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सोफ़ी

“सोफ़ी ई,ई,अरी, ओ सोफ़ी! कहाँ चली गई? कब से आवाज़ें मार रही हूँ, पर मजाल क्या कि कान पर जूँ भी रेंग जाए? बैठी होगी वहीं कोठा चढ़ कर”

बड़बड़ाती हुई अम्मी घुटनें सम्भालती हुई सीढ़ियां चढ़ने लगी। आहट पा सोफ़ी दुपट्टा संभालते हुए उठ खड़ी हुई तब तक अम्मी सात सीढ़ियाँ चढ़ आई थी। उसका ग़ुस्सा भी सातवें आसमान तक जा पहुँचा था। जितनी उसकी साँस फ़ूल रही थी उतनी ही गालियाँ वह सोफ़ी के लिए निकाल रही थी- “करमजली, नासपीटी टीले पर जाकर बैठ जाती है। कामचोर कहीं की।” अब तक पाँच सीढ़ी सोफ़ी भी उतर आई थीं। उन गालियों का जवाब हमेशा की तरह चुप रहकर देते हुए वह उनके बगल से होती हुई तेज़ी से सीढ़ियां उतर गई। वो सात सीढ़ियां उतरना भी अम्मी के लिए उतना ही कठिन था जितना चढ़ना तो वापस गालियों की बौछार कम होने की जगह बढ़ गई थी।

सोफ़ी ने बुझती हुई आँच में लकड़ी डाल कर फ़ुकनी के सहारे से तेज़ हवा चूल्हे में फुँकी और झल्लाती हुई बोली- “करमजली ही तो हूँ, तभी तो आग भी लगाए नहीं लगती।” आँच के तेज़ होते ही चढ़ी हुई बटलोई से दाल फ़दक कर बाहर आने लगी उसी के साथ ही साथ उसके मन के ग़ुबार भी फ़दकने लगे। उसने गरम ढक्कन को हाथ से ही खींच लिया ताकी उबलन कुछ कम हो जाए और हुआ भी वही उबलन रुकी साथ ही मन के ग़ुबार भी, उँगली की जलन की तासीर में जल गए। राख को आगे खींच आलू गर्म राख में दबा दिए और आटा गूथने लगी अब तक अम्मी भी उखड़ती साँस के साथ नीचे आ गईं थी। उनके स्याह चेहरे पर इस वक़्त झुर्रियाँ कुछ और ज़्यादा हो चली थीं। रुक-रुक कर गालियाँ अभी भी वह बोले जा रहीं थी- “ दोज़ख़ की आग में जले वो भी जो मेरी ज़िन्दगी में ज़हर घोल गया।”

दाल में तेज़ छौंका मार आलू का भुर्ता बना उसने रोटी तश्तरी में रख अम्मी के सामने बढ़ाते हुए कहा- “मुझे गालियाँ देकर तेरा पेट नहीं भरता जो उन्हें भी गलियाँ देती फिरती है।” तश्तरी तेज़ी से पटकते हुए वह बोलीं- “हाए अल्लाह! देखो तो कितनी मिर्ची लग रही है। मैं क्यों न दूँ गलियाँ जिसकी वजह से मैं बेवा हो गई घर में फाँकें हो गये उसे क्या दुआ दूँ?”

वह बिना कुछ बोले उठकर उनका बिछौना बिछाने लगी मच्छरदानी लगा बोली- “ सो रहो नहीं तो फिर साँस उखड़ने लगेगी।”

वह तश्तरी ग़ुस्से में खिसका कर उठी और चारपाई पर लेटते हुए बोली- “बीरा न सही सुपारी ही दे दिया कर मुँह बकठा रहा है बेस्वाद खाना खाकर।” अम्मी के लेटते ही उसने उनकी मच्छरदानी दबाई और बोली- “डली नहीं है कल ले आऊँगी।” बड़बड़ाती हुई वह बोली- “कल क्या ख़ज़ाना हाथ लगने वाला है।” थोड़ी ही देर में अम्मी के खर्राटे सुनाई देने लगे वह अभी भी ठंडे होते चूल्हे के पास बैठी राख में एक डंडी के सहारे लकीरें खींच रही थी। न जाने क्या कुरेद रही थी अपने ही मन में। उसने सोचा भी न था कभी कि ज़िंदगी इतनी बेरहम हो जाएगी। वह तो जी रही थी अपनी ही ख़ुशियों में अपने सपनों में सब कुछ कितना खूबसूरत था। दर्द का एहसास भी मीठा सा हुआ करता था।

