे कभी अपनी प्रिय पुत्री का विवाह पन्द्रह साल बड़े विधुर से करने को राजी न होते। लक्ष्मी रात भर सोचती रही फिर 3 बच्चों के पिता से ब्याह कर परिवार की बैसाखी बनने को तैयार हो गयी।


लक्ष्मी ने जब आल्ते से भरे परात में पांव रखा तो सब कुछ भूल कर वो रोमान्चित हो उठी। शादी का सपना और नेग-दुलार,रस्म-रिवाज जब वह शादियो में देखतीं तो सोचती थी कि मेरे लिए ये सब नही है। मुझे तो कलेक्टर बनना है और अपने पैरों पर खड़ा होना है।

अल्ता के पैरों की छाप जब,श्वेत कपडे पर पडी तो,उसके घुघरू बजे, अरे छम्मक छल्लो बहू आयीं हैं,देखो तो लाज-ना शरम वह ठाकुर साहब को देख रहीं है। अभी से बेहया होतीं है लडकिया आज की।लक्ष्मी ने सुना तो उसका मुंह कलेजे पर आ गया था।उसने झट सिर नीचे किया।असल में जब नेग हो रहा था तो ,

ठाकुर साहब की आठ साल की बेटी ठाकुर साहब की गोदी मे बैठ गयीं थी,ये हमारी नयी माॅ है ना पापा, बच्ची ने पूछा ।

ठाकुर साहब ने हाॅ कहकर प्यार से उसे लक्ष्मी की गोद में बिठा दिया था।बच्चे की मुस्कान देख वह ठाकुर साहब की ओर देख सहज वात्सल्य से मुस्करा दी थी।लेकिन यही हंसी उसे बेहया का तोहमत दे गयीं थी।पच्चीस साल की लक्ष्मी थी,नारी हृदय संस्कार और समझदारी गर्भ से सीख कर आती है।नारी की छटी इन्द्रियां सदैव जागरूक रहती है।और वह हर पल अपने आस -पास के हलचल से ऐसे सींख जातीं है।

लक्ष्मी भी तुरन्त लंबा घूंघट लेकर बैठ,गयीं और फिर एक भी बार उसने किसी भी की तरफ नहीं देखा।जैसे उसके मन को काठ मार गया हो।

ठाकुर साहब की हवेलीमें बडी रौनक थी,रिश्ते-नातों से भरा हुऐ परिवार था,ठाकुर साहब के तीनो बच्चे,पप्पू, मुन्ना-मुन्नी सभी बच्चों के साथ घुल -मिल खेल रहे थे लक्ष्मी के कमरे में। रानी बोली--पप्पू तेरी नयी माॅ आ गयीं,तू इसे माॅ बोलेगा कि नहीं बता?

पप्पू--जैसे बुऑ बोलेंगी,रानी मैं वहीं करूंगा।बुऑ ने कहा है--हर रोज तेरी नयी माॅ,कैसे घर संभालती हैं,क्या-क्या काम करतीं है?मुन्ना-मुन्नी तुझसे क्या बात करती हैं?अडोसी-पडोसी जो भी आयें वे क्या कहते है?किसको क्या वह देती-लेती है ये सब बाते मुझे बताना पप्पू तुम फोन से, वह गरीब घर की बेटी है ना-- ,उसे ठाकुर लोगो के रहिसी ठाठ-बाट,नेग-धर्म-मर्यादा सब सिखाना होगा मुझे अपने मायके में । ये तो किराना दुकान में बैठ-बैठ दस चाल-चलन की बातें सीखी होगी,सो उसे भी ठीक करना होगा,किसी से बात भी करें तो मुझे बताना पप्पू तुम।

लक्ष्मी बाथरूम में से सब सुन कर भौचक्की रह गयी थी।क्या उसने रिश्ते के चक्रव्यूह में इस तरह फ़सने के लिए पढ़ाई छोड़ी थी ? किस दलदल में उसने क़दम रख दिया था ? क्या बच्चे उसको कभी मां मानेंगे ? ठाकुर साहब के तीन बच्चे, अधेड़ उम्र या दूसरे विवाह ने उसको कभी विचलित नही किया था जितना इन बातों ने उसको सोच में डाल दिया था। किसी भी महिला की तरह लक्ष्मी बहुत संवेदनशील थी और ईस वक्त वह परिस्थितियों को देख कर अपने मन को सबके अनुसार कैसे चलना हैं कि परिवार ठाकुर साहब का संतुलन मे रहे उसके मायके पर कभी किसी बात का तोहमते ना लगे सोच वह बच्चों के पास बैठ गयीं। बच्चे उसे देखते ही ऐसे चुप हो गये जैसे सबको काठ मार गया हो।

लक्ष्मी ने माहौल को हरा-भरा खुशनुमा करते हुये

सभी बच्चों को प्यार किया, नाम पूछा और उनके साथ अन्ताक्षरी खेलने लगी। सब बच्चे बहुत खुश हुये कि नयी मम्मी बहुत अच्छी है। बच्चे तो बच्चे होते है,छलछिद्र नहीं जानते।


