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एक दुनिया अजनबी - 24

एक दुनिया अजनबी

24--

किसी किन्नर के साथ पहली बार इतनी क़रीबी मुलाक़ात ने विभा को कुछ अजीब सी स्थिति में डाल दिया | उसे अपने बचपन की स्मृति हो आई | जब वह छोटी थी और जब इन लोगों का जत्था आसपास के घरों में बधाइयाँ देने आता, विभा मुहल्ले के बच्चों के साथ आवाज़ सुनकर उस घर में पहुँच जाती | बड़े कौतुहल से सारे बच्चे इन्हें नाचते-गाते देखते, ये लोग कभी कुछ ऎसी हरकतें भी करते कि वहाँ खड़ी प्रौढ़ स्त्रियाँ बच्चों को वहाँ से जाने को कहतीं, वो भी ज़ोर से चिल्लाकर |

समझ में नहीं आता था क्यों? ये तो बाद में बड़े होने पर सारी बातें समझ में आने लगीं |

सहेलियों के साथ इनका नाच देखने में उसे बड़ा मज़ा आता, पता नहीं क्यों दादी उसे वहाँ जाने से रोकने की कोशिश ही करती रहतीं, जहाँ से इनके गाने-नाचने की, ढोलक, घुँघरुओं की आवाज़ आती थी | पर बच्चे भी कहाँ कम चंट होते हैं, जहाँ बड़ों की आँख इधर-उधर हुई नहीं कि उनका काफ़िला उधर की ओर भागा |

उन दिनों वेदकुमारी नाम की एक किन्नर थी जो बहुत सुन्दर नाचती थी |उसके बारे में लोगों का कहना था कि वह किसी आर्यसमाजी परिवार की थी जिसे अधूरे अँगों के साथ जन्म लेने के कारण किन्नरों का परिवार उसे ले आया था |

लेकिन ये उन लोगों की अटकलें थीं, उन्हें किसीको भी यह ज्ञात नहीं था कि वह कहाँ की और किस परिवार की पुत्री है ? वह खूबसूरत भी काफ़ी थी और उसमें एक सम्मोहन शक्ति थी | शायद वह वहाँ की तो थी नहीं क्योंकि कुछ दिनों से ही इस ग्रुप के साथ देखी जा रही थी | कहीं बाहर से आकर इनमें शामिल हुई लगती थी |

"अरी कमला ! ये वेदकुमारी कहाँ से आ गई तुम्हारे टोले में ? " कभी कॉलोनी की कोई चबर-चबर करने वाली औरत उनकी गुरु से पूछ बैठती तो मुँह की खाती --

"क्यों ? ---गोद लोगी क्या अम्मा ? अब तो मैं ही हूँ उसका माँ-बाप, चलो ले लो, मैं उसे मना लूँगी ----- ले लो गोद उसे ---" उसके जवाब को सुनकर सामने वाली चतुराइन पानी-पानी हो जाती और कमला मुँह बनाकर, अपनी भारी कमर मटकाकर उसके आगे से दाँत फाड़ती निकल जाती |

विभा उन दिनों कोई पंद्रहेक वर्ष की रही होगी, पहले पापा के पास दिल्ली में कॉन्वेंट में पढ़ती रही, बाद में शोर मचने लगा, बड़ी हो रही है, माँ के पास रहना ज़रूरी | सो, मेरठ भेज दिया गया पहले 'सेंट मेरी' में और बड़े होने पर माँ जिस कॉलेज में पढ़ातीं थीं उस कॉलेज में उसकी शिक्षा हुई |

अब माँ के पास आ गई थी तो शास्त्रीय संगीत, पेंटिंग, कत्थक नृत्य की कक्षाओं में भी प्रवेश दिलवा दिया गया | दादी की इच्छा हुई -- लड़की की जात, इन सब नख़रों से तो काम चलने वाला नहीं है सो रसोई, सिलाई -कढ़ाई, बुनाई सीखनी ज़्यादा ज़रूरी ! अब विभा मनमौजी ! कौन सीखे सिलाई-कढ़ाई, पता नहीं दादी किस ज़माने की बात करती हैं ? कौन पहनता है अब ये कढ़ाई-वढ़ाई के कपड़े ? पहनने भी हों तो बाज़ार नहीं है क्या, एक से एक रेडीमेड कपड़े मिलते हैं |

हर रोज़ इतनी कक्षाओं में जाना संभव था नहीं सो दो दिन पेंटिंग, दो दिन सिलाई की कक्षा में भेजना तय हुआ | मन न होते हुए भी उसे इन कक्षाओं में जाना पड़ता | तीन दिन संगीत व नृत्य दोनों ---शास्त्रीय संगीत के सोमदेव पंडित जी और कत्थक के हरिओम जी एक ही क्लब में कक्षाएँ लेते जो शहर में, वो भी उनकी ही कॉलोनी में, नया-नया खुला था और जिसमें शहर के चुनिंदा परिवारों के बच्चे ही जाते थे |रविवार को भी नृत्य के गुरु जी व संगीत के पंडित जी अपनी कक्षाएँ लेते |

शहर कोई बहुत बड़ा नहीं था और न ही इतने खुले विचारों वाले व अल्ट्रा-मॉडर्न किस्म के लोग ! अभी प्रगति की ओर अग्रसर था शहर, लोग नए-नए मॉडर्न बन रहे थे |आसपास के गाँवों व कस्बों के रिहाइशी परिवार जिनके बच्चों ने ऊँची शिक्षा प्राप्त कर ली थी, वे गाँवों से बाहर नौकरियों पर थे | उन्होंने मिलकर मेरठ में खूब बड़ी सी जगह लेकर एक कॉलोनी का निर्माण कर लिया था, इसीका नाम 'ऑफ़िसर्स स्ट्रीट' रखा गया था | धीरे-धीरे प्लॉट कटते रहे और वहाँ उच्च मध्यम वर्ग के लोगों के बँगले बनते गए | विभा के पिता दिल्ली में सरकारी नौकरी पर थे, माँ मेरठ के डिग्री कॉलेज में इसलिए उनके लिए वहाँ घर बनवाने की सुविधा थी |