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रत्नावली 8

रत्नावली

रामगोपाल भावु

आठ

महेबा की तरह रत्नावली यहाँ भी जल्दी सोकर उठ जाती। उसने अपनी दिनचर्या गोस्वामी जी की तरह बना ली थी। स्नान-ध्यान में कोई विध्न नहीं पड़ता था। वाल्मीकि रामायण का पाठ, रामनाम की माला, यही दैनिक जीवन के क्रम में आ गया था। कार्य से निवृत्त हो पाती कि तारापति उठ जाता। फिर उसे निपटाने में समय निकल जाता। धनिया आ गयी थी जो बर्तन लेकर नदी पर चली गयी। गंगेश्वर रोज महेबा जाने की कहता, बहन बुरा मन बना लेती तो रह जाता था। उसने पिछले दिन चेतावनी दे दी थी कि वह कल हँसकर विदा करे। गंगेश्वर जाने के लिए निवृत्त होकर आ गया था। उसने तारापति को दुलराया और बहन से आ़़ज्ञा लेने उसके पास पीढ़ा पर आ बैठा। रत्ना समझ गयी बोली-‘भैया अभी भोजन तैयार हुआ जाता है। भोजन करके चले जाना।‘

गंगेश्वर ने पूछा-‘पिताजी से क्या कहना है ?‘

रत्ना सोचते हुये बोली-‘पिताजी से कहना यहाँ सारी व्यवस्था हो गयी है। यहाँ के लोग मुझे बहुत चाहते हैं। ......चिन्ता न करैं। ‘

गंगेश्वर ने बहन का मनोबल बढ़ाया बोला-‘बहन गोस्वामी जी आदमी तो हीरा थे। पता नहीं कैसे क्या हो गया ?‘

रत्नावली ने अपने मन की बात कहीं-‘भैया उनने राम का सहारा पकड़ लिया है तो मैं भी राम के सहारे हो गयी हूँ। आप चिन्ता न करैं।‘ यों बहन से आश्वस्त होकर गंगेश्वर चला गया।

हरको रत्नावली को उनके पूजा के काम में पुष्प इत्यादि लाकर मदद कर देती थी। गोस्वामी जी की उपस्थिति में भी रत्ना भैया को वह भौजी कहकर ही सम्बोधित करती थी, बोली-‘भौजी आज तो तुम बड़ी देर से निवृत्त हो पायी हो।‘

रत्नावली बोली-‘अब मुझे पूजा के अलावा काम ही क्या रह गया है ? तारापति तो पूरे गाँव का तारा बना हुआ है। उसके लिए तुम हो, धनिया है।‘

धनिया घर की लीपा-पोती कराने के लिए मजदूरिन की बात करने लगी। बोली-‘मैं एक मजदूरिन से बात कर आयी हूँ।‘

रत्नावली बोली-‘घर में मजदूरिन को देने दाम पैसा तो है नहीं। न होगा तो मैं ही कल से घर की मरम्मत का काम शुरू कर देती हूँ।‘

धनिया झट से बोली-‘हाय राम! कोई क्या कहेगा ? इतने बड़े शास्त्री की धर्म पत्नी माटी-कूड़े का काम कर रही है।‘

रत्नावली अपनी आन-वान व्यक्त करते हुये बोली-‘दासी का यह हाल सुनेंगे तो दौड़े चले आयेंगे। पहले घर उनके अनुसार चलता था, अब घर हमें चलाना है। अपना काम करने में हमें इज्जत की बात नहीं लाना चाहिए।‘

यह सुन धनिया बोली-‘ठीक कहती हो हमारे पास किसी को कुछ देने न हो तो मुफ्त में किसी से श्रम लेना पाप है।‘

रनावली ने उत्तर दिया-‘यही तो मैं कह रही हूँ।‘

हरको बोली-‘मिट्टी मैं सान दूँगी। धनिया भी मदद कर देगी।‘

धनिया ने हरको की बात का समर्थन किया-‘हाँ, हरको बाई ठीक कहती है।‘ रत्नावली चुप रह गयी। दूसरे दिन से ही घर की दरैसी का काम शुरू हो गया।

तीन चार दिन में कठिन परिश्रम के बाद घर की लीपा-पोती निपट गयी। घर का सामान सफाई करने के बाद यथा स्थान रख दिया गया। मात्र एक काठ का बक्सा ही ऐसा रह गया, जिसे रत्नावली ने अब तक छुआ भी नहीं था। और अब उसे खोलने की इच्छा होने लगी थी। हरको तो उसे खोलने की कई बार कह चुकी थी, लेकिन रत्नावली यह कह कर टाल देती- ‘शायद वे लौट आयें और मैंने उनका बक्सा खोल लिया तो वे सोचेंगे इतनी अधीर निकली। लेकिन अब सोचती हूँ।........ उनकी इतने दिन तक प्रतीक्षा करती रही। यहाँ तभी आयी हूँ जब यह निश्चित हो गया है कि वे अब आने वाले नहीं हैं।‘