इतनी बड़ी हवेली में विवाह उत्सव की तरह मनाया गया था। सारे मेहमान लक्ष्मी का रूप रंग देख कर तारीफ़ करते नही थक रहे थे। रात हो गयी तो लक्ष्मी को घर की महिलाओं ने सुहाग-सेज पर बैठा दिया।बहुत आलीशान कमरा था,और सुहाग सेज की फूलों की डेकोरेशन देखने लायक थी,चंदन और केवडे की अगरबत्ती की सुरभि बहुत भारी ऊसे।फल,ड्रायफ्रूट्स,बादाम के दूध,के गिलास और रम की भी बाॅटल रखी थी।ऑलमारी में नाईट गाउन के ना जाने विभिन्न वेरायटी के कितने परिधान रखे थे।

लक्ष्मी को लग रहा था,ये तो फिल्मों में देखा था। हकीकत में भी ऐसे ही रंगमहल होते है क्या। वह सुहाग-सेज पर बैठी ठाकुर साहब का इन्तजार करने लगी।

दरवाजा बंद कर ठाकुर साहब लक्ष्मी के करीब आयें

हाथों को स्नेह से पकड बोले--लक्ष्मी तुम अप्सरा के जैसी खुबसूरत हो,तुम्हे पाकर मैं तो धन्य हो गया। ये कह कर ठाकुर साहब ने लक्ष्मी का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ़ खींच लिया।

सुबह लक्ष्मी की आंख पेट के निचले हिस्से में हो रहे दर्द से खुली। उसको कुछ बुखार भी लग रहा था। लक्ष्मी फ्रेश होकर जब अपने कमरे में पहुंची तो देखा कि ठाकुर साहब सो रहे थे। पर उसको असहनीय पीड़ा हो रही थी इसलिए उसने विवश होकर ठाकुर साहब को जगा दिया। मुझे डॉक्टर को दिखाने जाना होगा, लक्ष्मी ने पति से कहा। सुबह सुबह ऐसा क्या हो गया, ठाकुर साहब बोले।लक्ष्मी ने अपनी तकलीफ़ बताई तो ठाकुर साहब ने फ़ैमिली डॉक्टर को फ़ोन कर दिया। करवट बदल कर लेटते हुए बोले कि थोड़ी देर में डॉक्टर ख़ुद आ जायेगा। तुम बगल वाले कमरे में जाकर उनको दिखा लेना। साथ ही ये भी जोड़ दिया कि उनके उठने का समय दस बजे है।आगे से लक्ष्मी ध्यान रखे कि छोटी छोटी बातों के लिए उनको परेशान न करे।

डॉक्टर साहब भले आदमी थे। लक्ष्मी ने जब उनसे कहा कि मैं लेडी डॉक्टर को दिखाना चाहती हूं तो बोल पड़े की ठाकुर साहब के एकमात्र विश्वसनीय डॉक्टर वही हैं जो पूरी हवेली में सबका इलाज कई वर्षों से करते आये हैं। उन्होंने लक्ष्मी को समझाया कि शादी के बाद पिशाब में इन्फेक्शन आम बात है। कुछ दिन में ठीक हो जाएगा । तब तक वो ठाकुर साहब के साथ न सोए।

हवेली के क़ायदे कानून लक्ष्मी धीरे धीरे अब समझने लगी थी। दिन भर उसको हवेली की और बच्चों की ज़िम्मेदारी उठानी थी, रात को दिन भर के बाद ठाकुर साहब के लिए तैयार होकर अपने कमरे में उनका स्वागत करना था। उसको तबियत ठीक न हो या उसका मन न हो तो भी अपनी दिन और रात्रिचर्या में वो कोई बदलाव नही कर सकती थी।

ठाकुर साहब दिन में जिसको आदर कहते थे, लक्ष्मी को लगता था कि उसका स्तर बाक़ी नौकर चाकर से कुछ ऊपर है। हवेली की सुपरविज़र जैसे। कलेक्टर न सही सुपरविज़र का पद ही सही। लक्ष्मी ख़ुद को हर परिस्थिति में खुश रखना जानती थी।

पर ठाकुर साहब के रात का प्रेम लक्ष्मी को समझ नहीं आता था।क्या यही वो प्रेम था जो कृष्ण राधा से करते थे या मैं छोटे घर की हूँ इसलिए केवल मेरा इतना हक़ है कि पति को प्रसन्न करने के लिए अपनी पसन्द की साड़ी पहन सकती हूं। क्या मैं यह भी नही कह सकती कि मुझे आपका स्पर्श भी चाहये जैसे आप बच्चों को गले लगाते हैं। वो शादी या कितने महीनों की सुहागरात पूरा होने पर मिलता है। मुझे ठाकुर साहब के प्रेम का एहसास क्यों नही होता ? कितने दिन की नीरस यौन क्रिया के बाद पति का वास्तविक प्रेम प्राप्त होता है ? वो प्रेम जिसकी कमी लक्ष्मी को हर दिन अखरने लगी थी।

पर वो ठाकुर साहब से नही कह सकती थी कि कम से कम रात को मुझे छूने से पहले, नज़र भर कर मुझे एक बार देख लिया करये।एक बार मेरे गाल पर प्यार से हाथ फेर कर मेरा माथा चूम लिया करये।

