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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 19

भाग - १९

बेनज़ीर की बात से मैंने खुद को बड़ा छोटा महसूस किया। वह अपनी बात को आगे बढ़ाती हुई कहती हैं, 'जिस दुकान के सामने उसने रिक्शा रोका, वह एक ठीक-ठाक दुकान लग रही थी। अंदर एक साथ पन्द्रह-सोलह लोगों के बैठने की जगह थी। मुन्ना ने उसे भी अंदर चलने के लिए कहा तो वह हाथ जोड़कर बोला, 'बाबू जी, मीठा हमरे लिए जहर है। हमें सूगर है।'

बहुत कहने पर वह समोसा खाने को तैयार हुआ। दो समोसा, बिना शक्कर की चाय लेकर बाहर रिक्शे पर ही बैठकर खाने लगा। मैंने और मुन्ना ने लवंगलता खाई । वाकई मिठाई बहुतअच्छी थी। हम दोनों को पसंद आई।

इसके बाद हमें वह आसपास घुमाता रहा। कपड़ा मार्केट भी दिखायी। बोला, 'दुनिया भर में प्रसिद्ध बनारसी साड़ी का यह बहुत बड़ा बाजार है। यहां लल्लापुरा और मदनपुरा में सबसे ज्यादा बनाई जाती हैं।' उसके साथ हम करीब दो घंटे घूमते रहे। एक बार फिर कहती हूं कि वह मुझे रिक्शा चालक के साथ-साथ एक बहुत बढियाँ गाइड भी लगा। राजनीति पर भी टीका-टिप्पणी करता जा रहा था। बड़े जोरदार शब्दों में कहा, 'मोदी जी बाबा विश्वनाथ की इस नगरी को फिर से जिया दिए हैं। अभी बहुत सा काम होना बाकी है। फिर भी नगर का चेहरा बदल दिया है। आप फिर अगर दो-तीन साल बाद आएंगे तो इसे पहचान नहीं पाएंगे। क्योंकि तब-तक यह बहुत बदल चुकी होगी, काम बहुत तेज़ी से चल रहा है।

उसकी बातें सुन रहे मुन्ना ने पूछा, 'गंगा राम तुम्हें शहर के बारे में इतनी सारी जानकारी कैसे हुई, कब से हो यहां पर?' वह इत्मीनान से बोला, 'बाबूजी हमने जब से होश संभाला है, तब से अपने को यहीं बाबा विश्वनाथ के चरणों में पाया है। जऊन शांति जऊन कृपा बाबा विश्वनाथ, गंगा-मइया की हमें यहां मिली, उसके बाद हमें कुछ और की चाह नहीं रही। आपन तो पक्का बनारसी वाली यही सोच है कि, कम्मै खाए बनरसै रहे । कुछ भी हो जाए हम बाबा भोलेनाथ की नगरी छोड़ कर कहीं और जाने की सोच भी नहीं सकते।

उन्होंने मां-बाप, बीवी-बच्चों, पढाई-लिखाई के बारे में पूछा तो उसने कहा, 'बाबू जी जब होश संभाले तब खाली अम्मा को देखे। बाबूजी के बारे में अम्मा ने बताया था कि, जब हम सब भाई-बहन छोटे-छोटे थे, स्कूल में पढ़ रहे थे, उसी समय एक बार हमारे बाबूजी यहीं मदनपुरा में एक दंगे में फंस गए थे। वो और उनके दो साथी शाम को छुट्टी होने पर साइकिल से घर लौट रहे थे। सब लोग बनारसी साड़ी के एक बड़े व्यापारी के यहां काम करते थे। दंगा शाम को ही शुरू हुआ था।

