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एक दुनिया अजनबी - 15

एक दुनिया अजनबी

15-

जिस मृदुला के लिए प्रखर मुँह बनाता था, आज उसी मृदुला को खोजते हुए वह इस बस्ती में आया था | विभा को पता भी नहीं था कि उसका बेटा मृदुला की खोज में कहीं गया है | वह स्वयं बेटी के पास रहने आ गई थी |

वह अपने दोषों को ढूंढने का प्रयत्न करती रही, सोचती बेहतर नज़र तो वही है जो दूसरों की नहीं, अपनी कमियों को देखकर सुधरने का प्रयास करे किन्तु उसे समझ ही नहीं आया, वह कहाँ ग़लत थी ?

प्रखर को किसीने सुझाया था यदि उससे स्त्री का अपमान हुआ है तो उसे किन्नर के पैर छूने होंगे, क्षमा-याचना करनी होगी, तभी उसका जीवन फिर से ढर्रे पर चल सकेगा | तब उसे मृदुला की याद आई| जीवन में इतना कुछ घट चुका था कि वह किसी भी निर्णय पर पहुँचने में अपने मन को संतुलित नहीं कर पाता था |

जब मृदुला माँ के पास घर आती थी, प्रखर की त्योरियाँ चढ़ जातीं | पत्नी की बातों से, उसके चढ़ाने से वह और भी उछल जाता और माँ से सवाल करने लगता कि आख़िर उसका और माँ का क्या संबंध और क्या मेल है ? वो तो पिता के रहते वह कभी अपनी माँ से कुछ कहने का साहस नहीं कर पाया |

एक प्रश्न सदा उसके मन में घुमड़ता रहता, आख़िर क्यों आती है मृदुला उसकी माँ के पास ? पापा के सामने भी मृदुला वैसे ही आती थी किन्तु पापा ने उसकी माँ से कभी कुछ पूछा, कहा या ऐतराज़ किया हो, प्रखर ने नहीं देखा था |शायद पापा माँ व मृदुला के रिश्ते को समझते थे या उन्हें माँ ने किसी गूढ़ राज़ से परिचित कराया हुआ था |

प्रखर के पिता के न रहने पर मृदुला आई भी थी और विभा के गले लगकर बहुत रोई थी | उसके बाद उसने फिर कभी मृदुला को नहीं देखा | एक-दो बार उसके मन में भी आया आख़िर अचानक मृदुला कहाँ चली गई ? विभा पति के जाने से वैसे ही टूट चुकी थी, उस पर प्रखर व उसकी पत्नी के बीच भयंकर मनमुटाव से उसके तन-मन पर बहुत खराब असर पड़ रहा था | पापा के बाद प्रखर की अपनी माँ से मृदुला के बारे में कोई बात ही नहीं हुई |

जिस प्रकार की भयंकर दुर्घटना से वह बचा था, वह आश्चर्यजनक था | लेकिन यह भी सत्य था कि वह बच गया था, साथ ही यह भी उतना ही भयंकर सत्य था कि अपने जिस व्यापार पर वह इठला रहा था, इतने दिनों से उसे न देख पाने पर उसने उसे ज़मीन पर ला पटका था | ऎसी घटनाओं से जीवन की सच्चाई दिमाग की चौखट पर टहलने लगती है |

इतना बड़ा ऑफ़िस ! इतने प्रोजेक्ट्स, इतने सारे कर्मचारी ! लेकिन जिसको जो करना था वो पीठ पीछे छुरा भौंक चुके थे, उसका अपना स्वभाव तो था ही मस्तमौला ! सब पर आँख मूँदकर भरोसा कर लेना | इसका सबसे बड़ा कारण था कि उसने अपने आप कुछ भी करना सीखा ही नहीं था, सदा दूसरों पर आधारित !कभी अपने महत्वपूर्ण कागज़ात सँभालने का भी होश नहीं रखा उसने !

उस कठिन समय में केवल वे दो कर्मचारी जो उसके साथ शुरुआत के दिनों से थे वे दृढ़तापूर्वक सदा उसके साथ ही खड़े रहे | वे उसकी योग्यता पर भरोसा करते थे और समझते थे कि कुछ दिनों में अवश्य ही वह फिर से बिगड़े हुए काम को 'स्ट्रीम' कर लेगा |

लगभग पूरे वर्ष भर उसे बहन के घर रहना पड़ा, कोई था ही नहीं जो उसे पूछता | सब कुछ बिखर चुका था | यदि पत्नी को उसके साथ संबंध रखना होता तो वह उस समय उसको देखती जब परिवार को सबसे अधिक मानसिक व शारीरिक ज़रूरत थी |

विवाह के बीस वर्षों बाद पिता की मृत्यु पर उस घर को बहू की ज़रुरत थी, उसकी अशक्त माँ के तन-मन को सहारे की ज़रुरत थी, उसकी बिगड़ी हुई स्थिति को दृढ़ स्तंभ की ज़रुरत थी |

आज वह अपने बीते दिनों में पलटकर देखता है तो कहीं न कहीं स्वयं को ज़िम्मेदार मानता है किन्तु अब लकीर पीटना भर रह गया था | उसे जीवन के युद्ध के लिए फिर से चुनौती स्वीकार करनी थी, खड़ा होना था |

बच्चे उसके थे लेकिन कहाँ थे ? घर में तो उसे पानी भी नहीं पूछा जाता था| आज उसे अपनी वास्तविक स्थिति का अहसास हो रहा था | उसके हिस्से में कुछ नहीं था फिर भी ईश्वर ने उसकी प्रकृति ऎसी बनाई थी कि वह हर स्थिति में सँभल जाता | यह बहुत सकारात्मक ऊर्जा थी जो उसे ईश्वर के वरदान के रूप में मिली थी |