कई महीनों तक मंथन करते रहने के बाद आखिर हतोत्साहित होकर एक सुबह उसने ठाकुर साहब के सामने अपनी विनती रख दी। लक्ष्मी ने धीरे से कहा की डॉक्टर साहब ने कहा है कि मुझे मां बनने में शायद और वक़्त लगेगा। तब तक मैं पी-एच-डी करना चाहतीं हूँ। मेरा सपना था कलक्टर बनकर ...। बात बीच मे ही काटते हुए ठाकुर साहब बोले कि जो करना चाहो, हवेली के अंदर रहते हुए और अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करते हुए ही करना होगा।अपना फ़ैसला सुनाते ही, लक्ष्मी का जवाब बिना सुने, ठाकुर साहब बिस्तर से उठ कर पैर पटकते हुए बाथरूम में चले गए।

पी एच डी के बारे में तो सोचना भी अपराध था मानो।इसलिए लक्ष्मी ने बी एड का फार्म भर दिया। घर मे पहले तो सबकी त्योरियां चढ़ गईं की नई बहू के तो पर निकल रहे हैं।आखिर ये पढ़ कर क्या करेंगी।जब सबने लक्ष्मी को तल्लीनता से पढ़ते हुए देखा तो ये कहना शुरू कर दिया कि बहु किसी की हिम्मत नही की तुमको पास होने से रोक ले।जितना समय पढ़ाई में बर्बाद करती हो, भजन कीर्तन करती तो भगवान अब तक बच्चा दे चुका होता। शादी के तीन साल हो गए और अब तक एक भी बच्चा नही।

पर लक्ष्मी रो कर धो कर देख चुकी थी। शुरू के दो साल बच्चो की बदतमीजी,बुऑ लोगो की सोची-समझी गयीं चाल,नौकर-नौकरानियो का बर्ताव और ठाकुर साहब की भी सक्त मिजाजी का उन्हे सामना करना पडता,मन खून के ऑंसू रोता पर,जिन्दगी मे सबकी खुशियो का ख्याल जब आता तो,अपने हर सदगुणों की कोहिनूरी आभा को भी जीवन मीआहुति समिधा बना कर डालना उसकी

नित्य की आदत बन गयीं। वह क्या करती अंतर हृदय उसका इतना कोमल था कि,दुश्मन को भी वह दुख ना दे पातीं। न्याय-अन्याय की बात सोचें तो आस-पास घर-परिवार का हर सदस्य बस उसे परखना चाहे या कुछ रूढिगत सोच के विचार या जकड़ मानसिकता के तहत कहें,चाहें-अनचाहे उसे शब्द -भेदी बाण से दुख देते थे।कुछ मीठी छुरी चलाने में सधे थे,तो कुछ मौन अभिव्यक्ति लिये सांप भी मर जायें,और लाठी भी ना टूटे,इस मनोगत विधा मे पारंगत थे।

लक्ष्मी की उमर ही क्या थी,मात्र पच्चीस साल।और इतनी छोटी उमर में इतनी समझदार बनकर चलना,हर कदम पर फूंक-फूंक कर कदम रखना वह ऐसे ही तो नहीं सीख जातीं। अनुभवो के मोती,और सुख-दुख के मानवीय संवेदना के फूल-कांटे के दंश से वह सब सबक सीख रहीं थी। कहते है गर्भ के संस्कार बलवती होकर आज उसे सदगुण को अनुभवो की भट्टी मे तराश-तराश कर सोना बना रहे थे।और वह सोना जैसी लक्ष्मी बन भी गयीं दो तीन साल मे और आज मायके-ससुराल का हर व्यक्ति,घर-परिवार समाज का हर व्यक्ति खुश था।उसे पढाई के प्रति ललक थी सो उसने घर बैठ कर बी एक कि पढ़ाई पूरी कर ली थी।


हवेली में किसी की सेहत पर लक्ष्मी के लक्ष्मी का मन अकेला था,ठाकुर साहब अच्छे थे,लेकिन उमर का अंतर और अनुभवों का अंतर,परवरिश का अंतर,वैचारिक ,भावनात्मक सोच का अंतर वे उसके खाली मन को हर संभव कोशिश करके भी ना भर पाते थे। लेकिन कुल मिलाकर वे अपने किसी भी व्यवहार से उसे दुखी नहीं करते थे।सो लक्ष्मी इतना सब हो जाने के बाद भी दिल से ठाकुर साहब की बडी इज्जत करतीं और प्यार-समर्पण में और अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी में कोई कमी नही रखतीं थी।

शादी के पांच साल हो चुके थे,उसकी गोद अभी तक हरी नहीं हुई,लोग चार बातें फिर बना-बना बोल उसे बांझ करार देते।

एक दिन लक्ष्मी ने ठाकुर साहब से अपनी ईच्छा बता सन्तान कामना की--जीवन तो जैसा आप लोग चाहतें है वैसा मै जी रहीं हूँ

ठाकुर साहब लेकिन कोई तो मेरा -अपना हो जहाँ मैं भी मन लगा पांऊ,उसे पूरी तरह से अपना बोल पांऊ।कुछ अधिकार तो मेरा भी मुझ पर पूरा है,सो मुझे मातृत्व चाहिये।

बच्चे में रमकर अब मै पूरी दुनियाँ की सैर

ऑनंद हृदय से कर पाऊं गी,घर की चारदीवारी के भीतर ही,मेरी किलकारी की फुलवारी जब महकेगी तब मुझे बहुत सुकुन मिलेगा।वैसे भी आपके बच्चो की पन्ना धाय माता बनने मे मैने कोई कमी नहीं की तो कम से कम मेरी ये मुराद अवश्य ही आप पूरी कर दीजियेगा। आपसे अंतिम यही प्रार्थना है।