व्यापारी ने सबकी छुट्टी कर दी कि सुरक्षित घर चले जाओ। लेकिन यह सब लोग थोड़ी दूर चलते ही दंगाईयों से घिर गए। पहले तो बाबूजी किसी तरह बच निकले। लेकिन साथी को बचाने के चक्कर में दोबारा फिर फंस गए। साथी तो बच गए लेकिन वह नहीं बच पाए। अपनी जान गँवा बैठे। साथियों ने बाद में बताया था कि इतनी निर्दयतापूर्वक दंगाईयों ने उन्हें मारा था कि उनका एक हाथ कभी नहीं मिला। जब मिट्टी आई तो चेहरा भी हम सब देख नहीं सके थे। जानवरों की तरह मारा था।

उनके दोनों साथी जब-तक जिंदा रहे तब-तक आते रहे। बहुत दिन तक हमारे परिवार की मदद भी करते रहे। लेकिन बड़ा परिवार था। उन लोगों की भी आमदनी कुछ ज्यादा नहीं थी। आखिर हम सब की पढाई-लिखाई बंद हो गई। अम्मा घरों में काम-काज करके किसी तरह पालती-पोसती रहीं। फिर जैसे-जैसे हम बड़े हुए काम-धंधा करने लगे और परिवार बनाकर रहने लगे। अम्मा जब-तक रहीं हम-सब उनकी जी-जान से सेवा करते रहे।

हम भी अपने लड़कों को जितना पढ़ा-लिखा सकते थे, पढाया-लिखाया। अब-सब अपने-अपने परिवार के साथ खुश हैं। सब दिल्ली में अपनी घर-गृहस्थी बसाए हुए हैं। सब बोलते हैं, 'बाबू, अम्मा के साथ हमारे पास आ जाओ, वहां अकेले रह कर क्या करोगे?' हमने कहा चाहे जो हो जाए काशी छोड़ कर कहूं ना जायेंगे। बस हम बूढा-बूढी आपन अकेले बनावत, खात-पियत भोले बाबा, गंगा-मैया के नाम लेकर जी रहे हैं। जीना मरना सब यही हैं। इसको छोड़ कर कहीं जाना नहीं है।'

वो बोलता जा रहा था और मैं मुन्ना के बगल में बैठी बार-बार उसकी बाहों को दबा रही थी। लेकिन कुछ बोलती नहीं थी। उसने यह भी बताया कि, वह अपने तीनों बेटों को ज्यादा पढ़ा -लिखा तो नहीं सका, लेकिन तीनों अच्छे मोटर मैकेनिक हैं, और किसी बड़ी मोटर कम्पनी में काम करते हैं। तीनों की बीवियां भी घर पर सिलाई-कढाई का काम करती हैं। किसी रेडीमेड कपड़े की दुकान के लिए। सारा कपड़ा वहीं से आता है। सिल कर वहीं देना होता है। भोले बाबा की कृपा से सबअच्छे से खा-पी रहे हैं। बच्चे भी पढ़ रहे हैं।

दूसरे तीसरे महीने कुछ पैसा भी तीनों भेज देते हैं। सब बोलते हैं, 'बाबू अब इस उमर में रिक्शा ना चलाओ। हम लोगों को अपनी, अम्मा की सेवा करने का मौका दो।' लेकिन बाबू हम भोले बाबा को छोड़ कर नहीं जा सकते। हम नहीं गए। कह दिया जब-तक दम है, तब-तक चला रहे हैं। थोड़ा बहुत कमाई बूढा भी कर लेती है। घर पर दुकान किए है।'

गंगाराम की बातों से हम दोनों ही बहुत प्रभावित हुए। उसकी बातों को और सुनना चाहते थे लेकिन रात के साढ़े नौ बजे चुके थे। इसलिए हम एक होटल से खाना पैक कराकर वापस आ गए। गंगाराम करीब तीन घंटे हमारे साथ रहा। उसका हिसाब-किताब मन में ही करके मुन्ना ने उसे तीन सौ रुपये दे दिए। जब अपना खाना हम पैक करवा रहे थे तो सोचा उसका और उसकी पत्नी के लिए भी करवा दें। लेकिन गंगाराम ने यह कहकर मना कर दिया कि, 'बुढिया खाना बनाए होगी। लेकर जायेंगे तो गुस्सा होगी। हम खाना का निरादर सोच भी नहीं सकते कि, बच गया है तो फेंक दें। इसलिए रहने दीजिए। अपना पैसा बर्बाद ना करिए।' हमें उसकी बात माननी पड़ी। जब वह छोड़ कर जाने लगा तो मुन्ना ने उसका मोबाइल नंबर ले लिया।'

