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रत्नावली 9

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

नौ

कब से हरको भी वहाँ आकर खड़ी हो गयी थी! पर वह रत्ना की सोच में व्यवधान नहीं बनना चाहती थी। सो, जब वे अपने सोच से बाहर आ गयी तो वह धीरे से बोली-‘भौजी, किताबें देख-देखकर आप मुझे देती जायें, मैं जमाती जाती हूँ।‘

रत्नावली ने एक हस्तलिखित पुस्तक उसके हाथ में दे दी। पुस्तक लेते हुये हरको बोली-‘भौजी मुझे भी पढना-लिखना सिखा दो ना।‘ यह सुनकर रत्नावली बोली-‘यह तुम्हारा अच्छा विचार है। लेकिन डॉँट खाना पड़ेगी। फिर कहोगी भौजी डॉँटती हैं।‘

हरको गम्भीर हो कर बोली-‘भौजी, गुरु को डाँटने का पूरा हक होता है। गुरुजी से दीक्षा ली है तो आप भी तो गुरु ही हुयीं।‘

यह सुनकर वह बोली-‘गणपति की माँ कह रही थी, गणपति पढ़ने आया करेगा। उसके साथ तुम भी बैठ जाया करो।‘

हरको उत्सुकता से बोली-‘भौजी आप कहें तो मैं चार छः जगह यह चर्चा किये देती हूँ।। हमारे साथ पढ़ने चार छः बच्चे और आ जायें तो कैसा रहेगा ?‘

यह सुनकर रत्नावली बोली-‘अच्छा है ,समय का सदुपयोग हो जाया करेगा।‘

हरको सोचते हुये बोली-‘जो दक्षिणा आयेगी वह भीख तो होगी नहीं। श्रम के बदले में जो मिलेगा, उससे अपना काम भी चल जाया करेगा।‘

रत्नावली ने उत्तर दिया-‘मैं इस बारे में कुछ नही सोचती। जिसके मन में जितनी श्रद्धा होगी उतना करता ही रहेगा। इस बारे में सोचने का काम हमारा नहीं है। फिर जिसे आना होगा स्वयं आयेगा। अपने बच्चों को पढाना कौन नहीं चाहता ? गरीब से गरीब आदमी के मन में यह उमंग उठती है।‘ बातों ही बातों में किताबें जमा दी गयीं। कड़ी मेहनत के बाद घर व्यवस्थित हो गया।

रामा भैया कई चक्कर लगा चुके थे। रत्नावली को काम में लगा देखते, तारापति को खिलाते और लौट जाते थे। ये गोस्वामी जी के बाल सखा हैं। डीलडौल से लम्बे-तगडे़ जवान थे। दाढ़ी बढ़़ा रखी थी। हनुमान जी के भक्त थे। लोग उन्हें रामा भैया कह कर बुलाते थे। कुछ ही दिन हुये गोस्वामी से दीक्षा ले ली थी। रत्नावली में भी गुरुभाव ही रखते थे। पर रत्नावली से पूर्व सम्बोधन के कारण भौजी ही कहते थे। आज उन्हेंपिछली दीपावली की याद रह-रह कर आ रही थी। जब शास्त्री जी ने राम कथा का यह प्रसंग प्रस्तुत किया था, जिसमें रावण वध के बाद श्रीराम के अयोघ्या में लौटने पर दीपावली मनाई गयी थी। तब से हम दीपावली मनाते आ रहे हैं। यही सोचते हुये रामा भैया रत्नावली के घर पहुँचे। बाहर से ही आवाज दी ‘भौजी।‘

आवाज सुनकर रत्नावली पौर में आ गयीं। उन्हें देखकर रामा भैया बोले-‘तारापति कहाँ है ?‘

रत्नावली ने उत्तर दिया-‘अभी सोया हुआ है। मलेच्छ है। इतनी देर तक सोता रहता है।‘

रामा भैया के मुँह से निकला-‘बच्चा है, आपके काम-काज में बाधा तो नहीं पहुँचाता!‘

रत्नावली कुछ भी बोलने के लिए बोली-‘लो दीपावली भी निकल चली।‘

रामा भैया ने प्रसंग पकड़ लिया-‘अतीत में डुबकियाँ लगाते हुये बोला-‘मैं यही तो सोचते हुये आ रहा था। गत वर्ष तो शास्त्री जी का आज के दिन कैसा मन मोहक प्रवचन हुआ था ? आज गॉँव भर में इस बात की चर्चा है। लोगों का कहना है-ऐसा विद्वान इस गाँव में आज तक कोई नहीं हुआ। .... भौजी उनके कारण इस गाँव के भाग्य खुले हैं।‘

रत्नावली ने सहज में ही कहा-‘भैया जनवाणी कभी मिथ्या नहीं होती। लेकिन यही जनवाणी-आप कहें चाहे न कहें , जब-जब लोग गोस्वामी जी को याद करेंगे तब-तब मुझे भी धिक्कारेंगे। कैसी पत्नी थी ? इतने बड़े विद्वान का मन भी न रख सकी। मेरी वह धिक्कार अब मेरे लिए जन्म-जन्मान्तर के लिए धिक्कार बन गयी है।‘

