Rahashymayi tapu - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

रहस्यमयी टापू--भाग (१०)

रहस्यमयी टापू--भाग (१०)

अघोरनाथ जी बोले___
अभी तो हम सब एक सुरक्षित स्थान ढूंढते हैं, रात्रि भी गहराने वाली, कुछ खाने पीने का प्रबन्ध करते हैं, इसके उपरांत विश्राम करके प्रात: सोचेंगे कि क्या करना है।।
तभी,मानिक चंद भी बोला__
आपका कहना उचित है बाबा!! चलिए सर्वप्रथम कोई झरना देखते हैं,इसके उपरांत वहीं अग्नि जलाकर विश्राम करेंगे।।
सब ने एक झरना ढूंढा और वहां अग्नि जलाकर खाने पीने का प्रबन्ध किया,इसके उपरांत सब खा पीकर विश्राम करने लगे।।
आधी रात होने को आई थीं,सब थके हुए थे इसलिए शीघ्र ही गहरी निद्रा में लीन हो गए।।
तीसरा पहर होने को था, तभी अघोरनाथ को किसी की पुकार सुनाई दी, उनकी आंख खुली, कुछ देर तक वो सुनते रहे परंतु कोई भी ध्वनि , कोई भी स्वर सुनाई नहीं दिया,तब उन्होंने सोचा कदाचित् कोई वनीय जीव होगा, अधिकांशतः जानवर रात को रोते हैं, उन्होंने फिर अपने हाथ को सर के नीचे रखा और सो गए, परंतु कुछ समय उपरांत वो स्वर फिर सुनाई दिया।।
अब अघोरनाथ जी को लगा,हो ना हो कोई ना कोई बात जरूर है , सावधान हो जाना चाहिए, ऐसा ना हो कि चित्रलेखा और शंखनाद का कोई षणयन्त्र हो,उसी समय उन्होंने सब को जगाया और उस स्वर को सुनने के लिए कहा।।
सबने अपना ध्यान लगाकर उस स्वर को सुनने का प्रयास किया, सभी को वो बीभत्स सा स्वर सुनाई दिया,सब बहुत भयभीत भी हो चुके थे।।
अघोरनाथ जी बोले,हम ऐसे हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकते,हो सकता वहां कोई विपत्ति में हो और हमें सहायता के लिए पुकार रहा हो परन्तु ये भी संदेह हो रहा है कि चित्रलेखा और शंखनाद का कोई षणयन्त्र ना हो,ये सब मेरी समझ से परे हैं।।
तभी सुवर्ण बोला__
बाबा!! आप सब यहां ठहरे, पहले मैं जाता हूं,अगर मैं कुछ समय तक ना लौटा तो आप सब भी आ जाना क्योंकि मुझे थोड़ा बहुत तो जादू आता है।।
अघोरनाथ बोले, हां !! यही उचित रहेगा।।
परंतु हम सब भी तुमसे अत्यधिक दूरी पर नहीं रहेंगे,हम भी साथ साथ ही रहेंगे परन्तु कुछ ही दूरी पर।।
सबने कहा, हां यही उचित रहेगा।।
और सब उस अंधेरी रात में उस ध्वनि की दिशा में चल पड़े।।
अत्यधिक निकट जाने पर सुवर्ण सावधान होकर उस स्थान पर पहुंच गया, उसने डरते हुए पूछा__
कौन है?..कौन है?... यहां पर,किसका स्वर हैं जो इतना पीड़ादायक हैं।।
तभी उधर से स्वर आया___
ये बताओ कि तुम कौन हो, मैं सब समझती हूं शंखनाद!! ये पुनः तुम्हारा कोई ना कोई षणयन्त्र है, परन्तु अब मेरे पास कुछ भी नहीं रह गया है,सब तो पहले ही ले जा चुके हो।।
परन्तु मैं शंखनाद नहीं हूं, मैं नीलगिरी राज्य का छोटा राजकुमार सुवर्ण हूं, कृपया आप चिंतित ना हों, मुझे अपनी समस्या बताएं, संभव हो सका तो मैं आपकी सहायता अवश्य करूंगा, मुझ पर विश्वास रखें, सुवर्ण बोला।।
परन्तु, मैं कैसे तुम पर विश्वास करूं,हो सकता है तुम कोई मायावी हो,हो सकता है तुम्हें शंखनाद ने भेजा हो,उधर से स्वर आया।।
तब तक अघोरनाथ और सब भी वहां पहुंच चुके थे, तभी अघोरनाथ बोले___
आप चिंतित ना हो, मैं अघोरनाथ हूं,आप अपनी समस्या मुझसे कहें ताकि मैं कोई समाधान कर सकूं।।
परन्तु मैं आप सब पर कैसे विश्वास करूं,उस स्वर ने कहा।।
हमने भी तो आपकी बातों पर विश्वास कर लिया ना, सुवर्ण ने कहा।।
अच्छा तो सुनिए मेरी कहानी___
उस स्वर ने कहना प्रारम्भ किया___