मैं बेनज़ीर को फिर से बेनज़ीर पर ही केंद्रित करना चाहता तो अवसर मिलते ही कहा, 

'आपको नहीं लग रहा कि हम लोग बेनज़ीर की बजाए गंगा राम की ही बात करने लगे हैं।'

'नहीं, ऐसा है हमारे बारे में जैसे आपके मन में यह बात आ सकती है कि, भगवान राम के भाई लक्ष्मण की नगरी लखनऊ जैसा शांत, बढियाँ नगर छोड़कर हम तीर्थ नगरी काशी में क्यों आ बसे हैं?आपके इस प्रश्न का उत्तर मैं गंगाराम की बातों से देना चाहती हूं। मुझे लगता है, उसकी बातें इस शहर का जीवन में क्या महत्व है। यह अच्छे से बताती हैं । इसलिए आपको ध्यान देना चाहिए गंगाराम पर।'

'आपके दृष्टिकोण को देखते हुए मुझे ऐसा अवश्य करना चाहिए, मैं पूरा प्रयास कर रहा हूँ, आप बताइये।' यह कहते हुए मैं मुस्कुरा रहा था। बेनज़ीर ने उस मुस्कुराहट का पता नहीं क्या मतलब निकालते हुए कहा, 'आप लोग कौन सी बात को कहाँ लेकर पहुँच जाएँ इसकी कोई सीमा नहीं है, खैर उसके जाने के बाद हम लौटकर बेड पर बैठे हुए थे कि, मुन्ना के मोबाइल पर अम्मी का फोन आ गया। मुन्ना ने मेरी तरफ देखा ही था कि मैंने जल्दी से कहा कि, 'बोल दो मैं दूसरे कमरे में हूं।'

उसने कॉल रिसीव की। नमस्ते बोला। उधर से अम्मी घबराई हुई बोलीं, 'बेटा बेंज़ी कहां है, फोन क्यों नहीं उठा रही?'

मुन्ना ने मेरी ओर देखते हुए कहा, ' चाची हो सकता है उसका मोबाइल साइलेंट मोड में हो। यहां सब ठीक है। आप घबराइए नहीं, मैं जाकर उससे कहता हूं कि वह आपसे बात कर ले।'

यह कहकर मुन्ना ने फोन बंद कर दिया।

वह मेरी तरफ देख ही रहा था। मैंने कहा, 'अरे मुझे फोन की घंटी सुनाई ही नहीं दी। सच में तो साइलेंट नहीं हो गया है।' मैंने बैग से मोबाइल निकाला तो आशंका सही निकली। रिंग ऑन करके बात की। अम्मी बड़ी घबराई हुई थीं। मैंने सारी बात बताई कि, 'फोन की घंटी सुन नहीं पाई। तुम परेशान ना हो। यहां सब ठीक है। बहुत अच्छी व्यवस्था है। खाना-पीना सब ठीक है। अम्मी दुआ कर कि यहां मैं अव्वल आऊं। जब घर आऊं तो बाराबंकी से भी बड़ी ट्रॉफी लेकर आऊं।'

फिर अम्मी से मैंने उनकी सेहत, खाने-पीने, काम-धंधे आदि के बारे में बात कर ली। अम्मी बोलीं, 'मुन्ना के घर वाले दे जाते हैं। चाय-नाश्ता सब। मैं कहती हूं कि धीरे-धीरे बना लुंगी। लेकिन मुन्ना की अम्मा कहती हैं कि, 'नहीं, आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती। कहीं गिर-गिरा गईं तो बुढापे में बड़ी मुसीबत हो जायेगी, और फिर पड़ोसी होकर हम इतना भी नहीं कर सकते क्या? मुन्ना तो जाते-जाते कह गया था कि आपका ध्यान रखना है। नहीं रखा तो आकर बहुत नाराज होगा। बेंज़ी सच में बहुत नेक परिवार है। ऐसा नेक पड़ोसी अल्लाहताला सभी को दे। उसके अब्बू, अम्मी, भाई सब दिन भर में कई बार आकर हाल-चाल पूछ जाते हैं, घर में जो कुछ बनता है वह लाकर दे जाते हैं।'