यह सुन रामा भैया सतर्क हो गये। वे शास्त्री जी की तरह रत्नावली की विद्वता के भी कायल हो गये थे, बोले-‘भौजी संसार में न शास्त्री जी जैसा कोई देखा और न आप जैसा। उस दिन मैंने उन्हें इतना मना किया था कि यमुना मैया चढी़ हैं उधर मत जाओ। जब उन्होंने उसमें छलांग लगा दी, तो मैंने तो सोच लिया था कि नदी के इस वेग में उनकी जान बचना सम्भव नहीं है। वे हमेशा-हमेशा के लिए संसार रूपी नदी पार कर गये हैं। और हमें इस घाट पर ही छोड़ गये हैं।‘

यह सुन दोनों चुपचाप खडे़ रहे। दोनों के ऑँसू अविरल गति से बह रहे थे। रामा भैया भावुक हो उठे थे। वे पुनः बोले-‘आप चिन्ता न करें। आपको जिस चीज की जरूरत हो निसंकोच कह दें। आपका यह शिष्य सेवा के लिए हाजिर रहेगा।‘

उत्तर में रत्नावली ने कहा-‘तो फिर आज मन्दिर पर किसी का प्रवचन करा देते।‘

रामा भैया बोला ‘सोच तो मैं भी यही रहा था। पाठक बाबा गये हैं तब से अभी तक लौटे नहीं हैं। गंगेश्वर ने मना कर दिया है कि मैं न बोल पाऊॅँगा। धोती वाले पण्डित जी के यह बस की बात नहीं है। मैया कहीं आप ही कुछ बोलें ?‘

‘नहीं भैया मैं भी न बोल पाऊँगी। क्यां व्यर्थ लज्जित करते हो। फिर कोई क्या कहेगा ?‘

रामा भैया को लगा- बस यह वही लज्जा है। कोई क्या कहेगा ? इसी ने इनका सब कुछ छीन लिया। वह इसके उत्तर में क्या कहे ? कहीं कुछ मुँह से निकल गया तो ये भी उन्हीं महाराज की धर्म पत्नी हैं, चुप रहने में ही भलाई है। यह सोचकर बोले-‘भौजी अब चलता हूँ दशहरे के दिन की तरह आज भी हनुमान जी के मन्दिर की तरफ चक्कर लगा दीजिये।‘ यह कहकर वे चले गये।

उनके जाने के बाद वह सोचने लगी-रामा भैया कितने अच्छे आदमी हैं। जब भी समय मिलता है, तारापति के हाल-चाल पूछ जाते हैं। ये हैं तो शास्त्री जी की उम्र के ही, तभी तो मुझसे भौजी कहते हैं। मन का ऐसा पवित्र आदमी दूसरा नहीं देखा। जो मन में आता है, सब कुछ मेरे सामने उॅंडेल देते हैं। गाँव भर उनके स्वभाव की प्रशंसा करता है। सोचते में धनिया पास आ गयी थी , बोली-‘आज तो मुझे बुखार चढ रहा है। न होगा तो सबदलिया को या फिर अपनी बहू को भेज दूगी। वह जल भर जायेगी। जरा सीधी है। उसे समझाना पड़ेगा।

रत्नावली ने उसे समझाया-‘तुम चिन्ता न करो, अपनी दवा-दारू करा लो। अभी-अभी तो रामा भैया यहॉँ से गये हैं। उनसे ही कोई दवा ले लेना। कहना, मैंने भेजा है। काकी , रही बहू के सीधे होने की बात तो मेरे बाबा कहते थे- मैं सीधी हूँ ,अब देख लो मैंने उनको ही घर से निकाल दिया।‘

धनिया यह सुन बात में डूबने-उतराने लगी। हरको आ गयी थी। आते ही बोली-‘देखो तो भौजी आज वह क्या कह रहा था ? घर चल। अब मैं घर क्या जाती ? छूटा घर सो छूटा। वह इतना चिलमबाज हो गया है कि अपने शरीर का भी सत्यानाश किये ले रहा है। एक लुगाई घर मैं रह रही है, उसे तो अच्छे से रख नहीं पा रहा है। अब मैं वहॉँ जाकर क्या करूँगी ?‘

रत्नावली समझ गयी- हरको का अन्तस् आज विद्रोह कर रहा है। तभी तो वह पति की बातों का विरोध कर रही है। सामने है इसलिए इसे उसकी कीमत पता नहीं हैं ,नहीं तो..........., मैं कौन मरी जा रही हूँ विरह वेदना से। रति-भावना की पीड़ा आदमी के अपने मन की उपज है। मन में जैसा चिन्तन करेंगे वैसा शरीर पर उसका पूरा-पूरा असर पड़े़गा ही। चिन्तन की दिशा बदल दें, तो मंगल ही मंगल है।