मैं उन नारियांे के लिए पथ दिखाना चाहती हूँ जिनके पति अपनी पत्नी को छोड़कर चले जाते हैं। मुझे ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ियाँ मुझ पर अँगुली उठायें।‘ गहराई से सोच-विचार के बाद बक्सा खोलने का निश्चय कर डाला। पति के रहते कभी इच्छा न हुयी थी कि इसमें क्या है ? उन्होंने उसमें ताला भी नहीं डाला था। उनके जाने के बाद हरको तथा धनिया की देख रेख में पड़ा रहा।

और यही सब सोचते हुये वे कोने में रखे बक्से के पास पहुँच गयीं। और तब उन्होंने हरको को आवाज दी-‘हरको बाई इधर आना। इस बक्से में रखे उनके वस्त्रों को धूप खिला दे।‘

हरको आ गर्यी, बिना कड़ी कुन्दे वाले बक्से को जिटिया कर दोनों आँगन में ले आयीं। कथरी बिछा दी। बक्सा खुला तो हरको देखने के लिए खडी़ हो गयी। धनिया भी आ गयी। रत्नावली ने अपना काम जारी रखा। बडी़ देर तक उस बक्से को खोले खडी़ रही। हरको ने सोचा कुछ सोच रही हैं। टोकने की आवश्यकता नहीं समझी। रत्नावली के चिन्तन का प्रवाह बह निकला था- अब बक्से में किस मोती को खोजना चाहती हूँ ? जिसे खोजना चाहती हूँ वह तो हाथ से निकल ही गया है। यों इस निर्जीव में कुछ खोज कर अपने को भ्रम में ही डाल रही हूँ।

यही सोचकर बक्से में रखे वस्त्रों को उठाकर कथरी पर रखने लगी।

भूत, भविष्य, वर्तमान एक साथ अपने-अपने प्रश्न और उत्तर लेकर आ गये। लोग बक्सों में भूतकाल की स्मृतियाँ सहेजकर भविष्य को दिखाने के लिए रखते हैं। वर्तमान समय-समय पर उनका मूल्यांकन करता चलता है। अनुपयोगी वस्तुओं को बिशिष्ट की सीमा से निकालकर सामान्य में समाहित करता चलता है।

सबसे ऊपर फेंटा रखा था। नीचे बन्डी रखी थी। एक सफेद चमचमाती मलमल की धोती। शादी के दिन उन्होंने यही पहनी थी। कितनी सुन्दर लग रही थी। बिल्कुल देवता हों जैसे। उसने उसे उठाकर कथरी पर सँभाल कर रख दी। अब एक पोशाक पीले वस्त्रों की थी, उसे पहन कर बसन्त के मौसम में काम को भी लजाते थे। इसी को पहनकर उन्होंने हमारे गाँव महेबा में हुयी राम कथा का वाचन किया था। वाल्मीकि रामायण की उनके द्वारा कही गयी कथाएँ आज भी लोग नहीं भूल पाये हैं। आज तक ऐसी कथा किसी ने नहीं कही। जब लोग प्रशंसा करते हैं तो लगता है- लोग मेरे भाग्य से ईर्ष्या करने लगे होंगे। नहीं इतनी छोटी-छोटी बातों पर कोई घर छोड़कर चला जाता है!

पोशाक उठाकर उसी कथरी पर अलग से सजा दी। कुछ अन्य वस्त्र भी उठाकर रख दिये। तली में कुछ कागज पत्र पड़े थे, उन्हें सँभाल कर रख दिया। एक लाल थैली दिखी, देशी दवायें थीं। उसे सँभाल कर रख ली। तारापति उन चीजों की उठा-पटक करने दौड़-दौड़ पड़ रहा था। रत्ना और हरको दोनों उसकी देखभाल में लग गयी। धूप जाने से पहले सभी चीजें बक्से में यथावत् जमा दीं और बक्से को यथास्थान रख दिया।

अब तो मात्र गोस्वामी जी की किताबों की धूल झाड़ने का काम शेष रह गया था। वह सभी पुस्तकों को उलट-पलट कर देखना चाहती थी। कहीं कोई उनका संदेश छिपा न पड़ा हो! पुस्तकों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का भी उसका मन था। इन्हीं पुस्तकों को पढ़कर मैं अपना समय व्यतीत करुँगी। यों सोचते-सोचते रात जाने कब सो गयी। दिन भर की थकान थी। सुबह उठने में देर भी हो गयी थी। धनिया ने आवाज दी ‘बहन आज क्या बात है ? कहीं बीमार तो नहीं पड़ गयीं।‘