'अच्छा, तब तो बहुत बढिया है। मैं अब आराम से बेफिक्र होकर यहां काम में मन लगा सकूंगी। तुम परेशान ना होना। यहां मुन्ना मेरा पूरा ध्यान रखते हैं।'

वह मेरे बगल में ही बैठे थे, मैंने उनकी जांघ पर हल्की सी चुटकी काटते हुए अम्मी से बात ख़तम।उन्होंने भी मेरी एक ख़ास जगह पर चुटकी काटी। जिससे मैं एकदम झटके से उठ खड़ी हुई, लेकिन मुंह से ऐसी कोई आवाज नहीं निकलने दी, जिससे दूसरी तरफ अम्मी कुछ समझ पातीं।

बात खत्म कर मैंने मोबाइल किनारे रखते हुए मुन्ना से कहा, 'ओफ्फो, प्यार की चुटकी ऐसे काटी जाती है कि जान ही निकल जाए।'

'तो कैसे काटी जाती है।' उन्होंने मुझे बाँहों में खूब जोर से दबा कर छोड़ते हुए कहा, तो मैं उनके गले में हाथ डाल कर बोली, 'ऐसे, जैसे कि सुर्खाब के पर से हौले-हौले ठहरे हुए पानी को सहलाया जाए, लेकिन पानी में जुंबिश तक ना हो। और तुमने तो जैसे पानी में नाव का चप्पू ही चला दिया।'

फिर मैंने कपड़ा हटाकर वह जगह दिखाई जहां उन्होंने अपने हिसाब से बहुत प्यार से चुटकी काटी थी। वह जगह अच्छी-खासी सुर्ख हो गई थी। उस जगह को चूमते हुए उन्होंने कहा कि, 'पता नहीं तुम कुछ ज्यादा ही नाजुक हो या मेरे हाथ ज्यादा कठोर हैं।'

'न तुम ज्यादा कठोर हो, ना मैं ज्यादा नाजुक हूं। हमारी मोहब्बत इतनी गहरी है कि, सुर्खाब के पर भी अपना गहरा निशान छोड़ जाते हैं।' इतना कहकर मैं उनके गले से और ज्यादा लिपट गई। उन्होंने भी मुझे बाहों में भरकर खूब प्यार किया।'

'मानना पड़ेगा कि, आप किसी शाईरा से कम नहीं हैं। क्या बात कही है कि, हमारी मोहब्बत इतनी गहरी है कि सुर्खाब के पर भी अपना गहरा निशान छोड़ जाते हैं। वाह, बहुत खूब।'

'तारीफ़ के लिए शुक्रिया। मैं भी यह कहूँगी कि आप एक शानदार श्रोता हैं। मैं आज चौथी मीटिंग में भी देख रही हूं कि, आप बहुत ही ध्यान से, धैर्य से मेरी बातें ऐसे सुनते रहते हैं जैसे मैं खूबसूरत कहानियां सुनाने वाली किस्सागो हूं।'

'निःसंदेह, वह तो आप हैं ही। किस्से-कहानियां जीवन पर ही तो लिखे जाते हैं। जितना विविधततापूर्ण जीवन उतनी बेहतरीन कहानी। और अब-तक आपने अपने बारे में जो-जो बताया है, वह एक रॉलर कॉस्टर की तरह बड़ा तीखा उतार-चढाव भरा है। इसीलिए तो मन में एक शानदार उपन्यास लिखने की बात उठी। अब-तक आप जिस तरह सिलसिलेवार सब बता रही हैं, उससे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि, वास्तव में उपन्यास लिख तो आप ही रही हैं। मैं तो स्टेनो बनकर रह गया हूं।'