ना जाने क्या सोचकर ठाकुर साहब की ऑखे भर आयीं लेकिन उसने उन्हे विश्वास दिलाया कि जल्दी ही उसकी गोद हरी हो जायेगी।

धन्नो और कम्मो बुऑ ने ये सुना तो उसे व्यंग्य से देखा और कुटिल मुस्कान दे गयीं।

धीरे-धीरे डाॅक्टरी जांच का सिलसिला शुरू हुऑ। लक्ष्मी के हर टेस्ट-रिपोर्ट नाॅर्मल आये।

धन्नो बुध ने व्यंग्य कर बोल ही दिया--झोली तो सबका भगवान ही भरता है बहू,जो नसीब लेकर आते है उसी का बच्चा होता है। तू ठाकुर साहब के बच्चों मे भेद तो नहीं करेगी ना --जब तेरा बच्चा हो जायेगा।

और वही कुटिल रहस्यमयी मुस्कान वह दे गयी।

लक्ष्मी का मन रूऑसा हो गया था।

उसने ठाकुर साहब को डाॅक्टर की बातें बतायी और कहा कि मेरे सब टेस्ट रिपोर्ट नाॅर्मल है,आपको भी जाॅच कराने बोले है।

ईतना सुन ठाकुर साहब बिदक गये,

हममें कही कमी नहीं है तीन बच्चो के हम पिता है।लक्ष्मी ने ये पहली बार गौर किया कि ठाकुर साहब की,आवाज में वह बल नहीं जो सदैव रहता है।लगा जैसे वे कुछ छिपा रहे हैं।

लक्ष्मी निर्निमेष सी उसे ताक रहीं थी।तभी ठाकुर साहब ये बात ताड़ गये,वे बोले आज शाम को डाॅक्टर घर मे आने वाले है,उनके भोजन का प्रबंध करना,ठीक है--मै अपने लिये भी उनसे बातें करूंगा। लक्ष्मी खुश हो गयी।

शाम को जब डाॅकटर अपनी फैमिली को लेकर आयें तो,वह सबकी आवभगत मे व्यस्त हो गयी।डाॅक्टर की पत्नी और उनके दोनो बच्चे उनके कमरे में बैठे थे वह खुश होकर सबसे बातें कर रहीं थी।अचानक उसे याद आया कि ठाकुर साहब की मेडिकल के ब्लड ग्रुप के रिपोर्ट और उसके टेस्ट रिपोर्ट के फ़ाईल वह डाॅकटर को नही दे पायीं है।उसने फुर्ती से फ़ाईल निकाल खुशी से ड्राइंग रूम की तरफ कदम बढाये,

दरवाजे पर पंहुच वह ठिठक कर रूक गयी--उसे सुनाई दिया,ठाकुर साहब आप लक्ष्मी जैसी सीधी-सादी महिला को क्यों बहला रहें है?सच क्यों नही बता देते उसे?

आखिर कब तक उसे अंधेरे में रखेगे बोलिये?तीस साल की हो गयीं वह उसकी सज्जनता देख मुझे दया आतीं है,आखिर आपकी वह पत्नी है- कब तक मैं भी आपके इशारे पर चल उसे रिपोर्ट के बहाने बहलाता रहूंगा झूठ बोलते रहूँगा।

लक्ष्मी ये सुन सोते से जागी,उत्सुक होकर उसने चिलमन के पीछे अपने आपको पूरी तरह छिपा लिया था।

ठाकुर साहब बोल रहे थे--लक्ष्मी जैसी पत्नी पाकर मैं धन्य हो गया हूँ डाॅकटर साहब प्यार भी बहुत करता हूँ मै उसे खोना नहीं चाहता उसे मैं। मैने नसबंदी करवा ली है वह नहीं जानती है।दो चार साल उसे गंडै-ताबीज साधु-बाबा -पीर-फकीर में अब उलझा कर रखूंगा। फिर उसे विश्वास हो जायेगा,कि ग्रह-नक्षत्र का फेर है,और भगवान कुछ नहीं कर सकते है।वह भोली और धर्म भीरू है ,इसपर विश्वास कर लेगी।और फिर कभी सन्तान कामना नहीं करेगी।धन्नो और कम्मो बुऑ ये काम आसानी से कर लेवेगे।वैसे उनको पता है मैने नसबंदी का ऑपरेशन करवाया हैं,लेकिन वे मेरी बहनें है ,मैने उन्हें मना किया है ।वे ईस बात को कभी भी लक्ष्मी को नही बतलायेगी।

आप सिर्फ अंतिम में इतना ही काम हमारा कर दीजिये,कि एक फर्जी मेडिकल रिपोर्ट बना हमें भी पूरी तरह से स्वस्थ है ये रिपोर्ट बना दीजिये। जिसमे नसबंदी का जिक्र ना रहे।और हम बच्चा पैदा कर सकते है ये रहे। बाकी आगे चार साल का काम गंडे-ताबीज के प्रपंची खेल का मेरी बहनें संभाल लेंगी।

