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रत्नावली 6

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

छह

रत्नावली का तारापति के कारण ही कुछ मन लग गया था। वह कुछ न कुछ बोलने लगा था। घर के सभी लोग उसे खिलाने का आनन्द लिया करते। नानाजी उसे गाँव में लिए फिरते। अब रत्ना ने अपने जीवन की सारी आशायें पुत्र पर टिका दी थीं। और वह सोचने लगी थी कि उसका समुचित विकास मामा के घर में नहीं, अपने ही घर में हो सकता है। आज यह छोटा है, कल बड़ा होगा। भैया-भाभी अभी अपनापन दिखा रहें हैं, कल के बारे में कौन जाने किसका व्यवहार कैसा बदल जाये ? फिर जीवन भर मेरे जैसी नारी अपने भाई पर भार बनकर रहे, यह भी उसका अपने पुत्र के साथ न्याय नहीं होगा। उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखलाना ही पड़े़गा।

इधर दीपावली आने को है। अपने घर की लिपाई-पुताई भी करनी है। बरसात भर किसी ने उधर देखा भी नहीं हैं। गणपति की कितनी खबरें आ चुकी हैं-‘मैया आ जायें।‘ उसके पिताजी भी खबर भेज चुके हैं।

आज इसी उधेड़बुन में थी कि गाँव की उसकी दो सहेलियॉं सुगन्धा व कौसल्या घर आयीं। तारा खेल रहा था। भौजी खाना बना रही थी। काकी लड़कियों को आया हुआ देखकर पौर में चली गयी। सुगन्धा ने पचकुट्टे खेलने का प्रस्ताव रखा- ‘रत्ना जीजी बहुत दिन हो गये तुम्हारे साथ पचकुट्टे खेले हुये। उस दिन की बाजी मुझ पर आज तक चढ़ी है। मैं उसे ही उतारने आयी हूँ।’

रत्ना पुरानी याद में खो गयी। लम्बे अन्तराल की गम्भीरता गुम हो गयी। चेहरे पर बचपन की चपलता आ गयी, बोली-‘तुम आज तक बाजी उतार ही नहीं पायी, अब क्या उतार पाओगी ?

कौसल्या को शरारत सूझी। बोली-‘तुम्हारी बाजी तो जीजाजी भी नहीं उतार पाये होंगे। उस दिन........।‘

सुगन्धा ने बात काटते हुये कहा-‘उन्हें बीच में क्यों घसीटती हो ? वे बेचारे तो भजन में लीन होंगे।‘

कौसल्या को लगा कहीं रत्ना बुरा तो नहीं मान गयी, बोली-‘रत्ना तू मेरी बातों का बुरा तो नहीं मान गयी!‘

‘कैसी बातें करती हो कौसल्या ? मैंने पहले भी कभी तुम्हारी बातों का बुरा माना है, जो अब मानूंगी।‘

यह सुनकर सुगन्धा को बात कहने का अवसर मिल गया, बोली-‘बहन यहाँ रहते तुम्हें कितने दिन हो गये?‘

रत्ना ने बात अन्दर गटकते हुये उत्तर दिया-‘यों तो वहाँ से उनके शिष्य गणपति के पिता की कई खबरें आ चुकी हैं। पिताजी मना कर देते हैं कि जब वह अपनी जायदाद की बिगड़ती स्थिति देखेगा तब अपने आप उसे ठीक करा जायेगा। एक घर तो गिरने ही वाला है।‘

सहेलियाँ समझ गयी कि रत्ना तो जाना चाहती है पर पिताजी अडे़ हुये हैं। बातें समझते हुये कौसल्या ने सलाह दी-‘जिस दिन अब गणपति के पिताजी की खबर मिले, उसी दिन चले जाना उचित रहेगा।‘

रत्नावली ने स्वीकारा-‘बहन, तुम ठीक कहती हो। अब तो मुझे मॉँ और पिता दोनों की ही भूमिकायें निर्वाह करना पड़ेंगी।‘

सुगन्धा ने चुटकी ली-‘देखना बहन अभी तुम युवा हो। जमाना खराब है। मुगलों की शासन व्यवस्था देखती ही हो।‘

यह बात सुनकर रत्नावली ने उत्तर दिया-‘मैंने अपने सास-स्वसुर को तो देखा नहीं है। ना ही कोई ननद देखी है, बस तुम्हारी बात गॉंठ बॉँध कर रखती हूँ। मैं सब समझती हूँ, अपनी इज्जत अपने हाथ में है।‘