'इसे मैं आपका बड़प्पन ही कहूंगी ।'

'लेकिन यही यथार्थ है। खैर भरपूर प्यार का दौर खत्म होने के बाद आप दोनों ने ......।'

'हाँ, उसके बाद बड़ी देर रात तक हम दोनों अगले दिन के कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए तैयारी करते रहे। अगले दिन जब कार्यक्रम में पहुंचे तो उसे हमने अपनी उम्मीदों से भी कहीं ज्यादा बड़ा, भव्य पाया। कार्यक्रम का शुभारम्भ एक केंद्रीय मंत्री ने किया। कई विधायक और लोक कलाओं, खासतौर से बुनकर जरदोजी से जुड़ी बड़ी-बड़ी हस्तियां आई थीं। कई बहुत बड़े एनजीओ ने अपने हाई-फाई, ताम-झाम से पूरा कार्यक्रम ही हाईजैक कर लिया था। कार्यक्रम से पहले जिन कुछ पुरुष-महिलाओं को हम ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़ी हस्तियां समझ रहे थे कि वह सब उद्द्घाटन समारोह में परफॉर्म करने आए हैं, वास्तव में वह सब बड़े-बड़े एनजीओ के मालिक और कर्ताधर्ता निकले।

महिलाओं की हाई-फाई स्टाइल, ग्लैमरस महंगे परिधान के सामने मैं और मेरे जैसे असली हुनरमंद बड़े मामूली लग रहे थे। मुन्ना जैसे लोग छोटे-मोटे एनजीओ वाले। एकदम साफ दिख रहा था कि वह सब करोड़ों की हैसियत रखने वाले हैं ।

सारे तमाशे देखकर मुन्ना यह कहे बिना ना रह सके कि, 'मैं भी कई साल से रात-दिन पूरी ईमानदारी से काम कर रहा हूं। सरकारी धन जिस काम के लिए मिलता है, उसे पूरी ईमानदारी से उसी मद में खर्च करता हूं। फिर भी कोई ख़ास बचत नहीं हो पाती। कितना समय, पैसा तो अधिकारियों, बाबूओं ऑफिसों के चक्कर काटने में निकल जाता है। फिर भी पेमेंट में महीनों की देरी मामूली बात है।'

मेरे चेहरे पर से भी उत्साह गायब था। बड़े संकोच में थी। मुन्ना ने मेरे मन की हालत समझते हुए कहा, 'ऐसे तो काम नहीं चलेगा। हमें दिमाग से यह निकालना ही पड़ेगा कि हम ऐसी जगह आगे बढ रहे हैं, जहां प्रतिभागी एक जैसी फील्ड में आगे नहीं बढ़ेंगे। रेस के लिए जहां कुछ फार्मूला-वन कार से फर्राटा भरेंगे तो, वहीं कुछ बाबा-आदम के जमाने की घरेलू कारों से उनके पहियों के निशान देखते उनका पीछा करेंगे।'

वह इस स्थिति से बड़ा गुस्से में थे। मैंने जब उन्हें बताया कि, मैं क्या सोच रही हूं तो उन्होंने कहा, 'अच्छी बात है कि मुकाबले से भागने के बजाय, कैसे सफलतापूर्वक भाग लिया जाए इस बारे में सोच रही हो।'