रत्नावली ने हरको को आवाज दी-‘हरको......।‘

हरको ने उत्तर दिया-क्या भौजी ?‘

रत्नावली ने पुनः कहा-‘तुम्हं अपने पति की आज्ञा के बिना यहॉँ नहीं आना चाहिए। कल वे कहेंगे मैंने तुझे बिगाड़ दिया। जैसी मैं हो गयी हॅूँ, वैसी तुझको भी बनाये दे रही हॅूँ।‘

यह सुनकर कुछ कहने को उसके ओठ फड़फड़ाने लगे, बोली-‘भौजी में कोई बच्ची नहीं हॅूँ। अपना हित और अहित सब पहचानती हॅूँ। रही आपके बारे में कहने सुनने की बात तो चन्द्रमा पर थूकने से थूक अपने ही ऊपर आकर गिरेगा ।‘

यह सुन कर रत्नावली समझ गयी। उसने मेरे बारे मे भी जरूर कुछ कहा है। क्रोध करके पूछॅूँगी तो शायद बात को छुपा जाये! प्यार से सब कुछ उॅंडेल देगी। इसलिए क्रोध को दबाते हुये चेहरे पर बनावटी मुस्कराहट लाते हुये बोली-‘अरे, मुझसे छिपा रही है! क्या कहता था तेरा मरद ?‘

‘कहता क्या, यही, आप पर थूक उचटा रहा था।‘

यह सुनकर रत्नावली ने अपनी दृष्टि हरको के चहरे पर गड़ा दी।

एक क्षण रुककर वह पुनः बोली-‘यही अपने खसम को जिसने भगा दिया हो, देखूगा, तुझे कब तक टिकाये रखती है।‘

रत्नावली ने यह सुन लम्बी सॉँस ली और पूछा-‘यही कहता था?‘

हरको ने दीनता दिखाते हुये कहा-‘हॉं भौजी।‘

रत्नावली ने उससे एक प्रश्न और कर दिया ‘तुमने क्या कहा ?‘

प्रश्न सुनकर आत्मविश्वास प्रदर्शित करते हुये वह बोली-‘मैंने कह दिया, जब वे घर से निकाल देगी ,तेरी देहरी पर न आऊँगी......यमुना मैया का घर दूर थोड़े ही है।‘

अपने प्रति पूर्ण निष्ठा जानकर, भाव विभोर होते हुये रत्नावली दो कदम आगे बढ़कर बोली-‘परित्यक्ताओं का रास्ता विधवाओं से अधिक कठिन होता है हरको।‘

हरको ने बात बदलते हुये कहा-‘भौजी कुम्हार दीपक दे गया कि नहीं।‘

उत्तर में रत्नावली ने कहा-‘हाँ दे तो गया है। वह सामने आले में रखे हैं। उन्हें साफ करके रख दे। बत्तियॉँ बना ले।‘

जो बच्चे तारापति को खिलाने ले गये थे, वे उसे घर ले आये थे।

विजयादशमी की तरह आज फिर रत्नावली तारापति को साथ लेकर संकट मोचन हनुमान जी के मन्दिर में दीपक रखने गयी। दीपक पुजारी को दे दिया। पुजारी तारापति को लेकर हनुमान जी के समक्ष गये। तारा का हाथ लगवाकर दीपक रखवाया। रत्नावली के जाने से मन्दिर पर उत्सव का सा वातावरण हो गया। लौटते में वे गुमसुम बनी रहीं।

रात लक्ष्मी जी की पूजा करने बैठीं। धनिया भी आ गयी थी। हरको तो थी ही। शास्त्री जी जिस तरह पूजा अर्चना करते थे उसी विधि से उन्होंने तारापति से पूजा कराई। देवी, देवताओं, कुल देवताओं को प्रणाम कराया।

हरको ने तारापति को मॉँ के चरणों में बैठा दिया। रत्ना ने अपनी सारी तपस्या मन ही मन उसे अर्पित कर दी- बस एक ही साध है, तारा बड़ा हो जाये। पिता की तरह विद्वान निकले। दुनिया कहे, देखो- शास्त्री का पुत्र शास्त्री जी की तरह ही विद्वान है! उसी दिन मेरी साध पूरी हो जायेगी। वैसे लक्षण तो उसके अभी अच्छे दिख रहे हैं। एक बात मुँह से निकल भर जाये इतना शुद्ध उच्चारण करता है कि संस्कृत के अच्छे-अच्छे विद्वान भी न कर पायेंगे। यह सोचकर उसे सन्तोष मिलता है।

यही सोचते हुये उसने आंगन की ओर देखा। ऑँगन में दीपमाला जगमगा रही थी। हरको तारापति से फुलझड़ियॉँ चलवा कर उसे खुश रखने का प्रयास कर रही थी।

दीपोत्सव ने रत्ना के मन में जीवन का नया उत्साह पैदा कर दिया था।

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