डाॅक्टर साहब ने ईतना ही कहा ये पाप है ठाकुर साहब पत्नी को जीवन भर के लिये गुमराह कर रखना।लेकिन मैने आपका नमक खाया है।आपने ही मुझे पढा-लिखा डाॅक्टर बनाया,नौकरी लगवायी,शादी करवायी ।नही तो मै अनाथ -आश्रम मे सडते रहता।सो मै तो आपका गुलाम हूँ।

आप जो बोलेगे वह मैं करूंगा।

लक्ष्मी ने जब ईतना सुना वह ईस झूठे-प्यार के चक्रव्यूह को समझ ना पायीं और वह चक्कर खाकर वहीं बेहोश होकर गिर गयीं।

डाॅक्टर और ठाकुर साहब ने झट से देखा,दोनों के चेहरे के रंग उड गयें थे।

लक्ष्मी को बिस्तर पर लिटाकर तुरन्त इलाज किया गया।

लक्ष्मी एक हफ्ते तक एकदम गुमसुम हो गयीं थी,किसी से बात नहीं कर पाती और ढंग से खा भी नही पातीं थी।ठाकुर साहब का कोई भी प्रेम स्तवन-राम आलाप-प्रेम मनुहार अब उसके चित्त में हलचल नही मचा पा रहा था।क्योकि भावनात्मक सच्चाईयों के हर लेबल मे वह सबके प्रति सच्ची होकर अपना धर्म कर्तव्य और मर्म समझ निभा रही थी अपने हर समर्पण में उसे ऑनंद आता था क्योकि कहीं ना कहीं सबको ही उसकी जरूरत थी,सो धरम वेदी पर भावनात्मक रूप से विस्तार कर वह माता,बहन,बेटी,पत्नी,मालिकिन,बहू बन सबको खुशियाँ ही बाटी थी।लेकिन ठाकुर साहब का प्रेम ऐसा छद्मधारी होगा उसने सपने में भी नही सोचा था,वह रोयें कि हंसें उसे समझ नहीं आ रहा था। ईसलिये वह निर्विकार हो शून्य में चलीं गयीं थीं।

वह सात दिनों तक मन ही मन रोतें रहीं,प्रभु मेरा अपराध क्या था?क्या नारी का संवेदनशील,सहिष्णु,कर्तव्य पथ पर धर्म-कर्म की बुनियाद पर चलना आज की दुनियाँ में इतना कष्ट साध्य हैं कि,हर परीक्षा देने के बाद दिल को धोखे मिलेगे। नारी का प्रेम का आधार क्या है प्रभु?और यदि मातृत्व ही सच्चा आधार हैं तो मुझसे ये सुख भी आपने क्यों छीना?

शादी के पहले या बाद मे भी सहज-सरल हृदय से ये बात ठाकुर साहब मुझे बताते कि मैने नसबंदी करवा ली हैं,तब भी मैं उसका पहले से भी ज्यादा सम्मान कर पाती।और मैं किसी अनाथ बच्चे को गोद ले लेतीं। ठाकुर परम्परा में ये मान्य ना होता तो मैं ये भी नहीं करतीं। एक छोटा झूलाघर घर मे खोलकर,या किसी अनाथ आश्रम को गोद लेकर मैं शायद अपने मातृत्व का विस्तार और व्यापक होकर कर पातीं। आखिर ठाकुर साहब के बच्चों को जो मैने प्यार दिया उसके बुनियाद पर मेरे मन की कोई लालच वृति नहीं थी।सहज नारी वात्सल्य छलकता था मेरे भीतर और बच्चो को माता मिलीं और बच्चो के रूप मे मुझे मेरे ही भाई-बहनों की याद आतीं थी।जिनकी उमर शायद ईतनी ही होगी।अंतर इतना था कि मैं माता का किरदार निभा ज्यादा सहिष्णु,सेवाभावी होकर और ज्यादा वात्सल्यमयी हो गयीं। मेरा अपराध क्या है प्रभु कृपया मेरे दिल को कुछ समझाईये?वह रोते जाती और प्रश्न स्वतः से करतीं?पता था ये समाज है,लडकी एक बार ब्याह दी जातीं हैं तो वह खूंटे की गाय हो जाती है भला कौन अब उसका दुःख-दर्द समझेगा। मालिक के भरोसे गाय का दाना-पानी जो चलता है।जब तक दुधारी रहेगी तब तक ही उसकी पूछ-परख रहेगी।

और जो गाय बच्चा ना दे पाये,उसे तो दो वक्त का चारा नसीब ना हो।सो नारी शरीर

सिर्फ उपयोग या उपभोग के लिये ही बनी है।भावनाये और चित्त के विचार शक्ति का भला क्या पूछ-परख होगी समाज में।

लक्ष्मी ये सोचते चिन्तन-मंथन करते रहती।

फिर सोंचती चलो जो हो गया उस पर विचार ना करूँ मैं ।मैने अभी आई-ए-एस का एक्जाम दिलाया हैं। मेरे पेपर अच्छे गयें है।भले ही ठाकुर साहब को विश्वास नहीं कि मैं पहली बार सफल हो सकतीं हूँ। मेरा मन रखने के लिये ही उन्होंने मुझे परीक्षा दिलाने दिया है।लेकिन अब मैं उनसे पूछूंगी क्या मैं जाॅब कर सकतीं हूँ कि नही?शायद तब मुझे परिवार से आगे समाज सेवा करने का तो अवसर मिलेगा। अब उसका मन इतने समर्पण के बाद कुछ अपने बारे में सोचे तो क्या बुरा हैं?ऐसा सोच लक्ष्मी नये जोश और प्रतिज्ञा के साथ उठी।

