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एक दुनिया अजनबी - 39

एक दुनिया अजनबी

39-

रास्ते में आते हुए सुनीला ने एक जगह गाड़ी रुकवाई थी जहाँ वह कम्मो नाम की किसी किन्नर से मिली, प्रखर को भी मिलवाया |

"प्रखर ! अब जो लोग कुछ अलग काम करना चाहते हैं उन्हें रोका नहीं जाता बल्कि सपोर्ट ही दी जाती है ---जो पढ़ना चाहते हैं, उन्हें पढ़ाया भी जाता है ? "

कम्मो ने पाँचेक साल से ही अपना जेंट्स व लेडीज़ कपड़ों का शो-रूम खोला था जो बरोडा की सीमा से लगा हुआ था | कम्मो इस प्रकार का नाचना-गाना करने का काम करना नहीं चाहती थी | इसलिए उसे सिलाई-कढ़ाई सिखाई गई और फिर उन दो और किन्नरों की सहायता से कम्मो को छोटे पैमाने पर यह शो-रूम रूम खुलवाया जो दो साल में ही काफ़ी चल निकला था |

"यहाँ कम्युनिटी से बाहर के लोग भी आते हैं ? "प्रखर शायद अभी तक भी आश्वस्त नहीं था |

"बिलकुल आते हैं | इनका सामान इतना अच्छा होता है, इतनी वेराइटीज़ होती हैं कि अब इनके कस्टमर्स बँध गए हैं | "

"भैया जी, ऊपर हमने दो दर्ज़ी भी बैठाए हुए हैं जो साथ के साथ ही तुरंत कस्टमर्स को कपड़े का नाप ठीक करके दे देते हैं |"कम्मो ने बहुत उत्साह से बताया था |

कम्मो लगभग पैंतीस उम्र की होगी, काफ़ी स्मार्ट पर बेबाक़ थी, सभ्य भी ! प्रखर सोच रहा था कितना ग़लत सोचता रहा है वह इन सबके बारे में !

'बहुत अच्छा बदलाव है यह समाज में, प्रखर को वाक़ई में बहुत अच्छा लग रहा था |

उसे लगता था मुफ़्त का खाने के चक्कर में यह वर्ग ढोलक पीटता हुआ कहीं भी चला जाता है, अब पता चला ऐसा नहीं था | जैसे-जैसे उसके सामने बातें खुल रही थीं, उसे समझ आ रहा था कि इनमें करुणा और मानवता आम इंसान से कहीं अधिक है | हम अपनेको ‘बहुत खूब!’ समझने वाले छोटी सोच के लोग उन्हें आम इंसान भी नहीं समझते !

शहर से काफ़ी दूर निकलकर नासिक हाई-वे पर एक होटल कम रेस्टोरेंट स्थित था, नाम था--'आश्वस्ति'

"बड़ा क्लासिक नाम है ---" गाड़ी से उतरते ही जैसे ही प्रखर की दृष्टि सुंदर से बोर्ड पर पड़ी उसके मुख से अचानक निकला |

"हम सभी क्लासिक हैं, न समझे कोई तो न सही ---" सुनीला ने हँसकर कहा |

"मंदा मौसी होटल में रहती हैं ? " प्रखर के मुख से निकला |

"यार, तुम्हें हर बात की जल्दी क्यों रहती है ? ज़रा ठहराव लाना सीखो जीवन में ---" सुनीला उसे बहुत छेड़ने लगी थी |

प्रखर को लगता मानो शुजा और पंक्ति, उसकी बालपन की बहुत प्यारी दोस्त फिर से एक बार उसके साथ जुड़ गई हैं | एक पुराना लगाव सा महसूस करता वह !

प्रखर ने अब अच्छी तरह आँखें खोलकर चारों ओर देखा |खूब खुले सुन्दर से स्थान पर अच्छी-ख़ासी बड़ी दुमंज़िली बिल्डिंग थी | देखकर ही पता चल रहा था होटल व रेस्टोरेंट बढ़िया चल रहे हैं | बाहर ख़ूबसूरत बगीचा बनाया गया था जिसमें फूलों के पेड़ कम थे किन्तु हरा-भरा खूब था | लॉन में कुर्सी-मेज़ों को सलीके से सजाया गया था |

सबसे बड़ी बात सफ़ाई व खूबसूरती का बहुत ध्यान रखा गया था | 'हाई-वे' से गुज़रने वाले लोगों के लिए चाय-पानी, नाश्ते की व्यवस्था के साथ रात में ठहरने के लिए ऊपर लगभग दस 'ए.सी.' कमरे बने हुए थे |

बगीचे के सामने बरामदा था जिसमें पतली बाँस की चिकें पड़ी थीं जिनके अंदर के भाग में हल्के हरे रंग का कपड़ा था और जिस पर खूब गहरे हरे रंग के धागे से पतली लंबी -लंबी बेलों जैसी कढ़ाई की गई थी या फिर पेंट किया गया था जो वातावरण में एक सुरम्यता प्रसृत कर रहा था | इस समय चिकें ऊपर की ओर रोल कर दी गईं थीं |संभवत: इनको मौसम की आवश्यकतानुसार खोला जाता होगा |

प्रखर ने ऎसी व्यवस्था तो बड़े रेस्टॉरेंट्स में भी न देखी थी | जब वह अपने परिवार के साथ कहीं पहाड़ी प्रदेश में घूमने जाया करता था तब हमेशा बेहतरीन स्थानों पर ही बच्चों को ले जाता था | बीते हुए लम्हे उसकी दृष्टि में कुलबुलाने लगे, उसके प्यारे से बच्चे उसके सामने घूमने लगे |उनका बात-बेबात ज़िद करना और जहाँ तक हो सके उनकी ज़िद में ख़ुशी पाना --कितना-कुछ पीछे छूट गया था |