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प्रसिद्ध मृदंग बादक - कुदऊ सिंह

प्रसिद्ध मृदंग बादक - कुदऊ सिंह

लेखकः- राजनारायण बोहरे

शास्त्रीय संगीत में मृदंग का अलग महत्व है। भारतीय संगीत में जब मृदंग की चर्चा होती है तो कुदऊसिंह जी के नाम के बिना यह अधुरी ही होती है। कुदऊसिंह जी ने अपने जीवन का बेहतरीन दौर दतिया में बताया है। उनके द्वारा खजायी गई “परने” पखावज की बड़ी दुर्लभ और मनमोहित कर देने वाली परन कही जाती है।

कुदऊसिंह जी के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालने वाली कम सामग्री प्राप्त होती है फिर भी दतिया के खोजी पत्रकार स्व.श्री बाबुलाल जी गोस्वामी ने बड़ा परिश्रम करकेे इस संबंध में कुछ साक्ष्य जुटाये थे, जिनसे कॉफी कुछ उनकी जीवन चर्चा की जानकारी मिलती है। दुख विषय है कि गोस्वामी जी की वह पुस्तक अधुरी और अप्रकाशित रह गई। स्व. हरिमोहन लाल श्रीवास्त ने भी इस संबंध में कुछ खोज की थी। दतिया के संगीतज्ञ विद्वान श्री महेश मिश्र मधुकर भी कुदऊसिंह जी के बारे में काफी खोजबीन कर चुके है।

कुदऊसिंह जी के कुल पुरोहित परिवार से प्राप्त जानकारी अनुसार कान्यगुब्ज परिवार में जन्मे कुदऊ का जन्म शहर बांदा में माघ शुक्ल 8 सम्वत् 1872 को हुआ था। दनके पिता का नाम गप्पे था और वे भी अच्छे संगीतज्ञ थे। अपने पिता की असामयिक मृत्यु के कारण निराश्रित होकर वे भटकते हुये मृदंगाचार्य बाबा श्री दास के चरणों में पहुंचे, जिन्होने की शिक्षा लेना आरंभ किया। उन दिनो मृदंग यानी परणावत एक ऐसा सम्मानीय वाद्य था जिसे राजदरबार मे बड़ी इज्जत मिलती थी।

अपने गंरू के यहा से मृदंग वादन में निष्णात होकर वे पर्यटन के निकल पड़े। लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में उन्होने मृदंग वादन किया और पर्याप्त सम्मान प्राप्त किया था। अवध पर अंग्रजो का नियंत्रण हो जाने के बाद कुदऊसिंह जी जयपुर चले गये और वहा लौटकर रामपुर नवाब के दरबार में पहुंचे। जहां सुरसिंगार वादक हुसैन खां से एक अविषमरणीय संगीत प्रतीयांगिता में विजय प्राप्त करके उन्होने राज सम्मान प्राप्त किया। बाद में पराजित हुसैन खां के बुरे व्यव्हार से परेशान होकर उन्होने रामपुर छोड़ दिया और रीवा दरबार मे जा पहुंचे। रीवा नरेश विश्वनाथ सिंह खुद वादन कला के जानकार संगीत प्रेमी थे और उन्होने मृदंग वादक की परख करने के लिये एक विशिष्ट परन की रचना की थी। वह बड़ी कठिन परन थी। कुदऊसिंह जी ने मौका पाकर वह परन संगोेपांग बजाकर सुनाई तो महाराज विश्वनाथसिंह अवाक रह गये और उन्होने इस मृदंग वादन के लिये सवालाख रजन मुद्राओ का पुरूस्कार कुदऊसिंह को प्रदान किया पागल दास जी हर परन को सवालााखी “परन” कहते हैं। इसी तरह एक अन्य परन पर भी उन्होने बारह हजार मुजाशाही मुद्राओ का पुरूस्कार पाया था और वह परन “बारहहजारी” परन के नाम से विख्यात हुई थी।