मैंने सीधे-सीधे कहा, 'यह मैं यकीन से कहती हूं कि, कल जब प्रदर्शनी शुरू होगी तो इन लोगों के ताम-झाम, लाव-लसकर के आगे हमारा मामला कमजोर भले ही दिखे, भले ही यही लोग एड़ी से लेकर चोटी तक, सारी ट्रॉफियां लेकर जाएं। मगर लोगों की नजरों में हमारा काम भी आएगा। वह जरूर उसे पसंद करेंगे।' तो मुन्ना ने कहा, 'हमारा काम लोगों की नजर में आ जाए, हमारा उद्देश्य इतना ही नहीं है। इतनी दूर आए इसलिए हैं कि, नाम के साथ-साथ काम भी मिले। प्रदर्शनी कल शुरू होगी लेकिन सारी प्राइम लोकेशन इन पैसे वालों ने खरीद ली हैं। हमारे स्टॉल कोने में हैं। इससे नुकसान यह होगा कि ज्यादातर लोग हमारे तक पहुंचने से पहले ही वापस हो लेंगे। कंपनियों के प्रतिनिधि भी हम तक कम ही पहुंचेंगे। इन सारी चीजों का असर फाइनली बिजनेस और पुरस्कारों की घोषणा पर भी पड़ेगा।

बीच में कई कार्यक्रम हैं। फैशन शो भी हैं। इसके बारे में हमें जानकारी नहीं मिली थी। फैशन शो में भी बड़े-बड़े धुरंधर हिस्सा लेंगे। हमारे पास ऐसी टीम ही नहीं है। जो छः लोग हैं वो पहले से ही दूरी बनाए हुए हैं। इतने अपॉर्च्युनिस्ट होंगे मैंने सोचा नहीं था। सब धुरंधरों के आगे-पीछे हो लिए हैं। इन सब को कार्यक्रम की जानकारी पहले से थी।फर्जी तरीके से फॉर्म भी भर दिए थे।मुझे भनक तक नहीं लगने दी। '

इसी समय मुन्ना ने अचानक मुझसे पूछा, 'सुनो...एक बात बताओ, मुझेअपने साथियों से जो अनुभव मिल रहा है, उससे मेरे मन में एक डर पैदा हो रहा है कि कहीं तुम भी...।'

उनकी बात ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मैं हक्का-बक्का सी उन्हें देखने के बाद बोली, 'रुक क्यों गए ?' तो उन्होंने कहा, 'छोड़ो, जाने भी दो, मैं ऐसे ही।'

'कैसी बातें करते हो। ऐसा क्यों सोच लिया कि, मैं भी उन लोगों की ही तरह बदल जाऊँगी । इतने दिनों में मुझे बस इतना ही समझ पाए हो। मैंने जीवन भर के लिए तुम्हें अपनाया है, काम-धाम के लिए नहीं। मिल गया तो ठीक, नहीं कोई बात नहीं। मुझे तुम मिल गए हो मुझे इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए। ठीक है। क्योंकि मेरे लिए इससे ज्यादा और कुछ हो भी नहीं सकता। फिर कभी ऐसा मत कहना, कहना क्या सोचना भी नहीं।'

मैं इतना कहते हुए भावुक हो गई तो मुन्ना ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, 'अरे मैंने मजाक किया था। तुम तो सही मान बैठी।' यह कहते हुए, वह मेरी तरफ ऐसे बढे कि, जैसे बाहों में भर लेंगे, लेकिन आस-पास बहुत से लोगों को देख कर रुक गए। मैंने उनकी आंखों में आँखें डालकर कहा, 'ऐसा भी क्या मजाक, कि छूरी सा दिल पर घाव कर दे। मैंने अपना सब कुछ, सब कुछ सौंप दिया है तुम्हें। और अभी तक तुम मुझ पर पूरा विश्वास नहीं कर पाए। मैं तो जितना भी है, सारा विश्वास तुम पर करके आंख मूंदकर तुम्हारे साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर यहां चली आई। वह भी इतने दिनों के लिए। अपनी बूढी बीमार मां को छोड़कर।'

मेरी बातों से मुन्ना को लगा कि मामला तो गंभीर हो गया है। जरा सी बात बड़ा गंभीर रूप ले रही है, तो उन्होंने कार्यक्रम समाप्त होने से पहले ही बात का रुख बदलते हुए कहा, 'चलो कहीं घूमने चलते हैं। उद्घाटन हो गया है। अब ये अपनी बड़ी-बड़ी बातें ही कहेंगे। मुख्य काम तो कल से शुरू होगा।'