वह पापा की लाड़ली, भाई की प्यारी दीदी थी। उसका चेहरा देखकर ही पापा की सुबह होती थी। सब कुछ कितना बदल गया।सोचते हुए उसने पतीली की दाल रक़ाबी में पलटी और पी गई रोटी का आटा बचा नहीं था सो दाल पीकर ही पेट की आग को ठंडा कर लिया। चूल्हे की बुझ गई आग को देखते हुए खुद से ही बड़े सूफ़ी अंदाज़ में बोली- “चाहे जमाने की सारी आग बुझ जाए, मगर पेट की आग नहीं बुझती जब तक ज़िंदा रहना है तब तक इस आग को बुझाने के लिए जलना है।”

वह उठी और जाकर फिर ऊपर की खिड़की के पास बैठी गई। आज रात बहुत काली थी बिलकुल उसकी ज़िंदगी की तरह। नींद से उसका वास्ता दो साल हुए टूट सा गया है। बे ख़याली में आँख मिच जाए वह अलग बात है। उसने उचक कर टाड से धूल भरे कुछ काग़ज़ नीचे खींच लिए और बेताबी से उन्हें पलटने लगी। तभी उसकी पासपोर्ट साइज़ की तस्वीर उसे मिली उसे ले वह निर्विकार भाव से उसे ताकने लगी। उसे लगा ताहिर उसके क़रीब खड़ा है।कह रहा है- ” सोफ़ी मेरा इंतज़ार करना मैं ज़रूर लौटकर आऊँगा।” उसकी आँख भर आई उसका जी चाह रहा था, वह चीख़-चीख़ कर रो पड़े। मन के दबे गुबार को बाहर निकालने के लिए उसकी हिचकियाँ बंध गई। आज की सर्द रात में उसे आपने पापा की बहुत याद आ रही थी। वह उन दिनों में जा पहुँची जहाँ सब कुछ सुंदर था थोड़ा था पर बहुत प्यारा था।

उसकी माँ उन सबका साथ बहुत पहले ही छोड़ गईं थीं।उनकी धुँधली सी यादें थी जो उसके मनसपटल पर अंकित थी। भाई को तो उनकी शक्ल भी याद नहीं थी। भाई के पाँचवें जन्मदिन के एक हफ़्ते बाद ही एक सड़क दुर्घटना में वह चल बसी थीं। तब वह सात साल की थी। उस वक़्त उसके पापा ने बड़ी मुश्किल से अपनी टूटी गृहस्थी को संभाला था। लोगों ने बहुत कहा कि वह दूसरी शादी कर लें पर अपने बच्चों की वजह से उन्होंने दूसरी शादी करने से साफ़ मना कर दिया था। उन्हें अपनी बेटी का बहुत सहारा था। बहुत जल्दी ही वह छोटे से बड़ी हो गई और पापा का हाथ बटाना शुरू कर दिया। साल बीत रहे थे। पापा की कच्ची गृहस्थी उनकी छोटी सी बेटी ने बड़ी समझदारी के साथ संभाल ली थी। घर संभालने के चक्कर में वह पढ़ाई से दूर होती गई। हर बार नंबर कम आना और किसी न किसी विषय में फ़ेल हो जाना उसके लिए ही नहीं पापा के लिए भी बहुत परेशानी का कारण बन रहा था। उसके भाई का मन पढ़ाई में बहुत लगता था इस बात से पापा को बड़ी तसल्ली रहती थी। उसके बार-बार फ़ेल होने की वजह से वह और उसका भाई दोनों एक ही साल में दसवीं में आ पहुँचे थे। इधर दुकान में भी बहुत नुक़सान हो गया था। एक दिन पापा उससे बोले- “इस साल सोचा था तुम्हारा और बिट्टू दोनों का दाख़िला कोचिंग में करवा दूँगा पर दुकान के हालत इतने ख़राब हो गए हैं कि घर खर्चा के साथ दो लोगों का कोचिंग का ख़र्चा उठाना बहुत मुश्किल होगा।”