मैं इस वन की देवी हूं,मेरा नाम शाकंभरी है, मेरे पिताश्री इस वन के राजा थे,उनका नाम वेदांत था,वे इस वन की रक्षा किया करते, उनके पास बहुत सी शक्तियां थीं, उन्होंने बचपन से ही अपनी शक्तियां और ज्ञान मुझे देना शुरू कर दिया था।
यौवनकाल तक मुझमें बहुत सी शक्तियां आ गई, मैं इतनी शक्तिशाली थीं कि अपनी शक्तियों से अपने पंख भी प्राप्त कर लिए,जिनकी सहायता से उड़कर मैं किसी की भी सहायता करने वन में कहीं भी शीघ्र पहुंच सकती थीं।।
फिर पिताश्री ने घोषणा की कि वो मुझे इस वन की देवी। बनाना चाहते हैं और उन्होंने अपनी सारी शक्तियां मेरे पंखों में दे दीं जिससे मैं और भी शक्तिशाली हो गई,तब पिताश्री ने मुझे इस वन की देवी घोषित कर दिया।।
इस बात की सूचना शंखनाद को हो गई और वो एक लकड़हारे का रूप धर इस वन में रहने लगा और मेरे सारे क्रियाकलापों पर ध्यान देने लगा,उसे पता चल गया कि मेरे पास बहुत ही शक्तिशाली मायावी पंख हैं जिनका उपयोग में किसी भी असहाय की सहायता करने में करतीं हूं।
और इसी बात का उसने लाभ उठाया, उसने मेरे सामने अच्छा बनने का अभिनय किया और अपने मोहपाश में मुझे बांध लिया और मैं उसके प्रेम में पागल होकर अपने पिता के भी विरूद्ध हो गई,एक दिन शंखनाद ने मेरे पिता श्री को असहाय जानकर उनकी हत्या कर दी, उनका मृत शरीर मुझे वन में पड़ा हुआ मिला, तभी एक तोते ने मुझे सारी सच्चाई बताई जो कि मेरे पिताश्री का पालतू था,उस दिन मुझे शंखनाद की सच्चाई का पता लगा।‌
और एक रात मैंने शंखनाद से इस विषय में पूछा,तब उसने रोते हुए अपनी भूलों की क्षमा मांग ली,मेरा हृदय भी पसीज गया और मैंने उसे प्रेम के वशीभूत होकर उसे क्षमा कर दिया।।
परन्तु, मैं उस रात उसका षणयन्त्र समझ ना सकीं, उसने उस रात चित्रलेखा को जादू करने को बुला लिया था,वो यहां आकर वन के जीवों और पेड़ पौधों को हानि पहुंचाने लगी,तब शंखनाद ने कहा__
शाकंभरी!! अपने पंखों का उपयोग करों।
मैंने अपने पंख प्रकट कर उन सब जीवों की रक्षा करने लगी, मैं तो चित्रलेखा का जादू तोड़ने में ध्यानमग्न थी तभी शंखनाद ने अपनी पेड़ काटने वाली कुल्हाड़ी से मेरे पंख काटकर अपने साथ ले गया,उन पंखों के साथ मेरी सारी शक्तियां भी चली गई और इस वन की सुंदरता भी चली गई,उस रात से मैं आज तक रात को अपने पीड़ा से कराह उठती हूं,रात को रहकर रहकर पीड़ा उठती है, मैं अपनी शक्तियों के बिना असहाय हूं, मुझे मेरे पंख चाहिए।।
मेरा जीवन,मेरी सारी शक्तियां उन्हीं पंखों में है,तबसे शंखनाद और चित्रलेखा ने इस वन को नर्क बना दिया है,इस वन की सुंदरता नष्ट हो गई है, मैं इस वन की देवी हूं और मैं किसी की भी सहायता नहीं कर सकती, मुझे ये बात बहुत ही पीड़ा देती है।।
हे,वनदेवी !! कृपया आप इतनी दुखी ना हो,हम सब अवश्य आपकी सहायता करेंगे, परन्तु आपको भी हमारी सहायता करनी होगी की हम किस प्रकार उन दोनों से जीत सकते हैं कुछ तो ऐसा होगा, जो उन्हें भी भयभीत करता होगा, अघोरनाथ जी बोले।।
हां.. हां..क्यो नही, मुझे जो भी जानकारी उन लोगों के विषय में है वो मैं आप लोगों को अवश्य बताऊंगी, शाकंभरी बोली।।
लेकिन आप इतने अंधेरे में क्यो है?इस बड़े से वृक्ष के तने के भीतर क्यो बैठी है, कृपया बाहर आएं,हम सब आपको कोई भी हानि नहीं पहुंचाएंगे, सुवर्ण बोला।।
और इतना सुनकर शाकंभरी वृक्ष के तने से बाहर आई।।

क्रमशः__
सरोज वर्मा__
सर्वाधिकार सुरक्षित__