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मैं भारत बोल रहा हूं-काव्य संकलन - 11

मैं भारत बोल रहा हूं 11

(काव्य संकलन)

वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’

43. सविधान की दहरी

आज तुम्हारे इस चिंतन से, सविंधान की दहरी कॅंपती।

श्रम पूंजी के खॉंडव वन में, जयचंदो की ढपली बजती।

कितना दव्वू सुबह हो गया, नहीं सोचा था कभी किसी ने-

किरणो का आक्रोश मिट गया, शर्मी-शर्मी सुबह नाचती।।

कलमों की नोंके क्या वन्दी? इन बम्बो की आवाजों में।

त्याग-तपस्या का वो मंजर, लगा खो गया इन साजों में।

पगडण्डी बण्डी-बण्डी है, गॉंव-गली की चौपालें-भी-

लोकतंत्र में दूरी हो गई, प्रजातंत्र नकली-वाजों में।।

तरूणाई झण्डों में भूली, डण्डों की बौछार हो रही।

धर्मवाद के महायज्ञ में, जीवन की आवाज सो रही।

कब जागोगे कर्मवीर तुम, श्रम होता है यहाँ विखण्डित-

बनते है बजीर, वे युग के, जिनकी यहाँ नजीर ना रही।।

समरवीर बनना चाहों तो, लेख-लेखनी गहरी रचना।

नहीं लूट के पौ-वारा हों, देश-प्यार को यहाँ पर रखना।

यहाँ हमीरों की गिनती नहीं, सजते है बजीर के साये-

विज्ञापन मनमस्त, मीडीया, सबका ध्यान तुम्हीं को रखना।।

44. धूप से वात

पुरवाई ने डाला डेरा, धूप से बात करती निराली।

तेरे आंगन में बहती रहूंगी, नहीं होगी जगह खाली।

ताप के वे, वसेरे न होंगे, आदमी की जमीं, जो हिलाती-

रात का अंध मैटूं जहॉं से, विखराउॅंगी गहरी लाली।

फूल के संग कॉंटे न होंगे, होगा गुलसन का वसेरा।

जिदंगी के तराने ही होगें, कोई होगा किसी का न चेरा।

गौर से देखना है उधर को, कौन जाने जहां के दर्द को

दोस्ती का सुनहरा कर बढ़ाओ, निभाने का वादा है मेरा।।

आंधियो से नहीं मेल करती, प्यार गॉवो में मैंने उडे़ला।

बैठकर बालियो के सिरौं पर, झूलने का खेल खेला।

आम की डालीयाँ हैं खिलौंना, झूलती खुबह-शाम -

मनमस्त जीवन वहॉं पर, बिताया गॉंव के झमेला।।

45.पाती

सिंहो के छौने हो श्रीमन, लोखड़ कब से हो गये।

इस शासन के शूद तंत्र के, चारण कब से हो गये।

अपनेपन को स्वयं संभलो, राह न भटको प्यारे-

अपने मन के तुम शायर थे, अपनापन कहाँ खो गये।।1।।

लाल-लालियों के स्नेही हो, बहिनों के भइया हो।

इस धरती के गहरे रिश्ते, शासन के पहिया हो।

इतनी आरति नहीं उतारो, अतिशंयोक्ति हो जाए-

गर्बीली इस वसुन्धरा के, प्यारे से छइया हो।।2।।

इतना डारो नमक यहाँ, आटे में नमक समाए ।

इतना भी कड़वा मत करदो, कोई न उसको खाए।

सोचो! समुझो!! ठकुर सोहाती, कब तक यहाँ चलेंगी-

आसब नद मनमस्त न पैरो, कही न तुम्हें डुबाऐ।।3।।

जो-जो डूबे, उछर न पाऐ, उनका पता लगाओ।

अते-पते कोऊ नहिं देते, इतने गाल न गाओ।

चारण धरती यह तो नइयां, शास्त्र पुरानन पढ़लो-

अपनी मरियादाऐं राखो, चारण नहीं कहलाओ।।4।।

46. ऐसा कौन खिलाड़ी?

ऐसा कौन हुआ है शासक, जिससे सब कोई कॅंपता हो।

जो मन की बातों के संग ही, एक अनूठा ही बकता हो।।

कब, कहाँ जाना कोई न जाने, बात न माने।

राहों में मंशूबे बदले, पूरब के पश्चिम हो जानें।

पद की गरिमा, धरी ताक में, किसके चरणों मे जा लेटे-

लेता हो आशीष जबरईं, गाता हो अनगढ़ से गाने।

मंदिर की आरती त्याग कर, अजब फातमें ही पढ़ता हो।।1।।

रातों में अन बोल, बोलता, उल्लू नहीं समझना कोई।

नौं, दस, ग्यारह अथवा बारह, रात-दिवस चाहे जो होई।

जनता आफत में फॅंस जाती, सच मानो जब-जब वह बोला-

दिन की बात न पूछो भाई, रात-रातभर, रात न सोई।

खूंटी टांगत न्याय व्यवस्था, मन माने बीजे बोता हो।।2।।

अनबूझे प्रपंच रच डाले, कागज हुई नोट की कहानी।

चक्रब्यूह की रचना नकली, छिपी नहीं सब जानी मानी।

जादूगर है अजब-गजब का, उसकी लीला वो ही जाने-

सारा विश्व घुमक्कड़ न्यारा, मिलन अनूठी, पर वे-पानी।

कथनी-करनी अलग-अलग है,नकली पहाड़े जो पढ़ता हो।।3।।

नींद हरामें जिसने कर दीं, फिर भी लोग उसी को चाहैं।

कौन खिलाड़ी ऐसा भाई, ऊॅंची उठती जिसकी बॉंहें।

परिभाषा मन की गढ़ता हो, बिना व्याकरण के भी बोले-

जिसके कर्मशील जीवन पर, जन जीवन लेता हो आहैं।

क्या जाने मनमस्त बाबरे! सभी निगाहों जो चढ़ता हो।।4।।

कोई कुछ भी कहे, मगर वह, अपने पथ का अडिग सिपाही।

रेखाऐं खींचीं हैं लम्बी, जिस पर चले, आगला राही।

नामुमकिन, मुमकिन कर डाली, क्या बतलाऐं मंदिर-मस्जिद-

सब ठाड़े मनमस्त ताकते, उससे, सबने मुंह की खाई।

सूर्य-चॉंद जिसके कब्जे में, इन्दर भी बर्षा करता हो।।5।।