पहले के जैसे तैय्यार होकर वह बैठक कमरे में गयीं,ठाकुर साहब को देख मुसकराया। ठाकुर साहब नार्मल तटस्थ होकर पूछे--अब कैसी तबियत हैं तुम्हारी,सात दिनों से तुम्हे खुद का भी होश नहीं था।ऐसा करों कुछ दिनो के लिये अपनी मायके चलें जाओ।फिर अगले महीने तुम्हे हम विदेश घुमाने ले जायेगे।

अब हम अपनी लक्ष्मी को सिर्फ बच्चा ही तो नहीं दे सकते,लेकिन देश-विदेश की सैर करवा तुम्हे सदैव खुश रखेगे।

लक्ष्मी संयत हृदय से बोली--ठाकुर साहब ये बाहरी दुनियाँ की चमक-दमक में क्या रखा है।जब आप भीतर से ही चमकदार नहीं हो तो,बाहर की कोई खुशियाँ मुझे अब नहीं भर पायेंगी। सो अब हमे बहलाईये नहीं। आपने शादी की बुनियाद ही झूठ से रखी है।अपने पैसो के अहसान तले सबको रखना और मसीहा बनने का नाटक करना।

प्रेम आपके लिये कोई मायने नही रखता ये भी बिजनैस जैसा है,चूंकि आपको अपने बच्चो के परवरिश के लिये,एक आया और हवेली के लिये एक मालिकिन चाहिये था तो गरीब घर की ,और अपने से पन्द्रह साल छोटी लडकी से ब्याह किया।समझ ही नहीं पाये कि नारी का भी दिल होता है,उसके भी अरमान होते है।नारी प्रेम मे छल-कपट नहीं करतीं हैं,सौदेबाजी नही करती है।जिस

पुरुष के साथ उसका ब्याह होता है,उसके और उसके लिये सच्चा तन-मन का समर्पण करना धर्म होता है।और उनके घर के सदस्यो और कुल की जो भी परम्पराये है उसे लेकर चलना ही हर नारी का वजन होता है।लेकिन इन सबको करने में भी ऑनंद तब आता है जब बदले में रिश्तो से भी मान-सम्मान,प्यार -दुलार-मनुहार मिलें।

आपके घर में जबसे आयें है,लगता है जैसे हम बंधुऑ मजदूर हैं,जिसे सबका ख्याल करके सबके इशारों में नाचना है कठपुतली बनकर। जिसकी डोर सदैव कोई दूसरे थामे हो और उसे जबरदस्ती चलना पडता है। मेरे किसी धर्म-कर्म-मर्म-संवेदना की कदर ही नही।दिन-रात गरीब घर की बेटी का उद्धार किया और मेरे घर वालो का उद्धार किया है ये ताने सुनते सुनते और आपके अहसान तले धर्म शास्त्र की व्याख्या का विकृत रूप देखते देखते मै थक गयीं हूँ।

लक्ष्मी बोले जा रहीं थी निधडक,ना जाने कहां से आज उसमें इतना बल आ गया था। ये रोष,क्रोध,फरियाद,प्यार,कुण्ठा,

साहस,बगावत,इकरार,इजहार,नाराजगी ,

हिम्मत क्या था?उसे खुद नही पता ।

लेकिन वह बडे कटु सत्य को अपने अनुभव के ऑसुओ की मोती समझ बोल रहीं थी।उसने कभी भी अपने दुख को चिन्तन-मंथन को व्यक्त नहीं किया था घर -परिवार और अपने नाते रिश्तेदारो में। सो वह प्यार करके हार जाने में विश्वास रखती थी और जब प्रेम मे सब संतुलन मे रहकर जीत जाते अपनी-अपनी खुशियाँ पा लेते तो लक्ष्मी को अपनी हार में भी सदैव खुशी का अहसास होता था।क्योकि वह हर पल यही तो चाहतीं थीं,जिन लोगों के बीच वह जीती हैं वे सभी खुश रहें और प्रेम मे सहकार तंत्र संगठित होकर सदैव पीढियो की परम्परा को जीवन्त रखकर ,संयुक्त परिवार का मान -सम्मान करें। रिश्ते दादी-नानी,बुऑ,मौसी,चाचा,ताऊ,मामा और इन रिश्तो के बच्चे जो कजिन कहलाते हैं वे,आपस में एक सूत्र में रहे।लेकिन वह हार गयीं थी।सबके मनोवृतियो में अंहकार,और हीन मनोवृतियो का स्थान था

जिसे देख-समझ कर चल पाना,और बहता पानी निर्मल धारा बना रहना कितना कठिन था लेकिन वह सदैव गंगा की कल-कल जैसी संवेदनाओ की धार बना बहती रही,

विचारों में यमुना जैसी धीर-वीर-गंभीर रही गहराई लिये हुये। और हर संबध अपने आपमे फले -फूले आगे बढे सो विवेक प्रज्ञा धार बना वह सदैव नीर-चीर विवेक बन रहीं। और ऊसे क्या मिला,सबने उसे सदैव अकेला ही किया।