दोनों सहेलियॉं इस तरह उसे समझा बुझाकर अपने-अपने घर चली गयी। तब रत्नावली अपने पुत्र तारापति को सम्बोधित करके बोली-‘बेटे चलो, अब अपने घर चलते हैं, वहीं सुख-दुःख में अपना समय व्यतीत करेंगे।‘ बात काकी ने सुन ली थी। मर्यादा बनाये रखने के लिए वह खाँसी, जिससे रत्नावली समझले कि काकी ने बात सुन ली है। रत्नावली मन ही मन सोचने लगी- चलो अच्छा हुआ, साँप मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। हे प्रभू ऐसे ही मर्यादा बनाये रखना।

गणपति के पिताश्री द्वारिकाप्रसाद उपाध्याय रत्नावली को राजापुर आने के लिए कई बार खबरें भेज चुके थे। अबकी बार पितृपक्ष समाप्त होते ही उन्होंने रत्नावली को लिवाने गणपति को महेबा गाँव भेज दिया।

गणपति ने तुलसीदास जी से दीक्षा ग्रहण की थी, तभी से इस परिवार से और अधिक घरोवा हो गया था। गाँव में नवदुर्गाओं की पूजा अर्चना चल रही थी। इन्हीं दिनों गणपति रत्ना मैया को लिवाने पहुँच गया। यह देखकर दीनबन्धु पाठक अत्यधिक हर्षित होते हुये सोचने लगे- यह अच्छा ही हुआ। ऐसे समय के लिए ही तो भरा-पूरा घर देखा जाता है। गणपति लिवाने ठीक ही आ गया। अन्यथा बेटी को राजापुर भेजने का साहस ही नहीं जुटा पा रहा था।

गाँवभर में यह बात फैल गयी कि रत्नावली के लिवौआ आ गये हैं।

गणपति रत्नामैया को जब यहाँ पहिले मिला तो उसने गुरू जी की तरह उन्हें भी साष्टांग दण्डवत किया। फिर बोला-‘मैया अपने घर चलो। वहीं हम और आप सुख-दुःख सहेंगे। पिताजी ने कहा है कि वहाँ आपको कोई कष्ट नहीं होगा। फिर आपके होने से घर की देखभाल भी होती रहेगी।‘

रत्नावली ने उत्तर दिया-‘चलना तो है ही भैया। तुम ठीक आ गये। अब ऐसा करो, नाना जी से मिल लो।‘

यह कहते हुये गणपति के लिए जलपान की व्यवस्था करने रसोई घर में चली गयी। अब तक घर के सभी लोग गणपति के पास आ गये। तारापति ऑँगन में खेल रहा था। गणपति ने उसे उठा लिया और उसे लेकर खड़ा हो गया। थोडी सी औपचारिक बातचीत के बाद तुलसी महाराज के बारे में बातचीत चल पड़ी। गणपति अपने विषय पर आ गया, बोला-‘गुरुजी जैसा इस संसार में कौन हुआ है ?‘

उसकी इस प्रशंसा पर शांती को हंसी आ गयी। कुछ कहना ही चाहा पर रह गयी। बात इनसे कहने पर गाँव की सीमा पार कर जायेगी। गणपति ने सभी को चुपचाप देखकर अपनी बात जारी रखी-‘सुना है गुरुजी बैरागी हो गये हैं ?‘

काकी केशरबाई बोली-‘बेटा सुना तो हमने भी है। फूल से बच्चे को छोडकर बैरागी बनना, उसे कौन सा रास्ता दिखायेगा वही जाने ?‘

यह बात इस तरह की थी कि गणपति चुप ही रहा। वे भी कुछ क्षणों तक चुपचाप बने रहे। गम्भीर उदासी के बाद काकी ने रत्ना से पूछा-‘बेटी जा रही हो ?‘

इस समय तक बाबा भी आ गये थे। काकी की यह बात उन्होंने सुन ली थी। उत्तर देना ही उचित समझा, बोले-‘घर बार की देखभाल अब इसी के ऊपर है। गणपति लिवाने आये हैं, भेजना ही उचित लगता है।‘

पिता के आदेश को सबने सिर माथे पर लिया। रत्नावली के जाने की तैयारियाँ शुरू हो गयी। विआयी के समय गाँवकी परम्परा अनुसार कुछ औरतें भी आ गयीं। रत्ना बिटिया को विदा करने वे सब यमुना के घाट तक गये। उसे नाव में बैठाते समय दीनबंधु पाठक को लग रहा था, कि आज वे अपनी परित्यक्ता बेटी को विदा कर रहे हैं। अब उसका जीवन न जाने कैसे व्यतीत होगा ?

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