तभी उसने कहा था- “पापा आप बिट्टू की कोचिंग लगवा दीजिए वह पढ़ने में अच्छा है,थोड़ा सहारा मिलेगा तो आगे कुछ अच्छा ही करेगा।” पापा ने प्यार से उसके सर पर हाथ फिरा कर कहा था-“पता था तू यही कहेगी, ये ले पैसे कल भाई का दाख़िला करवा आना।” बिट्टू कोचिंग जाने लगा था। इम्तिहान पर इम्तिहान स्कूल में हो रहे थे और वह रोज़ ही फ़ेल हो रही थी। अब वह और ज़्यादा पढ़ाई से दिल चुराने लगी उसकी हालत उस धावक सी हो गई थी जो रेस में सबसे पीछे रह जाता है, तब वह दौड़ने की बजाय क़दम नापने लगता है। वह पढ़ाई को पढ़ नहीं रही थी बस किताबें उलट-पलट रही थी। कभी-कभी थोड़ा बहुत बिट्टू से पूछती भी तो वह कहता- “दीदी इसको समझाने के लिए तो पहले उसको समझना पड़ेगा और जब मैं तुम्हें वह सब समझाऊँगा तब खुद कब पढ़ूँगा?” उसे लगता ये सही कह रहा है। इसे परेशान नहीं करना चाहिए और वह अपनी किताबों को बंद कर चौके में कुछ ख़ास बनाने लगती।

एक शाम उसके पापा के साथ ही वह आया था। पापा ने उसका परिचय कराते हुए कहा था- “ ये ताहिर हैं। इनको ऊपर वाला कमरा किराए पर दे दिया है। तुम इन्हें ऊपर के कमरे की और पीछे वाले गेट की चाभी दे, दो उसी तरफ़ से इनका आना-जाना रहेगा।” चाभी देने के बाद उसने पापा से पूछा था- “पापा वह दूसरी जाती का है।आपने उसे मकान किराए पर दे दिया?” तब पापा बोले थे- “भला इतना टूटा हुआ कमरा कौन लेगा किराए पर फिर ये तो हज़ार रुपए दे रहा है। पास की ही केमिकल फ़ैक्ट्री में काम करता है। कोई बात नहीं वो उधर से ही आए-जाएगा हम लोगों को क्या करना है? बस किराए वक़्त पर दे दिया करे।” हुआ भी वही वह किराया वक़्त पर दे देता था। एक रोज़ वह छत पर थी तभी उसे किसी की आहट सुनाई दी उसने पलट कर देखा तो ताहिर अपने कमरे का दरवाज़ा खोल रहा था। ये देख उसने नीचे जाने की राह पकड़ी तो वह बोला- “दूसरी जाती का हूँ, पर आपको खा नहीं जाऊँगा।” वह कुछ बोलती उससे पहले ही ताहिर फिर बोला- “माफ़ करियेगा उस रोज़ मैंने आपकी बात सुन ली थी।” वह शर्म से गड़ गई उसे माफ़ी के लिए भी शब्द नहीं मिल रहे थे। वह बिना कुछ बोले वापस मुड़ गई तभी ताहिर ने पीछे से आवाज़ देकर कहा- ”ज़रा सुनिए तो सोफ़ी जी!” अब वह पलटी और बोली-“मेरा नाम सोफ़ी नहीं है सुमन है।” वह बोला - “बड़ा प्यारा नाम है।”

सुमन तेज़ी से नीचे उतर गई उस रात कई बार ताहिर की आवाज़ उसके कानों से टकराती रही।

सुबह से दिन रोज़ की ही तरह ही रहा पर शाम को वह फिर उदास हो गई थी। क्लास में टीचर ने आज उसे बहुत डाँटा था।बोली थीं कि- “सुमन तुम दसवी की परीक्षा में तब तक नहीं बैठ पाओगी जब तक अगला टेस्ट पास नहीं कर लोगी।” पापा को जब पता चला तो वह परेशान होकर बोले- “ घर की वजह से तुम पढ़ नहीं पाई आज-कल तो बिना पढ़े-लिखे अच्छे घर में शादी भी नहीं होती।” वह बोली-“ पापा आप परेशान मत होईये मैं पूरा ध्यान लगा कर पढूगी, पर पापा क्या करूँ? कुछ भी समझ में ही नहीं आता है और स्कूल में भी कोई पीछे का नहीं बताता है।” तभी दरवाज़े पर खड़ा वह बोला-“क्या समझ नहीं आता बताइए मैं पढ़ा दिया करूँगा अगर आप पढ़ना चाहें।” पापा बोले- “कितनी फ़ीस होगी आपकी?” वह बोला था-“ बस एक कप चाय हाँ, मगर अदरक वाली।” पापा बोले- “ अरे, ऐसा क्या है आप बिस्किट भी खाइएगा बस सुमन की मदद कर दीजिए वह किसी तरह पास हो जाए।” फिर थोड़ा रुकते हुए बोले- “दुकान के हालात कुछ ज़्यादा ही बिगड़े चल रहे हैं। माल उठाने के लिए जो क़र्ज़ा लिया था सारी कमाई उसी को चुकता करने में ख़त्म हो जाती है। हाथ खुलते ही मैं आपका किराया कम कर दूँगा या फ़ीस दे दूँगा।” तब वह बोला- “जी मैं कोई शिक्षक तो हूँ नहीं जो कोचिंग चलाता हूँ, और आपको फ़ीस के लिए परेशान करूँ। अरे, मुझे जितना आता है उससे इनकी मदद कर दूँगा। फिर इल्म तो देने से और निखरता है ऐसा मेरे अब्बू कहते हैं।” उस दिन से ताहिर रोज़ उसे पढ़ाने लगे वह भी बहुत ध्यान से उनकी बात सुनती और समझती। ताहिर उसे छोटी सी छोटी चीज़ भी बता देता उसकी की हुई हिंदी की मात्रा की ग़लतियों से लेकर अंग्रेज़ी के वावेल, इतिहास भूगोल सब पढ़ा रहा था।