लक्ष्मी ने कहा--ठाकुर साहब,प्यार एक बार होता पति नामक जीवन साथी से। सो जीवन मे अब प्रेम तो किसी से ना होगा,मन

भर गया अब ये धोखे खाकर हमारा।लेकिन तब भी हमने आपको सच्चे हृदय से प्यार किया है,और आपके ही चरणों मे रहना चाहेगे।आपके द्वारा दिये गये हर कडवाहट को भूला देना चाहेंगे। कृपया बतलाईयेगा कि यदि हमारा प्रशासनिक सेवा में चयन हो जाय तो हम नौकरी कर सकते है कि नहीं?या छोटी-सी लेक्चर शीप की नौकरी कर आत्म निर्भर बन कर अपने स्व अर्जित पैसो से समाज सेवा कर सकते है कि नहीं।

शायद तब हमारे जीवन के संताप कम हो और हम भी समाज में स्वतंत्र नारी शकि की धारा बन नाम कमा पायें।

हमे आपके साथ कहीं बाहर घूमने नहीं जाना ये बोलकर लक्ष्मी चुप होकर

कठोर लेकिन उत्सुकता जन्य नजरों से ठाकुर साहब को देखने लगी।

ठाकुर साहब हतप्रभ से ये सब लक्ष्मी की बातें सुन रहें थे।उन्हे पता था,कि लक्ष्मी जो बोलेंगी वह कर दिखायेगी।

कोई भी पत्नी पति से ज्यादा आगे बढ,समाज में नाम कमाये। ये शायद पुरुष समाज के पन्च्यानबे परसेन्ट पुरुषो को गंवारा नही। पांच परसेट ही पुरुष, नारी के नैतिक,बौद्धिक,और प्रतिभा जन्य उपलब्धि से खुश हो सकते है।

ठाकुर साहब थे तो बडे अच्छे इन्सान,और लक्ष्मी को दिल से चाहते भी थे।लेकिन जब अपने परम्परागत ठाकुर समाज के सोच में आयें तो वे चाहकर भी लक्ष्मी को ये हक ना दे पायें कि वह नौकरी करें। क्योकि उन्हे लगा कि वे ऐसा यदि करेंगे तो कल

अपने बच्चो के लिये भी वही रास्ते खोलेगे। सभी

घर की बेटी-बहू,भी भौतिक वाद की सभ्यता-संस्कृति में बहक मत जायें। कुरीति जन्य मान्यतायें ठाकुर साहब के भीतर जोर मारने लगी।उन्हे लगा कम्मो बुऑ,और धन्नो बुऑ के जैसे नारियों को नारियों के बीच ही बुलन्द होकर रहना चाहिये।आखिर नारियों का पुरुष के बीच क्या काम,समाज-परिवार राष्ट्र तो पुरुष ही संभाले है। ये लक्ष्मी कलेक्टर या लेक्चर बन जायेगी तो आये दिन उसके बारे मे दस अच्छी-बुरी बात सुनने मिली तो क्या,मै विश्वास कर पाऊगा

या बर्दाश्त कर पाऊंगा।और पुरुष के दिमाग का खरपतवार बीज,विषैले विचार दंश बना कर के फैलने लगा खून में।

ठाकुर साहब ने कहा--लक्ष्मी मै तुम्हें,हर प्रकार का सुख-सुविधा दे सकता हूँ,बडे बडे ट्रस्ट के तुझे ट्रस्टी बना दूँ,समाज सेवा के नाम से तुम करोडों दान करों,चीफ गेस्ट बन जाओ,मुझे इससे ऐतराज नहीं,बल्कि मेरी तो ईज्जत ही बनेगी।लेकिन तुम लेक्चर या कलेक्टर ही बन जाओगी तो लोग तुम पर ऊंगली उठायेंगे,मेरी इज्जत गिरेगी।किसी अनाथ आश्रम मे नित्य जाकर मदर टेरेसा बन सेवा करना भी मुझे गंवारा नहीं तुम अपने घर-परिवार से दूर चली जाओगी,रीति-रीवाज,छुऑ-छूत ,ठाकुर घराने की औरतो के लिये जो बंदिशे है वे तुझे माननी होगी।आखिर हवेली की भी कुछ मर्यादाये है।

आखिर लक्षमी की आत्मा चीत्कार कर ऊठी वह चिल्ला कर बोली--हवेली की परम्पराये,ठाकुर समाज की परम्पराये,रस्म-रिवाज आखिर क्या भला किया आपने अपने समाज की सोच का,मैं भी ठाकुर परिवार से हूँ,मेरी और मेरे घर की गरीबी की मजबूरियो का फायदा ही तो उठाया है,

हवेली वालों ने।

यदि घर की स्त्रियो को शिक्षित बना नौकरी करने की छूट दिये होते,और समाज सेवा के उच्च आदर्श सिखाये होतें तो घर की नारियां कुण्ठित नहीं होती। ये कम्मो बुऑ और धन्नो बुऑ बनकर नारियो पर जबरदस्ती शासन नहीं करतीं, जकड़ मानसिकता मे नहीं जीती। आप लोग ही हम नारियो के पतन के लिये जिम्मेदार है ठाकुर साहब,जो अंदर से उन्हे कभी मनोबली नहीं बनने देते,समझौता भी सदैव आपके शर्तों पर होगा।मेरा दम घुट रहा है और मैं आपके अविश्वास के और झूठी प्रैस्टीज के साथ नहीं जी पाऊंगी।मैं जा रहीं हूँ सदैव के लिये आपका घर छोडकर।