रत्नावली ने कहा-‘नहीं काकी आज मैं सो गयी। आज तो पूजा ही बासी है। हाय राम! कोई सुनेगा तो क्या कहेगा ?‘ अब रत्ना से पूजा भी नहीं की जाती। वह भड़भड़ा कर उठी और दैनिक कार्यों में लग गयी।

कुछ किताबें जमाने रह गयी थीं। तारापति को हरको को दे दिया, बोली-‘आज मैं किताबें जमाऊँगी। तारा को संकट मोचन के मन्दिर पर ले जाकर दर्शन करा लाना। आज मंगलवार भी हैं।‘ हरको उसे लेकर चली गयी थी।

उसने किताबें उलटना-पलटना शुरू कीं। उपनिषद् एवं वेद-पुराणों के अलावा ज्योतिष के भी ग्रंथ थे, जो कि सभी पाण्डुलिपियों के रूप में रखे थे। राम कथा से सम्बन्धित भी पाण्डुलिपियाँ थीं। रत्नावली बड़बड़ाई, जाने कहाँ-कहाँ से लाकर यह सब इकट्ठी की होंगी। अब तो ये सभी ग्रंथ सूनी सुहागिनों से पड़े हैं। अब पड़े रहो। जाने किस मुहूर्त में लाये गये होंगे। अब उनके सुखद स्पर्श के लिऐ तरसते रहो। चलो, अब तुम ही मेरी सहेली बन जाओ। मैं तुम्हारे लिए और तुम मेरे लिए।

एक ग्रंथ पलटकर देखा। मध्य में पाठ-संकेतक लगा था। वह समझ गयी, इस पुस्तक का अध्ययन उनका अधूरा ही रह गया होगा। इसका अर्थ यह है कि यहाँ का कार्य पूर्ण नहीं हुआ है। आदमी जीवन में कितना ही आगे चला जाये, पिछला कुछ न कुछ कार्य तो शेष रह ही जाता है। इसे हम अर्थ से जोड़ लें, चाहे मानव के अन्य व्यवहारों से। कितना ही किसी का चुकाये, किसी न किसी का कुछ न कुछ तो शेष रह ही जायेगा। लेकिन जब आदमी एक आवरण बदलकर दूसरे में पहुँचता है तब वह पिछले सारे कर्जों को आवरण की तरह ही उतार फेंकता है। फिर उसे पिछली दुनियाँ से कोई मतलब नहीं रहता। बड़े-बड़े साधू सन्तों तक में यह धारणा देखी गयी है। माँ-बाप का नाम भी नहीं लेते। आवरण को बदलने वाले गुरु के महत्व का जीवन भर गुणगान करते रहते हैं। पुस्तकों के उलटने-पलटने से पता चला, कई जगह उन्हेंचिन्हित किया गया था। इसका अर्थ यह हुआ उन्होंने राम कथा का गहराई से अध्ययन किया है। उन्होंने राम कथा के गहरे तथ्यों को अवश्य छुआ है तभी तो उस दिन मेरे मुँह से निकले शब्द, अचूक बाण की तरह लग गये। जिन्होंने उनके हदय को वेध दिया। ....और वे आवरण उतारने के लिए मजबूर हो गये।

मैं भी कैसी हूँ प्रलाप ही करती रहती हूँ। राम का नाम तो चिर सत्य है। मैंने तो यों ही लज्जावश यह बात कह दी थी। मैंने यह सोचा था कि आप तो राम बोला हैं। आपके हदय पर राम का अधिक प्रभाव देखकर ही आपका नाम रामबोला रखा गया होगा। एक बार मैंने यह प्रश्न आप से भी किया था कि आपका यह रामबोला नाम कितना सार्थक है ? प्रश्न सुनकर आप कहने लगे थे-‘रत्ने, जिसके माँ-बाप ने जन्मते ही त्याग दिया हो। इसी सोच में उनकी मृत्यु भी हो गयी हो, फिर किसने कह दिया कि जन्म के समय ही मेरे मुख से राम शब्द निकला हो! हॉँ, जिस माँ ने मुझे पाला था, वह जरूर कहती थी कि जब मैंने बोलना शुरू किया तो पहला शब्द राम ही निकला। इसी कारण मेरी पार्वती मॉँ मुझे रामबोला कहकर बुलाती थी।‘