अब जब उसे कुछ-कुछ समझ आने लगा था तब पढ़ाई भी अच्छी लगने लगी थी। साथ ही ताहिर भी अच्छा लगने लगा था। उस रोज़ कॉपी के पीछे के पन्ने पर उसने ताहिर लिखा फिर अपना नाम लिखकर एक-एक अक्षर पर अपनी उँगलिया फिराने लगी। तभी बिट्टू ने आकर कहा-“दीदी, नाश्ता दे,दो। आज कोचिंग देर तक चलेगी।” कॉपी बंद कर वह उसे नाश्ता देने लगी उसकी पसंद की मैगी बनाकर उसे देते वक़्त उसने थोड़ी सी उसमें से बचा ली तो बिट्टू बोला- “दीदी बचा क्यों ली? तुम तो मैगी खाती नहीं हो?” वह बोली- वो ताहिर सर पढ़ाने आयेंगे तो उनको दे दूँगी।” अपनी प्लेट उठाते हुए बिट्टू बोला- “ बात सिर्फ़ चाय की हुई थी दीदी।” उसने उसे हल्की सी धौल जमाते हुए कहा- “बिट्टू, नन ओफ़ योर बिज़नेस।” बिट्टू उसे देखते हुए बोला- “ वाह! दीदी तुम तो अंग्रेज़ी सीख गई हो बढ़िया है। पर बिज़नेस की स्पेल्लिंग भी आती है तुम्हें?” उसने ज़ोर से कहा- “yes, BUSINESS” और रटी हुई पूरी स्पेल्लिंग बोल दी बिट्टू अपनी दीदी से जाकर लिपट गया और बोला- “ दीदी ताहिर अंकल को मैगी खिलाना तो बनता है ज़रूर खिलाइए।” अपना बैग ले वह अपनी कोचिंग चला गया। थोड़ी देर बाद ही ताहिर आ गया और पूछा- “पढ़ाई करनी है या छुट्टी?” मैगी की कटोरी उसके पास रखते हुए उसने कहा- “ज़रूर करनी हैं। पर पहले आप ये खा लीजिए नहीं तो ठंडी हो जाएगी।” कटोरी हाथ में लेते हुए वह बोला- “तुम्हें कैसे पता कि मुझे मैगी बहुत पसंद है?” सुमन बोली- “मुझे पता नहीं था बिट्टू के लिए बनाई तो आपके लिए भी रख ली थोड़ी सी, अभी चाय भी बनाती हूँ।” उसने उसे रोकते हुए कहा- “चाय नहीं पीनी है।” सुमन ने उसे सवालिया नज़रों से देखा वह कटोरी साइड में रखते हुए बोला-“तुम उतनी देर के लिए यहाँ से चली जाओगी जो मुझे मंज़ूर नहीं।” वह बोली- बस दो मिनट लगेंगे मैंने पानी पहले ही चढ़ा दिया है।” कहती हुई वह उठ खड़ी हुई तभी ताहिर ने सुमन का दुपट्टा पकड़ लिया वह अचकचा गई ताहिर ने धीरे-धीरे उसके दुपट्टे को खींचना शुरू किया उसने कसकर दुपट्टा अपने हाथों में भींच लिया तभी ताहिर ने एकदम से दुपट्टा छोड़ दिया और बोला- “जाओ मगर जल्दी आओ बहुत कोर्स बाक़ी है अभी।” सुमन तेज़ी से चाय लेने रसोई में गई उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था पर उसे बुरा नहीं लग रहा था।जब चाय लेकर वह लौटी तो उसने वही पन्ना सुमन के सामने रखते हुए कहा- “ ताहिर के साथ मुझे तो सोफ़ी नाम पसंद है तभी मैं तुम को सोफ़ी कहता हूँ।” शर्म से नीचे सर किए हुए सुमन बोली- “तो कहिए न।” उसने उसे खींचकर अपनी बाहों में जकड़ लिए वह भी उसकी आगोश में खोती चली गई।