रीवा दरबार से अचानक कुदऊसिंह जी क्यों चले आये, इसका विवरण तो नही मिलता पर वे वहां से आकर झाँसी दरबार में महाराजा गंगाधर राव के पास रहे थे। महाराजा की मृत्यु के बाद वे रानी लक्ष्मीबाई के स्नेहित व्यवयहार के कारण झाँसी में ही रहते रहे। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण झाँसी राजपरिवार के साथ कुदऊ जी को भी बंदी बना लिया गया था। दतिया के महाराज भवानीसिंह जी उन्हे अपनी जमानत पर अंग्रजों से छुड़ाया और उन्हे वे दतिया ले आये तबसे कुदऊ जी को भी बंदी बना लिया गया था। दतिया के महाराज भवानीसिंह जी उन्हे अपनी जमानत पर अंग्रजों से छुड़ाया और उन्हे वे दतिया ले आये तबसे कुदऊसिंह जी प्रतीक रूप से अपने एक पांव मे लोहे की जंजीर पहनने लगे थे। पुछने पर कहा करते थे कि मै तो राजा बाबा का बंदी हूं।

दतिया प्रवास के दौरान ही उनकी संगत ग्वालियर दरबार के तत्कालीन धु्रपद गायक नारायण शास्त्री जी से हुई थी। दतिया नरेश महाराज भवानीसिंह ने कुदऊ जी को सिंह की उपाधि दी थी और वे कुदऊ पंडित से कुदऊसिंह कहलाने लगे थे।

कुदऊसिंह जी का व्यक्तित्व उड़ा प्रभावशाली था। वे ऊंचे पूरे गौर वर्ण के आजानु बाहु थे। वे घुटनों तक का पीला कुर्ता और तहमद धारण करते थे। माथे पर बाचधर्म का धारण करने पर छवि बड़ी आकार्षक हो जाती थी। उनके परिवार मे एक पुत्री के अलावा मात्र पत्नी थी। वे बुलबुल पालने के बड़े शौकिन था।

दतिया दरबार से प्रारम्भ में उन्हे पांचटका यानी ढ़ाई आने वृत्ति प्रतिदिन मिलती थी जो बादमें बढ़ते-बढ़ते 32 आने अर्थात दो रूपये तक पहुंच गयी थी।

एक बार राव साहब जानकी प्रसाद की किसी बात पर तीख में आकर कुदऊसिंह जी समथार नरश से पुरूस्कार प्राप्त करने की शर्त लगा कर समथर के लिये प्रस्थान कर गये थे। समथर जाकर कुदऊसिंह जी ने राजा के दरबार में प्रवेश की अनुमति मांगी और प्रतीक्षा करने लगे।

समथर नरेश के बारे में यह धारणा थी कि वे बड़े कृपण है। अतः कुदऊसिंह के आने का समाचार मिल जाने के बाद भी उन्होने कुदऊसिंह को दरबार मे नही बुलाया, बल्कि बिना आमंत्रण के समथर पहुं जाने के कारण वे उनसे नाराज ही हो गये एक दिन उन्होने महावत थी बुलाकर अपने शाही हाथी के मदमस्त हाथी गणेश गज को कुदऊसिंह के आश्रम स्थल की ओर ठेलवा दिया। कहा जात है कि हाथी को आता देख कुदऊसिंह कदई विचलित नही हुये उन्होने धैर्य से मृदंग पर “गजधरन” बजाना आरंभ कर दिया। गजपरन के जादुई असर से वह हाथी आश्चर्य जनक नरेश ने यह सुना कुदऊसिंह के इस चमत्कार से प्रसन्न होकर उन्हे दतिया लौटें एक बार कलकत्ता की प्रसिद्ध होकर जानकर अभिमान से क्षुब्ध राजा भवानी सिंह को सलाह देकर कुदऊसिंह ने दतिया बलवाकर अनेक दिन तक केवल अतिथि शाला में रोके रखकर उसे दैनिक परिश्रमिक कदलाया और माकुल मौन जवाब दिया था, जिसके बाद वे दतिया जैसी छोटी रियासत के स्वाभिमानी राजा के प्रति कहे गये अपने तिरस्कार भरे शब्द वापस लेती हुयी उनके समक्ष प्रणिपात हो गई थी।