लक्ष्मी ठाकुर साहब के घर से निकल कर मायके आ गयीं। उसने घर मे अपने साथ होने वाले अन्याय की कोई चर्चा नहीं की।ठाकुर साहब का फोन आया तो उसने साफ कह दिया कि वह नौकरी करेंगी,आपको घर में मुझे रखना है रखो,नहीं रखना है ना रखो।अब मेरा तुमसे दिल का रिश्ता टूट गया है।जिस्म की भूख मुझे कभी नहीं थी।और आपके साथ रहने पर भी अब बिना इजाजत आप मुझे हाथ तक ना लगा पायेंगे।

ठाकुर साहब ने कुछ नहीं कहा,खर्चा-पानी भिजवाया,उसने लेने से इन्कार कर दिया।

लक्ष्मी पिता के यहाँ थी।और चिन्तित थी कि जल्द ही बाबूजी को सब सच्चाई पता चल जायेगी,तब उन्हे फिर से लकवा ना हो जाये।इतना बडा सदमा वह बर्दाश्त ना कर पायेंगे।

अचानक दो दिनो बाद आई-ए-एस का रिजल्ट आया।लक्ष्मी ने टाॅप किया था।पिताजी फूले ना समाये,वह भी गले लग पिताजी के बहुत रोयी। बोली बापू-ठाकुर साहब एक साल के लिये विदेश गयें है।जब वे आयेगे मुझे लिवा ले जायेगे।अभी उन्होंने मुझे फोन से बधाई दी और कलेक्टर बनकर देश की सेवा करने बोलें है,और कहा है तूने बाबूजी को कलेक्टर बनने का वादा किया है ना उसे जरूर पूरा करना।

लक्ष्मी ये सब झूठ भी,बाबूजी की सेहतमंदी का ख्याल कर बोल रहीं थी।

बाबूजी भाव विभोर होकर,अपने दामाद को दुऑ दे रहे थे।और लक्ष्मी मन से उन्हें लानत भेज रहीं थी।

आज लक्ष्मी के कस्बे में एवार्ड फंक्शन था।

लक्ष्मी उस जिले की कलेक्टर थी।और उसने अपने कस्बे का काया कल्प ही कर दिया था।हर सरकारी योजनाओं से गांव वालो को जानकारी देकर ,उनके बीच सामान्य नागरिक बन जीना,जीजिविषा के धनी लोगो को अपने कस्बे मे लाकर वहा

सोलर सिस्टम लगवाया,गांव को पर्यावरण से हरा भरा कर बंजर पहाडियो को आबाद किया।घर -घर गाय पालन कर कमजोर वर्ग को रोजगार और गौवंश की वृद्धि में असाधारण योगदान दिया।पशु बलि के खिलाफ मुहिम चला,अपने एरिया के बूचडखाने को बंद करवाया।नशा खोरो के लिये""पीट-पीट-के अधमरा करो""अभियान की शुरुआत कर गुलाबो गैंग की तरोताजा शुरू वात की,कुटीर उद्योग,और मूर्ति कला उद्योग पर विशेष काम करके,अपने गांव को रोजगार और पर्यटन स्थल में बदलवाया। हर किसी की जुबान पर लक्ष्मी का नाम था।आज एवार्ड फंक्शन था,राष्ट्रपति से लक्ष्मी को सम्मान मिलना था। जब उसको बुलाया गया बडी भारी भीड को चीरने लक्ष्मी आई और एवार्ड लेते समय वह गर्व से भर गयीं। अचानक उसकी नजर ठाकुर साहब पर पडी जो विशेष अतिथि के लिये लगवायी गयी कुर्सी में सबसे सामने बैठे उसे बडे सजल नयनों से निहार रहे थे।उनके चेहरे पर पश्चाताप छलक रहा था।लक्ष्मी और ठाकुर साहब की नजरें चार हुई। लक्ष्मी का प्यार उमड आया था नेत्रो में आखिर पहला और अंतिम प्यार तो ठाकुर साहब ही थे।लेकिन उसने अपने को संयत किया,अपने कार की तरफ बढते वह सोच रहीं थी,अब ठाकुर साहब से सामना ना ही हो तो अच्छा है।

वह फिर प्यार में पड़कर कमजोर नही होना चाहतीं थी।आखिर जिन्दगी ने बहुत मुश्किल से उसे जिन्दा रहना और जिन्दादिली से जीकर समाज सेवा करना सिखाया था ।अनुभवों के सांचे में जिन्दगी जब ढलती है तो,समय जैसा सांचा बना उसे गढता है उसे हर कोई समझ जायें तो

दुनिया मे और भी है राहें बोल जिन्दगी

जीना सिखाती है। दुनिया में आज भी भले लोगों की कमी नहीं है, बस ईश्वर पर विश्वास कर अपने आत्मदीप के दिखाये रास्ते पर चलना चाहिये।लक्ष्मी सोच रही थी।लेकिन वह ठाकुर साहब को कभी भूला भी नहीं पायेगी वह यह भी जानती थी...।