अब उन्हें पढ़ाई के साथ ही साथ एकांत की भी ज़रूरत रहने लगी। इम्तिहान शुरू हुए और सुमन के पेपर भी ठीक- ठाक होने लगे। अब एक ही डर था कि अब वह दोनों मिल नहीं पाया करेंगे। उस रोज़ अंतिम पेपर के बाद वह दोनों छत पर एक दूसरे की बाहों में थे। तभी अचानक सुमन को ढूँढते उसके पापा छत पर आ गए उन दोनों को इतने क़रीब देखकर ग़ुस्से में आग बबूला होकर सुमन को थप्पड़ मारते हुए नीचे भेज दिया और ताहिर को तुरंत कमरा खाली करने को बोल नीचे आकर बिट्टू के सामने ही उसे ज़लील करने लगे। शर्म तो जैसे सुमन में रह ही नहीं गई थी। उसे तो बस इश्क़ हो चला था बिना कुछ भी सोचे-समझे बिना अंजाम जाने ही वह तो ताहिर की हो गई थी। घंटे भर में ही ताहिर अपना सामान समेट जाने को हुआ तो वह बोली-“पापा मुझे ताहिर से प्यार है।”

पापा ने क्रोध से उबलते हुए कहा- “ बैठ अंदर उतारता हूँ तेरा सारा प्यार।” उसी रात ताहिर फिर आया वह तो जाग ही उसी के इंतज़ार में रही थी। बिना कुछ सोचे-समझे उसने अपने क़दम घर से बाहर निकाल दिए।

सुबह तक वह ताहिर के साथ उसके गाँव में थी। ताहिर की अम्मी ने ताहिर को कोसना शुरू कर दिया था पर उसके अब्बा ने मौलवी बुला कर उनका निकाह कबूल करवा दिया था। तीसरे ही दिन उसके पापा उसे खोजते हुए वहाँ आ पहुँचे थे। ताहिर के अब्बा ने कहा था- “निकाह हो चुका है अब कुछ नहीं हो सकता फिर दोनों बालिग़ भी हैं और एक दूसरे को चाहते है।” यह सुन पापा ने ग़ुस्से से उन्हें धक्का दे दिया वह पास रखे नुकीले पत्थर पर जा गिरे तेज़ी से गिरने की वजह से उनका सिर फट गया और वहीं उनकी मौत हो गई। उन्हें गाँव वालों ने बहुत पीटा और पुलिस के हवाले कर दिया। उन्हें जेल हो गई। उन्होंने भी ताहिर के ख़िलाफ़ रिपोर्ट कर दी कि उनकी बेटी को बरगला कर और उनके घर के ज़ेवर लेकर वह भाग गया है।

ताहिर उसे अपनी अम्मी की ज़िम्मेदारी देकर यहाँ से यह कहकर भाग गया कि मामला शांत होते ही वह आ जाएगा वह उसका इंतज़ार यहीं रहकर करे।

बिट्टू उसकी शक्ल से भी नफ़रत करता है। ताहिर की अम्मी भी उसे पसंद नहीं करती क्योंकि उसकी वजह से वह बेवा हुई है। दो साल हो गए हैं ताहिर अभी तक नहीं आया है। आज भी वह उसका इंतज़ार ही कर रही है। कल ही गाँव के कुछ लोग कह रहे थे ताहिर को भी पुलिस ने पकड़ लिया है। उसके पापा और बिट्टू किस हाल में हैं वह नहीं जानती कोई भी उससे मिलना नहीं चाहता। पर उसका यक़ीन उससे कहता है, एक न एक दिन ताहिर ज़रूर वापस आएगा। और उसकी बदरंग हो चुकी ज़िंदगी में ज़रूर रंग भर देगा।

रात सरक कर अपने बिछौने में दुबक गई और सवेरे ने अपना बिस्तरा छोड़ दिया। सोफ़ी भी खुद को समेटते हुए ज़िंदगी के एक और आज को जीने के लिए उठ खड़ी हुई।तभी खिड़की के उस ओर से किसी ने उसके मटमैले दुपट्टे को थाम लिया वह सिहर उठी। सामने बिट्टू का हाथ थामें ताहिर खड़ा था। वह कुछ बोलती उससे पहले ही ताहिर बोला- “ सोफ़ी, हमारे लिए फ़ैसले का असर हमारे अपनों पर भी होता है। काश! हम ये पहले समझ पाते।”

ज्योत्सना

लखनऊ