कुदऊसिंह जी अंतिम समय तक दतिया रहे और अपनी तमाम परनों का अभ्यास अपने शिष्यों को कराते रहे। आज भी उनकी शैली पावज वादन की कुदऊसिंह विशिष्ट शैली कही जाती हैं।

परवाज का वांया पक्ष पार्वती का और दांया पक्ष शिवका प्रतीक माना जाता है कुदऊसिंह को पखावज सिंह हो गई थी। उन्होने खुद के बजाने के लिए सावन-भादो नामक दो बड़े मृदंग चुने थे। सावन की लम्बाई 22 इंच थी व किनारो का व्यास 7 थी जबकि दुसरे को लम्बाई 30 इंच और मध्य नीलाई 16 इंच थी। दोनो के मुंह 10 तथा 9 इंच के थे। कुदऊसिंह के दोनो मृदंग स्वाधिानता के बाद विंध्यप्रदेश सरकार को मिले दुर्भाग्य से सरकार द्वारा अन्य सामान के साथ उसे भी दिनांक 18 जनवरी 49 को मात्र 25/- रूपये में दतिया में नीलाम कर दिया था।

एक बार कुदऊसिंह का मुकाबला बंगाली पखावज वादक कंचन से दतिया दरबार में हुआ तो कंचन समेत सारे दर्शक कुदऊसिंह की याद के कायल होकर रह गये थे, क्योकि कंचन ने एक कठिन परन बजयी थी, हालांकि उस दिन वह परन उन्होने प्रथम बार बजती सुनी थी।

कहा जाता है कि कुदऊसिंह ने लगभग एक हजार परणों का आविष्कार किया था। पुत्री के विवाह में दहेज की विवशता में उन्होने इनमें से तमाम परण दान कर दिये थे। संगीतज्ञों में आज भी दहेज परणों की ख्याति हैं।

फैजाबाद के बाबा पागलदास कुदऊसिंह शैली के पखावज वादक के रूप में अत्यंत प्रसिद्ध है और वे कुदऊसिंह शैली के प्रचार प्रसार के लिये प्रयत्नशील है। हालांकि आज कुदऊसिंह की कर्म दतिया में कोई बहु प्रसिद्ध पखावजी मौजूद नही है। लेकिन दतिया का नाम पखावज वादको द्वारा पुरे सम्मान से लिया जाता हैं। यह सम्मान दजिया नगर में कुदऊसिंह ने दिलवाया है।

कुदऊसिंह के बारे में अनेक दंतकथायें और किस्से प्रचलित हैं। कोई कहता है कि उन्होने सौपी गई पशुओ कि करते-करते अपने गुरू भाईयों द्वारा बजाई जा रही पखावज की आवाज सुनकर चुपचाप पखावज की खुली थी। एक कथा छौलपुर की भी प्रचलित है। कहते है कि एक बार छौलपुर नरेश के दरबारी को पीटने के जुर्म में कुदऊसिंह को जेल में बंदकर दिया गया था। वहा वे जेल की दीवारों मे लगे पत्थरों को बजाकर पखावज का अभ्यास किया करते थे। उसी दिनो बाहर से आया एक पखावजी छौलपुर दरबार के सभी पखावजीयों का पराजित करके गर्व में अकड़ कर खुद को बहुत योग्य समझ रहा था। जेल के प्रहरीयों के माध्यम से राजा तक कुदऊसिंह की ख्याति पहुंची तो उन्होने कुदऊसिंह को बुलाकर को कुदऊसिंह ने पराजित किया। इस कारक वे स्वयं मुक्त हुये ही छौलपुर दरबार की भी ख्याति चहुओर फैला दी थी।

कुदऊसिंह का नाम पखावज बादन के साथ ऐसा जुड़ा है कि जब तक पखावज की गूंज सुनाई देगी उन्हे भुला नही पायेगें।

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